रविवार, 28 फ़रवरी 2016

👉 शिष्य संजीवनी (भाग 13)

सभी में गुरु ही है समाया

ध्यान रहे जब एक छोटा सा विचार हमारे भीतर पैदा होता है, तो सारा अस्तित्व उसे सुनता है। थोड़ा सा भाव भी हमारे हृदय में उठता है, तो सारे अस्तित्व में उसकी झंकार सुनी जाती है। और ऐसा नहीं कि आज ही अनन्त काल तक यह झंकार सुनी जायेगी। हमारा यह रूप भले ही खो जाये, हमारा यह शरीर भले ही गिर जाये, हमारा यह नाम भले ही मिट जाये। हमारा नामोनिशाँ भले ही न रहे। लेकिन हमने जो कभी चाहा था, हमने जो कभी किया था, हमने जो कभी सोचा था, हमने जो कभी भावना बनायी थी, वह सब की सब इस अस्तित्व में गूँजती रहेगी। क्योंकि हममें से कोई यहाँ से भले ही मिट जाये, लेकिन कहीं और प्रकट हो जायेगा। हम यहाँ से भले ही खो जायें, लेकिन किसी और जगह हमारा बीज फिर से अंकुरित हो जायेगा।

हम जो भी कर रहे हैं, वह खोता नहीं है। हम जो भी हैं, वह भी खोता नहीं है। क्योंकि हम एक विराट् के हिस्से हैं। लहर मिट जाती है, सागर बना रहता है और वह जो लहर मिट गयी है, उसका जल भी उस सागर में शेष रहता है। यह ठीक है कि एक लहर उठ रही है, दूसरी लहर गिर रही है, फिर लहरें एक हैं, भीतर नीचे जुड़ी हुई हैं और जिस जल से उठ रही हैं यह लहर उसी जल से गिरने वाली लहर वापस लौट रही है।

इन दोनों के नीचे के तल में कोई फासला नहीं है। यह एक ही सागर का खेल है। थोड़ी से देर के लिए लहर ने एक रूप लिया, फिर रूप खो जाता है और अरूप बचा रहता है। हम सब भी लहरों से ज्यादा नहीं है। इस जगत् में सभी कुछ लहरवत् हैं। वृक्ष भी एक लहर है और पक्षी भी, पत्थर लहर है तो मनुष्य भी। अगर हम लहरें हैं एक महासागर की तो इसका व्यापक निष्कर्ष यही है कि द्वैत झूठा है। इसका कोई स्थान नहीं है।

क्रमशः जारी
- डॉ. प्रणव पण्डया
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/Devo/alls
अहंकार छोड़ें अहंभाव अपनाएं (भाग 4)

महँगी चीजें सुरुचि के नाम पर अनावश्यक मात्रा में खरीदी जाती हैं पर वस्तुतः उसका कारण अमीरी की छाप डालना ही होता है। कई व्यक्ति दान पुण्य का ढोंग भी बनाते हैं। यद्यपि उदारता और परमार्थ का नाम भी उनके भीतर नहीं होता पर लोग उनकी अमीरी की बात जानें यह प्रयोजन जिनसे पूरा होता है- उन्हीं दान पुण्यों को अपनाते हैं। ऐसे लोगों का आधा धन प्रायः इन्हीं विडम्बनाओं में खर्च हो जाता है इस प्रकार उस अहंकार की पूर्ति का वे महँगा मूल्य चुकाते रहते हैं।

विद्या का अभिमान और भी अधिक विचित्र है। विद्या का फल ‘विनय’ होना चाहिए। पर यदि विद्वान अविनय शील हो जाय। पग-पग पर अपना सम्मान माँगे और चाहे, उसमें कहीं रत्ती भर कमी दीखे तो पारा चढ़ जाय इस विचित्र मनःस्थिति में ही आज के विद्वान कलाकार देखे जाते हैं। कहीं बुलायें जायें तो ऊँचे दर्जे के वाहन, महँगे निवास, कीमती व्यवस्था की शर्त पहले लगाते हैं। उन्हें सम्मानित स्थान मिला कि नहीं, पुरस्कार उनके गौरव जैसा हुआ कि नहीं, आदि नखरे देखते ही बनते हैं परस्पर कुढ़ते और एक दूसरे की काट करते हैं- इसलिए कि उनका बड़प्पन, सम्मान कहीं दूसरे दर्जे पर न आ जाए।

जिन्हें सभा सम्मेलनों में कभी ऐसे लोग बुलाने पड़ते हैं वे देखते हैं कि जो बाहर से विद्वान कलाकार दीखते थे, भीतर अहंकार से ग्रस्त होने से वस्तुतः वे कितने छोटे हो गये हैं। विद्वानों का संगठन इसी कारण बन पाता है, न टिक पाता है, न चल पाता है। अहंकार की ऐंठ में वे सहयोगी बन ही नहीं पाते- प्रतिद्वन्द्वी ही रहते हैं।

क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति जुलाई 1972 पृष्ठ 16
http://literature.awgp.org/magazine/AkhandjyotiHindi/1972/July.16
 

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