सोमवार, 20 जनवरी 2020

👉 "पांच प्रेत"

नगर अभी दूर था। वन हिंसक जन्तुओं से भरा पड़ा था। सो विशाल वटवृक्ष, सरोवर और शिव मंदिर देखकर आचार्य महीधर वहीं रुक गये। शेष यात्रा अगले दिन पूरी करने का निश्चय कर थके हुए आचार्य महीधर शीघ्र ही निद्रा देवी की गोद में चले गये।

आधा रात, सघन अन्धकार, जीव-जन्तुओं की रह-रहकर आ रहीं भयंकर आवाजें- आचार्य प्रवर की नींद टूट गई। मन किसी बात पर विचार करे इससे पूर्व ही उन्हें कुछ सिसकियाँ सुनाई दीं उन्हें लगा पास में कोई अन्ध-कूप है उनमें कोई पड़ा हुआ रुदन कर रहा है अब तक सप्तमी का चन्द्रमा आकाश में ऊपर आ गया था, हल्का-हल्का प्रकाश फैल रहा था, आचार्य महीधर कूप के पास आये और झाँककर देखा तो उसमें पाँच प्रेत किलबिला रहे थे।

यों दुःखी अवस्था में पड़े प्रेतों को देखकर महीधर को दया आ गई उन्होंने पूछा-तात! आप लोग कौन हैं यह दुर्दशा आप लोग क्यों भुगत रहे हैं ? इस पर सबसे बड़े प्रेत ने बताया हम लोग प्रेत है मनुष्य शरीर में किये गये पापों के दुष्परिणाम भुगत रहे हैं आप संसार में जाइये और लोगों को बताइये जो पाप कर हम लोग प्रेत योनि में आ पड़े है वह पाप और कोई न करें। आचार्य ने पूछा- आप लोग यह भी तो बताइये कौन कौन से पाप आप सबने किये हैं तभी तो लोगों को उससे बचने के लिए कहा जा सकता है।

“मेरा नाम पर्युषित है आर्य” पहले प्रेत ने बताना प्रारम्भ किया- मैं पूर्व जन्म में ब्राह्मण था, विद्या भी खूब पढ़ी थी किन्तु अपनी योग्यता का लाभ समाज को देने की बात को तो छुपा लिया हाँ अपने पाँडित्य से लोगों में अन्ध-श्रद्धा, अन्धविश्वास जितना फैला सकता था फैलाया और हर उचित अनुचित तरीके से केवल यजमानों से द्रव्य-दोहन किया उसी का प्रतिफल आज इस रूप में भुगत रहा हूँ ब्राह्मण होकर भी जो ब्रह्म नहीं रखता, समाज को धोखा देता है वह मेरी ही तरह प्रेत होता है।

“मैं क्षत्रिय था पूर्व जन्म में” अब सूचीमुख नामक दूसरे प्रेत ने आत्म कथा कहनी प्रारम्भ की। मेरे शरीर में शक्ति की कमी नहीं थी मुझे लोगों की रक्षा के लिये नियुक्त किया गया। रक्षा करना तो दूर प्रमोद वश मैं प्रजा का भक्षक ही बन बैठा। चाहे किसी को दण्ड देना, चाहे जिसको लूट लेना ही मेरा काम था एक दिन मैंने एक अबला को देखा जो जंगल में अपने बेटे के साथ जा रही थी मैंने उसे भी नहीं छोड़ा उसका सारा धन छीन लिया, यहाँ तक उनका पानी तक लेकर पी लिया। दोनों प्यास से तड़प कर वहीं मय गये उसी पाप का प्रतिफल प्रेतयोनि में पड़ा भुगत रहा हूँ।

तीसरे शीघ्राग ने बताया- मैं था वैश्य। मिलावट, कम तौल, ऊँचे भाव तक ही सीमित रहता तब भी कोई बात थी, व्यापार में अपने साझीदारों तक का गला काटा। एक बार दूर देश वाणिज्य के लिए अपने एक मित्र के साथ गया। वहाँ से प्रचुर धन लेकर लौट रहा था रास्ते में लालच आ गया मैंने अपने मित्र की हत्या करदी और उसकी स्त्री, बच्चों को भी धोखा दिया व झूठ बोला उसकी स्त्री ने इसी दुःख में अपने प्राण त्याग दिये उस समय तो किसी की पकड़ में नहीं आ सका पर मृत्यु से आखिर कौन बचा है तात ! मेरे पाप ज्यों ज्यों मरणकाल समीप आता गया मुझे संताप की भट्टी में झोंकते गये और आज जो मेरी स्थिति है वह आप देख ही रहे है। पाप का प्रतिफल ही है जो इस प्रेतयोनि में पड़ा मल-मूत्र पर जीवन निर्वाह करने को विवश हूँ अंग-अंग से व्रण फूट रहे हैं दुःखों का कहीं अन्त नहीं दिखाई दे रहा।

अब चौथे की बारी थी- उसने अपने घावों पर बैठी मक्खियों को हाँकते और सिसकते हुये कहा- तात! मैं पूर्व जन्म में “रोधक” नाम का शूद्र था। तरुणाई में मैंने व्याद्द किया कामुकता मेरे मस्तिष्क पर बुरी तरह सवार हुई। पत्नी मेरे लिये भगवान् हो गई उसकी हर सुख सुविधा का ध्यान दिया पर अपने पिता-माता, भाई बहनों का कुछ भी ध्यान नहीं दिया। ध्यान देना तो दूर उन्हें श्रद्धा और सम्मान भी नहीं दिया। अपने बड़ों के कभी पैर छुये हों मुझे ऐसा एक भी क्षण स्मरण नहीं। आदर करना तो दूर जब तब उन्हें धमकाया और मारा-पिटा भी। माता-पिता बड़े दुःख और असह्यपूर्ण स्थिति में मरे। एक स्त्री से तृप्ति नहीं हुई तो और विवाह किये। पहली पत्नियों को सताया घर से बाहर निकाला। उन्हीं सब कर्मों का प्रतिफल भुगत रहा हूँ मेरे तात् और अब छुटकारे का कोई मार्ग दीख नहीं रहा।

चार प्रेत अपनी बात कह चुके किन्तु पांचवां प्रेत तो आचार्य महीधर की ओर मुख भी नहीं कर रहा था पूछने पर अन्य प्रेतों ने बताया-यह तो हम लोगों को भी मुँह नहीं दिखाते-बोलते बातचीत तो करते हैं पर अपना मुँह इन्होंने आज तक नहीं दिखाया।

“आप भी तो कुछ बताइये”- आचार्य प्रवर ने प्रश्न किया-इस पर घिंघियाते स्वर में मुँह पीछे ही फेरे-फेरे पांचों प्रेत ने बताया-मेरा नाम “कलाकार” है मैं पूर्व जन्म में एक अच्छा लेखक था पर मेरी कलम से कभी नीति, धर्म और सदाचार नहीं लिखा गया। कामुकता, अश्लीलता और फूहड़पन बढ़ाने वाला साहित्य ही लिखा मैंने, ऐसे ही संगीत, नृत्य और अभिनय का सृजन किया जो फूहड़ से फूहड़ और कुत्सायें जगाने वाला रहा हो। मैं मूर्तियाँ और चित्र एक से एक भावपूर्ण बना सकता था, किन्तु उनमें भी कुरुचि वर्द्धक वासनायें और अश्लीलतायें गढ़ी। सारे समाज को भ्रष्ट करने का अपराध लगाकर मुझे यमराज ने प्रेत बना दिया। किन्तु मैं यहाँ भी इतना लज्जित हूँ कि अपना मुंह इन प्रेत भाइयों को भी नहीं दिखा सकता।

आचार्य महीधर ने अनुमान लगाया अपने अपने कर्त्तव्यों से गिरे हुये यह ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और कलाकार कुल पाँच ही थे इन्हें प्रेतयोनि का कष्ट भुगतना पड़ रहा है और आज जबकि सृष्टि का हर ब्राह्मण, हर क्षत्रिय, वैश्य और प्रत्येक शूद्र कर्त्तव्यच्युत हो रहा है, हर कलाकार अपनी कलम और तूलिका से हित-अनहित की परवाह किये बिना वासना की गन्दी कीचड़ उछाल रहा है तब आने वाले कल में प्रेतों की संख्या कितनी भयंकर होगी। कुल मिलाकर सारी धरती नरक में ही बदल जायेगी। सो लोगों को कर्त्तव्य जागृत करना ही आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है। अब तक प्रातःकाल हो चुका था आचार्य महीधर यह संकल्प लेकर चल पड़े पाँचों प्रेतों की कहानी सुनकर मार्ग भ्रष्ट लोगों को सही पथ प्रदर्शन करने लगे।

📖 अखण्ड ज्योति दिसम्बर 1971

👉 वीरता का सम्मान


👉 कुँठित भावनाओं को निकाल दीजिए (भाग ३)

हमें अपने एक उत्पातकारी विद्यार्थी की स्मृति आज भी हरी है। वह कालेज आते हुए बाग के पेड़ और फल तोड़ता, मालियों को परेशान करता, छोटे विद्यार्थियों को पीटता था। सभी उससे तंग थे। पढ़ने में उसका किंचित भी मन न था। उसे फौज में जाने की सलाह दी गई। वही पेशा उसके कठोर भावों के अनुकूल पड़ता था। विद्यार्थी ने राय मान ली। आज वही उत्पातकारी विद्यार्थी अच्छा जनरल है। फौजी जीवन की कठोरताओं में भी सफलता प्राप्त करता जा रहा है। जब तक उसे अपनी रुचि, प्रकृति, स्वभाव, संस्कारों के अनुकूल क्षेत्र नहीं मिला, तभी तक वह शरारती रहा। अपना क्षेत्र मिलते ही, वह द्रुतगति से आगे बढ़ने लगा। अभी सफलता तो तभी मिली हुई समझिये जब मनुष्य अपने मनोनुकूल क्षेत्र पा ले।

जीविका उपार्जन के बाद किसी दूसरे प्रिय आनन्ददायक, प्रेरणाप्रद, मनोरंजक कार्य में तन्मय हो जाने से अवरुद्ध मनोग्रन्थियों को खुलने और बचपन तक की भावात्मक शक्ति को बाहर निकलने का स्वस्थ अवसर मिलता है।

अपने से पूछिए क्या मैं अपने भावों को ठीक तरह पहचानता हूँ? जब मैं क्रोधित हो उठता हूँ तो क्या उसमें दूसरे का कसूर होता है या यह स्वयं मेरी भावात्मक कमजोरी है? मेरे व्यक्तित्व में वह छिपा हुआ भाव कौन सा है, जो प्रायः मुझे परेशान किया करता है? क्या मैं उसे किसी उत्पादक शुभ कार्य की ओर मोड़ सकता हूँ?

निश्चय जानिये, आपको अपनी भावना के उदात्तीकरण का कोई न कोई स्वस्थ मार्ग अवश्य मिल जायगा। यह मनुष्य के स्वयं अपने आपको अध्ययन करने, स्व परीक्षा द्वारा अपनी गुप्त रुचि का ज्ञान प्राप्त करने तथा मन की नाना क्रियाओं को देखने से सम्बन्ध रखता है। आप खुद ही अपनी मनोवृत्तियों की दिशा तथा प्रवाह को पहचान सकते हैं। भावनाओं के प्रवाह में केवल यह ध्यान रखिए कि वह दिशा स्वस्थ, सुन्दर और समाज के लिए कल्याणकारी हो, जन हितकारी हो। आपका भी लाभ हो तथा अधिक जनता का हित साधन हो। विषय वासना की कलुषितता तथा दुर्गन्धि से उसका सम्बन्ध तनिक भी न हो। आपका चुना हुआ मार्ग नैतिक हो और आपके अन्दर के देवता को जगाने वाला हो। उसके प्रति आपका उत्साह सदा ही बना रहे और उससे आपकी मानसिक और आध्यात्मिक शक्तियाँ सतत जागृत और विकसित होती रहें।

📖 अखण्ड ज्योति मार्च 1960 पृष्ठ 22

👉 QUERIES ABOUT JAP AND DAILY UPASANA (Part 6)

Q.13 What are the rules of Abhiyan Sadhana?

Ans. The basic rules of Abhiyan Sadhana are given hereunder:-
       
(a) The time of commencement:  All days are considered auspicious for initiating  a good work. However, for this purpose a Parva (religious auspicious period) would be the best choice. Amongst the auspicious festivals, one may choose days like Basant Panchami, Guru Poornima, Gayatri Jayanti etc. As regards of  “Tithis”, Panchami, Ekadashi and Poornima are considered auspicious and amongst the days, Ravivar, (Sunday) Guruvar (Thursday) are the best suited.

(b) Self control (Samyam): Involvement in Upasana should be a gradual process. In the beginning one attempts to adopt regularity in practice by doing a minimum number of Malas each day at a fixed convenient time. The same is true about other restrictions of self- control. In the beginning one may follow these on Thursdays. Later, if it is possible to adopt these self-controls  for longer periods, greater benefits accrue. The basic rules of the Sadhana are the same as for any other Anusthan. Fasting (Half or full day), abstention from sex, self service, Titikcha (Tolerance of heat and cold of natural weather cycles with minimum necessities) are adopted at least on Thursdays. During any form of fasting, mentioned earlier, refraining from unnecessary chattering and abstention from sex are must.   

(c) Fasting : For food, liquid diets like milk, buttermilk, fruit juices etc. are the best. Otherwise, one may depend on vegetables. Even if this much is not possible only one meal may be taken each day. It should, however, be free of salt and sugar (Aswad vrat).   

(d) Keeping silent : One aspect of control on tongue is through the control on taste. The other is by balanced and cultured speech. To adopt it, one has to get rid of the old habits of intemperate utterances. Maintenance of silence creates the ground for the change in speech habits. For a working man, it is difficult to keep quiet throughout the day. Nevertheless, it should not be difficult to find out two hours in the morning or at any other convenient time during the day for keeping silent. During the duration of silence, one should do an introspection (Manan) to identify one’s weaknesses, vices and bad habits and think of ways to get rid of them. The void thus created should be planned to be filled with good constructive habits (Chintan).  

Thus, refraining from speech does not simply mean keeping quiet anywhere. Seclusion is also necessary, where no communication is needed even through signs and gestures.    (e) Chastity : Amongst all physical activities of entertainment, overindulgence in sex has the most disastrous consequences. One has to pay heavily for the sexual acts during which vital life force is drained out of the human body, making one progressively weaker spiritually. On Thursdays, therefore, it is advised not only to refrain from sex but also avoid thoughts and actions arousing sexual impulse.

The above five principles are adopted on Thursdays only symbolically. The objective is to train oneself in self-control in day to day living so that one may ultimately persevere to follow them throughout life.

✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya
📖 Gayatri Sadhna truth and distortions Page 58

👉 अन्तर्दोषों का प्रतिफल

नैतिक आदर्शों का पालन शरीर के प्रतिबंधों पर नहीं मन की उच्चस्थिति पर निर्भर है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर के षडरिपु जो मन में छिपे बैठे रहते हैं समय−समय पर हिंसा, झूठ, पाखंड, स्वार्थ, बेईमानी, रिश्वतखोरी, दहेज,कन्या विक्रय, वर विक्रय, माँसाहार जुआ, चोरी आदि सामाजिक बुराइयों के रूप में फूट पड़ते हैं। नाना प्रकार के दुष्कर्म यद्यपि अलग−अलग प्रकार के दीख पड़ते हैं पर उनका मूल एक ही है ‘मन की मलीनता’। जिस प्रकार पेट खराब होने से नाना प्रकार के शारीरिक रोग उत्पन्न होते हैं उसी प्रकार मन मलीन होने पर हमारे वैयक्तिक और आन्तरिक जीवन में नाना प्रकार के कुकर्म बन पड़ते हैं। जिस प्रकार रोगों के कारण शरीर की पीड़ा उठानी पड़ती है उसी प्रकार मन की मलीनता से हमारा सारा बौद्धिक संस्थान—विचार क्षेत्र औंधा हो जाता है और कार्यशैली ऐसी ओछी बन पड़ती है कि पग−पग पर असफलता, चिन्ता, त्रास, शोक, विक्षोभ के अवसर उपस्थित होने लगते हैं। अव्यवस्थित मनोभूमि को लेकर इस संसार में न तो कोई महान बना है और न किसी ने अपने जीवन को सफल बनाया है। उसके लिए क्लेश और कलह, शोक और संताप दैन्य और दारिद्र ही सुनिश्चित हैं, न्यूनाधिक मात्रा में वे ही उसे मिलने हैं, वे ही मिलते भी रहते हैं।

एक स्मरणीय तथ्य
यह स्मरण रखने योग्य बात है, यह गाँठ बाँध लेने योग्य तथ्य है कि मनुष्य के जीवन में एकमात्र विभूति उसका मन है। इस मन को यदि संभाला और साधा न जाएगा, सुधारा और सुसंस्कृत न किया जाएगा तो वह नीचे बहने वाले जल की तरह स्वभावतः पतनोन्मुख होगा। मन को स्वच्छ बनाना—हमारे चेतन जगत का सबसे बड़ा पुरुषार्थ की ओर जिनके कदम बढ़े हैं उनके लिए लौकिक सफलताओं और समृद्धियों का द्वार प्रशस्त होता है और उन्हीं ने आत्मिक लक्ष प्राप्त किया है। मन पर चढ़े हुए मल आवरण जब हट जाते हैं तो अपनी आत्मा में ही परमात्मा के प्रत्यक्ष दर्शन होने लगते हैं। मन की मलीनता के रहते प्रत्येक दुख और अशुभ मनुष्य के आगे−पीछे ही घूमता रहेगा। देवत्व तो मानसिक स्वस्थता का ही दूसरा नाम है। जिसने अपना अन्तःकरण स्वच्छ कर लिया उसने इसी देह में देवत्व का लाभ उठाया है और इसी धरती पर स्वर्ग का आनन्द लिया है। ‘स्वच्छ मन’ जीवन की एक महत्वपूर्ण आवश्यकता है। युग−निर्माण के लिए हमें इस पर पूरी सावधानी से ध्यान देना होगा।


✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1962 पृष्ठ 24

👉 युगशक्ति की युग प्रत्यावर्तन लीला

युगशक्ति युग प्रत्यावर्तन के लिए हर युग में धरा पर अवतरित होती है। यह अपने युग की समस्याओं का निराकरण-निवारण अपनी रहस्यमयी-दैवी लीला से करती है। इसकी अपराजेय और दुर्जय सामर्थ्य से ही समस्याओं से जर्जरित और खण्डहर हो चुके युग से नवयुग प्रकट होता है। समस्याओं के विविध रूपों के अनुसार इसके भी बहुरूप प्रकट होते हैं। कभी तो यह वेदमाता ब्रह्मर्षि विश्वामित्र की चेतना में अवतरित हो-मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम को महाकाल की पुकार सुनाती है, तो कभी वामन से विराट् बनकर देवत्व को आश्वस्त करती है। श्रीकृष्ण के विश्वरूप में इन्हीं आदिमाता की युगलीला के दर्शन होते हैं। इन्हीं त्रिगुणात्मिकता महामाया की उपासना के लिए योगेश्वर श्रीकृष्ण अर्जुन को प्रेरित करते हैं। और फिर इन्हीं की युग प्रत्यावर्तन लीला का निमित्त बनने के लिए गाण्डीवधारी को निर्देश देते हैं-तस्मात् युद्धस्व भारत!
  
युग-युग में अवतरित होने वाली वही युगशक्ति इस युग संक्रान्ति में युगऋषि हमारे आराध्य परम पूज्य गुरुदेव की आध्यात्मिक चेतना में अवतरित हुई। हिमालय की दिव्य ऋषिसत्ता ने उनके अंतर्भावों में जो ब्रह्मबीज बोया था, उसी से वेदजननी इस युग में अपने अनगिन रूपों में प्रकट हो रही है। आज राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य में घटने वाली घटनाएँ-हो रहीं विविध हलचलें उनकी रहस्यमयी लीला के सिवा और भला क्या हैं? हो रहे विनाश और किये जा रहे नवसृजन से युगशक्ति माता गायत्री केवल खण्डहर हो चुके पुराने युग से नये युग को प्रकट करने में लगी हैं।
  
उनकी इस युग प्रत्यावर्तन लीला के दृश्य रूप अनगिन हैं और अदृश्य रूप अनेक। दृश्य में यदि यह प्रक्रिया तीव्र है तो अदृश्य में तीव्रतम। हम सबके आराध्य युग देवता बनकर उन्हीं जगन्माता की दैवी लीला का संदेश सुनाने ही तो हमारे पास आये थे। उन महान गुरु के स्वरों में हममें से प्रत्येक के लिए महाकाल का आह्वान मंत्र गूँजा था। चौबीस अक्षरों वाले गायत्री मंत्र में उनकी अवतार लीला की चौबीस कलाएँ प्रकट हुई थीं। माता के अवतरण दिवस पर-गायत्री जयन्ती के पुण्य क्षणों में वह वेदमाता की पुकार सुन, युगशक्ति की सूक्ष्म लीला के सूत्रधार बनकर चले गये। परन्तु अभी भी युगशक्ति की युग प्रत्यावर्तन लीला शेष है, जिसमें हम सबको भागीदार होना है। निमित्त बनना है, नये युग के सृजन का-श्रेय और सौभाग्य प्राप्ति का।

✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 जीवन पथ के प्रदीप से पृष्ठ १६५

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...