रविवार, 2 अप्रैल 2017
👉 अक्का महादेवी- जिसने वासना पर विजय पाई
🔵 कर्नाटक प्रांत के एक छोटे-से ग्राम उद्रुतडी में एक साधारण गृहस्थ के घर एक कन्या ने जन्म लिया-अक्का महादेवी उसका नाम रखा गया।
🔴 अक्का को उनके पिता श्री निर्मल ने संस्कृत की शिक्षा दिलाई। उससे धार्मिक संस्कार बल पा गए, उनके मन मे आध्यात्मिक जिज्ञासाएँ जोर पकड़ गई, उन्होंने सत्य की शोध का निश्चय कर लिया और उसी के फलस्वरूप वे ईश्वर-भक्ति, साधना और योगाभ्यास में लग गई।
🔵 आज हमें पाश्चात्य सभ्यता बंदी बना रही है। उन दिनों भारतवर्ष में मुस्लिम संस्कृति और सभ्यता की आँधी आई हुई थी। मुसलमान शासकों की दमन नीति से भयभीत भारतीय अपने धर्म अपनी संस्कृति को तेजी से छोड़ते जा रहे थे। ऐसे लोग थोडे़ ही रह गये जिनके मन में इस धार्मिक अवसान के प्रति चिंता और क्षोभ रहा हो, जिन्होंने अपने धर्म और संस्कृति के प्रति त्याग भावना का प्रदर्शन किया हो।
🔴 अक्का महादेवी-एक साधारण-सी ग्राम्य बाला ने प्रतिज्ञा की कि वह आजीवन ब्रह्मचारिणी रहकर, ईश्वर उपासना और समाज सेवा में रत रहकर अपने धार्मिक गौरव को बढायेगी।
🔵 अक्का का सौंदय वैसे ही अद्वितीय था, उस पर संयम और सदाचार की तेजस्विता की कांति सोने में सुहागा बन गई। उनके सौदर्य की तुलना राजकुमारियों से की जाने लगी।
🔴 तत्कालीन कर्नाटक के राजा कौशिक को अक्का महादेवी के अद्वितीय सौदर्य का पता चला तो उनके सामने विवाह का प्रस्ताव रखा। साधारण लोगों ने इसे अक्का का महान् सौभाग्य समझा पर अक्का ने उस प्रलोभन को भगवान् की उपस्थित की हुई परीक्षा अनुभव की। उन्होंने विचार करके देखा-सांसारिकता और धर्म-सेवा दोनों बातें एक साथ नहीं चल सकती। भोग और योग में कोई संबंध नहीं। यदि अपनी संस्कृति को जीवन देना है तो सांसारिक सुखोपभोग को बढ़ाया नहीं जा सकता।
🔵 इच्छाओं को बलिदान करके ही उस लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है। यह विचार आते ही उन्होने कौशिक का प्रस्ताव ठुकरा दिया।
🔴 जिनके उद्देश्य छोटे और तृष्णा-वासनाओं से घिरे हुए हों, वह बेचारे त्याग तपश्चर्या का महत्त्व क्या जान सकते हैं, कौशिक ने इसे अपना अपमान समझा। उसने अक्का के माता-पिता को बंदी बनाकर कारागार में डलवाकर एक बार पुन: संदेश भेजा- ''अब भी संबंध स्वीकार कर लो अन्यथा तुम्हारे माता-पिता का वध कर दिया जायेगा। ''
🔵 अक्का ने विचार किया-लोक में अपने माता-पिता, भाई-बंधु भी आते है। सबके कल्याण की बात सोंचें तो उनके ही कल्याण को क्यों भुलाऐं ? सचमुच यह बडा सार्थक भाव था उसे भुलाने का भाव ही पलायनवाद के रूप में इस देश में पनपा तो भी उन्होंने सूझ से काम लिया-इन्होंने एक शर्त पर प्रस्ताव स्वीकार कर लिया कि वह समाज-सेवा, संयम और साधना का परित्याग न करेगी। कौशिक ने यह बात मान ली।
🔴 विवाह उन्होंने कर लिया पर अपनी निष्ठा से अपने कामुक पति को बदलकर संत वना दिया। अक्का और कौशिक दोनों ने मिलकर अपने धर्म, अपनी संस्कृति का सर्वत्र खूब प्रसार किया, उसी का यह फल है कि कर्नाटक प्रांत अभी भी पाश्चात्य सभ्यता के बुरे रंग से बहुत कुछ बचा हुआ है।
🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे
🔴 अक्का को उनके पिता श्री निर्मल ने संस्कृत की शिक्षा दिलाई। उससे धार्मिक संस्कार बल पा गए, उनके मन मे आध्यात्मिक जिज्ञासाएँ जोर पकड़ गई, उन्होंने सत्य की शोध का निश्चय कर लिया और उसी के फलस्वरूप वे ईश्वर-भक्ति, साधना और योगाभ्यास में लग गई।
🔵 आज हमें पाश्चात्य सभ्यता बंदी बना रही है। उन दिनों भारतवर्ष में मुस्लिम संस्कृति और सभ्यता की आँधी आई हुई थी। मुसलमान शासकों की दमन नीति से भयभीत भारतीय अपने धर्म अपनी संस्कृति को तेजी से छोड़ते जा रहे थे। ऐसे लोग थोडे़ ही रह गये जिनके मन में इस धार्मिक अवसान के प्रति चिंता और क्षोभ रहा हो, जिन्होंने अपने धर्म और संस्कृति के प्रति त्याग भावना का प्रदर्शन किया हो।
🔴 अक्का महादेवी-एक साधारण-सी ग्राम्य बाला ने प्रतिज्ञा की कि वह आजीवन ब्रह्मचारिणी रहकर, ईश्वर उपासना और समाज सेवा में रत रहकर अपने धार्मिक गौरव को बढायेगी।
🔵 अक्का का सौंदय वैसे ही अद्वितीय था, उस पर संयम और सदाचार की तेजस्विता की कांति सोने में सुहागा बन गई। उनके सौदर्य की तुलना राजकुमारियों से की जाने लगी।
🔴 तत्कालीन कर्नाटक के राजा कौशिक को अक्का महादेवी के अद्वितीय सौदर्य का पता चला तो उनके सामने विवाह का प्रस्ताव रखा। साधारण लोगों ने इसे अक्का का महान् सौभाग्य समझा पर अक्का ने उस प्रलोभन को भगवान् की उपस्थित की हुई परीक्षा अनुभव की। उन्होंने विचार करके देखा-सांसारिकता और धर्म-सेवा दोनों बातें एक साथ नहीं चल सकती। भोग और योग में कोई संबंध नहीं। यदि अपनी संस्कृति को जीवन देना है तो सांसारिक सुखोपभोग को बढ़ाया नहीं जा सकता।
🔵 इच्छाओं को बलिदान करके ही उस लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है। यह विचार आते ही उन्होने कौशिक का प्रस्ताव ठुकरा दिया।
🔴 जिनके उद्देश्य छोटे और तृष्णा-वासनाओं से घिरे हुए हों, वह बेचारे त्याग तपश्चर्या का महत्त्व क्या जान सकते हैं, कौशिक ने इसे अपना अपमान समझा। उसने अक्का के माता-पिता को बंदी बनाकर कारागार में डलवाकर एक बार पुन: संदेश भेजा- ''अब भी संबंध स्वीकार कर लो अन्यथा तुम्हारे माता-पिता का वध कर दिया जायेगा। ''
🔵 अक्का ने विचार किया-लोक में अपने माता-पिता, भाई-बंधु भी आते है। सबके कल्याण की बात सोंचें तो उनके ही कल्याण को क्यों भुलाऐं ? सचमुच यह बडा सार्थक भाव था उसे भुलाने का भाव ही पलायनवाद के रूप में इस देश में पनपा तो भी उन्होंने सूझ से काम लिया-इन्होंने एक शर्त पर प्रस्ताव स्वीकार कर लिया कि वह समाज-सेवा, संयम और साधना का परित्याग न करेगी। कौशिक ने यह बात मान ली।
🔴 विवाह उन्होंने कर लिया पर अपनी निष्ठा से अपने कामुक पति को बदलकर संत वना दिया। अक्का और कौशिक दोनों ने मिलकर अपने धर्म, अपनी संस्कृति का सर्वत्र खूब प्रसार किया, उसी का यह फल है कि कर्नाटक प्रांत अभी भी पाश्चात्य सभ्यता के बुरे रंग से बहुत कुछ बचा हुआ है।
🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे
👉 उपासनाएँ सफल क्यों नहीं होतीं? (भाग 2)
🌹 नवरात्रि साधना के संदर्भ में विशेष -
🔴 भगवान और देवता कहाँ हैं? किस स्थिति में हैं? उनकी शक्ति कितनी है? इस तथ्य का सही निष्कर्ष यह है कि यह दिव्य चेतनसत्ता निखिल विश्वब्रह्माण्ड में व्याप्त है और पग-पग पर उनके समक्ष जो अणु-गति जैसी व्यस्तता के कार्य प्रस्तुत हैं, उन्हें पुरा करने में संलग्न हैं। उनके समक्ष असंख्य कोटि प्राणियों की, जड़-चेतन की बहुमुखी गतिविधियों को सँभालने का विशाल काय काम पड़ा है, सो वे उसी में लगी रहती हैं एक व्यवस्थित नियम और क्रम उन्हें इन ग्रह-नक्षत्रों की तरह कार्य संलग्नक रखता है।
🔵 व्यक्तिगत संपर्क में घनिष्ठता रखना और किसी की भावनाओं के उतार-चढ़ाव की बातों पर बहुत ध्यान देना उनके लिए समग्र रूप से सम्भव नहीं। वे ऐसा करती तो हैं, पर अपने एक अंश प्रतिनिधि के द्वारा। दिव्यसत्ताओं ने हर मनुष्य के भीतर उसके स्थूल-सूक्ष्म-कारण-शरीरों में अन्नमय कोश, प्राणमय कोश, मनोमय कोश, विज्ञानमय कोश, आनन्दमय कोश जैसे आवरणों में अपना एक-एक अंश स्थापित किया हुआ है और यह अंश प्रतिनिधि ही उन व्यक्ति की इकाई को देखता-सँभालता है। वरदान आदि की व्यवस्था इसी प्रतिनिधि द्वारा सम्पन्न होती है।
🔴 व्यक्ति की अपनी निष्ठा, श्रद्धा, भावना के अनुरूप ही यह देव अंश समर्थ बनते हैं। या दुर्बल रहते हैं। एक साधक की निष्ठा में गहनता और व्यक्तित्व में प्रखरता हो, तो उसका देवता समुचित पोषण पाकर अत्यन्त समर्थ दृष्टिगोचर होगा और साधक ही आशा-जनक सहायता करेगा। दूसरा साधक आत्मिक विशेषताओं से रहित हो तो उसके अंतरंग में अवस्थित देव अंश पोषण के अभाव में भूखा, रोगी, दुर्बल बनकर एक कोने में कराह रहा होगा। पूजा भी नकली दवा की तरह भावना-रहित होने से उस देवता को परिपुष्ट न बना सकेगी और वह विधिपूर्वक मंत्र-जप आदि करते हुए भी समुचित लाभ न उठा सकेगा।
🔵 विराट बाह्य कितना ही महान क्यों न हो, व्यक्ति की इकाई में वह उस प्राणी की परिस्थिति में पड़ा हुआ लगभग उससे थोड़ा ही अच्छा बनकर रह रहा होगा। अन्तरात्मा की पुकार निश्चित रूप से ईश्वर की वाणी है, पर वह हर अन्तःकरण में समान रूप में प्रबल नहीं होती। सज्जन के मस्तिष्क में मनोविकारों का एक झोंका घुस जाएँ, तो भी उसकी अन्तरात्मा प्रबल प्रतिकार के लिए उठेगी और उसे ऐसी बुरी तरह धिक्कारेगी कि पश्चाताप ही नहीं प्रायश्चित किये बिना भी चैन न पड़ेगा। इसके विपरीत दूसरा व्यक्ति जो निरन्तर क्रूर-कर्म ही करता रहता है, उनकी अन्तरात्मा यदाकदा बहुत हलका-सा प्रतिवाद ही करेगी और वह व्यक्ति उसे आसानी से उपेक्षित करता रहेगा।
🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🔴 भगवान और देवता कहाँ हैं? किस स्थिति में हैं? उनकी शक्ति कितनी है? इस तथ्य का सही निष्कर्ष यह है कि यह दिव्य चेतनसत्ता निखिल विश्वब्रह्माण्ड में व्याप्त है और पग-पग पर उनके समक्ष जो अणु-गति जैसी व्यस्तता के कार्य प्रस्तुत हैं, उन्हें पुरा करने में संलग्न हैं। उनके समक्ष असंख्य कोटि प्राणियों की, जड़-चेतन की बहुमुखी गतिविधियों को सँभालने का विशाल काय काम पड़ा है, सो वे उसी में लगी रहती हैं एक व्यवस्थित नियम और क्रम उन्हें इन ग्रह-नक्षत्रों की तरह कार्य संलग्नक रखता है।
🔵 व्यक्तिगत संपर्क में घनिष्ठता रखना और किसी की भावनाओं के उतार-चढ़ाव की बातों पर बहुत ध्यान देना उनके लिए समग्र रूप से सम्भव नहीं। वे ऐसा करती तो हैं, पर अपने एक अंश प्रतिनिधि के द्वारा। दिव्यसत्ताओं ने हर मनुष्य के भीतर उसके स्थूल-सूक्ष्म-कारण-शरीरों में अन्नमय कोश, प्राणमय कोश, मनोमय कोश, विज्ञानमय कोश, आनन्दमय कोश जैसे आवरणों में अपना एक-एक अंश स्थापित किया हुआ है और यह अंश प्रतिनिधि ही उन व्यक्ति की इकाई को देखता-सँभालता है। वरदान आदि की व्यवस्था इसी प्रतिनिधि द्वारा सम्पन्न होती है।
🔴 व्यक्ति की अपनी निष्ठा, श्रद्धा, भावना के अनुरूप ही यह देव अंश समर्थ बनते हैं। या दुर्बल रहते हैं। एक साधक की निष्ठा में गहनता और व्यक्तित्व में प्रखरता हो, तो उसका देवता समुचित पोषण पाकर अत्यन्त समर्थ दृष्टिगोचर होगा और साधक ही आशा-जनक सहायता करेगा। दूसरा साधक आत्मिक विशेषताओं से रहित हो तो उसके अंतरंग में अवस्थित देव अंश पोषण के अभाव में भूखा, रोगी, दुर्बल बनकर एक कोने में कराह रहा होगा। पूजा भी नकली दवा की तरह भावना-रहित होने से उस देवता को परिपुष्ट न बना सकेगी और वह विधिपूर्वक मंत्र-जप आदि करते हुए भी समुचित लाभ न उठा सकेगा।
🔵 विराट बाह्य कितना ही महान क्यों न हो, व्यक्ति की इकाई में वह उस प्राणी की परिस्थिति में पड़ा हुआ लगभग उससे थोड़ा ही अच्छा बनकर रह रहा होगा। अन्तरात्मा की पुकार निश्चित रूप से ईश्वर की वाणी है, पर वह हर अन्तःकरण में समान रूप में प्रबल नहीं होती। सज्जन के मस्तिष्क में मनोविकारों का एक झोंका घुस जाएँ, तो भी उसकी अन्तरात्मा प्रबल प्रतिकार के लिए उठेगी और उसे ऐसी बुरी तरह धिक्कारेगी कि पश्चाताप ही नहीं प्रायश्चित किये बिना भी चैन न पड़ेगा। इसके विपरीत दूसरा व्यक्ति जो निरन्तर क्रूर-कर्म ही करता रहता है, उनकी अन्तरात्मा यदाकदा बहुत हलका-सा प्रतिवाद ही करेगी और वह व्यक्ति उसे आसानी से उपेक्षित करता रहेगा।
🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
👉 उपासना के तत्व दर्शन को भली भान्ति हृदयंगम किया जाय (भाग 1)
🔵 साधना विधान का महत्वपूर्ण अंग है– उपासना। विडंबना यह है कि इस सम्बन्ध में जितने भ्रम−जंजाल फैले हैं उतने साधनादि अन्यान्य विषयों में नहीं। उपासना का दर्शन समझे बिना मात्र कर्मकाण्डों में उलझना एक प्रवंचना मात्र ही है। बहुसंख्य साधकों के साथ होता भी यही है। ऐसे व्यक्ति डींग तो बड़ी लम्बी−चौड़ी हाँकते हैं पर उपासना का कोई परिणाम उनके चिन्तन−चरित्र व्यवहार में परिलक्षित होता दीख नहीं पड़ता। लगता है या तो वह आधार गलत है जिस पर उपासना की गयी अथवा उपासना फलदायी होती ही नहीं। असफलता मिलने पर बहुतायत ऐसों की ही होती है जो अपने को नहीं, दोष दैव को−भाग्य को−देते देखे जाते हैं। प्रत्यक्ष मार्गदर्शन के अभाव में तथा श्रुतियों के भ्रम−जंजालों के कारण भोले साधना पारायण व्यक्ति भी इस विडंबना से ग्रस्त दुःखी होते देखे जाते हैं।
🔴 उपासना को सही अर्थों में समझाना हो तो पहले उसके अर्थ पर एक दृष्टि डाली जाय। उपासना अर्थात् उप−आसन। समीप बैठना। ईश्वर उपासना का अर्थ है ईश्वर का सामीप्य पाना– ईश्वर अर्थात् सद्.गुणों का समुच्चय आदर्शों से ओत−प्रोत परम सत्ता। ऐसी सत्ता जिसका वरण कर हम श्रेष्ठ बन सकें– वर्तमान स्थिति से स्वयं को ऊँचा उठा सकें। ईश्वर और जीवों में यों समीपता तो है, पर है वह उथली। जीव की सार्थकता तभी है जब उसका स्वरूप एवं स्तर भी उसी के अनुरूप ऊँचा उठे। शिश्नोदर परायण जीवन जीते हुए मनुष्य अपनी आस्थाओं को– आकाँक्षाओं को–दिव्य नहीं बना सकता। फिर तो उसे नर–कीट या नर–पशु ही कहना उचित होगा। कायिक विकास तो सभी कर लेते हैं, पर चेतना की दृष्टि से विकास न हो सका, ईश्वर का सामीप्य पाने की पात्रता न बन सकी तो आयु की दृष्टि से प्रौढ़ होते हुए भी ऐसे व्यक्ति अविकसित ही कहे जाएँगे।
🔵 पिछली योनियों की निकृष्टताओं से अपना पीछा छुड़ाने के लिये ही उपासना का, ईश्वर की समीपता का उपक्रम अपनाया जाता है। संगति का−समीप बैठने का– महत्व सर्वविदित है– चन्दन के समीप बहने वाली सुगन्धित पवन आस−पास के वृक्षों को भी वैसा ही सुरभित बना देती है। टिड्डा हरी घास में रहता है तो उसका शरीर वैसा ही हो जाता है और जब सूखी घास में रहता है तो पीला पड़ जाता है। महामानवों का सामीप्य पाने वाले उनकी शक्ति से–संगति से– लाभान्वित होते, उन्हीं गुणों से ओत−प्रोत होते देखे जाते हैं। महात्मा गाँधी एकाकी सत्ता के रूप में विकसित हुए पर इस वट वृक्ष के नीचे पलने – बढ़ने वाले पटेल, जवाहर, लाल बहादुर बने। यह संगति का सामीप्य का ही प्रतिफल है। कीट−भँगी का तद्रूपता का उदाहरण सुप्रसिद्ध है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 -अखण्ड ज्योति – मार्च 1982 पृष्ठ 2
🔴 उपासना को सही अर्थों में समझाना हो तो पहले उसके अर्थ पर एक दृष्टि डाली जाय। उपासना अर्थात् उप−आसन। समीप बैठना। ईश्वर उपासना का अर्थ है ईश्वर का सामीप्य पाना– ईश्वर अर्थात् सद्.गुणों का समुच्चय आदर्शों से ओत−प्रोत परम सत्ता। ऐसी सत्ता जिसका वरण कर हम श्रेष्ठ बन सकें– वर्तमान स्थिति से स्वयं को ऊँचा उठा सकें। ईश्वर और जीवों में यों समीपता तो है, पर है वह उथली। जीव की सार्थकता तभी है जब उसका स्वरूप एवं स्तर भी उसी के अनुरूप ऊँचा उठे। शिश्नोदर परायण जीवन जीते हुए मनुष्य अपनी आस्थाओं को– आकाँक्षाओं को–दिव्य नहीं बना सकता। फिर तो उसे नर–कीट या नर–पशु ही कहना उचित होगा। कायिक विकास तो सभी कर लेते हैं, पर चेतना की दृष्टि से विकास न हो सका, ईश्वर का सामीप्य पाने की पात्रता न बन सकी तो आयु की दृष्टि से प्रौढ़ होते हुए भी ऐसे व्यक्ति अविकसित ही कहे जाएँगे।
🔵 पिछली योनियों की निकृष्टताओं से अपना पीछा छुड़ाने के लिये ही उपासना का, ईश्वर की समीपता का उपक्रम अपनाया जाता है। संगति का−समीप बैठने का– महत्व सर्वविदित है– चन्दन के समीप बहने वाली सुगन्धित पवन आस−पास के वृक्षों को भी वैसा ही सुरभित बना देती है। टिड्डा हरी घास में रहता है तो उसका शरीर वैसा ही हो जाता है और जब सूखी घास में रहता है तो पीला पड़ जाता है। महामानवों का सामीप्य पाने वाले उनकी शक्ति से–संगति से– लाभान्वित होते, उन्हीं गुणों से ओत−प्रोत होते देखे जाते हैं। महात्मा गाँधी एकाकी सत्ता के रूप में विकसित हुए पर इस वट वृक्ष के नीचे पलने – बढ़ने वाले पटेल, जवाहर, लाल बहादुर बने। यह संगति का सामीप्य का ही प्रतिफल है। कीट−भँगी का तद्रूपता का उदाहरण सुप्रसिद्ध है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 -अखण्ड ज्योति – मार्च 1982 पृष्ठ 2
👉 नवरात्रि साधना का तत्वदर्शन (भाग 4)
🔴 मित्रों! मैं आपको इस नवरात्रि अनुष्ठान के बारे में
बताते हुए मूलभूत सिद्धान्तों की समीक्षा कर रहा था। यहाँ हमने आपको दबोचा
है क्यों? क्योंकि आप अपने सोचने के तरीके से लेकर रहन-सहन, आहार-विहार के
तरीकों को जब तक इस गलत प्रकार से अख़्तियार किये रहेंगे, सुधार और हेर फेर
नहीं करेंगे तब तक आपकी एक भी समस्या हल नहीं होने वाली। नहीं गुरुजी! आप
तो वरदान-आशीर्वाद देते हैं। सिद्ध पुरुष हैं। हाँ। हम वरदान भी देते हैं
और आशीर्वाद भी। लोगों को चमत्कार भी दिखा देते हैं, यह बात भी सही है। पर
हम देते उन्हीं को हैं जो अपनी सहायता स्वयं करते हैं, पहले अपने आपको ठीक
करने के लिए एक कदम आगे बढ़ाते हैं।
🔵 चमत्कार तो सिरदर्द के लिए एस्पीरिन की दवा की तरह है। आप ठीक हो जाते हैं? नहीं, आप तब तक ठीक नहीं हो सकते, जब तक पेट ठीक नहीं करेंगे। टाइमली रिली फहम देते हैं पर ताकत तो ठीक होने की अंदर से उभारनी पड़ेगी। खून हम बाहर का आपको इसलिए लगाते हैं ताकि आपका अपना सिस्टम काम करना आरंभ कर दे। वरदान-चमत्कार किसी को परावलम्बी बनाने के लिए नहीं, उसे सहारा देने के लिए ताकि वह अपने पैरों पर खड़ा हो सके।
🔴 नवरात्रि अनुष्ठान में यही अध्यात्म के मूलभूत सिद्धान्त मैंने आपको समझाने का प्रयास किया कि आप अपने पैरों पर खड़ा होना सीखिए। अपने चिन्तन और व्यवहार को यही ढंग से रखना सीखिए। आपकी अब तक की जिन्दगी वहमों में बीत गयी। अब उनसे मुक्ति पाना सीखिए। अपने आपको दबोचना सीखिए यह नवरात्रि अनुष्ठान का तपश्चर्या वाला हिस्सा है, जिससे हमने आपको अपने आप पर नियंत्रण करना सिखाया। यह बताया कि कम खाने से शरीर का कोई नुकसान नहीं बल्कि लाभ ही होता है। इसलिए आपको आदतें बदलकर उपवास करना सिखाया, अस्वादव्रत समझाया। आध्यात्मिक प्रगति के रास्ते का यह पहला कदम है।
🔵 आहार संयम के बाद हमने आपको कहा था कि आपको विचारों पर संयम रखना आना चाहिए। आपको ब्रह्मचर्य से रहना चाहिए। गायत्री माता का फोटो आपने रखा था अपने सामने व उसी की आरती रोज करते रहे। क्यों कभी सोचा आपने! मूर्ति क्यों रखी है, सोचा आपने? बताइए इस चित्र व मूर्ति को देखकर कि इसकी उम्र कितनी होनी चाहिए? आपने देखा कि वह बीस साल की जवान युवती जैसी है। अस्सी साल की बुढ़िया तो नहीं है? नहीं गुरुजी वह तो उठती उम्र की जवान षोडशी दिखती है। आपका ख्याल ठीक है यह हमने जानबूझ कर बनाई है। गायत्री माता की असली उम्र तो न जाने कितनी होगी। उस उम्र की आप कल्पना भी नहीं कर सकते।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1992/April/v1.56
🔵 चमत्कार तो सिरदर्द के लिए एस्पीरिन की दवा की तरह है। आप ठीक हो जाते हैं? नहीं, आप तब तक ठीक नहीं हो सकते, जब तक पेट ठीक नहीं करेंगे। टाइमली रिली फहम देते हैं पर ताकत तो ठीक होने की अंदर से उभारनी पड़ेगी। खून हम बाहर का आपको इसलिए लगाते हैं ताकि आपका अपना सिस्टम काम करना आरंभ कर दे। वरदान-चमत्कार किसी को परावलम्बी बनाने के लिए नहीं, उसे सहारा देने के लिए ताकि वह अपने पैरों पर खड़ा हो सके।
🔴 नवरात्रि अनुष्ठान में यही अध्यात्म के मूलभूत सिद्धान्त मैंने आपको समझाने का प्रयास किया कि आप अपने पैरों पर खड़ा होना सीखिए। अपने चिन्तन और व्यवहार को यही ढंग से रखना सीखिए। आपकी अब तक की जिन्दगी वहमों में बीत गयी। अब उनसे मुक्ति पाना सीखिए। अपने आपको दबोचना सीखिए यह नवरात्रि अनुष्ठान का तपश्चर्या वाला हिस्सा है, जिससे हमने आपको अपने आप पर नियंत्रण करना सिखाया। यह बताया कि कम खाने से शरीर का कोई नुकसान नहीं बल्कि लाभ ही होता है। इसलिए आपको आदतें बदलकर उपवास करना सिखाया, अस्वादव्रत समझाया। आध्यात्मिक प्रगति के रास्ते का यह पहला कदम है।
🔵 आहार संयम के बाद हमने आपको कहा था कि आपको विचारों पर संयम रखना आना चाहिए। आपको ब्रह्मचर्य से रहना चाहिए। गायत्री माता का फोटो आपने रखा था अपने सामने व उसी की आरती रोज करते रहे। क्यों कभी सोचा आपने! मूर्ति क्यों रखी है, सोचा आपने? बताइए इस चित्र व मूर्ति को देखकर कि इसकी उम्र कितनी होनी चाहिए? आपने देखा कि वह बीस साल की जवान युवती जैसी है। अस्सी साल की बुढ़िया तो नहीं है? नहीं गुरुजी वह तो उठती उम्र की जवान षोडशी दिखती है। आपका ख्याल ठीक है यह हमने जानबूझ कर बनाई है। गायत्री माता की असली उम्र तो न जाने कितनी होगी। उस उम्र की आप कल्पना भी नहीं कर सकते।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1992/April/v1.56
👉 गुरुकार्य में साधनों की कमी नहीं रहती
🔵 आँवलखेड़ा में अर्ध महापूर्णाहुति का कार्यक्रम शुरू होने वाला था। निर्धारित समय से दो सप्ताह पूर्व हम आँवलखेड़ा गुरु ग्राम पहुँचे। कबीर नगर में आवास मिला। अगले दिन जितेन्द्र रघुवंशी भाई साहब ने उस आवास में ठहरे हुए सभी भाई बहिनों की गोष्ठी ली। वहाँ जौनपुर (उ.प्र.) के चौदह भाई एक साथ बैठे थे। मुझे जौनपुर के भाइयों के साथ टोली नायक बनाकर आगरा से पन्द्रह- बीस किलोमीटर दक्षिण उस स्थान पर जाने के लिए कहा गया, जहाँ से आँवलखेड़ा मार्ग जाता है। दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान से आने वाली बसें उसी स्थान से होकर गुजरती हैं।
🔴 हम सभी को वहाँ जाने हेतु एक जीप मिली थी। आगरा के भाई प्रमोद अग्रवाल जी के यहाँ से नाश्ते का पैकेट प्राप्त कर वहाँ जाना था। जिसमें हरियाणा, राजस्थान से आने वाले भाइयों- बहिनों को नास्ता कराकर आँवलखेड़ा के लिए मार्गदर्शन करना था। हम सभी भाई आगरा के अग्रवाल जी से एक दूसरी गाड़ी में ३५००० नाश्ते का पैकेट प्राप्त कर गन्तव्य स्थान में पहुँचे। दो पक्के कमरे सड़क के बगल में बने हुए थे। एक कमरे में नाश्ते के पैकेट रखे और एक में हम सभी ने अपने ठहरने विश्राम करने का स्थान बनाया। ४ बजे संध्या से अपना- अपना दायित्व सम्भाल लिया।
🔵 चार भाइयों को नाश्ता हेतु बैठाने, चार को आने वाली बसों, गाड़ियों को रुकवाने, चार को नाश्ता लाने और दो भाइयों को यज्ञ स्थल जाने वालों के मार्गदर्शन का कार्य सौंपा गया। आने वाले भाइयों की संख्या और बस (गाड़ी) नं० रजिस्टर में दर्ज करने की जिम्मेवारी मैंने ली। तीसरे दिन शाम ४ बजे तक नाश्ते के पैकेट समाप्त होने लगा। एक भाई ने भण्डार गृह से आकर मुझे बतलाया- भाई साहब अब नाश्ते का लगभग दो ढाई हजार पैकेट बचे हुए हैं। मैंने राम प्रसाद गुप्ता जी को भेजकर अग्रवाल जी के यहाँ से ३५ हजार पैकेट और मँगवा लिए।
🔴 अगले दिन पुनः पैकेट घटने की सूचना पाकर मैंने गुप्ता जी को आगरा भेज दिया। लगभग ६ बजे शाम भण्डार गृह से दो भाइयों ने आकर बताया कि सौ डेढ़ सौ और पैकेट बचे हैं। उधर गुप्ता जी खाली हाथ लौट आए और बताया कि अग्रवाल भाई साहब ने हमें आगरा बुलाया है। हम ऐसी परिस्थिति के लिए कतई तैयार नहीं थे। नाश्ता समाप्त हो चला है। इतने लोगों को भूखे रखना पड़ेगा, सोचते ही खून सूखने लगा।
🔵 इतने में भण्डार गृह के दोनों भाई मुझे और राम प्रसाद जी को बुलाकर ले गए ताकि परिस्थिति को हम सही रूप में जान सकें। भण्डार गृह पहुँचे तो वहाँ का दृश्य देखकर हम अवाक रह गए। कमरे में पैकेटों का अंबार लगा था। हम सभी की आँखों में आँसू आ गए। हे गुरु देव! आपने समय पर लाज रख ली। उसी दिन हमने इस बात को अनुभव किया कि गुरु देव के काम में कभी साधनों की कमी नहीं रहती।
🌹 परशुराम गुप्ता, पूर्वी जोन, शांतिकुंज (उत्तराखण्ड)
🌹 अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य पुस्तक से
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Wonderful/guruka
🔴 हम सभी को वहाँ जाने हेतु एक जीप मिली थी। आगरा के भाई प्रमोद अग्रवाल जी के यहाँ से नाश्ते का पैकेट प्राप्त कर वहाँ जाना था। जिसमें हरियाणा, राजस्थान से आने वाले भाइयों- बहिनों को नास्ता कराकर आँवलखेड़ा के लिए मार्गदर्शन करना था। हम सभी भाई आगरा के अग्रवाल जी से एक दूसरी गाड़ी में ३५००० नाश्ते का पैकेट प्राप्त कर गन्तव्य स्थान में पहुँचे। दो पक्के कमरे सड़क के बगल में बने हुए थे। एक कमरे में नाश्ते के पैकेट रखे और एक में हम सभी ने अपने ठहरने विश्राम करने का स्थान बनाया। ४ बजे संध्या से अपना- अपना दायित्व सम्भाल लिया।
🔵 चार भाइयों को नाश्ता हेतु बैठाने, चार को आने वाली बसों, गाड़ियों को रुकवाने, चार को नाश्ता लाने और दो भाइयों को यज्ञ स्थल जाने वालों के मार्गदर्शन का कार्य सौंपा गया। आने वाले भाइयों की संख्या और बस (गाड़ी) नं० रजिस्टर में दर्ज करने की जिम्मेवारी मैंने ली। तीसरे दिन शाम ४ बजे तक नाश्ते के पैकेट समाप्त होने लगा। एक भाई ने भण्डार गृह से आकर मुझे बतलाया- भाई साहब अब नाश्ते का लगभग दो ढाई हजार पैकेट बचे हुए हैं। मैंने राम प्रसाद गुप्ता जी को भेजकर अग्रवाल जी के यहाँ से ३५ हजार पैकेट और मँगवा लिए।
🔴 अगले दिन पुनः पैकेट घटने की सूचना पाकर मैंने गुप्ता जी को आगरा भेज दिया। लगभग ६ बजे शाम भण्डार गृह से दो भाइयों ने आकर बताया कि सौ डेढ़ सौ और पैकेट बचे हैं। उधर गुप्ता जी खाली हाथ लौट आए और बताया कि अग्रवाल भाई साहब ने हमें आगरा बुलाया है। हम ऐसी परिस्थिति के लिए कतई तैयार नहीं थे। नाश्ता समाप्त हो चला है। इतने लोगों को भूखे रखना पड़ेगा, सोचते ही खून सूखने लगा।
🔵 इतने में भण्डार गृह के दोनों भाई मुझे और राम प्रसाद जी को बुलाकर ले गए ताकि परिस्थिति को हम सही रूप में जान सकें। भण्डार गृह पहुँचे तो वहाँ का दृश्य देखकर हम अवाक रह गए। कमरे में पैकेटों का अंबार लगा था। हम सभी की आँखों में आँसू आ गए। हे गुरु देव! आपने समय पर लाज रख ली। उसी दिन हमने इस बात को अनुभव किया कि गुरु देव के काम में कभी साधनों की कमी नहीं रहती।
🌹 परशुराम गुप्ता, पूर्वी जोन, शांतिकुंज (उत्तराखण्ड)
🌹 अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य पुस्तक से
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Wonderful/guruka
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