सावधान! बड़ा बेबस बना सकता है मन
विचारों के प्रवाह के साथ कब एकात्मता सध जाती है, पता ही नहीं चलता। ये विचार कैसे भी हो सकते हैं, किसी भी तरह के हो सकते हैं। विचारों के बादलों के साथ हम एक हो जाते हैं। कई बार सफेद बादलों के साथ, कई बार वर्षा से भरे बादलों के साथ, तो कई बार वर्षा रिक्त खाली बादलों के साथ। लेकिन कुछ भी हो, किसी न किसी विचार के बादल के साथ तादात्म्यता बनी रहती है। और ऐसे में हम आकाश की शुद्धता गँवा देते हैं। अपने आत्मस्वरूप के अन्तरिक्ष की शुद्धता खो देते हैं। और बादलों का यह घिराव घटित ही इस कारण होता है, क्योंकि हम तादात्म्य जोड़ लेते हैं। विचारों के साथ एक हो जाते हैं।
ख्याल आता है कि हम भूखे हैं और विचार मन में कौंध जाता है। विचार इतना भर है कि पेट को भूख लगती है। बस, उसी क्षण हम तादात्म्य स्थापित कर लेते हैं। उसकी आसक्ति से घिर जाते हैं। हम कहने लगते हैं, मैं भूखा हूँ। मुझे भूख लगी है। मन में तो भूख का विचार भर आया था, पर हमने उसके साथ तादात्म्य बना लिया है। हम कहने लगे, मुझे भूख लगी है। बस यही तादात्म्य है।
ऐसी बात नहीं है कि ज्ञानियों को, योगियों को, साधकों को, सिद्धों को भूख महसूस नहीं होती। भूख तो वे भी महसूस करते हैं। बुद्ध भी भूख महसूस करते थे, पतंजलि भी भूख महसूस करते हैं। लेकिन पतंजलि कभी यह नहीं कहेंगे कि मुझे भूख लगी है। वे तो बस इतना कहेंगे कि शरीर भूखा है, वे कहेंगे, मेरा पेट भूख महसूस कर रहा है। बुद्ध कहेंगे, भूख तो पेट में है। मैं तो केवल साक्षी भर हूँ। पेट भूखा है, लेकिन योगीजन उसके साक्षी मात्र बने रहेंगे। लेकिन हम सब तादात्म्य बना लेते हैं, विचार के साथ एक हो जाते हैं।
विचार और वृत्तियों के बदलते स्वरूप के साथ हमारा तादात्म्य भी बदलता है। कभी हम एक के साथ होते हैं, तो कभी दूसरी, तीसरी, चौथी, और पाँचवी वृत्ति के साथ। ये तादात्म्य ही संसार बनाते हैं। दरअसल यही संसार है। यदि हम तादात्म्यों में हैं, तो संसार में हैं, दुःख में हैं। और यदि इन तादात्म्यों के पार और परे चले गए, तो समझो मुक्त हो गए। योग की परम सिद्धि एवं सम्बोधि की परम अवस्था यही है। यही है निर्वाण और कैवल्य। वृत्तियों से तादात्म्य टूटते ही हम इस दुःख भरे संसार से पार होकर आनन्द के जगत् में प्रविष्ट हो जाते हैं।
आनन्द का यह जगत् बिलकुल अभी और यहाँ है। बिलकुल अभी, इसी क्षण। इसके लिए एक पल भी प्रतीक्षा करने की जरूरत नहीं है। बस मन का साक्षी भर होना है। केवल वृत्तियों से नाता तोड़ना है। यह तथ्य कुछ यूँ है-
सुख कहीं मिलेगा, इस भ्रान्ति का नाम संसार है,
सुख अभी है, यहीं है, इस बोध का नाम निर्वाण है,
सुख किसी से मिलेगा, इस भ्रान्ति का नाम संसार है,
सुख अपना स्वभाव है, इस जागृति का नाम मोक्ष है।
.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ २९
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
विचारों के प्रवाह के साथ कब एकात्मता सध जाती है, पता ही नहीं चलता। ये विचार कैसे भी हो सकते हैं, किसी भी तरह के हो सकते हैं। विचारों के बादलों के साथ हम एक हो जाते हैं। कई बार सफेद बादलों के साथ, कई बार वर्षा से भरे बादलों के साथ, तो कई बार वर्षा रिक्त खाली बादलों के साथ। लेकिन कुछ भी हो, किसी न किसी विचार के बादल के साथ तादात्म्यता बनी रहती है। और ऐसे में हम आकाश की शुद्धता गँवा देते हैं। अपने आत्मस्वरूप के अन्तरिक्ष की शुद्धता खो देते हैं। और बादलों का यह घिराव घटित ही इस कारण होता है, क्योंकि हम तादात्म्य जोड़ लेते हैं। विचारों के साथ एक हो जाते हैं।
ख्याल आता है कि हम भूखे हैं और विचार मन में कौंध जाता है। विचार इतना भर है कि पेट को भूख लगती है। बस, उसी क्षण हम तादात्म्य स्थापित कर लेते हैं। उसकी आसक्ति से घिर जाते हैं। हम कहने लगते हैं, मैं भूखा हूँ। मुझे भूख लगी है। मन में तो भूख का विचार भर आया था, पर हमने उसके साथ तादात्म्य बना लिया है। हम कहने लगे, मुझे भूख लगी है। बस यही तादात्म्य है।
ऐसी बात नहीं है कि ज्ञानियों को, योगियों को, साधकों को, सिद्धों को भूख महसूस नहीं होती। भूख तो वे भी महसूस करते हैं। बुद्ध भी भूख महसूस करते थे, पतंजलि भी भूख महसूस करते हैं। लेकिन पतंजलि कभी यह नहीं कहेंगे कि मुझे भूख लगी है। वे तो बस इतना कहेंगे कि शरीर भूखा है, वे कहेंगे, मेरा पेट भूख महसूस कर रहा है। बुद्ध कहेंगे, भूख तो पेट में है। मैं तो केवल साक्षी भर हूँ। पेट भूखा है, लेकिन योगीजन उसके साक्षी मात्र बने रहेंगे। लेकिन हम सब तादात्म्य बना लेते हैं, विचार के साथ एक हो जाते हैं।
विचार और वृत्तियों के बदलते स्वरूप के साथ हमारा तादात्म्य भी बदलता है। कभी हम एक के साथ होते हैं, तो कभी दूसरी, तीसरी, चौथी, और पाँचवी वृत्ति के साथ। ये तादात्म्य ही संसार बनाते हैं। दरअसल यही संसार है। यदि हम तादात्म्यों में हैं, तो संसार में हैं, दुःख में हैं। और यदि इन तादात्म्यों के पार और परे चले गए, तो समझो मुक्त हो गए। योग की परम सिद्धि एवं सम्बोधि की परम अवस्था यही है। यही है निर्वाण और कैवल्य। वृत्तियों से तादात्म्य टूटते ही हम इस दुःख भरे संसार से पार होकर आनन्द के जगत् में प्रविष्ट हो जाते हैं।
आनन्द का यह जगत् बिलकुल अभी और यहाँ है। बिलकुल अभी, इसी क्षण। इसके लिए एक पल भी प्रतीक्षा करने की जरूरत नहीं है। बस मन का साक्षी भर होना है। केवल वृत्तियों से नाता तोड़ना है। यह तथ्य कुछ यूँ है-
सुख कहीं मिलेगा, इस भ्रान्ति का नाम संसार है,
सुख अभी है, यहीं है, इस बोध का नाम निर्वाण है,
सुख किसी से मिलेगा, इस भ्रान्ति का नाम संसार है,
सुख अपना स्वभाव है, इस जागृति का नाम मोक्ष है।
.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ २९
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या