मंगलवार, 18 अप्रैल 2017
👉 घृणास्पद व्यक्ति नहीं, दुष्प्रवृति
🔵 खेतडी नरेश ने स्वामी विवेकानंद को एकबार अपनी सभा में आमंत्रित किया। स्वामीजी वहाँ गये भी और लोगों को तत्त्वज्ञान का उपदेश भी किया। समाज सेवा का प्रसंग आया और वे समझाने लगे कि मनुष्य छोटा हो या बड़ा, शिक्षित हो या अशिक्षित उसका अस्तित्व समाज में टिका हुआ है, इसलिए बिना किसी भेदभाव के ईश्वर उपासना की तरह ही समाज-सेवा का व्रत भी पालन करना चाहिए। उसमें कोई व्यक्ति छोटा नहीं होता, वरन् उपासना की तरह सेवा भी मानव अंतकरण को विशाल ही बनाती है।
🔴 आगे की बात स्वामी जी पूरी नहीं कर सके, क्योंकि उधर से नर्तकियों का एक दल आ पहुँचा। सामंतों का स्वभाव ही कुछ ऐसा होता है कि उनका ध्यान उधर चला गया, इसलिये प्रवचन अपने आप समाप्त हो गया। इधर नर्तकियों के नृत्य की तैयारी होने लगी। जैसे ही एक नर्तकी ने सभा मंडप में प्रवेश किया कि स्वामी जी का मन धृणा और विरक्ति से भर गया। वे उठकर वहाँ से चल दिए। स्वामी जी की यह उदासीनता और किसी के लिए कष्टकारक प्रतीत हुई हो या नही, पर उस नर्तकी के हृदय को आघात अवश्य पहुँचा।
🔵 घृणा चाहे जिस व्यक्ति के प्रति हो, अच्छी नहीं। बुरे कर्मों का फल कर्ता आप भोगता है, भगवान् की सृष्टि ही कुछ ऐसी है कि खराब काम के दंड से कोई भी बच नहीं सकता, पर यह दंड-व्यवस्था उसी के हाथों तक सीमित रहनी चाहिए, वह सर्वद्रष्टा है पर मनुष्य की पहुँच किसी के सूक्ष्म अंतःकरण तक नहीं, इसलिए उसे केवल कानूनी दण्ड़ का ही अधिकार एक सीमा तक प्राप्त है। घृणा तो दुश्मनी ही पैदा करती है, भले ही वह कोई दलित या अशक्त व्यक्ति क्यों न हो। प्रतिशोध कभी भी अहित कर सकता है। स्वामी दयानंद जी के घात का कारण पूछो तो ऐसी ही घृणा थी, जो मनुष्य के लिए कभी अपेक्षित नहीं।
🔴 नृत्य प्रारंभ हुआ। नर्तकी ने अलाप किया- "प्रभु मेरे अवगुण चित न धरो" और वह ध्वनि स्वामी जी के कानों में पडी़। स्वामी जी चौंक पडे। मस्तिष्क में जोर के झटके से विचार उठा-परमात्मा का अवगाहन हम इसीलिये तो करते है कि पाप परिस्थितियों के कारण हमारे अंतकरण कलुषित हुए पडे हैं, हम उनमे निर्मल और निष्पाप बने। सामाजिक परिस्थितियों से कौन बचा है' यह बेचारी नर्तकी ही दोषी क्यों ? मालूम नहीं समाज की किस अवस्था के कारण इस बेचारी को इस वृत्ति का सहारा लेना पडा़ अन्यथा वह भी किसी प्रतिष्ठित घराने की बहू और बेटी होती।
🔵 अब तक मस्तिष्क में जो स्थान घृणा ने भर रखा था, वह अब भस्मीभूत हो गया। अब स्वच्छ करुणा और विवेक का उदय हुआ-संसार में व्यक्ति घृणा का पात्र नहीं, वृत्ति को ही धृणित मानना चाहिए।
🔴 स्वामी विवेकानंद वापस लौटे, अपना स्थान पुन-ग्रहण किया। लोगों के मन में उनके प्रति जो श्रद्धा थी वह और द्विगुणित हो उठी। स्वामी जी जब तक नृत्य हुआ, कला की सूक्ष्मता और उससे होने वाली मानसिक प्रसन्नता का अध्ययन करते रहे। विद्यार्थी के समान उन्होंने संपूर्ण रास केवल अध्ययन दृष्टि से देखा, न कोई मोह था न आसक्ति। नृत्य समाप्त होने पर ही वापस अपने डेरे को लौटे।
🔵 इतनी भूल सुधार के कारण उन्होंने सभी सभासदो और नर्तकी को भी यह शिक्षा तो दी ही दी कि "व्यक्ति को घृणास्पद मानने का अर्थ यह नहीं कि वृत्ति को भी घृणा न की जाए। उससे तो बचना ही चाहिए। आजीविका के लिए वह नर्तकी कला प्रदर्शन तो करती रही, पर उस दिन उसे स्वामी जी के प्रति श्रद्धा ने वासना से विरक्ति दे दी और उसने आजीवन व्रतशील जीवनयापन किया। सभासदों में से अनेक ने अपनी दोष दृष्टि का परित्याग किया।
🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 139, 140
🔴 आगे की बात स्वामी जी पूरी नहीं कर सके, क्योंकि उधर से नर्तकियों का एक दल आ पहुँचा। सामंतों का स्वभाव ही कुछ ऐसा होता है कि उनका ध्यान उधर चला गया, इसलिये प्रवचन अपने आप समाप्त हो गया। इधर नर्तकियों के नृत्य की तैयारी होने लगी। जैसे ही एक नर्तकी ने सभा मंडप में प्रवेश किया कि स्वामी जी का मन धृणा और विरक्ति से भर गया। वे उठकर वहाँ से चल दिए। स्वामी जी की यह उदासीनता और किसी के लिए कष्टकारक प्रतीत हुई हो या नही, पर उस नर्तकी के हृदय को आघात अवश्य पहुँचा।
🔵 घृणा चाहे जिस व्यक्ति के प्रति हो, अच्छी नहीं। बुरे कर्मों का फल कर्ता आप भोगता है, भगवान् की सृष्टि ही कुछ ऐसी है कि खराब काम के दंड से कोई भी बच नहीं सकता, पर यह दंड-व्यवस्था उसी के हाथों तक सीमित रहनी चाहिए, वह सर्वद्रष्टा है पर मनुष्य की पहुँच किसी के सूक्ष्म अंतःकरण तक नहीं, इसलिए उसे केवल कानूनी दण्ड़ का ही अधिकार एक सीमा तक प्राप्त है। घृणा तो दुश्मनी ही पैदा करती है, भले ही वह कोई दलित या अशक्त व्यक्ति क्यों न हो। प्रतिशोध कभी भी अहित कर सकता है। स्वामी दयानंद जी के घात का कारण पूछो तो ऐसी ही घृणा थी, जो मनुष्य के लिए कभी अपेक्षित नहीं।
🔴 नृत्य प्रारंभ हुआ। नर्तकी ने अलाप किया- "प्रभु मेरे अवगुण चित न धरो" और वह ध्वनि स्वामी जी के कानों में पडी़। स्वामी जी चौंक पडे। मस्तिष्क में जोर के झटके से विचार उठा-परमात्मा का अवगाहन हम इसीलिये तो करते है कि पाप परिस्थितियों के कारण हमारे अंतकरण कलुषित हुए पडे हैं, हम उनमे निर्मल और निष्पाप बने। सामाजिक परिस्थितियों से कौन बचा है' यह बेचारी नर्तकी ही दोषी क्यों ? मालूम नहीं समाज की किस अवस्था के कारण इस बेचारी को इस वृत्ति का सहारा लेना पडा़ अन्यथा वह भी किसी प्रतिष्ठित घराने की बहू और बेटी होती।
🔵 अब तक मस्तिष्क में जो स्थान घृणा ने भर रखा था, वह अब भस्मीभूत हो गया। अब स्वच्छ करुणा और विवेक का उदय हुआ-संसार में व्यक्ति घृणा का पात्र नहीं, वृत्ति को ही धृणित मानना चाहिए।
🔴 स्वामी विवेकानंद वापस लौटे, अपना स्थान पुन-ग्रहण किया। लोगों के मन में उनके प्रति जो श्रद्धा थी वह और द्विगुणित हो उठी। स्वामी जी जब तक नृत्य हुआ, कला की सूक्ष्मता और उससे होने वाली मानसिक प्रसन्नता का अध्ययन करते रहे। विद्यार्थी के समान उन्होंने संपूर्ण रास केवल अध्ययन दृष्टि से देखा, न कोई मोह था न आसक्ति। नृत्य समाप्त होने पर ही वापस अपने डेरे को लौटे।
🔵 इतनी भूल सुधार के कारण उन्होंने सभी सभासदो और नर्तकी को भी यह शिक्षा तो दी ही दी कि "व्यक्ति को घृणास्पद मानने का अर्थ यह नहीं कि वृत्ति को भी घृणा न की जाए। उससे तो बचना ही चाहिए। आजीविका के लिए वह नर्तकी कला प्रदर्शन तो करती रही, पर उस दिन उसे स्वामी जी के प्रति श्रद्धा ने वासना से विरक्ति दे दी और उसने आजीवन व्रतशील जीवनयापन किया। सभासदों में से अनेक ने अपनी दोष दृष्टि का परित्याग किया।
🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 139, 140
👉 समय का सदुपयोग करें (भाग 11)
🌹 समय जो गुजर गया, फिर न मिलेगा
🔴 आलस में समय गंवाने वाले कुसंग और कुबुद्धि के द्वारा उल्टे रास्ते तैयार करते हैं। कहते हैं ‘‘खाली दिमाग शैतान का घर।’’ जब कुछ काम नहीं होता तो खुराफात ही सूझती है। जिन्हें किसी सत्कार्य या स्वाध्याय में रुचि नहीं होती खाली समय में कुसंगति, दुर्व्यसन, ताश-तमाशे और तरह-तरह की बुराइयों में ही अपना समय बिताते हैं। समाज में अव्यवस्था का कारण कोई बाहरी शक्ति नहीं होती, अधिकांश बुराइयां, कलह और झंझट बढ़ाने का श्रेय उन्हीं को है जो व्यर्थ में समय गंवाते रहते हैं। मनुष्य लम्बे समय तक निष्प्रयोजन खाली बैठा नहीं रह सकता अतएव यदि वह भले काम नहीं करता तो बुराई करने में उसे देर न लगेगी। उसे अच्छा या बुरे, सच्चा हो चाहे काल्पनिक, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कुछ न कुछ करना ही पड़ेगा। इसलिये यदि उसे सही विषय न मिले तो वह बुराइयां ही ग्रहण करता है और उन्हें ही समाज में बिखेरता हुआ चला जाता है।
🔵 मनुष्य के अन्तःकरण में ही उसका देवत्व और असुरत्व विद्यमान है। जब तक हमारा देवता जागृत रहता है और हम विभिन्न कल्याणकारी कार्यों में संलग्न रहते हैं तब तक आन्तरिक असुरता भी दबी हुई पड़ी रहती है पर यह प्रसुप्त वासनायें भी अवकाश के लिये चुपचाप अन्तर्मन में जगती रहती हैं समय पाते ही देवत्व पर प्रहार कर बैठती हैं?
🔴 जब यह दिखाई दे कि अब अपने पास कोई काम शेष नहीं रहा तो मनुष्य अपने निवास के आस-पास की सफाई, वस्त्रों की हिफाजत, घर की मरम्मत, खेतों की देख-भाल, लेखन, ज्ञान विषयक चर्चा या किसी जीवनोपयोगी साहित्य का स्वाध्याय ही करने लग जाय। इससे टूटी-फूटी वस्तुओं की साज-सम्हाल, स्वास्थ्य-रक्षा और ज्ञान की वृद्धि ही होगी। समय का मूल्यांकन केवल रुपये पैसे से ही नहीं हो सकता। जीवन में और भी अनेकों पारमार्थिक व्यवसाय हैं। उन्हें भी देखना और ज्ञान प्राप्त करना हमारा धर्म होना चाहिए। सत्कार्यों में लगाये गये समय का परिणाम सदैव सुखदायक ही होता है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🔴 आलस में समय गंवाने वाले कुसंग और कुबुद्धि के द्वारा उल्टे रास्ते तैयार करते हैं। कहते हैं ‘‘खाली दिमाग शैतान का घर।’’ जब कुछ काम नहीं होता तो खुराफात ही सूझती है। जिन्हें किसी सत्कार्य या स्वाध्याय में रुचि नहीं होती खाली समय में कुसंगति, दुर्व्यसन, ताश-तमाशे और तरह-तरह की बुराइयों में ही अपना समय बिताते हैं। समाज में अव्यवस्था का कारण कोई बाहरी शक्ति नहीं होती, अधिकांश बुराइयां, कलह और झंझट बढ़ाने का श्रेय उन्हीं को है जो व्यर्थ में समय गंवाते रहते हैं। मनुष्य लम्बे समय तक निष्प्रयोजन खाली बैठा नहीं रह सकता अतएव यदि वह भले काम नहीं करता तो बुराई करने में उसे देर न लगेगी। उसे अच्छा या बुरे, सच्चा हो चाहे काल्पनिक, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कुछ न कुछ करना ही पड़ेगा। इसलिये यदि उसे सही विषय न मिले तो वह बुराइयां ही ग्रहण करता है और उन्हें ही समाज में बिखेरता हुआ चला जाता है।
🔵 मनुष्य के अन्तःकरण में ही उसका देवत्व और असुरत्व विद्यमान है। जब तक हमारा देवता जागृत रहता है और हम विभिन्न कल्याणकारी कार्यों में संलग्न रहते हैं तब तक आन्तरिक असुरता भी दबी हुई पड़ी रहती है पर यह प्रसुप्त वासनायें भी अवकाश के लिये चुपचाप अन्तर्मन में जगती रहती हैं समय पाते ही देवत्व पर प्रहार कर बैठती हैं?
🔴 जब यह दिखाई दे कि अब अपने पास कोई काम शेष नहीं रहा तो मनुष्य अपने निवास के आस-पास की सफाई, वस्त्रों की हिफाजत, घर की मरम्मत, खेतों की देख-भाल, लेखन, ज्ञान विषयक चर्चा या किसी जीवनोपयोगी साहित्य का स्वाध्याय ही करने लग जाय। इससे टूटी-फूटी वस्तुओं की साज-सम्हाल, स्वास्थ्य-रक्षा और ज्ञान की वृद्धि ही होगी। समय का मूल्यांकन केवल रुपये पैसे से ही नहीं हो सकता। जीवन में और भी अनेकों पारमार्थिक व्यवसाय हैं। उन्हें भी देखना और ज्ञान प्राप्त करना हमारा धर्म होना चाहिए। सत्कार्यों में लगाये गये समय का परिणाम सदैव सुखदायक ही होता है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
👉 स्रष्टा का परम प्रसाद-प्रखर प्रज्ञा (भाग 39)
🌹 इन दिनों की सर्वोपरि आवश्यकता
🔵 विचार क्रांति की सर्वोपरि आवश्यकता है। हेय चिंतन ही दरिद्रता, अशिक्षा, अस्वस्थता, कुचेष्टा और दुष्प्रवृत्तियों का निमित्त है। इन बीमारियों का अलग-अलग इलाज कारगर नहीं हो सकता। रक्त शोधक उपचार करने से ही आए दिन उगने वाले फोड़े-फुंसियों से छुटकारा मिलता है। जड़ सींचने से ही पेड़ हरा होता है। वह कार्य पत्तों को पोसने से पूरा होना संभव नहीं। विकास और सुधार के लिए तो अनेकानेक काम करने को पड़े हैं, पर यदि उन सबको समेटने की अपेक्षा विचारों का तारतम्य सही बिठा लिया जाए तो अन्यान्य बहुमुखी विकृतियों पर सहज काबू पाया जा सकता है। विचारों से ही कार्य विनिर्मित होते हैं। इन्हीं कारण उत्थान-पतन की भूमिका दृष्टिगोचर होती है। यदि विचारों को शालीनता, सज्जनता, नीति-निष्ठा कर्तव्यपरायणता और समाजनिष्ठा की दिशा में उन्मुख किया जा सके तो फिर शरीर एवं साधनों के माध्यम से मात्र वे ही कार्य बन पड़ेंगे, जो सुधार एवं विकास के लिये आवश्यक हैं।
🔴 प्राचीनकाल में घर-घर अलख जगाने, संपर्क साधने और विचार-विनिमय करने जैसे कुछ ही कार्य ऐसे थे, जिनके सहारे लोकमानस का परिष्कार बन पड़ता था। अधिक लोगों को एक स्थान पर एकत्र करने के लिये सामूहिक कर्मकाण्डों की आवश्यकता होती थी, पर अब तो विज्ञान ने उन सभी कार्यों को सरल बना दिया है। यदि उन्हें योजनाबद्ध रूप से बड़े पैमाने पर किया जा सके तो क्षेत्र की व्यापकता होते हुए भी प्रयोजन की पूर्ति में अधिक कठिनाई न रहेगी।
🔵 प्रेस अपने समय का एक वरदान है। इसके द्वारा कम समय में अधिक लोगों तक सस्ते आधार पर पहुँचना संभव हो सकता है। लाउडस्पीकर, टेपरिकार्डर, वीडियो तथा स्लाइड प्रोजेक्टर जैसे सस्ते उपकरण भी अधिक लोगों तक कम समय में विचारोत्तेजक प्रवाह पहुँचाने में समर्थ हो सकते हैं। संगीत-मंडलियाँ यदि योजनाबद्ध रूप से काम करें तो उनके सहारे भी जागरण का बड़ा काम बड़े परिमाण में बन सकना संभव हो सकता है। ऐसे ही अन्य छोटे-बड़े माध्यम से ढूँढ़े जा सकते हैं, जो उल्टी दिशा में बहते-प्रवाह को उलटकर सीधा कर सकें। यह प्रचार प्रतिभासम्पन्न लोगों की सहायता से और भी अच्छी तरह व्यापक परिधि में पूर्ण हो सकता है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🔵 विचार क्रांति की सर्वोपरि आवश्यकता है। हेय चिंतन ही दरिद्रता, अशिक्षा, अस्वस्थता, कुचेष्टा और दुष्प्रवृत्तियों का निमित्त है। इन बीमारियों का अलग-अलग इलाज कारगर नहीं हो सकता। रक्त शोधक उपचार करने से ही आए दिन उगने वाले फोड़े-फुंसियों से छुटकारा मिलता है। जड़ सींचने से ही पेड़ हरा होता है। वह कार्य पत्तों को पोसने से पूरा होना संभव नहीं। विकास और सुधार के लिए तो अनेकानेक काम करने को पड़े हैं, पर यदि उन सबको समेटने की अपेक्षा विचारों का तारतम्य सही बिठा लिया जाए तो अन्यान्य बहुमुखी विकृतियों पर सहज काबू पाया जा सकता है। विचारों से ही कार्य विनिर्मित होते हैं। इन्हीं कारण उत्थान-पतन की भूमिका दृष्टिगोचर होती है। यदि विचारों को शालीनता, सज्जनता, नीति-निष्ठा कर्तव्यपरायणता और समाजनिष्ठा की दिशा में उन्मुख किया जा सके तो फिर शरीर एवं साधनों के माध्यम से मात्र वे ही कार्य बन पड़ेंगे, जो सुधार एवं विकास के लिये आवश्यक हैं।
🔴 प्राचीनकाल में घर-घर अलख जगाने, संपर्क साधने और विचार-विनिमय करने जैसे कुछ ही कार्य ऐसे थे, जिनके सहारे लोकमानस का परिष्कार बन पड़ता था। अधिक लोगों को एक स्थान पर एकत्र करने के लिये सामूहिक कर्मकाण्डों की आवश्यकता होती थी, पर अब तो विज्ञान ने उन सभी कार्यों को सरल बना दिया है। यदि उन्हें योजनाबद्ध रूप से बड़े पैमाने पर किया जा सके तो क्षेत्र की व्यापकता होते हुए भी प्रयोजन की पूर्ति में अधिक कठिनाई न रहेगी।
🔵 प्रेस अपने समय का एक वरदान है। इसके द्वारा कम समय में अधिक लोगों तक सस्ते आधार पर पहुँचना संभव हो सकता है। लाउडस्पीकर, टेपरिकार्डर, वीडियो तथा स्लाइड प्रोजेक्टर जैसे सस्ते उपकरण भी अधिक लोगों तक कम समय में विचारोत्तेजक प्रवाह पहुँचाने में समर्थ हो सकते हैं। संगीत-मंडलियाँ यदि योजनाबद्ध रूप से काम करें तो उनके सहारे भी जागरण का बड़ा काम बड़े परिमाण में बन सकना संभव हो सकता है। ऐसे ही अन्य छोटे-बड़े माध्यम से ढूँढ़े जा सकते हैं, जो उल्टी दिशा में बहते-प्रवाह को उलटकर सीधा कर सकें। यह प्रचार प्रतिभासम्पन्न लोगों की सहायता से और भी अच्छी तरह व्यापक परिधि में पूर्ण हो सकता है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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