सोमवार, 16 अक्टूबर 2023

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 16 Oct 2023

आनन्द की उपलब्धि के लिए अमुक साधनों की-अमुक परिस्थितियों की आवश्यकता नहीं पड़ती। उसके लिए अपना चिन्तन और अपना स्तर ही पर्याप्त होता है। पुष्प की कोमलता, सुषमा ओर सुगन्ध ही उसे हँसते-खिलते रहने के लिए पर्याप्त हैं। उस पर किसी दूसरे द्वारा रंग पोता जाना या सुगन्ध छिड़का जाना अभीष्ट नहीं आदर्शवादी व्यक्तित्व खिले हुए सुगन्धित पुष्प की तरह है जो स्वयं भी धन्य होता है और संपर्क में आने वालों को भी आनन्द प्रदान करता है। ऐसे व्यक्तियों को देव कहा जा सकता है और उनके निवास क्षेत्र को बिना संकोच स्वर्ग घोषित किया जा सकता है। प्रखर विचारों में वह क्षमता होती ही है जिसके आधार पर संपर्क क्षेत्र को स्वर्गीय वातावरण से ओत-प्रोत किया जा सके।

अपने व्यक्तित्व को आनन्दमय बनाने के लिए संयम, सदाचार, कर्त्तव्य निष्ठा, आत्मीयता, करुणा, जैसी सद्भावनाओं को अन्तःकरण में प्रतिष्ठापित करने की आवश्यकता पड़ती है। संपर्क क्षेत्र को प्रभावित करने के लिए नम्रता, प्रामाणिकता और पुरुषार्थ परायणता जहाँ भी होगी वहाँ विविध सफलताएँ अनायास ही उपलब्ध होती रहेंगी और जन सहयोग एवं लोक सम्मान का भी अभाव न रहेगा। ऐसी परिस्थितियों को प्रत्यक्ष स्वर्ग कहा जा सकता है। इसका विनिर्मित करना किसी के लिए भी कठिन नहीं है।

गलती करना मनुष्य का स्वाभाविक गुण है। यदि जाने-अनजाने हमसे किसी प्रकार की गलती हो जाती है जिसका आभास हमें नहीं हो रहा हो तो ऐसी गलती को स्वीकार कर लेना चाहिए। अपने गलती को स्वीकार कर लेने वाला व्यक्ति जीवन में पुनः गलती करने से सावधान रहता है। इसके लिए आवश्यक हैं कि अपने यहाँ पारिवारिक गोष्ठी की व्यवस्था अवश्य बना ली जाय।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 क्या मैं शरीर ही हूँ-उससे भिन्न नहीं? (भाग 1)

मैं क्या हूँ? मैं कौन हूँ? मैं क्यों हूँ? इस छोटे से प्रश्न का सही समाधान न कर सकने के कारण ‘मैं’ को कितनी विषम विडम्बनाओं में उलझना पड़ता है और विभीषिकाओं में संत्रस्त होना पड़ता है, यदि यह समय रहते समझा जा सके तो हम वह न रहें, जो आज हैं। वह न सोचें जो आज सोचते हैं। वह न करें जो आज करते हैं।

हम कितने बुद्धिमान हैं कि धरती आकाश का चप्पा-चप्पा छान डाला और प्रकृति के रहस्यों को प्रत्यक्ष करके सामने रख दिया। इस बुद्धिमत्ता की जितनी प्रशंसा की जाय उतनी कम और अपने आपके बारे में जितनी उपेक्षा बरती गई उसकी जितनी निन्दा की जाय वह भी कम ही है।

जिस काया को शरीर समझा जाता है क्या यही मैं हूँ? क्या कष्ट, चोट, भूख, शीत, आतप आदि से पग-पग पर व्याकुल होने वाला अपनी सहायता के लिए बजाज दर्जी, किसान, रसोइया, चर्मकार, चिकित्सक आदि पर निर्भर रहने वाला ही मैं हूँ? दूसरों की सहायता के बिना जिसके लिए जीवन धारण कर सकना कठिन हो-जिसकी सारी हँसी-खुशी और प्रगति दूसरों की कृपा पर निर्भर हो, क्या वही असहाय, असमर्थ, मैं हूँ? मेरी आत्म निर्भरता क्या कुछ भी नहीं है? यदि शरीर ही मैं हूँ तो निस्सन्देह अपने को सर्वथा पराश्रित और दीन, दुर्बल ही माना जाना चाहिए।

परसों पैदा हुआ, खेल-कूद, पढ़ने-लिखने में बचपन चला गया। कल जवानी आई थी। नशीले उन्माद की तरह आँखों में, दिमाग में छाई रही। चञ्चलता और अतृप्ति से बेचैन बनाये रही। आज ढलती उम्र आ गई। शरीर ढलने गलने लगा। इन्द्रियाँ जवाब देने लगी। सत्ता, बेटे, पोतों के हाथ चली गई। लगता है एक उपेक्षित और निरर्थक जैसी अपनी स्थिति है। अगली कल यही काया जरा जीर्ण होने वाली है। आँखों में मोतियाबिन्द, कमर-घुटनों में दर्द, खाँसी, अनिद्रा जैसी व्याधियाँ, घायल गधे पर उड़ने वाले कौओं की तरह आक्रमण की तैयारी कर रही हैं।

अपाहिज और अपंग की तरह कटने वाली जिन्दगी कितनी भारी पड़ेगी। यह सोचने को जी नहीं चाहता वह डरावना और घिनौना दृश्य एक क्षण के लिए भी आँखों के सामने आ खड़ा होता है रोम-रोम काँपने लगता है? पर उस अवश्यंभावी भवितव्यता से बचा जाना सम्भव नहीं? जीवित रहना है तो इसी दुर्दशा ग्रस्त स्थिति में पिसना पड़ेगा। बच निकलने का कोई रास्ता नहीं। क्या यही मैं हूँ? क्या इसी निरर्थक विडम्बना के कोल्हू के चक्कर काटने के लिए ही ‘मैं’ जन्मा? क्या जीवन का यही स्वरूप है? मेरा अस्तित्व क्या इतना ही तुच्छ है?

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति मार्च 1972 पृष्ठ 3

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1972/March/v1.3


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