बुधवार, 16 अगस्त 2023

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 16 Aug 2023

मृत्यु का भय उन्हें ही भयभीत करता है जिन्होंने मरणोत्तर जीवन के लिये सुखद स्थिति प्राप्त करने की कोई पूर्व तैयारी नहीं की है। अनिश्चित अन्धकार में प्रवेश करना ही भयानकता की आशंका बनकर मनुष्य को डराता है। विशेषतया यह डर तब और भी अधिक बढ़ जाता है जब अगले दिनों अधिक गहरी विपत्ति सामने प्रस्तुत होने की आशंका रहती हो। जिनने संकीर्ण स्वार्थपरता और अनैतिकता का आशय लेकर जिन्दगी के दिन काटे हैं उनकी अन्तरात्मा को अदृश्य चेतना आगाह करती रहती है कि इन आज की दुष्प्रवृत्तियों का परिणाम कल भयानक विपत्ति के रूप में ही सामने आ रहा है। यह आगाही ही मृत्यु भय को सघन बनाती है और मरने का नाम सुनते ही कंपकंपी आती है।

मृत्यु के उपरान्त जीव के कर्मों का लेखा-जोखा परमेश्वर के सामने होता है और न्याय-तुला पर तौलकर दण्ड पुरस्कार का विधान बनता है। अपराधी मनःस्थिति यह जानती है सर्वांतर्यामी न्यायाधीश से कुछ छिपा नहीं है वह कर्म और उसके उद्देश्य को भली प्रकार जानता है और बिना किसी पक्षपात अथवा दया-निर्दयता का आशय लिये परिणाम भुगतने के लिए प्राणी को बाध्य करता है।

जिन्होंने सत्कर्म किये हैं और जीवन की विभूतियों का सदुपयोग किया है उन्हें निश्चिंतता रहती है कि अपना भविष्य उज्ज्वल है। ऊँचे पद पर स्थानान्तर होने वाले कर्मचारी खिन्न नहीं प्रसन्न होते हैं वे जानते हैं कि जहाँ जा रहे हैं वहाँ अधिक सम्मान और सुविधा साधन मिलेंगे। ऐसे लोग पुराना स्थान छोड़ते हुए दुखी नहीं प्रसन्न होते हैं। दुख होता भी है तो वह विदाई बिछोह जैसा क्षणिक होता है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 जिन्दगी जीने की समस्या (भाग 2)

प्राचीन काल में हमारे पूर्वज मनीषियों ने जीवन लक्ष्य की पूर्ति के महान विज्ञान का आविष्कार करते हुए इस बात पर बहुत जोर दिया था कि व्यक्ति का लौकिक जीवन पूर्ण रीति से सुव्यवस्थित और सुसंस्कृत हो। आत्म कल्याण का मार्ग यही आरम्भ होता है। यदि मनुष्य अपने सामान्य जीवन क्रम को सन्तोषजनक रीति से चला न सका तो आध्यात्मिक जीवन में भी, परलोक में भी उसको सफलता अनिश्चित ही रहेगी।

इस तथ्य को दृष्टि में रखते हुए चार आश्रम की क्रमबद्ध व्यवस्था की गई थी। आरंभिक जीवन में शक्ति संचय, मध्य जीवन में कुटुम्ब और समाज की प्रयोगशाला में अपने गुण कर्म स्वभाव का परिष्कार, ढलते जीवन में लोकहित के लिए परमार्थ की तैयारी और अन्त में जब सर्वतोमुखी प्रतिभा एवं महानता विकसित हो जाय तो उसका लाभ समस्त संसार को देने के लिए विश्व आत्म परम आत्मा, समष्टि जगत् को आत्म समर्पण करना। यही ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास की प्रक्रिया है।

लौकिक जीवन में अपनी प्रतिभा का परिचय दिये बिना ही लोग पारलौकिक जीवन की कठिन परीक्षा में उत्तीर्ण होना चाहते है। यह तो स्कूल का बहिष्कार करके सीधे एम. ए. की उत्तीर्ण का आग्रह करने जैसी बात हुई। इस प्रकार व्यतिक्रम से ही आज लाखों साधु संन्यासी समाज के लिए भार बने हुए है। वे लक्ष्य की प्राप्ति क्या करेंगे, शान्ति और संतोष तक से वंचित रहते है। इधर की असफलता उन्हें उधर भी असफल ही रखती है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति,  जून 1961 पृष्ठ 5

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1961/June/v1.5


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