🔷 वह आज सुबह से सड़कों पर यहाँ वहाँ भटक रहा है।पर कोई काम नहीं मिला। शायद उसकी ऐसी हालत देखकर कोई उसे किसी कार्य के लायक ही नहीं समझ रहा। तभी तो सभी उसे भिखारी समझ कर दुत्कार रहे हैं। दोपहर होने को आयी। जुबान सूख रही है।होठों पर पपड़ी सी जम गयी है।उसे ना ही खाने की जरूरत है और ना ही पानी की तलब। पिछले हफ्ते से उसने खाया ही कहाँ है भरपेट। जरूरत ही महसूस नहीं हुई। पर वह उस चीज को कहाँ से हासिल करे जिसकी तलब उसके दिमाग पर हावी होती जा रही है। राघव भी जाने कहाँ मर गया आज। सुबह से दो बार चौराहे पर ढाबे के आस पास सब कहीं छान चुका है। कहीं नहीं दिखा।
🔶 रोज तो वहीं खड़ा मिलता है। कहीं वह उससे खेल तो नहीं रहा? राघव अच्छी तरह जानता है कि वह नशे के बगैर नहीं जी सकता। फिर वह क्या करे? जेब में कौड़ी भी नहीं है। हाथ पैर जोड़कर दो चार खुराक उधारी पर ले लेता। कहीं भाग थोड़े ही जायेगा वह? हमेशा तो पैसे तुरंत चुकाता है। आज नहीं तो क्या हुआ?विश्वास भी कोई चीज है आखिर।
🔷 अपनी ही सोच पर हँस पड़ा वह। विश्वास और वह? इकलौता होने के कारण कितनी उम्मीदें थीं उस से माँ बापू को।पर उसने परवाह की कभी क्या? घर के बर्तन,रूपये पैसे जेवर जब गायब होने लगे तब सबको समझ आया कि लड़का हाथ से निकल चुका है। समझाना बुझाना कुछ काम नहीं आया। आखिरकार माँ ने आखिरी पत्ता फेंका। शायद ब्याह के बाद मोहमाया में पड़कर बुरी सोहबत से छूट जाये।
🔶 जब सोना उसकी दुल्हन बनकर आयी तो सचमुच वह उसका रूप देखकर अपनी सुधबुध ही खो बैठा था। कुछ दिन तक तो सब ठीक चला। माँ बाबू जी भी बेहद खुश कि चलो बुढ़ापा खराब होने से बच गया। पर वही कुपथ पर ले जाने वाले कुमित्र फिर आसपास मंडराने लगे। सोना का सोने जैसा रूप भी उसे न रोक सका।
🔷 उसने भले ही माँ बाबू जी को कभी सुख ना दिया पर सोना के प्रेम,सम्मान व सेवाभाव से वो निहाल थे। प्रारम्भ में तो वह संकोच करता रहा फिर धीरे धीरे ब्याह में मिले नेग निछावर व उपहारों पर नजर गड़ाने लगा। सोना भी कूछ ना कह पाती। कमरे में से कीमती सामान गायब होने लगे पर माँ बाबू जी को कुछ न पता चलता।
🔶 खुद तो पीता पिलाता। दोस्तों को भी खुश करता। धीरे धीरे साल गुजर गया। सोना का रूप पीला पड़ने लगा। मायके जाती तो किसी के बहुत पूछने पर भी कुछ ना बताती। पर अंदर ही अंदर चिंता का घुन लग चुका था उसे। जाने क्या होगा उसके भविष्य का? पेट में पल रही नन्ही सी जान भी क्या इसी माहौल में साँस लेगी? क्या क्या सपने देखे थे उसने,पर कच्चे रेत से सब ढह गये। माँ बाबू जी को जब उसके पेट से होने का पता चला तो उनकी खुशी का ठिकाना ना रहा।
🔷 उम्मीदों के नये पुल बनने लगे। पर अभी दुःखों का अंत कहाँ था। दर्द की पराकाष्ठा नहीं देखी थी उन्होंने। उधर ज्यों ज्यों पेट में पल रहा जीव बढ़ रहा था त्यों त्यों सोना के तन से गहनों का बोझ कम होता जा रहा था। अब तो माँ भी सब समझने लगी थी। विरोध करने पर वह घर से चले जाने की धमकी देकर सबकी बोलती बंद कर देता।
🔶 उफ्फ ......यह दिन भी देखना था। आज तो हद ही हो गयी। रात सोना को आपने गले पर स्पर्श का अहसास हुआ तो वह चिंहुक कर ऊठ गयी। मंगल सूत्र की डोरी पर पति का हाथ देखकर काँप गयी। वही मंगलसूत्र जिसे माँ ने पहली रात में कोठरी में जाने से पहले पकड़ाया था मुँह दिखाई के लिये। मोर के बड़े से ठप्पे वाला मंगलसूत्र। सुहाग की आखिरी निशानी बस यही तो बचा था उसके पास। सोना ने हाथ पकड़ लिया था। जाने कहाँ से हिम्मत आ गयी थी उसे। चिरौरी भरे स्वर में बोल गयी थी"अब इसे तो छोड़ दीजिये। कितना गिरेंगे आप?"
🔷 ग्लानि तो नहीं हुई पर शायद मन में भय कर गया कि सोना कहीं यह बात बता न दे माँ बाबू जी को। सो तड़के ही घर से निकल गया। पूरे दिन घर जाने की हिम्मत ना जुटा पाया। उधर सोना दिन भर आँसू बहाती रही। डाॅक्टर दीदी ने इसी महीने की तारीख दी थी। अब वह क्या करे? आज तो उसे सारी दुनिया ही बेगानी लग रही थी। पति के इस रूप की उसने कल्पना भी नहीं की थी। जब नन्हा घर में आ जायेगा तो वह मोहमाया में पड़ जायेगी। तब क्या होगा?नहीं ऐसा नहीं होने देगी वह। इस माहौल में वह अपने बच्चे को नहीं जीने देगी। उसे कुछ करना होगा.....जल्दी ही.....बच्चे के आने से पहले ही।
🔶 और वहाँ चंदन? वह सड़क किनारे ही पड़ गया था।नींद क्या आती? रात भर सोचता रहा सुबह राघव के पाँव पकड़कर खुराक माँगेगा। फिर मेहनत मंजूरी करके चुकता कर देगा। पर घर तो हरगिज नहीं जाना। पत्नी होकर भी पति की मदद नहीं कर सकती। ऐसा घर माँ बाप पत्नी किस काम के? करवटों में कब सुबह हुई पता ही नहीं चला। उठकर पास के नल पर हाथ मुँह धोया और फिर सड़क पर हो लिया,अपने लत की चाह में जो उसे कहाँ से कहाँ ले आयी थी।
🔷 उधर घर में जो घटित होना था वह हो चुका था। पर उसे क्या खबर क्या परवाह? खुद का भी होश नहीं था। दाढ़ी बढ़ चुकी थी। बाल बिखरे हुये और उसकी जिन्दगी की भाँति उलझे हुये। पेट पीठ से लग चुका था। एक भिखारी से कम लग भी नहीं रहा था। उस रात सोना के हाथ की रोटी खायी थी तबसे भरपेट खाना नसीब ही कहाँ हुआ था?
🔶 आज भी काम नहीं मिला था और ना ही राघव। क्या करे?....कहाँ से रूपयों का इन्तजाम हो?...ये कागज के रंगीन टुकड़े भी क्या चीज हैं। खूब रुलाते हैं इन्सान को।
🔷 तभी उसका ध्यान घाट की ओर जाते रेले पर चला गया। शायद कोई पर्व स्नान है। तभी इत्ता आदमी चला जा रहा है पगलाया हुआ। बड़ा दानपुण्य करते हैं लोग नदी किनारे। इस खयाल से ही उसकी निस्तेज बुझ चुकी आँखें चमक उठीं। भिखारी तो लग ही रहा है। कौन पहचानेगा उसे इस हुलिये में। शायद कुछ मिल जाये।यही सोचकर भीड़ के संग हो लिया। घाट पर एक किनारे बैठने भर की जगह ढूंढने में ज्यादा देर नहीं लगी उसे। लोग चले जा रहे थे पर कोई उसपर ध्यान नहीं दे रहा था। हाथ फैलाये हुये बुदबुदाता जा रहा था"लोग कितना बदल गये हैं। धर्म कर्म तो रहा ही नहीं दान पुण्य की भावना भी नहीं रही लोगों में।"......तभी भीड़ में सामने आते जाने पहचाने चेहरे पर नजर गड़ गई। अरे बाप रे.....इतवारी काका..कहीं देख तो नहीं लिया। कोई अमावस पूरनमासी नहीं छोड़ते। गंगा नहाना तो उनके जीवन का जरूरी कारज है। घबराकर मुँह फेरकर बैठ गया। भीड़ आगे बढ़ गयी।
🔶 यह ठीक नहीं है। कोई पहचान लेगा तो....। उठकर मेले में भटकता रहा। सांझ ढल रही थी। भूख प्यास अब शरीर पर असर दिखाने लगी थी। तलब भी बढ़ चली थी। इतना समय वह बिना नशे के कभी नहीं रहा। धीरे धीरे वह मेले की भीड़ को छोड़कर घाट के सुनसान हिस्से की ओर बढ़ चला। उसे मेले की चहल पहल,सजी दुकानें व खुश्बू बिखेरते चाट मिठाई के ठेले कुछ भी भा नहीं रहे थे। आँखें सुस्ती से बेजान हो चली थीं। शरीर निढाल हो गया था। पेड़ के तने से टेक लगाकर बैठ गया वह। सूरज अस्तांचल में समाने लगा था। उसे भी लग रहा था कि आज उसका सूरज भी ढलने को है। तुरंत उसे कुछ करना है, रात होने से पहले ही।
🔷 घाट पर कुछ चितायें जल रही थीं कुछ बस बुझने को ही थीं। जहाँ जीवन के बाद आता है इंसान,आज वह वहीं खड़ा है जिन्दा लाश बनकर। कैसी नियति है? अचानक नजर अभी अभी लायी गयी शवयात्रा पर ठिठक गयी। ट्रैक्टर ट्राॅली से जाने पहचाने लोग उतर रहे थे। लगता है गाँव में टपक गया है कोई।......बाबू जी?...ये भी हैं यहाँ?
🔶 कहीं देख ना लें। पेड़ की ओट हो लिया। चिता सजा दी गयी। यह क्या?....बाबू जी चिता को मुखाग्नि दे रहे हैं?
🔷 क्या माँ...? नहीं ऐसा नहीं हो सकता। पर क्यों नहीं हो सकता? आँसू बह चले थे उसकी निर्लज्ज आँखों से। जी हुआ भागकर चला जाये बाबूजी के पास। गिर जाये उनके कदमों में।माँग ले माफी। पर यह क्या इतना आसान है अब ....। ना ही तन में ताकत बची थी और ना ही मन में हिम्मत। क्या मुँह लेकर जाता। शायद सोना ने सब बता दिया होगा।बर्दाश्त नहीं कर पायी होंगी। वह इतना गिर जायेगा माँ ने कभी नहीं सोचा होगा। पश्चाताप की एक चिंगारी उभरी और तुरंत बुझ भी गयी। चिता जल रही थी पर उसका शरीर कुछ और ही माँग रहा था उससे। उसकी सारी संवेदनायें, भावनायें और रिश्ते चिता के साथ ही भस्म होते जा रहे थे। जीवन भर संजोये गये संस्कार और बंधन लकड़ियों की चटकन के साथ ही दरक गये थे। आँखें मूंदकर बैठा रहा वह।
🔶 धीरे धीरे आहटें कम होती जा रही थीं। उसे लग रहा था कि वह अपना होश खोता जा रहा है। तभी कानों में पड़ी एक आवाज ने उसे चौंका दिया"कितना दुःख झेलकर पाला था मनोहर ने चंदन को। पर इतना बड़ा दुःख दिया उसने। पहले वह घर छोड़ गया। अब बहू ने जहर खा लिया। दुनिया ही उजड़ गयी बेचारे की। सुना है बहू भी पेट से थी।किलकारी गूंजने से पहले ही सब कुछ खत्म हो गया।"
🔷 "सही कह रहे हो। ऊपर वाले की रही मरजी थी। ऐसे लड़के से तो बेऔलाद होना ही भला है। बहू मरने से पहले ही कह गयी थी कि उसकी चिता को पति हाथ भी नहीं लगायेगा। बहुत भली थी........इसके बाद उसे कुछ भी सुनाई न पड़ा। कान में माँ ,बाबू जी,सोना सबकी आवाजें गूँजती रहीं। एक दूसरे में गडमड हुई फिर सन्नाटा छा गया।
🔶 अचानक ना जाने कहाँ से उसमें बला की ताकत आ गयी। वह दौड़ पड़ा चिता की ओर। लकड़ियाँ अभी धधक रही थीं और उनके बीच सोना का रूप और यौवन भी। पर उसे तो और किसी चीज की तलाश थी। जरूर वह आग के ढेर में होगी। पागलों की तरह वह लकड़ी से अंगारों को इधर उधर बिखेरे जा रहा था। चिता के राख बनने तक लगातार........
🔷 पर वह ठप्पा उसे नहीं दिखा, सुन्दर सा, बड़ा सा, मोर वाला......मंगलसूत्र का ठप्पा...... थक कर वह वहीं लुढ़क गया.... ....कानों में सबकी आवाजें खोती जा रही थीं।।
🔶 रोज तो वहीं खड़ा मिलता है। कहीं वह उससे खेल तो नहीं रहा? राघव अच्छी तरह जानता है कि वह नशे के बगैर नहीं जी सकता। फिर वह क्या करे? जेब में कौड़ी भी नहीं है। हाथ पैर जोड़कर दो चार खुराक उधारी पर ले लेता। कहीं भाग थोड़े ही जायेगा वह? हमेशा तो पैसे तुरंत चुकाता है। आज नहीं तो क्या हुआ?विश्वास भी कोई चीज है आखिर।
🔷 अपनी ही सोच पर हँस पड़ा वह। विश्वास और वह? इकलौता होने के कारण कितनी उम्मीदें थीं उस से माँ बापू को।पर उसने परवाह की कभी क्या? घर के बर्तन,रूपये पैसे जेवर जब गायब होने लगे तब सबको समझ आया कि लड़का हाथ से निकल चुका है। समझाना बुझाना कुछ काम नहीं आया। आखिरकार माँ ने आखिरी पत्ता फेंका। शायद ब्याह के बाद मोहमाया में पड़कर बुरी सोहबत से छूट जाये।
🔶 जब सोना उसकी दुल्हन बनकर आयी तो सचमुच वह उसका रूप देखकर अपनी सुधबुध ही खो बैठा था। कुछ दिन तक तो सब ठीक चला। माँ बाबू जी भी बेहद खुश कि चलो बुढ़ापा खराब होने से बच गया। पर वही कुपथ पर ले जाने वाले कुमित्र फिर आसपास मंडराने लगे। सोना का सोने जैसा रूप भी उसे न रोक सका।
🔷 उसने भले ही माँ बाबू जी को कभी सुख ना दिया पर सोना के प्रेम,सम्मान व सेवाभाव से वो निहाल थे। प्रारम्भ में तो वह संकोच करता रहा फिर धीरे धीरे ब्याह में मिले नेग निछावर व उपहारों पर नजर गड़ाने लगा। सोना भी कूछ ना कह पाती। कमरे में से कीमती सामान गायब होने लगे पर माँ बाबू जी को कुछ न पता चलता।
🔶 खुद तो पीता पिलाता। दोस्तों को भी खुश करता। धीरे धीरे साल गुजर गया। सोना का रूप पीला पड़ने लगा। मायके जाती तो किसी के बहुत पूछने पर भी कुछ ना बताती। पर अंदर ही अंदर चिंता का घुन लग चुका था उसे। जाने क्या होगा उसके भविष्य का? पेट में पल रही नन्ही सी जान भी क्या इसी माहौल में साँस लेगी? क्या क्या सपने देखे थे उसने,पर कच्चे रेत से सब ढह गये। माँ बाबू जी को जब उसके पेट से होने का पता चला तो उनकी खुशी का ठिकाना ना रहा।
🔷 उम्मीदों के नये पुल बनने लगे। पर अभी दुःखों का अंत कहाँ था। दर्द की पराकाष्ठा नहीं देखी थी उन्होंने। उधर ज्यों ज्यों पेट में पल रहा जीव बढ़ रहा था त्यों त्यों सोना के तन से गहनों का बोझ कम होता जा रहा था। अब तो माँ भी सब समझने लगी थी। विरोध करने पर वह घर से चले जाने की धमकी देकर सबकी बोलती बंद कर देता।
🔶 उफ्फ ......यह दिन भी देखना था। आज तो हद ही हो गयी। रात सोना को आपने गले पर स्पर्श का अहसास हुआ तो वह चिंहुक कर ऊठ गयी। मंगल सूत्र की डोरी पर पति का हाथ देखकर काँप गयी। वही मंगलसूत्र जिसे माँ ने पहली रात में कोठरी में जाने से पहले पकड़ाया था मुँह दिखाई के लिये। मोर के बड़े से ठप्पे वाला मंगलसूत्र। सुहाग की आखिरी निशानी बस यही तो बचा था उसके पास। सोना ने हाथ पकड़ लिया था। जाने कहाँ से हिम्मत आ गयी थी उसे। चिरौरी भरे स्वर में बोल गयी थी"अब इसे तो छोड़ दीजिये। कितना गिरेंगे आप?"
🔷 ग्लानि तो नहीं हुई पर शायद मन में भय कर गया कि सोना कहीं यह बात बता न दे माँ बाबू जी को। सो तड़के ही घर से निकल गया। पूरे दिन घर जाने की हिम्मत ना जुटा पाया। उधर सोना दिन भर आँसू बहाती रही। डाॅक्टर दीदी ने इसी महीने की तारीख दी थी। अब वह क्या करे? आज तो उसे सारी दुनिया ही बेगानी लग रही थी। पति के इस रूप की उसने कल्पना भी नहीं की थी। जब नन्हा घर में आ जायेगा तो वह मोहमाया में पड़ जायेगी। तब क्या होगा?नहीं ऐसा नहीं होने देगी वह। इस माहौल में वह अपने बच्चे को नहीं जीने देगी। उसे कुछ करना होगा.....जल्दी ही.....बच्चे के आने से पहले ही।
🔶 और वहाँ चंदन? वह सड़क किनारे ही पड़ गया था।नींद क्या आती? रात भर सोचता रहा सुबह राघव के पाँव पकड़कर खुराक माँगेगा। फिर मेहनत मंजूरी करके चुकता कर देगा। पर घर तो हरगिज नहीं जाना। पत्नी होकर भी पति की मदद नहीं कर सकती। ऐसा घर माँ बाप पत्नी किस काम के? करवटों में कब सुबह हुई पता ही नहीं चला। उठकर पास के नल पर हाथ मुँह धोया और फिर सड़क पर हो लिया,अपने लत की चाह में जो उसे कहाँ से कहाँ ले आयी थी।
🔷 उधर घर में जो घटित होना था वह हो चुका था। पर उसे क्या खबर क्या परवाह? खुद का भी होश नहीं था। दाढ़ी बढ़ चुकी थी। बाल बिखरे हुये और उसकी जिन्दगी की भाँति उलझे हुये। पेट पीठ से लग चुका था। एक भिखारी से कम लग भी नहीं रहा था। उस रात सोना के हाथ की रोटी खायी थी तबसे भरपेट खाना नसीब ही कहाँ हुआ था?
🔶 आज भी काम नहीं मिला था और ना ही राघव। क्या करे?....कहाँ से रूपयों का इन्तजाम हो?...ये कागज के रंगीन टुकड़े भी क्या चीज हैं। खूब रुलाते हैं इन्सान को।
🔷 तभी उसका ध्यान घाट की ओर जाते रेले पर चला गया। शायद कोई पर्व स्नान है। तभी इत्ता आदमी चला जा रहा है पगलाया हुआ। बड़ा दानपुण्य करते हैं लोग नदी किनारे। इस खयाल से ही उसकी निस्तेज बुझ चुकी आँखें चमक उठीं। भिखारी तो लग ही रहा है। कौन पहचानेगा उसे इस हुलिये में। शायद कुछ मिल जाये।यही सोचकर भीड़ के संग हो लिया। घाट पर एक किनारे बैठने भर की जगह ढूंढने में ज्यादा देर नहीं लगी उसे। लोग चले जा रहे थे पर कोई उसपर ध्यान नहीं दे रहा था। हाथ फैलाये हुये बुदबुदाता जा रहा था"लोग कितना बदल गये हैं। धर्म कर्म तो रहा ही नहीं दान पुण्य की भावना भी नहीं रही लोगों में।"......तभी भीड़ में सामने आते जाने पहचाने चेहरे पर नजर गड़ गई। अरे बाप रे.....इतवारी काका..कहीं देख तो नहीं लिया। कोई अमावस पूरनमासी नहीं छोड़ते। गंगा नहाना तो उनके जीवन का जरूरी कारज है। घबराकर मुँह फेरकर बैठ गया। भीड़ आगे बढ़ गयी।
🔶 यह ठीक नहीं है। कोई पहचान लेगा तो....। उठकर मेले में भटकता रहा। सांझ ढल रही थी। भूख प्यास अब शरीर पर असर दिखाने लगी थी। तलब भी बढ़ चली थी। इतना समय वह बिना नशे के कभी नहीं रहा। धीरे धीरे वह मेले की भीड़ को छोड़कर घाट के सुनसान हिस्से की ओर बढ़ चला। उसे मेले की चहल पहल,सजी दुकानें व खुश्बू बिखेरते चाट मिठाई के ठेले कुछ भी भा नहीं रहे थे। आँखें सुस्ती से बेजान हो चली थीं। शरीर निढाल हो गया था। पेड़ के तने से टेक लगाकर बैठ गया वह। सूरज अस्तांचल में समाने लगा था। उसे भी लग रहा था कि आज उसका सूरज भी ढलने को है। तुरंत उसे कुछ करना है, रात होने से पहले ही।
🔷 घाट पर कुछ चितायें जल रही थीं कुछ बस बुझने को ही थीं। जहाँ जीवन के बाद आता है इंसान,आज वह वहीं खड़ा है जिन्दा लाश बनकर। कैसी नियति है? अचानक नजर अभी अभी लायी गयी शवयात्रा पर ठिठक गयी। ट्रैक्टर ट्राॅली से जाने पहचाने लोग उतर रहे थे। लगता है गाँव में टपक गया है कोई।......बाबू जी?...ये भी हैं यहाँ?
🔶 कहीं देख ना लें। पेड़ की ओट हो लिया। चिता सजा दी गयी। यह क्या?....बाबू जी चिता को मुखाग्नि दे रहे हैं?
🔷 क्या माँ...? नहीं ऐसा नहीं हो सकता। पर क्यों नहीं हो सकता? आँसू बह चले थे उसकी निर्लज्ज आँखों से। जी हुआ भागकर चला जाये बाबूजी के पास। गिर जाये उनके कदमों में।माँग ले माफी। पर यह क्या इतना आसान है अब ....। ना ही तन में ताकत बची थी और ना ही मन में हिम्मत। क्या मुँह लेकर जाता। शायद सोना ने सब बता दिया होगा।बर्दाश्त नहीं कर पायी होंगी। वह इतना गिर जायेगा माँ ने कभी नहीं सोचा होगा। पश्चाताप की एक चिंगारी उभरी और तुरंत बुझ भी गयी। चिता जल रही थी पर उसका शरीर कुछ और ही माँग रहा था उससे। उसकी सारी संवेदनायें, भावनायें और रिश्ते चिता के साथ ही भस्म होते जा रहे थे। जीवन भर संजोये गये संस्कार और बंधन लकड़ियों की चटकन के साथ ही दरक गये थे। आँखें मूंदकर बैठा रहा वह।
🔶 धीरे धीरे आहटें कम होती जा रही थीं। उसे लग रहा था कि वह अपना होश खोता जा रहा है। तभी कानों में पड़ी एक आवाज ने उसे चौंका दिया"कितना दुःख झेलकर पाला था मनोहर ने चंदन को। पर इतना बड़ा दुःख दिया उसने। पहले वह घर छोड़ गया। अब बहू ने जहर खा लिया। दुनिया ही उजड़ गयी बेचारे की। सुना है बहू भी पेट से थी।किलकारी गूंजने से पहले ही सब कुछ खत्म हो गया।"
🔷 "सही कह रहे हो। ऊपर वाले की रही मरजी थी। ऐसे लड़के से तो बेऔलाद होना ही भला है। बहू मरने से पहले ही कह गयी थी कि उसकी चिता को पति हाथ भी नहीं लगायेगा। बहुत भली थी........इसके बाद उसे कुछ भी सुनाई न पड़ा। कान में माँ ,बाबू जी,सोना सबकी आवाजें गूँजती रहीं। एक दूसरे में गडमड हुई फिर सन्नाटा छा गया।
🔶 अचानक ना जाने कहाँ से उसमें बला की ताकत आ गयी। वह दौड़ पड़ा चिता की ओर। लकड़ियाँ अभी धधक रही थीं और उनके बीच सोना का रूप और यौवन भी। पर उसे तो और किसी चीज की तलाश थी। जरूर वह आग के ढेर में होगी। पागलों की तरह वह लकड़ी से अंगारों को इधर उधर बिखेरे जा रहा था। चिता के राख बनने तक लगातार........
🔷 पर वह ठप्पा उसे नहीं दिखा, सुन्दर सा, बड़ा सा, मोर वाला......मंगलसूत्र का ठप्पा...... थक कर वह वहीं लुढ़क गया.... ....कानों में सबकी आवाजें खोती जा रही थीं।।