सभी में गुरु ही है समाया
ध्यान रहे जब एक छोटा सा विचार हमारे भीतर पैदा होता है, तो सारा अस्तित्व उसे सुनता है। थोड़ा सा भाव भी हमारे हृदय में उठता है, तो सारे अस्तित्व में उसकी झंकार सुनी जाती है। और ऐसा नहीं कि आज ही अनन्त काल तक यह झंकार सुनी जायेगी। हमारा यह रूप भले ही खो जाये, हमारा यह शरीर भले ही गिर जाये, हमारा यह नाम भले ही मिट जाये। हमारा नामोनिशाँ भले ही न रहे। लेकिन हमने जो कभी चाहा था, हमने जो कभी किया था, हमने जो कभी सोचा था, हमने जो कभी भावना बनायी थी, वह सब की सब इस अस्तित्व में गूँजती रहेगी। क्योंकि हममें से कोई यहाँ से भले ही मिट जाये, लेकिन कहीं और प्रकट हो जायेगा। हम यहाँ से भले ही खो जायें, लेकिन किसी और जगह हमारा बीज फिर से अंकुरित हो जायेगा।
हम जो भी कर रहे हैं, वह खोता नहीं है। हम जो भी हैं, वह भी खोता नहीं है। क्योंकि हम एक विराट् के हिस्से हैं। लहर मिट जाती है, सागर बना रहता है और वह जो लहर मिट गयी है, उसका जल भी उस सागर में शेष रहता है। यह ठीक है कि एक लहर उठ रही है, दूसरी लहर गिर रही है, फिर लहरें एक हैं, भीतर नीचे जुड़ी हुई हैं और जिस जल से उठ रही हैं यह लहर उसी जल से गिरने वाली लहर वापस लौट रही है।
इन दोनों के नीचे के तल में कोई फासला नहीं है। यह एक ही सागर का खेल है। थोड़ी से देर के लिए लहर ने एक रूप लिया, फिर रूप खो जाता है और अरूप बचा रहता है। हम सब भी लहरों से ज्यादा नहीं है। इस जगत् में सभी कुछ लहरवत् हैं। वृक्ष भी एक लहर है और पक्षी भी, पत्थर लहर है तो मनुष्य भी। अगर हम लहरें हैं एक महासागर की तो इसका व्यापक निष्कर्ष यही है कि द्वैत झूठा है। इसका कोई स्थान नहीं है।
क्रमशः जारी
- डॉ. प्रणव पण्डया
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ध्यान रहे जब एक छोटा सा विचार हमारे भीतर पैदा होता है, तो सारा अस्तित्व उसे सुनता है। थोड़ा सा भाव भी हमारे हृदय में उठता है, तो सारे अस्तित्व में उसकी झंकार सुनी जाती है। और ऐसा नहीं कि आज ही अनन्त काल तक यह झंकार सुनी जायेगी। हमारा यह रूप भले ही खो जाये, हमारा यह शरीर भले ही गिर जाये, हमारा यह नाम भले ही मिट जाये। हमारा नामोनिशाँ भले ही न रहे। लेकिन हमने जो कभी चाहा था, हमने जो कभी किया था, हमने जो कभी सोचा था, हमने जो कभी भावना बनायी थी, वह सब की सब इस अस्तित्व में गूँजती रहेगी। क्योंकि हममें से कोई यहाँ से भले ही मिट जाये, लेकिन कहीं और प्रकट हो जायेगा। हम यहाँ से भले ही खो जायें, लेकिन किसी और जगह हमारा बीज फिर से अंकुरित हो जायेगा।
हम जो भी कर रहे हैं, वह खोता नहीं है। हम जो भी हैं, वह भी खोता नहीं है। क्योंकि हम एक विराट् के हिस्से हैं। लहर मिट जाती है, सागर बना रहता है और वह जो लहर मिट गयी है, उसका जल भी उस सागर में शेष रहता है। यह ठीक है कि एक लहर उठ रही है, दूसरी लहर गिर रही है, फिर लहरें एक हैं, भीतर नीचे जुड़ी हुई हैं और जिस जल से उठ रही हैं यह लहर उसी जल से गिरने वाली लहर वापस लौट रही है।
इन दोनों के नीचे के तल में कोई फासला नहीं है। यह एक ही सागर का खेल है। थोड़ी से देर के लिए लहर ने एक रूप लिया, फिर रूप खो जाता है और अरूप बचा रहता है। हम सब भी लहरों से ज्यादा नहीं है। इस जगत् में सभी कुछ लहरवत् हैं। वृक्ष भी एक लहर है और पक्षी भी, पत्थर लहर है तो मनुष्य भी। अगर हम लहरें हैं एक महासागर की तो इसका व्यापक निष्कर्ष यही है कि द्वैत झूठा है। इसका कोई स्थान नहीं है।
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