शनिवार, 21 अक्टूबर 2023

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 21 Oct 2023

बुद्धिमान उन्हें कहते हैं जो उचित और अनुचित का सही निर्णय कर सकें। ऐसी प्रखर बुद्धि को मेधा, प्रज्ञा एवं विवेक कहते हैं। जिन्हें यह प्राप्त है, वे सच्चे अर्थों में कहे जाने वाले बुद्धिमान भगवान तक सरलता पूर्वक पहुँच जाते हैं। अन्यथा वासना युक्त मन की तरह अन्धानुकरण करने वाली, बहुमत को ही सब कुछ मानने वाली बुद्धि ही एक खाई खन्दक है। ऐसे लोग बुद्धिमान कहलाते हुए भी वस्तुतः होते मूर्ख ही हैं।

कुमार्ग पर चलकर तुरन्त लाभ उठाने वालों की ही संसार में भरमार है। बस, वे ही सब कुछ दीखते हैं। वे ही गवाह हैं, जिनके आधार पर बुद्धि फैसला करती है। अपनी भ्रमग्रस्त बुद्धि झूठे गवाहों की उपस्थिति में वैसा ही निर्णय भी लेती है अन्धी भेड़ें एक के पीछे एक चलती हैं और खड्डे में गिरती जाती हैं। यही स्थिति अपनी बुद्धि की भी है। स्वतन्त्र बुद्धि से विवेक पूर्ण निर्णय लेने वाले और जो उचित है, उसी को अपनाने वाले इस दुनिया में कम ही हैं, जिन्हें आत्मा और परमात्मा दो की गवाहियाँ ही पर्याप्त होती हैं।

कामनाग्रस्त मन और भ्रमग्रस्त बुद्धि जिन्हें मिली है, वे इन्हीं दो जाल-जंजालों में उलझे-फँसे रहकर चिड़िया, मछली, हिरन की तरह अपनी दुर्गति कराते रहते हैं। वैसी ही दुर्गति मलीन मन और दुर्बुद्धिग्रस्तों की होती है। इन दोनों को भगवान के बारे में सही सोचने का अवसर तक नहीं मिलता, फिर उसकी उपलब्धि कैसे हो? वे पूजा-पत्री, उपहार, मनुहार के खेल-खिलवाड़ करके भगवान को बहकाने-फुसलाने का प्रयत्न करते रहते हैं और उस विडम्बना को करते रहने पर भी खाली हाथ रहते हैं।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 जप में ध्यान द्वारा प्राणप्रतिष्ठा (भाग 2)

जप के साथ ध्यान का अनन्य संबंध है। नाम और रूप का जोड़ा है। दोनों को साथ-साथ लेकर ही चलना पड़ता है। अर्थ-चिंतन एक स्वतंत्र साधना है। गायत्री के एक-एक शब्द में सन्निहित अर्थ और भाव पर पाँच-मिनट भी विचार किया जाए तो एक बार पूरा एक गायत्री मंत्र करने में कम-से-कम आधा या एक घंटा लगना चाहिए। अधिक तन्मयता से यह अर्थ-चिंतन किया जाए तो पूरे एक मंत्र की भावनाएँ हृदयंगम करने में कई घंटे लग सकते हैं। मंत्रजप उच्चारण जितनी जल्दी से हो जाता है, उतनी जल्दी उसके शब्दों का अर्थ ध्यान में नहीं लाया जा सकता। इसलिए जप के साथ अर्थ-चिंतन की बात सर्वथा अव्यावहारिक है। अर्थ-चिंतन तो एक स्वतंत्र साधना है जिसे जप के समय नहीं, वरन् कोई अतिरिक्त समय निकालकर करना चाहिए।

जप योग-साधना का एक अंग है। योग चित्तवृत्तियों के निरोध को कहते हैं। ज पके समय चित्त एक लक्ष्य में लगा रहना चाहिए। यह कार्य ध्यान द्वारा ही संभव है। इसलिए विज्ञ उपासक जप के साथ ध्यान किया करते है। ‘नाम’ के साथ ‘रूप’ की संगति मिलाया करते हैं। यही तरीका सही भी है।

साधना की आरंभिक कक्षा साकार उपासना से शुरू होती है और धीरे-धीरे विकसित होकर वह निराकार तक जा पहुँचती है। मन किसी रूप पर ही जन्मता है, निराकार का ध्यान पूर्ण परिपक्व में नहीं कर सकता है, आरंभिक अभ्यास के लिए वह सर्वथा कठिन है। इसलिए साधना का आरंभ साकार उपासना से और अंत निराकार उपासना में होता है। साकार और निराकार उपासनाएँ दो कक्षाएँ है। आरंभ में बालक पट्टी पर खड़िया और कलम से लिखना सीखता है, वही विद्यार्थी कालाँतर में कागज, स्याही और फाउण्टेन पेन से लिखने लगता है। दोनों स्थितियों में अंतर तो है, पर इसमें कोई विरोध नहीं है। जो लोग निराकार और साकार का झगड़ा उत्पन्न करते हैं वे ऐसे ही हैं, जैसे पट्टी-खड़िया और कागज-स्याही को एक दूसरे का विरोध बताने वाले।

जब तक तन स्थिर न हो तब तक साकार उपासना करना उचित है। गायत्री जप के साथ माता का एक सुँदर नारी के रूप में ध्यान करना चाहिए। माता के चित्र गायत्री परिवार द्वारा प्रकाशित हुए हैं, पर यदि उनसे भी सुँदर चित्र किसी चित्रकार की सहायता से बनाए जा सकें तो उत्तम हो। सुँदर-से-सुँदर आकृति की कल्पना करके उसे अपनी सगी माता मानकर जप करते समय अपने ध्यान क्षेत्र में प्रतिष्ठित करना चाहिए।

📖 अखण्ड ज्योति – मई 2005 पृष्ठ 20

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