■ पुरुषार्थ एक नियम है और भाग्य उसका अपवाद। अपवादों का अस्तित्व तो मानना पड़ता है, पर उनके आधार पर कोई नीति नहीं अपनाई जा सकती। जैसे कभी-कभी ग्रीष्म ऋुत में ओले बरस जाते हैं, यह अपवाद है। इन्हें कौतुक या कौतूहल की दृष्टि से देखा जा सकता है, पर इनको नियम नहीं माना जा सकता। इसी प्रकार भाग्य की गणना अपवादों में तो हो सकती है, पर यह नहीं माना जा सकता कि मानव जीवन की सारी गतिविधियाँ ही पूर्ण निश्चित भाग्य विधान के अनुसार चलती हैं। यदि ऐसा होता तो पुरुषार्थ और प्रयत्न की कोई आवश्यकता ही न रह जाती।
◆ मनुष्य और भय परस्पर विरोधी शब्द हैं। मनुष्य में जिस शक्ति की कल्पना की जाती है उसके रहते उसे भय कदापि न होना चाहिए, पर आत्मबल की कमी और अपनी शक्तियों पर विश्वास न रखने से ही वह स्थिति बनती है। भय मनुष्य को केवल पाप से होना चाहिए। चोरी, छल, कपट, बेईमानी, मिलावट, जुआ, नशा, मांसाहार-इनसे सामाजिक जीवन में कलुष उत्पन्न होता है, इनसे भयभीत होना व्यक्ति और समाज के हित में है, किन्तु मृत्यु और विपरीत परिस्थितियों से घबड़ाता मनुष्योचित धर्म नहीं है।
◆ दूसरे व्यक्ति हमारे अनुकूल ही अपना स्वभाव बदल लें और जैसे हम चाहते हैं वैसे ही चलें यह सोचने की अपेक्षा यह सोचना अधिक युक्तिसंगत है कि इस बहुरंगी दुनिया से मिल-जुल कर चलने और जैसा कुछ यहाँ है उसी से काम चलाने के लायक लचक अपने अंदर उत्पन्न करें। समझौते की नीति पर यहाँ सारा काम चल रहा है। रात और दिन परस्पर विरोधी होते हुए भी जब संध्या समय एक जगह एकत्रित हो सकते हैं तो क्या यह उचित नहीं कि विरोधी तत्त्वों का भी समन्वय खोजें और मिल-जुलकर चलने का सह-अस्तित्व भी अपनाया जाय?
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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