बुधवार, 15 फ़रवरी 2023

👉 परिस्थितियों का जन्मदाता

अध्यात्मवाद का दूसरा सिद्धान्त है ‘‘आत्मनिर्भरता।’’ अपने ऊपर विश्वास करना, अपनी शक्तियों पर विश्वास करना एक ऐसा दिव्य गुण है जो हर कार्य को करने योग्य साहस, विचार एवं योग्यता उत्पन्न करता रहता है। दूसरों के ऊपर निर्भर रहने से अपना बल घटता है और इच्छाओं की पूर्ति में अनेक बाधाएँ उपस्थित होती हैं। स्वाधीनता, निर्भयता औैर प्रतिष्ठा इस बात में है कि अपने ऊपर निर्भर रहा जाय, सफलता का सच्चा और सीधा पथ भी यही है।
  
अपनी हर एक बाह्य परिस्थिति की जिम्मेदारी दूसरों पर मत डालिए वरन् अपने ऊपर लीजिए। दुनिया को दर्पण के समान समझिए जिसमें अपनी ही सूरत दिखार्ई पड़ती है। दूसरे लोगों में जो अच्छाइयाँ, बुराइयाँ दिखाई पड़ती हैं, सामने जो प्रिय एवं अप्रिय परिस्थितियाँ आती हैं उसका कारण कोई और नहीं वरन् आप स्वयं हैं और उनमें परिवर्तन करने की शक्ति भी किसी और में नहीं वरन् स्वयं आप में है।
  
शास्त्रों में कहा गया है कि ब्रह्माण्ड की कुंजी पिण्ड के अन्दर है, हर व्यक्ति अपने लिए एक अलग संसार बनाता है और उसकी रचना उस पदार्थ से करता हे जो उसके अन्दर होता है। वास्तव में संसार बिल्कुल जड़ है उसमें किसी को सुख-दु:ख पहुँचाने की शक्ति नहीं है। मकड़ी अपना जाला खुद बुनती है और उसमें विचरण करती है। आप अपने लिए अपना संसार स्वतंन्त्र रूप से बनाते हैं और जब चाहते हैं उसमें परिवर्तन कर लेते हैं।
  
एक व्यक्ति क्रोधी है- उसे प्रतीत होगी की सारी दुनिया उससे लड़ती-झड़ती है, कोई उसे चैन से नहीं बैठने देता, किसी में भलमानसाहत है ही नहीं, जो आता है उससे उलझता चला आता है। एक व्यक्ति झूठ बोलता है- उसे लगता है कि सब लोग अविश्वासी हैं, सन्देह करने वाले हैं, किसी पर भरोसा ही नहीं करते। एक व्यक्ति नीच है- वह देखता है कि सारी दुनिया घृणा करने वाले, घमण्डियों, स्वार्थियों से भरी हुई है, किसी में सहानुभूति है ही नहीं। एक व्यक्ति निकम्मा और आलसी है- उसे मालूम होता है कि दुनिया में काम है ही नहीं, सब जगह बेकारी फैली हुई है, व्यापार नष्ट हो गया, नौकरियाँँ नहीं हैं, लोग बहुत काम लेकर थोड़ा पैसा देना चाहते हैं। एक व्यक्ति बीमार है- उसे दिखार्ई पड़ता है कि दुनिया में सारे भोजन अस्वादिष्ट, हानिकारक और नुकसान पहुँचाने वाले हैं। इसी प्रकार व्यभिचारी, लम्पट, मूर्ख, कंजूस, अशिक्षित, सनकी, गँवार, पागल, भिखारी, चोर तथा अन्यान्य मनोविकारों वाले व्यक्ति अपने लिए अलग दुनिया बनाते हैं। वे जहाँ जाते हैं उनकी दुनिया उनके साथ जाती है।
  
जब मनुष्य आत्म निर्भरता के वीरतापूर्ण दृष्टिïकोण को छोडक़र पराया मुँह ताकने की कायरता, क्लीवता और हीनता की अन्धकारमयी  भूमिका में उतरता है तो वह बड़े दीन वचन बोलने लगता है। ‘मैं क्या कर सकता हूँ, दूसरों ने मुझे जकड़ रखा है, रास्ते रोक रखे हैं।’ ऐसी शिकायतों में तीन चौथाई भाग झूठ होता है। भूत, पलीत, देवी, देवता, भाग्य, ईश्वर, ग्रह, नक्षत्र, समय, युग तथा और भी अनेक बहानों को पकड़ कर वह कहता है कि यही सब मेरे सुख-दु:ख के कारण हैं। विपत्ति के समय वह देवी-देवताओं की मनौती मानता है। चाहता है कि कोई ऐसा देव-दानव कहीं से उतर आये जो पलक मारते उन कठिनाइयों को हल कर दे। इस प्रकार की विचारधारा बेकार और भयंकर है। यह स्पष्टï है कि जो अपनी विपत्ति से आप लडऩे को तैयार नहीं होता, उसकी सहायता कोई दृश्य या अदृश्य शक्ति नहीं करती। सुनिए, कान खोल कर सुनिए। यदि आप कष्टï से बचकर आनन्द प्राप्त करना चाहते हैं तो आत्मनिर्भरता सीखिए, अपनी भुजाओं पर विश्वास कीजिए, अपनी बुद्धि को काम में लाइये और अपने पैरों पर खड़े हो जाइए। तभी आपकी इच्छा और आकांक्षाएँ पूर्ण हो सकेंगी।

✍🏻 पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 सत्य-तप और वैराग्य का समन्वय

सत्य की प्राप्ति-तपस्वी ही कर सकता है। शारीरिक और मानसिक प्रलोभनों से बचने में जिस तितीक्षा और कष्ट सहिष्णुता की-धैर्य और संयम की आवश्यकता पड़ती है, उसे जुटा लेने का नाम ही तप है। अकारण शरीर के सताने का नाम ही तप नहीं है। सताना तो किसी का भी बुरा है फिर शरीर को व्यथित और संतप्त करने से ही क्या हित साधन हो सकता है। तपस्या वह है जो सत्यमय जीवन लक्ष्य निर्धारित करने के कारण सीमित उपार्जन से निर्वाह करने की स्थिति में- गरीबी अथवा मितव्ययिता अपनानी पड़ती है। इसे प्रसन्नता पूर्वक स्वीकार और शिरोधार्य करने का नाम तप साधना ही है।

सत्य रूप नारायण को प्राप्त करने का मूल्य है वैराग्य। वैराग्य का अर्थ घर परिवार को छोड़, विचित्र वेश बनाना या भिक्षाटन करना नहीं है वरन् यह है कि जिस राग-द्वेष की धूप छाँह में सारा जगत हँसता, रोता, अशान्त और उद्विग्न रहता है उस विडम्बना से बचते हुए महान लक्ष्य की ओर अनवरत गति से चलते जाना। सत्य निष्ठ व्यक्ति इस असत्य मग्न संसार को एक विचित्र प्राणी लगता है। उसे भी अज्ञान के अन्धकार में भटकती दुनिया दयनीय लगती है। दोनों का तालमेल नहीं बैठता। यह विसंगति कहीं कटुता उत्पन्न करती है, कहीं तिरस्कार उलीचती है, कहीं अवरोध उत्पन्न करती है, कहीं त्रास देती है। इसे उपेक्षापूर्वक देखना वैराग्य है और इस पर भी जो त्रास सहने पड़े उन्हें सन्तोष पूर्वक सहने का नाम तप है।

 वैराग्य और तप के डाँडों के सहारे विवेकवान व्यक्ति अपनी साधना की नाव खेते हैं और सत्य के परम लक्ष्य तक जा पहुँचते हैं।

✍🏻  पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति-मई 1972 पृष्ठ 1

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1972/May/v1.1


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