सोमवार, 26 फ़रवरी 2018

👉 मंगलसूत्र

🔷 वह आज सुबह से सड़कों पर यहाँ वहाँ भटक रहा है।पर कोई काम नहीं मिला। शायद उसकी ऐसी हालत देखकर कोई उसे किसी कार्य के लायक ही नहीं समझ रहा। तभी तो सभी उसे भिखारी समझ कर दुत्कार रहे हैं। दोपहर होने को आयी। जुबान सूख रही है।होठों पर पपड़ी सी जम गयी है।उसे ना ही खाने की जरूरत है और ना ही पानी की तलब। पिछले हफ्ते से उसने खाया ही कहाँ है भरपेट। जरूरत ही महसूस नहीं हुई। पर वह उस चीज को कहाँ से हासिल करे जिसकी तलब उसके दिमाग पर हावी होती जा रही है। राघव भी जाने कहाँ मर गया आज। सुबह से दो बार चौराहे पर ढाबे के आस पास सब कहीं छान चुका है। कहीं नहीं दिखा।

🔶 रोज तो वहीं खड़ा मिलता है। कहीं वह उससे खेल तो नहीं रहा? राघव अच्छी तरह जानता है कि वह नशे के बगैर नहीं जी सकता। फिर वह क्या करे? जेब में कौड़ी भी नहीं है। हाथ पैर जोड़कर दो चार खुराक उधारी पर ले लेता। कहीं भाग थोड़े ही जायेगा वह? हमेशा तो पैसे तुरंत चुकाता है। आज नहीं तो क्या हुआ?विश्वास भी कोई चीज है आखिर।

🔷 अपनी ही सोच पर हँस पड़ा वह। विश्वास और वह? इकलौता होने के कारण कितनी उम्मीदें थीं उस से माँ बापू को।पर उसने परवाह की कभी क्या? घर के बर्तन,रूपये पैसे जेवर जब गायब होने लगे तब सबको समझ आया कि लड़का हाथ से निकल चुका है। समझाना बुझाना कुछ काम नहीं आया। आखिरकार माँ ने आखिरी पत्ता फेंका। शायद ब्याह के बाद मोहमाया में पड़कर बुरी सोहबत से छूट जाये।

🔶 जब सोना उसकी दुल्हन बनकर आयी तो सचमुच वह उसका रूप देखकर अपनी सुधबुध ही खो बैठा था। कुछ दिन तक तो सब ठीक चला। माँ बाबू जी भी बेहद खुश कि चलो बुढ़ापा खराब होने से बच गया। पर वही कुपथ पर ले जाने वाले कुमित्र फिर आसपास मंडराने लगे। सोना का सोने जैसा रूप भी उसे न रोक सका।

🔷 उसने भले ही माँ बाबू जी को कभी सुख ना दिया पर सोना के प्रेम,सम्मान व सेवाभाव से वो निहाल थे। प्रारम्भ में तो वह संकोच करता रहा फिर धीरे धीरे ब्याह में मिले नेग निछावर व उपहारों पर नजर गड़ाने लगा। सोना भी कूछ ना कह पाती। कमरे में से कीमती सामान गायब होने लगे पर माँ बाबू जी को कुछ न पता चलता।

🔶 खुद तो पीता पिलाता। दोस्तों को भी खुश करता। धीरे धीरे साल गुजर गया। सोना का रूप पीला पड़ने लगा। मायके जाती तो किसी के बहुत पूछने पर भी कुछ ना बताती। पर अंदर ही अंदर चिंता का घुन लग चुका था उसे। जाने क्या होगा उसके भविष्य का? पेट में पल रही नन्ही सी जान भी क्या इसी माहौल में साँस लेगी? क्या क्या सपने देखे थे उसने,पर कच्चे रेत से सब ढह गये। माँ बाबू जी को जब उसके पेट से होने का पता चला तो उनकी खुशी का ठिकाना ना रहा।

🔷 उम्मीदों के नये पुल बनने लगे। पर अभी दुःखों का अंत कहाँ था। दर्द की पराकाष्ठा नहीं देखी थी उन्होंने। उधर ज्यों ज्यों पेट में पल रहा जीव बढ़ रहा था त्यों त्यों सोना के तन से गहनों का बोझ कम होता जा रहा था। अब तो माँ भी सब समझने लगी थी। विरोध करने पर वह घर से चले जाने की धमकी देकर सबकी बोलती बंद कर देता।

🔶 उफ्फ ......यह दिन भी देखना था। आज तो हद ही हो गयी। रात सोना को आपने गले पर स्पर्श का अहसास हुआ तो वह चिंहुक कर ऊठ गयी। मंगल सूत्र की डोरी पर पति का हाथ देखकर काँप गयी। वही मंगलसूत्र जिसे माँ ने पहली रात में कोठरी में जाने से पहले पकड़ाया था मुँह दिखाई के लिये। मोर के बड़े से ठप्पे वाला मंगलसूत्र। सुहाग की आखिरी निशानी बस यही तो बचा था उसके पास। सोना ने हाथ पकड़ लिया था। जाने कहाँ से हिम्मत आ गयी थी उसे। चिरौरी भरे स्वर में बोल गयी थी"अब इसे तो छोड़ दीजिये। कितना गिरेंगे आप?"

🔷 ग्लानि तो नहीं हुई पर शायद मन में भय कर गया कि सोना कहीं यह बात बता न दे माँ बाबू जी को। सो तड़के ही घर से निकल गया। पूरे दिन घर जाने की हिम्मत ना जुटा पाया। उधर सोना दिन भर आँसू बहाती रही। डाॅक्टर दीदी ने इसी महीने की तारीख दी थी। अब वह क्या करे? आज तो उसे सारी दुनिया ही बेगानी लग रही थी। पति के इस रूप की उसने कल्पना भी नहीं की थी। जब नन्हा घर में आ जायेगा तो वह मोहमाया में पड़ जायेगी। तब क्या होगा?नहीं ऐसा नहीं होने देगी वह। इस माहौल में वह अपने बच्चे को नहीं जीने देगी। उसे कुछ करना होगा.....जल्दी ही.....बच्चे के आने से पहले ही।

🔶 और वहाँ चंदन? वह सड़क किनारे ही पड़ गया था।नींद क्या आती? रात भर सोचता रहा सुबह राघव के पाँव पकड़कर खुराक माँगेगा। फिर मेहनत मंजूरी करके चुकता कर देगा। पर घर तो हरगिज नहीं जाना। पत्नी होकर भी पति की मदद नहीं कर सकती। ऐसा घर माँ बाप पत्नी किस काम के? करवटों में कब सुबह हुई पता ही नहीं चला। उठकर पास के नल पर हाथ मुँह धोया और फिर सड़क पर हो लिया,अपने लत की चाह में जो उसे कहाँ से कहाँ ले आयी थी।

🔷 उधर घर में जो घटित होना था वह हो चुका था। पर उसे क्या खबर क्या परवाह? खुद का भी होश नहीं था। दाढ़ी बढ़ चुकी थी। बाल बिखरे हुये और उसकी जिन्दगी की भाँति उलझे हुये। पेट पीठ से लग चुका था। एक भिखारी से कम लग भी नहीं रहा था। उस रात सोना के हाथ की रोटी खायी थी तबसे भरपेट खाना नसीब ही कहाँ हुआ था?

🔶 आज भी काम नहीं मिला था और ना ही राघव। क्या करे?....कहाँ से रूपयों का इन्तजाम हो?...ये कागज के रंगीन टुकड़े भी क्या चीज हैं। खूब रुलाते हैं इन्सान को।

🔷 तभी उसका ध्यान घाट की ओर जाते रेले पर चला गया। शायद कोई पर्व स्नान है। तभी इत्ता आदमी चला जा रहा है पगलाया हुआ। बड़ा दानपुण्य करते हैं लोग नदी किनारे। इस खयाल से ही उसकी निस्तेज बुझ चुकी आँखें चमक उठीं। भिखारी तो लग ही रहा है। कौन पहचानेगा उसे इस हुलिये में। शायद कुछ मिल जाये।यही सोचकर भीड़ के संग हो लिया। घाट पर एक किनारे बैठने भर की जगह ढूंढने में ज्यादा देर नहीं लगी उसे। लोग चले जा रहे थे पर कोई उसपर ध्यान नहीं दे रहा था। हाथ फैलाये हुये बुदबुदाता जा रहा था"लोग कितना बदल गये हैं। धर्म कर्म तो रहा ही नहीं दान पुण्य की भावना भी नहीं रही लोगों में।"......तभी भीड़ में सामने आते जाने पहचाने चेहरे पर नजर गड़ गई। अरे बाप रे.....इतवारी काका..कहीं देख तो नहीं लिया। कोई अमावस पूरनमासी नहीं छोड़ते। गंगा नहाना तो उनके जीवन का जरूरी कारज है। घबराकर मुँह फेरकर बैठ गया। भीड़ आगे बढ़ गयी।

🔶 यह ठीक नहीं है। कोई पहचान लेगा तो....। उठकर मेले में भटकता रहा। सांझ ढल रही थी। भूख प्यास अब शरीर पर असर दिखाने लगी थी। तलब भी बढ़ चली थी। इतना समय वह बिना नशे के कभी नहीं रहा। धीरे धीरे वह मेले की भीड़ को छोड़कर घाट के सुनसान हिस्से की ओर बढ़ चला। उसे मेले की चहल पहल,सजी दुकानें व खुश्बू बिखेरते चाट मिठाई के ठेले कुछ भी भा नहीं रहे थे। आँखें सुस्ती से बेजान हो चली थीं। शरीर निढाल हो गया था। पेड़ के तने से टेक लगाकर बैठ गया वह। सूरज अस्तांचल में समाने लगा था। उसे भी लग रहा था कि आज उसका सूरज भी ढलने को है। तुरंत उसे कुछ करना है, रात होने से पहले ही।

🔷 घाट पर कुछ चितायें जल रही थीं कुछ बस बुझने को ही थीं। जहाँ जीवन के बाद आता है इंसान,आज वह वहीं खड़ा है जिन्दा लाश बनकर। कैसी नियति है? अचानक नजर अभी अभी लायी गयी शवयात्रा पर ठिठक गयी। ट्रैक्टर ट्राॅली से जाने पहचाने लोग उतर रहे थे। लगता है गाँव में टपक गया है कोई।......बाबू जी?...ये भी हैं यहाँ?

🔶 कहीं देख ना लें। पेड़ की ओट हो लिया। चिता सजा दी गयी। यह क्या?....बाबू जी चिता को मुखाग्नि दे रहे हैं?

🔷 क्या माँ...? नहीं ऐसा नहीं हो सकता। पर क्यों नहीं हो सकता? आँसू बह चले थे उसकी निर्लज्ज आँखों से। जी हुआ भागकर चला जाये बाबूजी के पास। गिर जाये उनके कदमों में।माँग ले माफी। पर यह क्या इतना आसान है अब ....। ना ही तन में ताकत बची थी और ना ही मन में हिम्मत। क्या मुँह लेकर जाता। शायद सोना ने सब बता दिया होगा।बर्दाश्त नहीं कर पायी होंगी। वह इतना गिर जायेगा माँ ने कभी नहीं सोचा होगा। पश्चाताप की एक चिंगारी उभरी और तुरंत बुझ भी गयी। चिता जल रही थी पर उसका शरीर कुछ और ही माँग रहा था उससे। उसकी सारी संवेदनायें, भावनायें और रिश्ते चिता के साथ ही भस्म होते जा रहे थे। जीवन भर संजोये गये संस्कार और बंधन लकड़ियों की चटकन के साथ ही दरक गये थे। आँखें मूंदकर बैठा रहा वह।

🔶 धीरे धीरे आहटें कम होती जा रही थीं। उसे लग रहा था कि वह अपना होश खोता जा रहा है। तभी कानों में पड़ी एक आवाज ने उसे चौंका दिया"कितना दुःख झेलकर पाला था मनोहर ने चंदन को। पर इतना बड़ा दुःख दिया उसने। पहले वह घर छोड़ गया। अब बहू ने जहर खा लिया। दुनिया ही उजड़ गयी बेचारे की। सुना है बहू भी पेट से थी।किलकारी गूंजने से पहले ही सब कुछ खत्म हो गया।"

🔷 "सही कह रहे हो। ऊपर वाले की रही मरजी थी। ऐसे लड़के से तो बेऔलाद होना ही भला है। बहू मरने से पहले ही कह गयी थी कि उसकी चिता को पति हाथ भी नहीं लगायेगा। बहुत भली थी........इसके बाद उसे कुछ भी सुनाई न पड़ा। कान में माँ ,बाबू जी,सोना सबकी आवाजें गूँजती रहीं। एक दूसरे में गडमड हुई फिर सन्नाटा छा गया।

🔶 अचानक ना जाने कहाँ से उसमें बला की ताकत आ गयी। वह दौड़ पड़ा चिता की ओर। लकड़ियाँ अभी धधक रही थीं और उनके बीच सोना का रूप और यौवन भी। पर उसे तो और किसी चीज की तलाश थी। जरूर वह आग के ढेर में होगी। पागलों की तरह वह लकड़ी से अंगारों को इधर उधर बिखेरे जा रहा था। चिता के राख बनने तक लगातार........

🔷 पर वह ठप्पा उसे नहीं दिखा, सुन्दर सा, बड़ा सा, मोर वाला......मंगलसूत्र का ठप्पा...... थक कर वह वहीं लुढ़क गया.... ....कानों में सबकी आवाजें खोती जा रही थीं।।

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 27 Feb 2018

👉 आज का सद्चिंतन 27 Feb 2018


👉 ईश्वर के अनुग्रह का सदुपयोग किया जाय

🔷 मनुष्य को सोचने और करने की स्वतन्त्रता प्राप्त है। उसका उपयोग भली या बुरी, सही या गलत किसी भी दिशा में वह स्वेच्छापूर्वक कर सकता है। भव बंधन में बँधना भी उसका स्वतन्त्र कर्तृत्व ही है। इसमें माया, प्रारब्ध, शैतान, ग्रह, नक्षत्र आदि किसी अन्य का कोई दोष या हस्तक्षेप नहीं है। जीवन के स्वरूप और उद्देश्य से अपरिचित व्यक्ति भौतिक लालसाओं और लिप्साओं में स्वतः आबद्ध होता है। वह चाहे तो अपनी मान्यता और दिशा बदल भी सकता है और जिस तरह बंधनों को अपने इर्द गिर्द लपेटा था उसी प्रकार उनसे मुक्त भी हो सकता है।

🔶 रेशम का कीड़ा अपना खोल आप बुनता है और उसी में बँधकर रह जाता है। मकड़ी को बंधन में बाँधने वाला जाल उसका अपना ही तना हुआ होता है। इसे उनकी प्रवृत्ति की प्रतिक्रिया ही कह सकते हैं। जब रेशम का कीड़ा खोल में से निकलने की बात सोचता है तो बुनने की तरह उसे कुतर डालने में भी कुछ कठिनाई नहीं होती। मकड़ी अपने फैलाये जाले को जब चाहे तब समेट भी सकती है। इन्द्रिय लिप्साओं और ममता, अहंता को प्रधानता देकर मनुष्य शोक-सन्ताप की विपन्नता में ग्रस्त होता है। यदि वह अपनी दिशा पलट ले तो जीवन मुक्त स्थिति का आनन्द प्राप्त करने में भी उसे कोई अड़चन प्रतीत न होगी।

🔷 समस्त विभूतियों से सम्पन्न मानव जीवन का अनुदान और सर्व तन्त्र स्वतन्त्रता का उपहार देकर भगवान ने अपने अनुग्रह का अन्त कर दिया। अब मनुष्य की बारी है कि वह सिद्ध कर दिखाये कि उसका सदुपयोग वह कर सकता है जो उसे दिया गया।

✍🏻 पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति अक्टूबर 1972 पृष्ठ 1
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1972/October/v1.1

👉 सत्कर्मों से दुर्भाग्य भी बदल सकता है (अन्तिम भाग)

🔷 पूर्वकृत पापों के नष्ट होने का संबंध उन कर्मों से है जिनका अभी परिपाक नहीं हुआ है, जो अभी संचित रूप में पड़े हैं और समयानुसार फलित होने के लिए जो सुरक्षित रखे हुए हैं। वर्तमान काल में यदि अधिक बलवान शुभकर्म किए जाएं, मन में यदि उच्चकोटि की सतोगुणी भावनाओं का प्रकाश प्रज्वलित रहे तो उसके तेज से, ऊष्मा से वह अशुभ संचय झुलसने लगता है और हत प्रभ हीन वीर्य होने लगता है। जहाँ अग्नि की भट्टी जलती रहती हो उसके आस पास में कई पुस्तकें औषधियाँ आदि रखी रहें तो वे सब उस गर्मी के कारण जीर्ण शीर्ण निस्तेज और क्षतवीर्य हो जायेंगी। कोई बीज उस गर्मी को रखे रहें तो उनकी उपजाने की शक्ति मारी जायेगी।

🔶 इसी प्रकार यदि वर्तमान काल में कोई व्यक्ति अपनी मनोभूमि को तीव्रगति से निर्मल और सतोगुणी बनाता जा रहा है तो उसकी तीव्रता से भूतकाल के अशुभ कर्मों की शक्ति अवश्य नष्ट होगी। इसी प्रकार यदि भूतकाल में अच्छे कर्म किये गये थे और उनका सुखदायक शुभ परिपाक होने जा रहा था तो वह परिपाक भी वर्तमान काल के कुकर्मों, दुर्गुणों, कुविचारों और दुष्ट भावनाओं के कारण हीन-वीर्य, निष्फल और मृतप्रायः हो सकता है। वर्तमान का प्रभाव भूत पर ही पड़ता है और भविष्य पर भी। महापुरुषों के पूर्वज भी प्रशंसा पाते है और संतान भी आदर की दृष्टि से देखी जाती है। दुष्ट कुकर्मियों के पूर्वज भी कोसे जाते हैं और उनकी संतानें भी लज्जा का अनुभव करती है।

🔷 स्मरण रखिए वर्तमान ही प्रधान है। पिछले जीवन में आप भले या बुरे कैसे भी काम करते रहे हों यदि अब अच्छे काम करते हैं तो चंद भोग्य बन गये फलों को छोड़ कर अन्य संचित पाप क्षतवीर्य हो जायेंगे और यदि उनका कुछ परिणाम हुआ भी तो बहुत ही साधारण स्वल्प कष्ट देने वाला एवं कीर्ति बढ़ाने वाला होगा। शिवि, दधीच, हरिश्चन्द्र, प्रहलाद, ध्रुव, पांडव आदि को पूर्व भोगों के अनुसार कष्ट सहने पड़े पर वे कष्ट अन्ततः उनकी कीर्ति को बढ़ाने वाले और आत्मलाभ कराने वाले सिद्ध हुए। सुकर्मी व्यक्तियों के बड़े-बड़े पूर्व घातक स्वल्प दुख देकर सरल रीति से भुगत जाते हैं। पर जो वर्तमान काल में कुमार्गगामी हैं उनके पूर्वकृत सुकर्म तो हीन वीर्य हो जायेंगे जो संचित पाप कर्म हैं वे सिंचित होकर परिपुष्ट और पल्लवित होंगे, जिससे दुखदायी पाप फलों की शृंखला अधिकाधिक भयंकर होती जाएगी।

🔶 हमें चाहिए कि सद्विचारों को आश्रय दें और सुकर्मों को अपनायें, यह प्रणाली हमारे बुरे भूतकाल को भी श्रेष्ठ भविष्य में परिवर्तित कर सकती है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति फरवरी 1950 पृष्ठ 19
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1950/February/v1.19

👉 मनःसंस्थान को विकृत उद्धत न बनने दें ( अन्तिम भाग)

🔶 निज के व्यक्तित्व को गर्हित करने वालों में निराशा, उदासी, आलस्य, प्रमाद, भय, चिन्ता, कायरता, लिप्सा स्तर की दुष्प्रवृत्तियों की गणना होती है। दूसरों से सम्बन्ध बिगाड़ने में क्रोध, आवेश, अहंकार, अविश्वास, लालच, अनुदारता जैसी आदतों को प्रमुख माना जाता है। भविष्य को बिगाड़ने में चटोरेपन, प्रदर्शन, बड़प्पन, दर्प, अविवेक, अनौचित्य जैसी उद्दण्डताओं का परिकर आता है। मर्यादाओं की अवज्ञा करने और अनाचार पर उतारू होने वाले लोग प्रायः वे होते हैं जिन पर विलास, लालच, संग्रह, अहंता के उद्धत प्रदर्शन का भूत सवार है। अनास्था या नास्तिकता इसी मनःस्थिति को कहते हैं। ईश्वर सद्भावना, सद्विचारणा एवं सत्प्रवृत्ति के समुच्चय को कहते हैं।

🔷 उसी के सम्मिलित स्वरूप की एक ऐसे व्यक्ति विशेष के रूप में अवधारणा की गयी है कि जो न्यायनिष्ठ है और अपनी वरिष्ठता का उपयोग अनुशासन बनाये रहने के लिए करता है। न उसका कोई प्रिय है और न अप्रिय, न किसी से लगाव, न पक्षपात, न विद्वेष। कर्म और उसका प्रतिफल ही ईश्वरीय नियति है। मानवोचित गौरव गरिमा का निर्वाह ही उसकी वास्तविक अर्चना है। इससे विमुख व्यक्तियों को नास्तिक कहा जा सकता है। शास्त्रों में जिन नास्तिकों की भर्त्सना की गयी है, वे उस समुदाय में नहीं आते जो पूजा-अर्चा से आनाकानी करते हैं। वरन् वे हैं जो उत्कृष्टता के प्रति अनास्था व्यक्त करते हैं।

🔶 आस्था-अनास्था की परख किसी के चिन्तन का स्तर एवं प्रवाह की कसौटी पर ही हो सकती है। भगवान को मस्तिष्क में विराजमान माना गया है। शेषशायी विष्णु का क्षीर सागर वही है। कैलास वासी शिव का निवास इसी मानसरोवर के मध्य में है। कमल पुष्प पर विराजमान ब्रह्माजी का ब्रह्मलोक यही है। तिलक चन्दन इसी पर लगाते हैं। आशीर्वाद वरदान के लिए उसी का स्पर्श किया जाता है। विधाता को जो भाग्य में लिखना होता है उसी पटल पर लिखते हैं। विचार तंत्र की गरिमा जितनी अधिक गाई जाय उतनी ही कम है। इसे ब्रह्माण्ड की, विराट ब्रह्म की अनुकृति कहा गया है। जिसने मनःसंस्थान का परिशोधन परिष्कार कर लिया, समझना चाहिए कि उसने तपश्चर्या और योगाभ्यास की आत्मा से सम्पर्क साध लिया। वह सिद्ध पुरुष बनेगा, स्वर्ग में रहेगा और जीवनमुक्तों की श्रेणी में सम्मिलित होकर हर दृष्टि से कृत-कृत्य बनेगा।

🔷 स्मरण रहे, शरीर के समस्त अंग-अवयवों का जितना महत्त्व है, उसके संयुक्त स्वरूप की तुलना में अकेले मस्तिष्क की महत्ता कहीं अधिक है। मस्तिष्क को सही और स्वस्थ रखने का तात्पर्य है उसकी विचार प्रक्रिया को सही दिशा प्रदान करना। पागलों और अविकसित मस्तिष्क वालों की जिन्दगी निरर्थक होती है और वे ज्यों-त्यों करके दिन काटते हैं। उलटी विचारणा अपनाने वाले, भ्रान्तियों और विकृतियों में ग्रसित होकर अनुपयुक्त सोचते रहने वाले उससे भी अधिक घाटे में रहते हैं। अनजान की तुलना में वे अधिक दुःख पाते और दुःख देते हैं जो उलटा सोचते और उलटे रास्ते चलते हैं।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
(गुरुदेव के बिना पानी पिए लिखे हुए फोल्डर-पत्रक से)

👉 Be Determined & Committed. (Part 3)

🔷 You have been asked to wear yellow clothes for it is symbol of being determined. Other people do not wear yellow clothes but you should wear. It also means you do not have any pressure from anyone and you are not interested to copy or follow the world. What is this? It is the symbol of being committed. Whatever is the kind of food, if it is bad what to do of it? Let us go with it, but no SAHAB! It does not taste good so let us taste KACHAUDI somewhere else. Please do not do so. Don’t discuss about different types of foods and tastes. What will happen then?

🔶 Whatever are the benefits of tasty foods, but I do not give importance to them as much as to this thing that you have waged war against your mind to change it to make your one enemy a friend. Your enemy number one is your mind; your friend number one is also your mind. Determination & self-discipline is the name of pressure and furnace that is needed to mould a new weapon, to change an enemy into a friend. To exercise self-discipline you have to be determined and committed and you should make little commitments from time to time so that your determination gets support and goes strong. Such little commitments mean not to do that work until this work is done.
                                                     
🔷 Be a committed man, only committed men have emerged as great men; only committed men have progressed and succeeded and only committed ones have enabled others to cross over. You should be determined and committed. Goodness must be your policy. Generosity must be your duty. Once you have done so, the second step you have to take is not to do these works that no salt on Thursday, celibacy on Thursday or two hours silence on Thursday etc. if you practice these little commitments in association with some excellent duty and responsibility then your ideas will succeed, your personality will be sharp and you will be counted amongst nice people. I hope you would understand the importance of self-discipline and commitment and go ahead to adopt the same.

Finished, today’s session.                                           
===OM SHANTI====
                                           
✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya

👉 जीवंत विभूतियों से भावभरी अपेक्षाएँ (भाग 16)

(17 अप्रैल 1974 को शान्तिकुञ्ज में दिया गया उद्बोधन)

🔷 मित्रो! सारे-के-सारे ये वो लोग हैं, जो मर गए हैं, जो सड़ गए हैं। लोभ के अलावा, लालच के अलावा, ख्वाहिशों के अलावा, तमन्नाओं के अलावा इनके पास कुछ नहीं है। जो आदमी खाली हो गए हैं और जो ढोल तरीके से पोले हैं, उनका हम क्या करेंगे? इनके लिए हम कुछ नहीं करेंगे और न इनसे समाज के लिए, भगवान् के लिए ही कुछ उम्मीद रखेंगे। किसी के लिए भी इनसे उम्मीद नहीं रखेंगे। इनको हम छोड़ देंगे।

🔶 मित्रो! हमारा मिशन जो इंसान में भगवान् का अवतरण करने के लिए और जमीन पर स्वर्ग की धाराओं को बहाने के लिए बोया और खड़ा किया गया है, उसके लिए हमें जिंदा आदमियों की जरूरत है। जिंदा आदमी ही इस मिशन को आगे लेकर चलेंगे। मुरदा आदमी ज्यादा से ज्यादा माला घुमा देंगे। एक हनुमान जी की घुमा देंगे, एक लक्ष्मी जी की घुमा देंगे, एक युग-निर्माण की घुमा देंगे और एक अपने बेटे की घुमा देंगे और एक अपने मोहल्ले वाले की घुमा देंगे और कहेंगे कि गुरुजी मैं रोज नौ माला जपता हूँ। उसमें एक आपके लिए जपता हूँ और एक लक्ष्मी जी के लिए। वाह, बेटे! लक्ष्मी जी भूखी बैठी थी और भगवान् जी को तीन दिन से नाश्ता नहीं मिला था। तूने एक माला जपी थी, बस उससे भगवान् जी का कलेऊ हो जाएगा और उनको रोटी मिल जाएगी। अहा! ये हैं असली भगत और असली जादूगर। सारे जादू के पिटारे ये अपने माला में भरे हुए बैठे हैं।

🔷 मित्रो! इनसे हमारा काम चलेगा? इनसे हमारा काम नहीं चलेगा। जो व्यक्ति हर काम के लिए माला को ही काफी समझते हैं, उनसे हमारा काम नहीं चलेगा। जब कभी इनको जुंग आती है, छटपटाहट आती है, तो खट माला पकड़ लेते हैं और कहते हैं कि इस पर माला को चलाऊँगा, उस पर माला को चलाऊँगा। इस तरह वे तरह-तरह की चर्खियाँ चला देते हैं। जिस तरह बंदूक में तरह-तरह के कारतूस चढ़ा देते हैं? मंत्र का। इस माला पर महामृत्युंजय मंत्र का कारतूस दनादन चढ़ा दिया, जो खट्-खट् सब बीमारियों को मार डालता है और जब इसको लक्ष्मी जी की जरूरत पड़ती है तब? अहा! ‘‘ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे’’ मंत्र का दे दनादन-दे दनादन जप, और वो आई देवी और ये आई चंडी और ये आया पैसा। बस इसके पास तो एक ही मशीनगन है। मरने दो इन अभागे को, इसके पास न कोई जिंदगी है, न कोई दिशा है, न कोई प्रेरणा है, न कोई लक्ष्य है और न इसके पास दिल है। ये अभागा तो केवल माला को लेकर ही दफन होने वाला है और माला को लेकर ही मरेगा।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य (अमृत वाणी)

👉 गुरुगीता (भाग 52)

👉 भावनाओं का हो सद्गुरु की पराचेतना में विसर्जन

🔷 सद्गुरु चेतना का यह तत्त्व सब भाँति अपूर्व है, नित्य है, स्वयं प्रकाशित एवं निरामय है। इसमें किसी तरह का विकार नहीं है। यह परमाकाश रूप, अचल, अक्षय और आनन्द का स्रोत है॥ ६४॥ वेद स्तोत्र भी यही कहते हैं। प्रत्यक्ष, शब्द आदि चारों प्रमाणों से भी यही सत्य सिद्ध होता है। गुरुदेव की आत्मचेतना, तपश्चेतना का सदा-सदा स्मरण करना चाहिए॥ ६५॥ हे महामति देवि! इसके मनन से श्रेष्ठ और कुछ भी नहीं। तुम्हारी साधुता को देखकर ही मैंने यह सत्य तुम्हें बताया है।
  
🔶 गुरुगीता के मंत्रों में इस परम सत्य का उद्घाटन है कि गुरुदेव ही स्मरणीय हैं, चिंतनीय हैं और मननीय हैं। उनकी पराचेतना में रमण करने से श्रेष्ठ और कुछ नहीं है। कई शिष्य-साधक बौद्धिक रूप से इस सच्चाई को जानते हैं; किन्तु भावरूप से वे इसमें डूब नहीं पाते, निमग्न नहीं हो पाते। इसका कारण यह होता है कि उनकी बुद्धि तरह-तरह सांसारिक गणित लगाती रहती है। इस बुद्धि को श्रीमद्भगवद्गीता के गायक ‘व्यावसायित्मका बुद्धिः’ कहते हैं।

🔷 श्री रामकृष्ण परमहंस इसके लिए ‘पटवारी बुद्धि’ का शब्द उपयोग करते थे। जोड़-तोड़, कुटिलता-क्रूरता में निरत रहने वालों के लिए न तो साधना सम्भव है और न ही उनसे समर्पण बन पड़ता है और जो अपनी अहंता का सिर उतार कर गुरुचरणों पर रखने का साहस नहीं कर सकते, भला उनके लिए गुरु भक्ति कहाँ और किस तरह से सम्भव है। ऐसों को सद्गुरु चाहकर भी नहीं अपना पाते। शिष्य की भाव मलीनता उन्हें यह करने ही नहीं देती।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ प्रणव पंड्या
📖 गुरुगीता पृष्ठ 86

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 26 Feb 2018


👉 आज का सद्चिंतन 26 Feb 2018


👉 सत्कर्मों से दुर्भाग्य भी बदल सकता है ( भाग 2)

🔶 जैसे गोबर के उपले आज थापे जाएं तो वे कई दिन में सूख कर जलाने लायक होते है। हम जो भले बुरे कर्म करते रहते हैं उनका भी धीरे धीरे परिपाक होता रहता है और कालान्तर में वे कर्मफल के रूप में परिणित होते है। इसी प्रक्रिया को भाग्य, तकदीर, कर्मलेख, विधाता के अंक, प्रारब्ध, होतव्यता, आदि नामों से पुकारते हैं। हम देखते हैं कि कई व्यक्ति अत्यन्त शुभ कर्मों में प्रवृत्त है पर उन्हें कष्ट में जीवन बिताना पढ़ रहा है और जो पाप में प्रवृत्त हैं वे चैन की छान रहे हैं। इस का कारण यही है कि उनके भूतकाल के कर्मों का उदय इस समय हो रहा है और आज की करनी का फल उन्हें आगे आने वाले समय में मिलेगा।

🔷 मोटा नियम यही है कि जो किया गया है, उसका फल अवश्य मिलेगा। कर्म जैसे मन्द या तीव्र किये गये होंगे उनकी बुराई अच्छाई के अनुसार न्यूनाधिक सुख दुख का विधान होता है। यह कर्म भोग बड़े बड़ों को भोगना पड़ता है।

🔶 परन्तु इसमें सूक्ष्म नियमानुसार कभी कभी हेर फेर भी हो जाता है। जो प्रारब्ध परिपक्व होकर भोग के रूप में प्रस्तुत है उसमें परिवर्तन होना तो कठिन है पर जो कर्म अभी पक रहे हैं, भोग बनने की स्थिति में जो अभी नहीं पहुँच पाये हैं उन पर वर्तमान कर्मों का प्रभाव पड़ता है और उनका फल न्यून या अधिक हो सकता है अथवा वे नष्ट भी हो सकते हैं। धर्म ग्रन्थों में जहाँ शुभ कर्मों का महात्म्य वर्णन किया गया है वहाँ स्थान-स्थान पर ऐसा उल्लेख आया है कि “इस शुभ कर्म के करने से पिछले पाप नष्ट हो जाते हैं।” यहाँ सन्देह उत्पन्न होता है कि यदि उस कर्म के करने वाले के पाप नष्ट ही हो गये तो वर्तमान में तथा भविष्य में किसी प्रकार का दुख या अभाव उसे न रहना चाहिए। परन्तु ऐसा होता नहीं, शुभ कर्म करने वाले भी अन्य साधारण व्यक्तियों की तरह सुख दुख प्राप्त करते रहते हैं।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति फरवरी 1950 पृष्ठ 18

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1950/February/v1.18

👉 मनःसंस्थान को विकृत उद्धत न बनने दें ( भाग 5)

🔷 दोष जिस-तिस को देने और गुण इस-उस के गाने से सिर्फ मन हलका होता है। मूलतः चयन अपने ही रुझान का होता है। साथी और समर्थक तो बुरे से बुरे मार्ग पर चलने वालों को भी मिल जाते हैं और श्रेय पथ पर चलने वाले ही कहाँ हर किसी का समर्थन प्राप्त करते हैं। उन्हें भी ढेरों लोग मूर्ख बनाते और रास्ते में रोड़े अटकाते हैं। अस्तु, दूसरों को महत्त्व देना हो तो उतना ही देना चाहिए कि उनका अस्तित्व तो है, पर इतना नहीं कि किसी को उनके पीछे चलने के लिए विवश ही होना पड़े। आखिर स्वतन्त्र चिन्तन भी तो कोई वस्तु है। मस्तिष्क तो अपना है। उस पर अपना अधिकार नहीं। संकल्प बल से विचारों को दिशा नहीं दी जा सकती है और जो चल रहा है उसमें परिवर्तन-प्रत्यावर्तन की सम्भावना नहीं है, ऐसा मानकर नहीं चलना चाहिए।

🔶 विचारणा में जिस स्तर का अभ्यास पड़ गया है, एक बार उसके खरे-खोटे होने पर नये सिरे से पर्यवेक्षण करना चाहिए और जिन अनुपयुक्त अभ्यासों का कूड़ा-कचरा भरा पाया जाय, उसे साहसपूर्वक बुहार फेंकना चाहिए। लौट-लौट कर आने की कठिनाई तो घर में चमगादड़ों का घोंसला हटाने पर भी आती है। भगा देने पर भी वे लौटकर आती हैं। फिर भी वे इतनी प्रबल नहीं हैं कि गृहस्वामियों के निश्चय को पलट सकें। उन्हें झक मारकर अपना घोंसला अन्यत्र बनाना पड़ता है। कुविचारों की जड़ तभी तक जमी रहती है जब उन्हें उखाड़ने-उजाड़ने का कोई अन्तिम निर्णय नहीं होता। असमंजस का लाभ सदा विपक्षी को मिलता है। संशोधन के निश्चय और परिवर्तन के संकल्प में ही दुर्बलता हो, किसी अन्तिम निर्णय पर पहुँचना न बन पड़ रहा हो तो बात दूसरी है।

🔷 कुविचारों में निषेधात्मक विचारों का एक बहुत बड़ा परिकर है। इनमें से कुछ ऐसे हैं जो व्यक्तित्व को दबोचे रहते हैं और दलदल में से उबरने ही नहीं देते। कुछ ऐसे हैं जो व्यवहार को विकृत, उद्धत बनाकर साथियों से पटरी नहीं बैठने देते। कुछ ऐसे हैं जो दिशाधारा को प्रभावित करते हैं और कँटीली झाड़ियों में भटकाते हैं। इन सभी की अपनी-अपनी मण्डली और बिरादरी है। वे एक-एक के साथ एक जुड़े रहते हैं। रेलगाड़ी में जुड़े डिब्बे की तरह, जंजीर की कड़ियों की तरह, चींटी, दीमकों और टिड्डियों की तरह उन्हें झुण्ड बनाकर साथ-साथ चलते देखा जा सकता हैं। किन्तु साथ ही यह बात भी है कि रानी मक्खी के उड़ जाने के उपरान्त छत्ते की अन्य मधुमक्खियाँ भी इच्छा या अनिच्छा से अपनी अधिष्ठात्री के साथ चली जाती हैं, इसी प्रकार विचारों के परिकर भी जड़ जमाते और सिर पर पैर रखकर उलटे पावों पलायन करते भी देखे जाते हैं।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
(गुरुदेव के बिना पानी पिए लिखे हुए फोल्डर-पत्रक से)

👉 Be Determined & Committed. (Part 2)

🔶 Had they not waged war against ill-thoughts, what poor commitments alone could do; how those commitments would have completed. Ill-thoughts would have been overpowered and set aside in a corner. You must have an army of opponent thoughts in stand-by position to help you at any such crucial moment. The moment ill thoughts of avarice, sex-lust, jealousy and timidity come to your mind, just ask your good army to face them to stop and remove from mind. How it will do if you do not fight? Nothing worked except a war against RAVANA.

🔷 Did anything other than war worked against DURYODHAN? Did anything other than war worked against KANS? I am not talking about war of love, violence or non-violence. I however am only talking about war waged against ills & weaknesses in own personalities and improper conducts, wickedness prevalent in society. You must at any cost prepare an army of thoughts that is equally helpful in giving you support and making a new atmosphere around you. These are the thoughts of determination.
                                          
🔶 A farmer named HAZARI decided, ‘‘I have to plant a garden of one thousand mango trees.’’ Well people just conceded to him when he proceeded for that. Why people conceded? He was determined. Had he not been determined then he would have been wasting his time delivering here & there only speeches, ‘‘SAHAB, plant the tress, promote greenery.’’ So does anyone plant? The world spends a lot on advertisements but does anyone listen?

🔷 To be listened it is very essential that the person who is saying this must be a determined fellow. Being determined means committed to come around high class principles in life. Though essentially it should be for little things & for little periods initially so that no hindrance is faced in commitment, so that psychic force is developed and a base is prepared for bigger commitments ahead in life. It also helps a man to maintain his dignity by remembering such committed instances. Therefore it is very essential for you to be committed.
                                           
.... to be continue
✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya

👉 जीवंत विभूतियों से भावभरी अपेक्षाएँ (भाग 15)

(17 अप्रैल 1974 को शान्तिकुञ्ज में दिया गया उद्बोधन)

🔶 और विनोबा कौन हैं मित्रो! जवान आदमी। और गाँधी जी अस्सी वर्ष के करीब पहुँच गए थे। वो कौन थे? जवान आदमी। जवाहरलाल नेहरू चौहत्तर-पिचहत्तर वर्ष के थे, जब उनकी मृत्यु हुई। तब वे कौन थे? जवान आदमी और राजगोपालाचार्य? राजगोपालाचार्य की जब मृत्यु हुई थी, तो वे अस्सी वर्ष को भी पार कर गए थे। वे कौन थे? जवान आदमी, और हम और आप? हम और आप बुड्ढे आदमी हैं, जर्जर आदमी हैं, टूटे हुए और लकवा के मारे हुए आदमी हैं। कंगाली के मारे हुए, दरद के मारे हुए, दुर्भाग्य के मारे हुए और हम सब देवताओं के मारे हुए आदमी हैं।

🔷 हमारी नसें और हड्डियाँ गल गई हैं। हमार मन सड़ गया है और हमारी भावनाएँ सो गई हैं। हमारा जीवन समाप्त हो गया है। हम लुहार की धौंकनी के तरीके से साँस जरूर लिया करते हैं। हमारी साँस चलती तो है, पर बहुत धीरे-धीरे चलती है। हम कौन हैं? हम मुरदा आदमी हैं। हम मर गए हैं। हमारे अंदर कोई जीवट नहीं है, कोई जिंदगी नहीं है। हमारे अंदर कोई लक्ष्य नहीं है, कोई दिशा नहीं है। हमारे अंदर कोई तड़प नहीं है, कोई कसक नहीं है और हमारे अंदर कोई जोश नहीं है। हमारा खून ठंडा हो गया है।

🔶 साथियो! जिनका खून ठंडा हो गया है, उनको मैं क्या कहूँगा? उनको मैं बूढ़ा आदमी कहूँगा। पच्चीस वर्ष का हो तो क्या, अट्ठाइस वर्ष का हो तो क्या, बत्तीस वर्ष का हो तो क्या? वह बूढ़ा आदमी है और मौत का शिकार है। उसके सामने जिंदगी का कोई लक्ष्य नहीं है, उसके सामने कोई चमक नहीं है। जिसके सामने कोई चमक नहीं है, जिसके सामने कोई उम्मीद नहीं है, जिसकी हिम्मत समाप्त हो गई, जो आदमी निराश हो गया, जिसकी आँखों में निराशा और मायूसी छाई हुई है, वह बूढ़ा आदमी है। मित्रो! इन बूढ़े आदमियों का हम क्या करेंगे? इनसे हम क्या उम्मीद कर सकते हैं कि वे स्वयं के लिए क्या काम कर सकते हैं और भगवान् के लिए क्या कर सकते हैं। और समाज के लिए क्या कर सकते हैं? यह देखकर हम उनसे ना उम्मीद हो जाते हैं। हम उनसे ज्यादा-से-ज्यादा यही उम्मीद रखेंगे कि हमारा जब हवन होगा, तो उन्हें उम्मीद दिलाएँगे कि आपके बेटा-बेटी हो जाएँगे। उनके लिए बस सब से बड़ा एक ही काम है कि बेटा-बेटी हो जाएँ। पैसा हो जाए।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य (अमृत वाणी)

👉 गुरुगीता (भाग 51)

👉 भावनाओं का हो सद्गुरु की पराचेतना में विसर्जन
🔶 गुरुगीता का गायन करते हुए शिष्यों की अन्तश्चेतना श्रद्धा रस में भीग रही है। भक्ति का उफान उनकी भाव चेतना में हिलोरें ले रहा है। इन हिलोरों में न केवल अतीत के कल्मष घुले हैं; बल्कि प्रखरता प्रकाश की नयी आभा भी फैली है। गुरुगीता के मंत्रों का प्रभाव ही कुछ ऐसा है। ये भगवान् महादेव के वचन हैं, जो सदा सर्वदा अमोघ हैं। भगवान् सदाशिव की वाणी तीनों कालों में सत्य है। महाकाल के वचनों पर काल का कोई प्रभाव नहीं है। काल का पाश, देश की सीमाएँ इन्हें छू भी नहीं सकती। इन वचनों का सही-सही मर्म तो केवल माता पार्वती ने ही समझा। जो प्रथम श्रोता होने के साथ भगवान् साम्ब सदाशिव की प्रथम शिष्या भी हैं। अपने सद्गुरु की अनुगत और उन्हीं में विलीन।
  
🔷 शिष्यों के लिए वह परम आदर्श हैं। समर्पण-विसर्जन व विलय की सघनता की साकार मूर्ति। जो शिष्य हैं, वे इन सजल श्रद्धा के साकार भाव विग्रह से श्रद्धा के कुछ कण पाकर स्वयं को प्रखर प्रज्ञा रूपी गुरुदेव में लय कर सकते हैं। इस भाव प्रवाह में अवगाहन करने वालों ने गुरु भक्ति की पूर्व कथा में पढ़ा कि सद्गुरु का नाम मंत्रराज है। इसका जप करने से बुद्धि खरा सोना बनती है। इसके स्मरण-चिंतन से महासंकटों से रक्षा होती है। हर किसी अवस्था में चलते-फिरते, बैठते-उठते यह मंत्रराज साधक की रक्षा करता है। जो भी शिष्य इसकी साधना करता है, उसे अविनाशी, निराकार व निर्विकार आत्म तत्त्व की अनुभूति होती रहती है।
  
🔶 गुरुदेव के इस अद्भुत स्वरूप के एक अन्य रहस्यमय आयाम को प्रकट करते हुए भगवान् भोलेनाथ आदिमाता भवानी से कहते हैं-

अपूर्वाणां परं नित्यं स्वयं ज्योतिर्निरामयम्। विरजं परमाकाशं ध्रुवमानन्दमव्ययम्॥ ६४॥
श्रुतिः  प्रत्यक्षमैतिह्यमनुमानश्चतुष्टयम्। यस्य चात्मतपो वेद देशिकंच सदा स्मरेत्॥ ६५॥
मननं यद्वरं कार्यं तद्वदामि महामते। साधुत्वं च मया दृष्ट्वा त्वयि तिष्ठति साम्प्रतम्॥ ६६॥

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ प्रणव पंड्या
📖 गुरुगीता पृष्ठ 85

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Sep 2024

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