बुधवार, 3 मई 2023

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 19 Oct 2016

■ पुरुषार्थ एक नियम है और भाग्य उसका अपवाद। अपवादों का अस्तित्व तो मानना पड़ता है, पर उनके आधार पर कोई नीति नहीं अपनाई जा सकती। जैसे कभी-कभी ग्रीष्म ऋुत में ओले बरस जाते हैं, यह अपवाद है। इन्हें कौतुक या कौतूहल की दृष्टि से देखा जा सकता है, पर इनको नियम नहीं माना जा सकता। इसी प्रकार भाग्य की गणना अपवादों में तो हो सकती है, पर यह नहीं माना जा सकता कि मानव जीवन की सारी गतिविधियाँ ही पूर्ण निश्चित भाग्य विधान के अनुसार चलती हैं। यदि ऐसा होता तो पुरुषार्थ और प्रयत्न की कोई आवश्यकता ही न रह जाती।

◆ मनुष्य और भय परस्पर विरोधी शब्द हैं। मनुष्य में जिस शक्ति की कल्पना की जाती है उसके रहते उसे भय कदापि न होना चाहिए, पर आत्मबल की कमी और अपनी शक्तियों पर विश्वास न रखने से ही वह स्थिति बनती है। भय मनुष्य को केवल पाप से होना चाहिए। चोरी, छल, कपट, बेईमानी, मिलावट, जुआ, नशा, मांसाहार-इनसे सामाजिक जीवन में कलुष उत्पन्न होता है, इनसे भयभीत होना व्यक्ति और समाज के हित में है, किन्तु मृत्यु और विपरीत परिस्थितियों से घबड़ाता मनुष्योचित धर्म नहीं है।

■ भगवान् घट-घट वासी हैं। वे भावनाओं को परखते हैं और हमारी प्रवृत्तियों को भली प्रकार जानते हैं। उन्हें किसी बाह्य उपचार से बहकाया नहीं जा सकता। वे किसी पर तभी कृपा करते हैं जब भावना की उत्कृष्टता को परख लेते हैं। उन्हें भजन से अधिक भाव प्यारा है। भावनाशील व्यक्ति बिना भजन के भी ईश्वर को प्राप्त कर सकता है, पर भावनाहीन व्यक्ति के लिए केवल भजन के बल पर लक्ष्य प्राप्ति संभव नहीं हो सकती।

◆ दूसरे व्यक्ति हमारे अनुकूल ही अपना स्वभाव बदल लें और जैसे हम चाहते हैं वैसे ही चलें यह सोचने की अपेक्षा यह सोचना अधिक युक्तिसंगत है कि इस बहुरंगी दुनिया से मिल-जुल कर चलने और जैसा कुछ यहाँ है उसी से काम चलाने के लायक लचक अपने अंदर उत्पन्न करें। समझौते की नीति पर यहाँ सारा काम चल रहा है। रात और दिन परस्पर विरोधी होते हुए भी जब संध्या समय एक जगह एकत्रित हो सकते हैं तो क्या यह उचित नहीं कि विरोधी तत्त्वों का भी समन्वय खोजें और मिल-जुलकर चलने का सह-अस्तित्व भी अपनाया जाय?

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 तितिक्षा ही हमें सुदृढ़ बनाती है। (भाग 2)

जीव जगत में यह प्रक्रिया जहाँ भी अपनाई गई है वहाँ दृढ़ता बढ़ी है। पौधों में भी ऐसे साहसी मौजूद हैं जिन्होंने घोर विपरीतता से जूझ कर न केवल अपना अस्तित्व कायम रखा है वरन् शोभा, सौंदर्य की सम्पदा का स्थान भी पाया है।

घोर विपरीत परिस्थितियों में स्वावलम्बी जीवन जीने वाले पौधे वहाँ पैदा होते हैं जहाँ पानी का अभाव रहता है। उनकी आत्म निर्भरता यह सिद्ध करती है कि जीवन यदि अपनी पर उतर आये-तन तक खड़ा हो जाये तो विपरीत परिस्थितियों के आगे भी उसे पराजित नहीं होना पड़ता।

अमेरिका के मरुस्थल में और दक्षिणी अफ्रीका में पाये जाने वाले कैक्टस इसी प्रकार के हैं। वे जल के अभाव में जीवित रहते हैं। रेतीली जमीन में हरे-भरे रहते हैं और सब को सुखा-जला डालने वाली गर्मी के साथ अठखेलियाँ करते हुए अपनी हरियाली बनाये रहते हैं।

विकट परिस्थितियों के बीच रहने के कारण कुरूप भी नहीं होते वरन् बाग उद्यानों में रहने वाले शोभा गुल्मों की अपेक्षा कुछ अधिक ही सुन्दर लगते हैं। रेशम जैसे मुलायम, ऊन के गोले जैसे दर्शनीय, गेंद, मुद्गर, सर्प, स्तम्भ, ऊँट, कछुआ, साही, तीतर, खरगोश, अखरोट, कुकुरमुत्ते से मिलती-जुलती उनको कितनी ही जातियाँ ऐसी हैं जिन्हें वनस्पति प्रेमी अपने यहाँ आरोपित करने में गर्व अनुभव करते हैं। पत्तियाँ इनमें नहीं के बराबर होती हैं, प्रायः तने ही बढ़ते हैं पर उनकी ऊपरी नोंक पर ऐसे सुन्दर फूल आते हैं कि प्रकृति के इस अनुदान पर आश्चर्य होता है जो उसने इस उपेक्षित वनस्पति को प्रदान किया है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति मार्च 1972 पृष्ठ 55


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👉 तितिक्षा ही हमें सुदृढ़ बनाती है। (भाग 1)

कठिनाइयों से डर कर यदि हिम्मत हार बैठा जाय बात दूसरी है अन्यथा प्राणधारी की अदम्य जीवनेच्छा इतनी प्रबल है कि वह बुरी से बुरी परिस्थितियों में जीवित ही नहीं-फलता-फूलता भी रह सकता है।

उत्तरी ध्रुव पर ‘एस्किमो’ नामक मनुष्य जाति चिरकाल से रहती है। वहाँ घोर शीत रहता है। सदा बर्फ जमी रहती है। कृषि तथा वनस्पतियों की कोई सम्भावना नहीं। सामान्य मनुष्यों को उपलब्ध होने वाले साधनों में से कोई नहीं फिर भी वे जीवित हैं। जीवित ही नहीं परिपुष्ट भी हैं। परिपुष्ट ही नहीं सुखी भी हैं। हम अपने को जितना सुखी मानते हैं वे उससे कम नहीं कुछ अधिक ही सुखी मानते हैं और सन्तोषपूर्वक जीवन यापन करते हैं। जरा सी ठण्ड हमें परेशान कर देती है पर एस्किमो घोर शीत में आजीवन रहकर भी शीत से प्रभावित नहीं होते।

जीवनेच्छा जब तितीक्षा के रूप में विकसित होती है और कष्ट साध्य समझी जाने वाली परिस्थितियों से भी जूझने के लिए खड़ी हो जाती है तो मानसिक ढाँचे के साथ-साथ शारीरिक क्षमता भी बदल जाती है और प्रकृति में ऐसा हेर-फेर हो जाता है कि कठिन समझी जाने वाली परिस्थितियाँ सरल प्रतीत होने लगें। वन्य प्रदेशों के निवासी-सभ्य शहरी लोगों की तुलना में जितने अभाव ग्रस्त हैं उतने ही सुदृढ़ भी रहते हैं। परिस्थिति को अनुकूल बनाने का प्रयत्न तो करना चाहिए पर परिस्थिति के अनुकूल अपने को ढालने की मनस्विता एवं तितीक्षा के लिए भी तत्पर रहना चाहिए।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति मार्च 1972 पृष्ठ 55

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1972/March/v1.55


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👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Sep 2024

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