बुधवार, 4 अक्टूबर 2017

👉 मनुज देवता बने, बने यह धरती स्वर्ग समान (अमृतवाणी भाग 1)

गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ,
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।

देवियो! भाइयो!!

🔴 देवताओं के अनुग्रह की बात आप सबने सुनी होगी। देवता नाम ही इसलिए रखा गया है कि, वे दिया करते हैं। प्राप्त करने की इच्छा से कितने ही लोग उनकी पूजा करते हैं, उपासना करते हैं, भजन करते हैं, आइए—इस पर विचार करें।
  
🔵 देवता देते तो हैं, इसमें कोई शक नहीं है। अगर वे देते न होते तो उनका नाम देवता न रखा गया होता। देवता का अर्थ ही होता है—देने वाला। देने वाले से अगर माँगने वाला कुछ माँगता है तो कोई बेजा बात नहीं है। पर विचार करना पड़ेगा कि, आखिर देवता देते क्या चीज हैं? देवता वही चीज देते हैं जो उनके पास है। जिसके पास जो चीज होगी, वही तो दे पाएगा। देवता के पास सिर्फ एक चीज है और उसका नाम है—देवत्व। देवत्व कहते हैं—गुण, कर्म और स्वभाव-तीनों की अच्छाई को, श्रेष्ठता को। इतना देने के बाद में देवता निश्चिन्त हो जाते हैं, निवृत्त हो जाते हैं और कहते हैं कि, जो हम आपको दे सकते थे हमने वह दे दिया। अब आपका काम है कि, जो चीज हमने दी है, उसको जहाँ भी आप मुनासिब समझें, वहाँ इस्तेमाल करें और उसी किस्म की सफलता पाएँ।

🔴 दुनिया में सफलता एक चीज के बदले में मिलती है और वह है—आदमी का उत्कृष्ट व्यक्तित्व। इससे कम में कोई चीज नहीं मिल सकती। अगर कहीं से किसी ने घटिया व्यक्तित्व की कीमत पर किसी तरीके से अपने सिक्के को भुनाए बिना, अपनी योग्यता का सबूत दिए बिना, परिश्रम के बिना, गुणों के अभाव में, कोई चीज प्राप्त कर ली है तो वह उसके पास ठहरेगी नहीं। शरीर में हजम करने की ताकत न हो तो जो खुराक आपने खाई है, वह आपको हैरान करेगी, परेशान करेगी। इसी तरह सम्पत्तियों को, सुविधाओं को हजम करने के लिए गुणों का माद्दा नहीं होगा तो वे आपको तंग करेंगी, परेशान करेंगी। अगर गुण नहीं है तो जैसे-जैसे दौलत बढ़ती जाएगी वैसे-वैसे आपके अन्दर दोष-दुर्गुण बढ़ते जाएँगे, व्यसन बढ़ते जाएँगे, अहंकार बढ़ता जाएगा और आपकी जिन्दगी को तबाह कर देगा।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 स्वास्थ्य का रहस्य

🔴 तब बीमारियाँ एक पहाड़ पर रहा करती थीं। उन दिनों की बात है, एक किसान को जमीन की कमी महसूस हुई। अतः उसने पहाड़ काटना शुरु कर दिया। पहाड़ बड़ा घबराया, उसने बीमारियों को आज्ञा दी-बेटियो! टूट पड़ो इस किसान पर और इसे नष्ट-भ्रष्ट कर डालो। बीमारियाँ डंड-बैठक लगाकर आगे बढ़ी और किसान पर चढ़ बैठी। किसान ने किसी की परवाह नहीं की और डटा रहा अपने काम में। शरीर से पसीने की धार निकली और उसी में लिपटी हुई बीमारियाँ भी बह गई। पहाड़ ने क्रुद्ध होकर शाप दे दिया-मेरी बेटी होकर तुमने मेरा इतना काम भी नहीं किया, अब जहाँ हो वहीं पड़ी रहो। तब से बीमारियाँ परिश्रमी लोगों पर असर नहीं कर पातीं। गंदे और आलसी लोग ही उनके शिकार होते हैं।

👉 महाकाल से प्रार्थना

🔴 हे महाकाल!  उज्ज्वल भविष्य की रचना के लिए-अपने संकल्पों को पूरा करने के लिए हमें उपयुक्त शक्ति, मनोवृत्ति तथा प्रेरणा दें। हे प्रभो ! हमारे संकल्प पूरे हों। हम सुख-सौभाग्य, श्रेय-पुण्य तथा आपकी कृपा के अधिकारी बनें। आपसे दिव्य अनुदान पाने और उन्हें जन-जन तक पहुँचाने की हमारी पात्रता बढ़ती रहे।

👉 हमारी वसीयत और विरासत (भाग 142)

🌹  इन दिनों हम यह करने में जुट रहे है

🔵 हमारी जिज्ञासाओं एवं उत्सुकताओं का समाधान गुरुदेव प्रायः हमारे अंतराल में बैठकर ही किया करते हैं। उनकी आत्मा हमें अपने समीप ही दृष्टिगोचर होती रहती है। आर्षग्रंथों के अनुवाद से लेकर प्रज्ञा पुराण की संरचना तक जिस प्रकार लेखन प्रयोजन में उनका मार्गदर्शन अध्यापक और विद्यार्थी जैसा रहा है, हमारी वाणी भी उन्हीं की सिखावन को दुहराती रही है। घोड़ा जिस प्रकार सवार के संकेतों पर दिशा और चाल बदलता रहता है, वही प्रक्रिया हमारे साथ भी कार्यान्वित होती रही है।

🔴 बैटरी चार्ज करने के लिए जब हिमालय बुलाते हैं, तब भी वे कुछ विशेष कहते नहीं। सेनीटोरियम में जिस प्रकार किसी दुर्बल का स्वास्थ्य सुधर जाता है, वही उपलब्धियाँ हमें हिमालय जाने पर हस्तगत होती हैं। वार्तालाप का प्रयोग अनेक प्रसंगों में होता रहता है।

🔵 इस बार सूक्ष्मीकरण की प्रक्रिया और साधना विधि तो ठीक तरह समझ में आ गई और जिस प्रकार कुन्ती ने अपने शरीर में से देव संतानें जन्मीं थीं, ठीक उसी प्रकार अपनी काया में विद्यमान पाँच कोशों, अन्नमय, मनोमय, प्राणमय, विज्ञानमय और आनंदमय कोषों को पाँच वीरभद्रों के रूप में विकसित करना पड़ेगा, इसकी साधना विधि भी समझ में आ गई। जब तक वे पाँचों पूर्ण समर्थ न हो जाएँ तब तक वर्तमान स्थूल शरीर को उनके घोंसले की तरह बनाए रहने का भी आदेश है और अपनी दृश्य स्थूल जिम्मेदारियाँ दूसरों को हस्तांतरित करने की दृष्टि से अभी शान्तिकुञ्ज ही रहने का निर्देश है।

🔴 यह सब स्पष्ट हो गया। सावित्री साधना का विधान भी उनका निर्देश मिलते ही इस निमित्त आरम्भ कर दिया।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 King in Dreams

🔴 A young man dreamt that he was the king of a big empire. His joy knew no bounds after getting such a prized position instantaneously in the dream. In the morning father told him to go to work, mother asked him to go and bring the wood after cutting. Wife asked to bring something from the market but the man didn’t do any work and told that,” I am the king, how can I do any work?”.

🔵 Everyone at home was bewildered at his behavior. Then her little sister took charge of situation. She fed everyone in the house except her brother. When he couldn’t bear the hunger, he asked his sister, “Wont she serve him the food? “, to which she replied, “O king, let the night come, angels will descend here and server you food according to your status. You won’t get satisfaction from our simple food.”

🔴 He finally accepted the truth and stopped wandering in useless thoughts and got food only after he promised that he would work towards attaining the real and eternal truth and will from now on work industriously.

🌹 From Pragya Puran

👉 आत्मचिंतन के क्षण 2 Oct 2017

🔵 दूसरों की अच्छाइयों को ढूंढ़ने, उन्हें देख-देखकर प्रसन्न होने एवं उनकी प्रशंसा करते रहने का स्वभाव यदि हम अपना बना लें तो यह सारी दुनिया हमें एक सुरम्य सुगंधित बगीचे की तरह मनोरम दिखाई देगी। हर व्यक्ति और हर वस्तु में कुछ न कुछ अच्छाई मौजूद है। हमारे लिये इतना ही पर्याप्त है। शहद की मक्खी के लिए, इतना ही पर्याप्त है कि फूल में मिठास के तनिक से कण मौजूद हों, जब एक नन्हीं-सी विद्या और बुद्धि से हीन मक्खी इतना कर सकती है कि फूल में से अपने काम की जरा सी चीज को निकालने मात्र का ध्यान रखे और अपना छत्ता मीठे शहद से भर ले तो क्या हम ऐसा नहीं कर सकते कि लोगों के अंदर उपस्थित अच्छाइयों को ही तलाश करें भले ही वे थोड़ी-सी ही मात्रा में क्यों न हों। यदि हमारी दृष्टि ऐसी रहे तो हमें अपने चारों और सज्जन एवं स्नेही ही दिखाई देंगे। हमारा मन घड़ी प्रसन्नता और संतोष से ही भरा रहेगा।

🔴 ताली एक हाथ से नहीं बजती। अन्य व्यक्ति दुर्जन भी हो तो हमारी सज्जनता उनके हथियारों को व्यर्थ बना देगी। सड़क टूट हुई हो, जगह-जगह गड्ढे हों तो मोटर में बैठने वाले को दचके लगने स्वाभाविक हैं, पर बहुत बढ़िया किस्म की मोटर जिसमें लचकदार कामनी या स्प्रिंगदार सीटें हों-उस टूटी सड़क पर भी किसी यात्री को सुविधा पूर्वक यात्रा करा सकती है। दुनिया में बुरे लोग हैं- ठीक है- पर यदि हम अपनी मनोभूमि को सहनशील, धैर्यवान, उदार और गुदगुदी बना लें तो बढ़िया मोटर में बैठने वाले यात्री की तरह इस टूटी सड़क वाली दुनिया में भी आनंद पूर्वक यात्रा कर सकते हैं।

🔵 जो उपलब्ध है उसे कम या घटिया मानकर अनेक लोग दुःखी रहते हैं और अपने भाग्य को कोसते हैं। कई बार ऐसा भी होता है कि अधिक ऊंची किस्म के सुख-साधन, सामग्री प्राप्त करने के लिए उतावले होकर लोग अनुचित रीति से भी उन्हें प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं और अन्याय और अत्याचार करने में भी नहीं चूकते। यह मार्ग समाज में अशान्ति और अपने लिये दुष्परिणाम उत्पन्न करने वाला ही है। ऐसे अनुचित कदम उठने में वह असन्तोष ही मुख्य कारण है जिससे, और अधिक मात्रा में, और अधिक बढ़िया किस्म की वस्तुएं प्राप्त करने की लालसा लगी रहती है। यदि हम इन लालसाओं पर नियंत्रण कर लें, अपना स्वभाव सन्तोषी बना लें, तो मामूली वस्तुओं से भी काम चलाते हुए प्रसन्न रह सकते हैं। अपने से भी कहीं अधिक गिरी स्थिति में, गरीबी में दिन गुजारने वाले लाखों करोड़ों व्यक्ति मौजूद है। उनकी तुलना में हम कहीं अधिक अच्छी स्थिति में माने जा सकते हैं।

🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 जीवन की सफलता का रहस्य (भाग 2)

🔴 अतः हमारे दुःखों का, कष्टों का सबसे बड़ा कारण आसक्ति है। इसीलिये, भगवान कृष्ण ने कहा है कि अनासक्त होकर कर्म करो। कर्म करो। कर्म करो। किन्तु उसके फल के प्रलोभन में न पड़ो जब चाहे उस कर्म-चक्र से अलग हो जाने की क्षमता अपने अन्दर रखो। चाहे कोई हो उससे अपने को अलग कर लेना होगा। जीवन का नाम ही संघर्ष है अशक्तों, अपाहिजों और दुर्बलों के लिये यह जीवन या कर्म-क्षेत्र संसार नहीं बना है। दुर्बलता से ही सब प्रकार की तकलीफें, चाहे वे शारीरिक हों या मानसिक, उत्पन्न होती हैं। दुर्बलता मृत्यु है, शक्ति समृद्धि है, जीवन है, अमरत्व है।

🔵 साँसारिक आनन्द आसक्ति से ही हमको प्राप्त होते हैं हम अपने सम्बन्धियों के प्रति, अपने सत्कार्यों के प्रति एवं संसार के प्रति आसक्त हो जाते हैं और फिर अन्त में यही सुख, यही आनन्द दुःख में करुणा में परिणत हो जाता है। सुख भोगने के लिये आसक्ति हीन होना अत्यावश्यक है। यदि कोई अनासक्त हो तो वह कभी दुःखी हो ही नहीं सकता। संसार में वही व्यक्ति अत्यधिक सुखी और सम्पन्न है जिसके अन्दर साँसारिक पदार्थों से अपने को आसक्त रखते हुए भी अनासक्त कर लेने की सामर्थ्य हो। जो संसार में रहते हुए भी, संसार के पदार्थों का उपयोग करते हुए भी, जब चाहे अपने को उनसे विरक्त करले और उसके मनमें उनके प्रति तनिक भी अनुराग न रखे उसी का जीवन सफल है।

🔴 कितने ऐसे मनुष्य होते हैं जो संसार के किसी पदार्थ से प्रेम नहीं करते, उनके भीतर किसी भी लौकिक वस्तु के प्रति सद्भाव नहीं होता। वे निर्दय, निर्मम, निष्ठुर होते हैं। निस्सन्देह वे अनेक प्रकार की कठिनाइयों, मुसीबतों से बच जाते हैं। किन्तु वैसे तो निर्जीव पत्थर की चट्टान को भी कोई शोक नहीं होता, कोई वेदना नहीं होती। लेकिन क्या हम सजीव मनुष्य की तुलना पत्थर की चट्टान से कर सकते हैं? ऐसा कभी नहीं हो सकता। मनुष्य मनुष्य ही है पत्थर पत्थर ही है। जो कुलिषवत् कठोर होते हैं, नितान्त एकाकी होते हैं, वे चाहे कष्ट न भोगें पर जीवन के बहुत से आनन्दों का भी उपभोग करने से वे वंचित रह जाते हैं। ऐसा भी जीवन क्या कोई जीवन है? कुशल चतुर व्यक्ति तो वही है जो सब प्रकार से संसार में रह कर, सब तरह के कार्यक्रम पूरा कर, सब की सेवा कर, सब से प्रेम कर फिर भी सब से अलग रहता है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 स्वामी विवेकानन्द
🌹 अखण्ड ज्योति- जुलाई 1950 पृष्ठ 7
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1950/July/v1.7

👉 आज का सद्चिंतन 4 Oct 2017


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 4 Oct 2017


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