बुद्धिमान उन्हें कहते हैं जो उचित और अनुचित का सही निर्णय कर सकें। ऐसी प्रखर बुद्धि को मेधा, प्रज्ञा एवं विवेक कहते हैं। जिन्हें यह प्राप्त है, वे सच्चे अर्थों में कहे जाने वाले बुद्धिमान भगवान तक सरलता पूर्वक पहुँच जाते हैं। अन्यथा वासना युक्त मन की तरह अन्धानुकरण करने वाली, बहुमत को ही सब कुछ मानने वाली बुद्धि ही एक खाई खन्दक है। ऐसे लोग बुद्धिमान कहलाते हुए भी वस्तुतः होते मूर्ख ही हैं।
कुमार्ग पर चलकर तुरन्त लाभ उठाने वालों की ही संसार में भरमार है। बस, वे ही सब कुछ दीखते हैं। वे ही गवाह हैं, जिनके आधार पर बुद्धि फैसला करती है। अपनी भ्रमग्रस्त बुद्धि झूठे गवाहों की उपस्थिति में वैसा ही निर्णय भी लेती है अन्धी भेड़ें एक के पीछे एक चलती हैं और खड्डे में गिरती जाती हैं। यही स्थिति अपनी बुद्धि की भी है। स्वतन्त्र बुद्धि से विवेक पूर्ण निर्णय लेने वाले और जो उचित है, उसी को अपनाने वाले इस दुनिया में कम ही हैं, जिन्हें आत्मा और परमात्मा दो की गवाहियाँ ही पर्याप्त होती हैं।
कामनाग्रस्त मन और भ्रमग्रस्त बुद्धि जिन्हें मिली है, वे इन्हीं दो जाल-जंजालों में उलझे-फँसे रहकर चिड़िया, मछली, हिरन की तरह अपनी दुर्गति कराते रहते हैं। वैसी ही दुर्गति मलीन मन और दुर्बुद्धिग्रस्तों की होती है। इन दोनों को भगवान के बारे में सही सोचने का अवसर तक नहीं मिलता, फिर उसकी उपलब्धि कैसे हो? वे पूजा-पत्री, उपहार, मनुहार के खेल-खिलवाड़ करके भगवान को बहकाने-फुसलाने का प्रयत्न करते रहते हैं और उस विडम्बना को करते रहने पर भी खाली हाथ रहते हैं।
कुमार्ग पर चलकर तुरन्त लाभ उठाने वालों की ही संसार में भरमार है। बस, वे ही सब कुछ दीखते हैं। वे ही गवाह हैं, जिनके आधार पर बुद्धि फैसला करती है। अपनी भ्रमग्रस्त बुद्धि झूठे गवाहों की उपस्थिति में वैसा ही निर्णय भी लेती है अन्धी भेड़ें एक के पीछे एक चलती हैं और खड्डे में गिरती जाती हैं। यही स्थिति अपनी बुद्धि की भी है। स्वतन्त्र बुद्धि से विवेक पूर्ण निर्णय लेने वाले और जो उचित है, उसी को अपनाने वाले इस दुनिया में कम ही हैं, जिन्हें आत्मा और परमात्मा दो की गवाहियाँ ही पर्याप्त होती हैं।
कामनाग्रस्त मन और भ्रमग्रस्त बुद्धि जिन्हें मिली है, वे इन्हीं दो जाल-जंजालों में उलझे-फँसे रहकर चिड़िया, मछली, हिरन की तरह अपनी दुर्गति कराते रहते हैं। वैसी ही दुर्गति मलीन मन और दुर्बुद्धिग्रस्तों की होती है। इन दोनों को भगवान के बारे में सही सोचने का अवसर तक नहीं मिलता, फिर उसकी उपलब्धि कैसे हो? वे पूजा-पत्री, उपहार, मनुहार के खेल-खिलवाड़ करके भगवान को बहकाने-फुसलाने का प्रयत्न करते रहते हैं और उस विडम्बना को करते रहने पर भी खाली हाथ रहते हैं।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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