बुधवार, 25 अक्टूबर 2023

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 25 Oct 2023

जिन्हें किसी प्रकार का नेतृत्व निबाहना हो, उन्हें सर्वसाधारण की अपेक्षा अधिक वरिष्ठ और अति विशिष्ठ होना चाहिए। आत्म-परिष्कार की कसौटी पर कसकर स्वयं को इतना खरा बना लेना चाहिए कि किसी को अंगुली उठाने का अवसर ही न मिले। परीक्षा की इस घड़ी में यहां जांच खोज हो रही है कि यदि कहीं मानवता जीवित होगी, तो वह इस नवनिर्माण के पुण्य-पर्व पर अपनी जागरूकता और सक्रियता का परिचय दिये बिना न रहेगी।

आप यह कभी न सोचिए कि एक मैं ही पूर्ण हूं, मुझमें ही सब योग्यताएं हैं, मैं ही सब कुछ हूं, सबसे श्रेष्ठ हूं; वरन् यह सोचिए कि मुझमें भी कुछ है, में भी मनुष्य हूं, मेरे अन्दर जो कुछ है उसे मैं बढ़ा सकता हूं, उन्नत और विकसित कर सकता हूं।

हमारी परम्परा पूजा-उपासना की अवश्य है, पर व्यक्तिवाद की नहीं। अध्यात्म को हमने सदा उदारता, सेवा और परमार्थ की कसौटी से कसा है और स्वार्थी को खोटा और परमार्थी को खरा कहा है। जो हमारे हाथ में लगी हुई मशाल को जलाये रखने में अपना हाथ लगा सकें, हमारे कंधों पर लदे हुए बोझ को हलका करने में अपना कंधा लगा सकें, ऐसे ही लोग हमारे प्रतिनिधि या उत्तराधिकारी होंगे।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 जप में ध्यान द्वारा प्राणप्रतिष्ठा (अन्तिम भाग)

उपरोक्त ध्यान गायत्री उपासना की प्रथम भूमिका में आवश्यक है। भजन के साथ भाव की मात्रा भी पर्याप्त होनी चाहिए। इस ध्यान को कल्पना न समझा जाए, वरन् साधक अपने को वस्तुतः उसी स्थिति में अनुभव करे और माता के प्रति अनन्य प्रेमभाव के साथ तन्मयता अनुभव करे। इस अनुभूति की प्रकटता में अलौकिक आनंद का रसास्वादन होता है और मन निरंतर इसी में लगे रहने की इच्छा करता है। इस प्रकार मन को वश में करने और एक ही लक्ष्य में लगें रहने की एक बड़ी आवश्यकता सहज ही पूरी हो जाती है।

साधना की दूसरी भूमिका तब प्रारंभ होती है, जब मन की भाग-दौड़ बंद हो जाती है और चित्त जप के साथ ध्यान में संलग्न रहने लगता है। इस स्थिति को प्राप्त कर लेते पर चित्त को एक सीमित केंद्र पर एकाग्र करने की और कदम बढ़ाना पड़ता है। उपर्युक्त ध्यान के स्थान पर दूसरी भूमिका में साधक सूर्यमंडल के प्रकाश में गायत्री माता के सुँदर मुख की झाँकी करता है। उसे समस्त विश्व में केवल मात्र एक पीतवर्ण सूर्य ही दीखता है और उसके मध्य में गायत्री माता का मुख हँसता-मुखमंडल को ध्यानावस्था में देखता है। उसे माता के अधरों से, नेत्रों से, कपोलों की रेखाओं से एक अत्यंत मधुर स्नेह, वात्सल्य, आश्वासन, साँत्वना एवं आत्मीयता की झाँकी होती रहती है। वह उस झाँकी होती रहती है। वह उस झाँकी को आनंदविभोर होकर देखता रहता है और सुधि-बुधि भुलाकर भुलाकर चंद्र-चकोर की भाँति उसी में तन्मय होता है।

इस दूसरी भूमिका की सीमा सीमित हो गई। पहली भूमिका में माता-पुत्र दोनों का क्रीड़ा विनोद काफी विस्तृत था। मन को भागने-दौड़ने के लिए उस ध्यान में बहुत बड़ा क्षेत्र पड़ा था। दूसरी भूमिका में वह संकुचित हो गया। सूर्यमंडल के मध्य माता की भावपूर्ण मुखाकृति पहले ध्यान की अपेक्षा काफी सीमित है। मन को एकाग्र करने की परिधि को आत्मिक विकास के साथ-साथ क्रमशः सीमित ही करते जाना होता है।

इस दूसरी भूमिका की सीमा सीमित हो गई। पहली भूमिका में माता-पुत्र दोनों का क्रीड़ा विनोद काफी विस्तृत था। मन को भागने-दौड़ने के लिए उस ध्यान में बहुत बड़ा क्षेत्र पड़ा था। दूसरी भूमिका में वह संकुचित हो गया। सूर्यमंडल के मध्य माता की भावपूर्ण मुखाकृति पहले ध्यान की अपेक्षा काफी सीमित है। मन को एकाग्र करने की परिधि को आत्मिक विकास के साथ-साथ क्रमशः सीमित ही करते जाना होता है।

📖 अखण्ड ज्योति – मई 2005 पृष्ठ 20

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