मंगलवार, 31 जुलाई 2018

👉 वचन का पालन

🔶 दरभंगा में एक शंकर मिश्र नामक विद्वान् हो गये हैं। वे छोटे थे तब उनकी माँ को दूध नहीं उतरता था तो गाय रखनी पड़ी। दाई ने माता के समान प्रेम से बालक को अपना दूध पिलाया। शंकर मिश्र की माता दाई से कहा करती थी कि बच्चा जो पहली कमाई लावेगा सो तेरी होगी।

🔷 बालक बड़ा होने पर किशोर अवस्था में ही संस्कृत का उद्भत विद्वान् हो गया। राजा ने उसकी प्रशंसा सुनकर दरबार में बुलाया और उसकी काव्य रचना पर प्रसन्न होकर अत्यन्त मूल्यवान हार उपहार में दिया।

🔶 शंकर मिश्र हार लेकर माता के पास पहुँचे। माता ने उसे तुरन्त ही दाई को दे दिया। दाई ने उसका मूल्य जँचवाया तो वह लाखों रुपए का था। इतनी कीमती चीज लेकर वह क्या करती? लौटाने आई। पर शंकर मिश्र और उसकी माता अपने वचन से लौटने का तैयार न हुए। पहली कमाई के लिए जब दाई को वचन दिया जा चुका था तो फिर उसे पलटने में उनका गौरव जाता था।

🔷 बहुत दिन देने लौटाने का झंझट पड़ा रहा। अन्त में दाई ने उस धन से एक बड़ा तालाब बनवा दिया जो दरभंगा में “दाई का तालाब” नाम से अब भी मौजूद हैं।
वचन का पालन करने वाले शंकर मिश्र और बिना परिश्रम के धन को न छूने वाली दाई दोनों ही प्रशंसनीय हैं।

👉 सच्चा यज्ञ


🔶 महाराज युधिष्ठिर का राजसूय यज्ञ समाप्त होने पर एक अद्भुत नेवला जिसका आधा शरीर सुनहरा था यज्ञ भूमि में लोट लगाने लगा। कुछ ही समय बाद वह रुदन करके कहने लगा कि "यज्ञ पूर्ण नहीं हुआ। " पाण्डवों सहित सभी उपस्थित लोगों को बड़ा आश्रर्य हुआ, पूछने पर नेवले ने बताया" कुछ समय पूर्व अमुक देश में भयंकर अकाल पड़ा।

🔷 मनुष्य भूख के मारे तड़प-तड़प कर मरने लगे। एक ब्राह्मण परिवार कई दिनों से भूखा था। एक दिन कहीं से कुछ अन्न उन्हें मिला। ब्राह्मणी ने उसकी चार रोटी बनाई। उस ब्राह्मण का यह नियम था कि भोजन से पूर्व कोई भूखा होता तो उसे भोजन कराकर तब स्वयं खाता। उस दिन भी उसने आवाज दी कि जो हमसे अधिक-भूखा-हो उसका अधिकार इस भोजन पर है, आये, वह अपना भाग ग्रहण करे। तो एक चाण्डाल भूख से तड़प रहा था, आ गया।

🔶 ब्राह्मण ने अपने हिस्से की एक रोटी सौंप दी, उससे भी तृप्त न होने पर क्रमश: पत्नी और बालक-बालिका ने भी अपने-अपने हिस्से की रोटी उसे दे दी। जब वह चाण्डाल भोजन कर चुका और उसने पानी पीकर हाथ धोये तो उससे धरती पर कुछ पानी पड गया।

🔷 मैं उधर होकर निकला तो उस गीली जमीन पर लेट गया। मेरा आधा शरीर ही सम्पर्क में आया जिससे उतना ही स्वर्णमय बन गया। मैंने सोचा था शेष आधा शरीर युधिष्ठिर के यज्ञ से स्वर्णमय बन जायेगा, लेकिन यहाँ ऐसा नहीं हुआ। इसलिए यह यज्ञ मेरे ख्याल से पूर्ण नहीं हुआ। "

🔶 यज्ञ की श्रेष्ठता उस्के बाह्य स्वरूप की विशालता में नहीं अन्तर की उत्कृष्ट त्याग वृत्ति में है। यज्ञ के साथ त्याग-बलिदान की अभूतपूर्व परम्परा जुड़ी हुई है। यही संस्कृति को धन्य बनाती है।

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 31 July 2018


👉 आज का सद्चिंतन 31 July 2018


👉 युग की माँग प्रतिभा परिष्कार 1 (भाग 16)

👉 प्रतिभा परिवर्धन के तथ्य और सिद्धांत
 

🔶 दूरदर्शी विवेकवान अपनी श्रेष्ठता को विकसित करते हैं और अपने आदर्शवादी क्रियाकलापों के आधार पर प्रामाणिक माने जाते और विश्वस्त बनते हैं। जिन्होंने उच्चस्तरीय सफलताएँ पाई, उनका अनुकरण करते और सहयोग देते असंख्यों देखे जाते हैं। इसीलिए ‘प्रतिभा महासिद्धि’ की साधना करने वाले अपने चरित्र की प्रामाणिकता को हर हालत में बनाए रहते हैं, भले ही इसके लिए अभावग्रस्त स्थिति में रहना पड़े और तात्कालिक मिल सकने वाली सफलता से वंचित रहना पड़े।
  
🔷 प्रतिभा तत्संबंधी सिद्धांतों का मनन-चिंतन करते रहने भर से हस्तगत नहीं होती, उनको स्वभाव का अंग बनाना पड़ता है। चिंतन-चरित्र और व्यवहार में उन्हें भली प्रकार समाविष्ट करना पड़ता है। यह कार्य प्रत्यक्ष क्रियान्वयन के बिना संभव नहीं होता। विचार वे ही प्रौढ़ एवं प्रखर होते हैं, जो क्रिया में उतरते रहते हैं। डायनेमो घूमता हैं तो बैटरी चार्ज होती है। विचारों और कार्यों के समन्वय से ही व्यक्तित्व का स्तर बनता है। उसी आधार पर सफलता के क्षेत्र में कुछ महत्त्वपूर्ण गौरव हस्तगत होता है। यही वह हुंडी है, जिसे किसी भी क्षेत्र में हाथों-हाथ भुनाया जा सकता है।

🔶 बड़े काम कर गुजरने वाली जन्मजात विभूतियाँ, साथ लेकर कदाचित ही कोई आते हैं। हर किसी को यह उपलब्धि अपने मनोयोग और प्रचंड प्रयास के आधार पर ही हस्तगत करनी होती है। सांसारिक दृष्टि से प्रत्यक्ष दीख पड़ने वाले बड़े कार्य भी ऐसे ही लोगों ने संपन्न किए हैं। बहुमुखी सफलताओं का श्रेय उन्हीं पर बरसा है। ऐसे ही लोग समाज को स्थिरता देते और अवांछनीय उलटे प्रचलनों को उलटकर ठीक कर दिखाते हैं। समय का कायाकल्प करके वातावरण में नवजीवन का प्राण-प्रवाह भरते ऐसे ही लोगों को देखा जाता है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 युग की माँग प्रतिभा परिष्कार पृष्ठ 20

👉 Soul: The Identity of Truth

🔶 If we want to know the meaning, the purpose, the nature of our life, we must know our own self, our soul. Without that we keep wandering in the infinite trap of illusion and the immensity of worldly circumstances without even having the sight of our goal.

🔷 If you want to see the light of wisdom, want to excel in the truest sense, you must first accept and ponder over the preeminence of your soul. If you want to live respectful life, learn to respect your soul. Spiritual evolution would begin and eventually lead to unification of your soul (individual self) with the Supreme Soul (God) only if you purify, enlighten your self up to virtuous levels. For that, you will have to recognize and experience the divinity hidden in your soul.

🔶 Refinement and rise from inferior to superior, evil to nobility, is possible only if you realize that your soul, your inner self is originally a reflection of the divine. Respecting your inner self, your soul-reality does not mean that you become egotist or arrogant or have some superiority complex. In fact, that would be just a contrary act, a blunder of your ignorance. So be careful and understand that the respect of your own self means honor of your soul, your eternal impersonal self.

🔷 You should attempt to see the light of divinity indwelling in it, see the presence of God in it and worship it by sublime illumination of your heart, mind and conduct. Remembering it every moment should remind you that you are breathing in the presence of God and should edify your aspirations, your thoughts, your deeds accordingly.

📖 Akhand Jyoti, June 1942

👉 आत्म निर्माण-जीवन का प्रथम सोपान (भाग 1)

🔶 निर्माण आन्दोलन का प्रथम चरण आत्म-निर्माण है। उस दिशा में कदम बढ़ाने के लिए किसी भी स्थिति के व्यक्ति को कुछ भी कठिनाई अनुभव नहीं होनी चाहिए। पर्दे में जकड़ी स्त्रियाँ, जेल में बन्द कैदी, चारपाई पर पड़े रोगी और अपंग असमर्थ व्यक्ति भी आज जिस स्थिति में हैं उससे ऊँचे उठने, आगे बढ़ने में उन्हें कुछ भी कठिनाई अनुभव नहीं होनी चाहिए। मनोविकारों को ढूँढ़ निकालने और उनके विरुद्ध मोर्चा खड़ा कर देने में सांसारिक कोई विध्न बाधा अवरोध उत्पन्न नहीं कर सकती। दैनिक जीवन में निरन्तर काम आने वाली आदतों को परिष्कृत बनाने का प्रयास भी ऐसा है, जिनके न बन पड़ने का कोई कारण नहीं।

🔷 आलस्य में समय न गँवाना, हर काम नियत समय पर नियमित रूप से उत्साह और मनोयोग पूर्वक करने की आदत डाली जाय तो प्रतीत होगा अपना क्रिया कलाप कितना उत्तम, कितना व्यवस्थित, कितना अधिक सम्पन्न हो रहा है। प्रातःकाल अपनी दिनचर्या का निर्धारण कर लेना और पूरी मुस्तैदी से उसे पूरा करना, आलस्य प्रमाद को आड़े हाथों लेना, व्यक्तित्व निर्माण की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम है। जल्दी सोने जल्दी उठने की एक छोटी सी ही आदत को लें तो प्रतीत होगा कि प्रातःकाल का कितना बहुमूल्य समय मुफ्त ही हाथ लग जाता है और उसका जिस भी कार्य में उपयोग किया जाय उसमें सफलता का कैसा स्वर्ण अवसर मिलता है। क्या व्यायाम, क्या अध्ययन, क्या भजन, कुछ भी कार्य प्रातःकाल किया जाय चौगुना प्रतिफल उत्पन्न करेगा।

🔶 जो लोग देर में सोते और देर में उठते हैं वे यह नहीं जानते कि प्रातःकाल का ब्रह्म मुहूर्त इतना बहुमूल्य है जिसे हीरे मोतियों से भी नहीं तोला जा सकता, नियमित दिनचर्या का निर्धारण और उस पर हर दिन पूरी मुस्तैदी के साथ आचरण, देखने में यह बहुत छोटी बात मालूम पड़ती है पर यदि उसका परिणाम देखा जाय तो प्रतीत होगा कि हमने एक चौथाई जिन्दगी को बर्बादी से बचाकर कहने लायक उपलब्धियों में नियोजित कर लिया। अस्त-व्यस्त और अनियमित व्यक्ति यों साधारण ढील पोल के दोषी ठहराए जाते हैं, पर बारीकी से देखने पर स्पष्ट हो जाता है कि वे लगभग आधी जिन्दगी जितना बहुमूल्य समय नष्ट कर देते है जिसका यदि क्रमबद्ध उपयोग हो सका होता तो प्रगति की कितनी ही कहने लायक उपलब्धियाँ सामने आती। यदि एक घण्टा रोज कोई व्यक्ति उपयोगी अध्ययन में लगाता रहे तो कुछ ही समय में वह ऐसा ज्ञानवान बन सकता है जिसकी विद्या बुद्धि पर स्पर्धा की जा सके।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
(गुरुदेव के बिना पानी पिए लिखे हुए फोल्डर-पत्रक से)

👉 आत्म-परिष्कार बनाम साधना

🔶 आज जन-जीवन एक विडम्बना मात्र बनकर रह गया है, जिसे ज्यों-त्यों करके काटना पड़ता है। निर्वाह की आवश्यकता जुटाने, गुत्थियों को सुलझाने और प्रतिकूलताओं के अनुकूलन में माथा-पच्ची करते-करते मौत के दिन पूरे हो जाते हैं। अभावों और संकटों से पीछा नहीं छूटता। कई बार तो गाड़ी इतनी भारी हो जाती है कि खींचे नहीं खिंचती। फलत: प्रयत्नपूर्वक अथवा बिना प्रयत्न ही अकाल मृत्यु के मुँह में प्रवेश करना पड़ता है। नीरस और निरर्थक जीवन एक ऐसा अभिशाप है, जिसे दुर्भाग्य के रूप में स्वीकार करना पड़ता है, किन्तु लगता यही रहता है-बेकार जन्मे और निरर्थक जिये। साधारण जीवन का यही स्वरूप है, जो प्रतिकूल परिस्थितियों में तो अन्य प्राणियों से भी गया-बीता प्रतीत होता है।
  
🔷 असामान्य जीवन इससे आगे की बात है। सफल, समर्थ और समुन्नत स्तर के व्यक्ति सौभाग्यशाली दीखते हैं और उनकी स्थिति प्राप्त करने के लिए मन ललचाता है। भौतिक सम्पन्नता से सम्पन्न और आत्मिक विभूतियों के धनी लोगों की-न प्राचीन काल में कमी थी और न अब है। पिछड़े  और समुन्नत वर्गों के व्यापक अन्तर देखने से आश्चर्य होता है कि एक जैसी काया में रहने वाले मनुष्यों के बीच  इतना ऊँच और नीच होने का कारण क्या हो सकता है? स्रष्टïा का पक्षपात और प्रकृति का अन्तर कहने से भी काम नहीं चलता, क्योंकि दोनों को सुव्यवस्थित एवं सुनियोजित करने में कहीं  रत्ती भर भी गुंजाइश नहीं है। यह व्यतिक्रम रहा होता तो ग्रह-नक्षत्र अपनी धुरी पर न घूमते, परमाणुओं के घटक उच्छृंखलता बरतते और परस्पर टकराकर उसी मूल स्थिति में लौट गए होते, जिसमें कि महत्त्वत्व अपनी अविज्ञात स्थिति में अनन्त काल से पड़ा था। फलस्वरूप न यह सृष्टिï बन पाती और न एक दिन चलती-ठहरती। यह सब कुछ परिपूर्ण व्यवस्था के अनुरूप चल रहा है।
  
🔶 फिर मनुष्यों के बीच पाये जाने वाले अन्तर का क्या कारण है? इसका सुनिश्चित उत्तर यही है कि जीवन की उथली परतों तक ही जिनका वास्ता रहा उन्हें छिलका ही हाथ लगा किन्तु जिन्होंने नीचे उतरने की चेष्टïा की उन्हें एक के बाद एक बहुमूल्य उपलब्धि भी मिलती चली गईं। गहराई में उतरने को अध्यात्म की भाषा में साधना कहते हैं। साधना किसकी? इसका उत्तर है- जीवन की। जीवन प्रत्यक्ष कल्पवृक्ष है, जो उसकी जितनी सदुपयोग साधना कर लेता है, वह उतना ही कृत-कृत्य हो जाता है। जीवन का मूल्य, महत्त्व और  उसकी उपलब्धि न समझना पाना ही वह अभिशाप है, जिसके कारण गई-बीती परिस्थितियों में दिन गुजारने पड़ते हैं। यदि स्थिति को बदल दिया जाय, जीवन देवता की अनन्त सामथ्र्यों तथा उसके वरदानों की असीम शृंखला को समझा जा सके, तो प्रतीत होगा कि स्रष्टïा ने बीज रूप से वैभव का भाण्डागार उसी मानवीय काय कलेवर के भीतर सॅजोया हुआ था। भूल इतनी ही होती रही कि न उसे खोजा गया और न काम में लाया गया। इस भूल का परिमार्जन ही आत्म-ज्ञान है। यह जागृति जब सक्रिय बनती है, तो आत्मोत्कर्ष के लक्षण तत्काल दृष्टिïकोण होने लगते हैं। इसी आत्म परिष्कार की प्रक्रिया का नाम साधना है।
  
🔷 साधना से सिद्धि का सिद्धान्त शाश्वत सत्य की तरह स्पष्टï है। न उसमें सन्देह की गुंजाइश है और न ही विवाद की। भौतिक जगत्ï के विभिन्न क्षेत्रों में साधनारत पुरुषार्थी अनेकानेक सफलताएँ अर्जित करते देखे जाते हैं। जीवन भी एक ऐसा क्षेत्र है, जिसे जड़-जगत्ï के किसी भी घटक एवं वर्ग से अत्याधिक महत्त्वपूर्ण माना जा सकता है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

सोमवार, 30 जुलाई 2018

👉 वेश की लाज

🔶 एक बहरूपिया राजा के दरबार में वेश बदल-बदल कर कई बार गया, परन्तु राजा ने उसे हर बार पहचान लिया और कहा कि जब तक तुम हमें ऐसा रूप न दिखाएँगे जो पहचानने में न आवे तब तक इनाम न मिलेगा। यह सुन वह चला गया और कुछ समय पश्चात् साधु का रूप बन, महल के पास ही धूनी रमा दी। न खाना, न पीना, भेंट की ओर देखना भी नहीं। राजा ने भी उस महात्मा की प्रशंसा सुनी तो वह भी भेंट लेकर उपस्थित हुआ। उसने भेंट के सच्चे मोती आग में झोंक दिये।

🔷 राजा उसकी त्याग वृत्ति देख भक्ति भाव से प्रशंसा करते हुए चले गये। दूसरे दिन बहरूपिया राज सभा में उपस्थित हुआ और अपने साधु बनकर राजा को धोखा देने की चर्चा करते हुए अपना इनाम माँगा। राजा ने प्रसन्न हो, इनाम दिया और पूछा-तुमने वे मोती, जो इनाम के मूल्य से भी अधिक मूल्यवान थे, आग में क्यों झोंक दिये। यदि उन्हें ही लेकर चले जाते तो बहुत लाभ में रहते? उसने उत्तर दिया-यदि मैं ऐसा करता तो इससे साधु-वेश कलंकित होता। साधुवेश को कलंकित करके धन लेने का अनैतिक कार्य कोई आस्तिक भला कैसे कर सकता हैं?”

📖 अखण्ड ज्योति से

👉 साधू की बात

🔷 एक बार एक राजा की सेवा से प्रसन्न होकर एक साधू नें उसे एक ताबीज दिया और कहा की राजन इसे अपने गले मे डाल लो और जिंदगी में कभी ऐसी परिस्थिति आये की जब तुम्हे लगे की बस अब तो सब ख़तम होने वाला है, परेशानी के भंवर मे अपने को फंसा पाओ, कोई प्रकाश की किरण नजर ना आ रही हो, हर तरफ निराशा और हताशा हो तब तुम इस ताबीज को खोल कर इसमें रखे कागज़ को पढ़ना, उससे पहले नहीं!

🔶 राजा ने वह ताबीज अपने गले मे पहन लिया! एक बार राजा अपने सैनिकों के साथ शिकार करने घने जंगल मे गया! एक शेर का पीछा करते करते राजा अपने सैनिकों से अलग हो गया और दुश्मन राजा की सीमा मे प्रवेश कर गया, घना जंगल और सांझ का समय, तभी कुछ दुश्मन सैनिकों के घोड़ों की टापों की आवाज राजा को आई और उसने भी अपने घोड़े को एड लगाई, राजा आगे आगे दुश्मन सैनिक पीछे पीछे! बहुत दूर तक भागने पर भी राजा उन सैनिकों से पीछा नहीं छुडा पाया!

🔷 भूख प्यास से बेहाल राजा को तभी घने पेड़ों के बीच मे एक गुफा सी दिखी, उसने तुरंत स्वयं और घोड़े को उस गुफा की आड़ मे छुपा लिया! और सांस रोक कर बैठ गया, दुश्मन के घोड़ों के पैरों की आवाज धीरे धीरे पास आने लगी! दुश्मनों से घिरे हुए अकेले राजा को अपना अंत नजर आने लगा, उसे लगा की बस कुछ ही क्षणों में दुश्मन उसे पकड़ कर मौत के घाट उतार देंगे! वो जिंदगी से निराश हो ही गया था, की उसका हाथ अपने ताबीज पर गया और उसे साधू की बात याद आ गई! उसने तुरंत ताबीज को खोल कर कागज को बाहर निकाला और पढ़ा! उस पर्ची पर लिखा था — ”यह भी कट जाएगा “

🔶 राजा को अचानक ही जैसे घोर अन्धकार मे एक ज्योति की किरण दिखी, डूबते को जैसे कोई सहारा मिला! उसे अचानक अपनी आत्मा मे एक अकथनीय शान्ति का अनुभव हुआ! उसे लगा की सचमुच यह भयावह समय भी कट ही जाएगा, फिर मे क्यों चिंतित होऊं! अपने प्रभु और अपने पर विश्वासरख उसने स्वयं से कहा की हाँ, यह भी कट जाएगा!

🔷 और हुआ भी यही, दुश्मन के घोड़ों के पैरों की आवाज पास आते आते दूर जाने लगी, कुछ समय बाद वहां शांति छा गई! राजा रात मे गुफा से निकला और किसी तरह अपने राज्य मे वापस आ गया!

👉 आज का सद्चिंतन 30 July 2018


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 July 2018


👉 युग की माँग प्रतिभा परिष्कार 1 (भाग 15)

👉 प्रतिभा परिवर्धन के तथ्य और सिद्धांत

🔷 प्रतिभाएँ एकाकी बढ़कर अपने अग्रगमन की क्षमता का प्रमाण प्रस्तुत करती हैं। फिर सर्वत्र उनकी मनस्विता का लोहा माना जाने लगता है। दूसरे लोग भी उनका अनुकरण करते हैं, जिनकी जिम्मेदारियाँ भारी हैं, वे ऐसे ही लोगों को तलाश करते रहते हैं। प्रामाणिकता की परख होने पर सब ओर से एक-से-बढ़कर एक भारी-भरकम जिम्मेदारियाँ उनके ऊपर आग्रहपूर्वक डाली जाने लगती हैं। वे उन्हें स्वीकार करते और जो कार्य लिया गया है, उसे सर्वांगपूर्ण ढंग से संपन्न कर दिखाते हैं।
  
🔶 रेल का इंजन एकाकी चलता है। स्वयं दौड़ता है और अपने साथ भरे डिब्बों की लंबी शृंखला को घसीटते हुए निर्धारित लक्ष्य की दिशा में पटरी पर दौड़ता चला जाता है। सर्वविदित है कि डिब्बों की तुलना में इंजन को अधिक महत्त्व मिलता है। अधिक मूल्यांकन भी होता है। यह और कुछ नहीं साहस भरी व्यवस्था का परिचय देने वाली ऊर्जा की ही परिणति है। प्रतिभाओं में यह सद्गुण उनके द्वारा स्वउपार्जित स्तर का, बड़ी मात्रा में पाया जाता है। वे औरों का मुँह ताकते हुए नहीं बैठे रहते, वरन आगे बढ़कर औरों को अपने चुंबकत्व के कारण जोड़ते और साथ चलने के लिए बाधित करते हैं। सफलताओं का यही स्रोत है।
  
🔷 यों प्रतिभा का दुरुपयोग भी हो सकता है। धन का, बल का, सौंदर्य का, कौशल का, नियोजन यदि भ्रष्ट-चिंतन और दुष्ट आचरण में किया जाए तो वैसा भी हो सकता है। आतंकवादी, अनाचारी, उच्छृंखल, उद्धत लोग प्राय: वैसा करते भी हैं। इतने पर भी यह निश्चित है कि कोई इस आधार पर न तो स्थिर प्रगति कर सकता है और न ही कोई ऐसी परंपरा पीछे छोड़ सकता है, जिसे सराहा जा सके। आज नहीं तो कल-परसों ऐसे लोग आत्मप्रताड़ना, लोकभर्त्सना से लेकर राजदंड और दैवी प्रकोप के भाजन बनते ही हैं। लानत और घृणा तो भीतर-बाहर से उन पर निरंतर बरसती ही रहती है। 

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 युग की माँग प्रतिभा परिष्कार पृष्ठ 19

👉 Thirst for What?

🔷 Instead of giving content, the worldly desires – even if fulfilled, always lead to newer ones with greater thirst. It is said that a human life is just a sojourn in the endless journey of the individual self in its quest for completeness. However, if a human being gets rid of all cravings then he can attain absolute evolution in this life itself. Trisna (thirst for fulfillment of desires, ambitions) is the root cause of all thralldoms, which entraps the individual self in the cycle of life and death. How a person enslaved by cravings would ever be liberated? Salvation means freedom from all worldly desires and expectations. Those having quest for realization of
absolute knowledge, truth should best begin with a vigilant watch on their own aspirations and control them prudently.

🔶 It is said that inner content is the biggest fulfillment. No amount of wealth could match it. One may be free and independent in worldly terms, but in reality, he, like most of us is the slave of his mind. The one whose mind is captured by trisna cannot be free for any moment. Even the most affluent man of the world is like a beggar because of his trisna: because he would always expect something from the world in terms of greater success, wealthier resources and what not. So if you want to rise and make proper use of your life, you will have to restrain your desires, selfish ambitions. Don’t escape from your duties, you must be constructive and must transact your duties sincerely; only you leave out the expectations or attachments with the results. Every action has a corresponding reaction here. The Law of appropriate consequences of your karma is absolute.

🔷 So don’t be desperate for any result, don’t think that the world or the circumstance would conform to your expectations. Renounce your trisna and be a free being…

📖 Akhand Jyoti, Mar. 1942

👉 तप में प्रमाद न करें


🔷 तप से प्रजापति ने इस सृष्टि को सृजा। सूर्य तपा और संसार को तपाने में समर्थ हुआ। तप के बल से शेष पृथ्वी का वजन उठाते हैं। शक्ति और वैभव का उदय तप से ही होता है।

🔶 तपाने पर धातुओं के उपकरण ढलते हैं। सोने के आभूषण बनते हैं। बहुमूल्य रस, भस्में तपाये जाने पर ही अमृतोपम गुण दिखाती हैं।

🔷 तपस्वी बलवान् बनता है, विद्वान् और मेधावी बनता है। ओजस्, तेजस् और वर्चस् प्राप्त करने के लिए तपश्चर्या का अवलम्बन लेना पड़ता है।

🔶 विलासी, आलसी और कायर मरते हैं। प्रतिभा गवां बैठते हैं। प्रामाणिकता न रहने पर उन्हें लक्ष्मी छोड़कर चली जाती है। वे पराधीन की भाँति जीते और दीन- दुर्बल की तरह उपहासास्पद बनते हैं।

🔷 अस्तु, तपस्वी होना चाहिए। तप में प्रमाद नहीं होना चाहिए। तपस्वी को रोको मत। तपस्वी को डराओ मत।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 अन्धकार को दीपक की चुनौती

🔷 अन्धकार की अपनी शक्ति है। जब उसकी अनुकूलता का रात्रिकाल आता है, तब प्रतीत होता है कि समस्त संसार को उसने अपने अञ्चल में लपेट लिया। उसका प्रभाव- पुरुषार्थ देखते ही बनता है। आँखें यथा स्थान बनी रहती हैं। वस्तुएँ भी अपनी जगह पर रखी रहती हैं, किन्तु देखने लायक विडम्बना यह है कि हाथ को हाथ नहीं सूझ पड़ता। पैरों के समीप रखी हुई वस्तुएँ ठोकर लगने का कुयोग बना देती हैं।

🔶 अन्धकार डरावना होता है। उसके कारण एकाकीपन की अनुभूति होती है और रस्सी का साँप, झाड़ी का भूत बनकर खड़ा हो जाता है। नींद को धन्यवाद है कि वह चिरस्मृति के गर्त में धकेल देती है, अन्यथा जगने पर करवटें बदलते वह अवधि पर्वत जैसी भारी पड़े।

🔷 इतनी बड़ी भयंकरता की सत्ता स्वीकार करते हुए भी दीपक की सराहना करनी पड़ती है, जो जब अपनी छोटी सी लौ प्रज्वलित करता है, तो स्थिति में कायाकल्प जैसा परिवर्तन हो जाता है। उसकी धुंधली आभा भी निकटवर्ती परिस्थिति तथा वस्तु व्यवस्था का ज्ञान करा देती है। वस्तु बोध की आधी समस्या हल हो जाती है।

🔶 दीपक छोटा ही सही अल्प मूल्य का सही, पर वह प्रकाश का अंशधर होने के नाते सुदूर फैलाव को चुनौती देता है और निराशा के वातावरण को आशा और उत्साह से भर देता है। इसी को कहते हैं नेतृत्व।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

रविवार, 29 जुलाई 2018

👉 छोटा और तुच्छ काम

🔶 काम वे छोटे गिने जाते है जो फूहड़पन और बेसलीके से किये जाते हैं। यदि सावधानी, सतर्कता और खूबसूरती के साथ, व्यवस्था पूर्वक कोई काम किया जाय तो वही अच्छा, बढ़ा और प्रशंसनीय बन जाता है। चरखा कातना कुछ समय पूर्व विधवाओं और बुढ़ियाओं का काम समझा जाता था, उसे करने में सधवायें और युवतियाँ सकुचाती थी। पर गाँधी जी ने जब चरखा कातना एक आदर्शवाद के रूप में उपस्थित किया और वे उसे स्वयं कातने लगे तो वही छोटा समझा जाने वाला काम प्रतिष्ठित बन गया। चरखा कातने वाले स्त्री पुरुषों को देश भक्त और आदर्शवादी माना जाने लगा।

🔷 संसार में कोई काम छोटा नहीं। हर काम का अपना महत्व है। पर उसे ही जब लापरवाही और फूहड़पन के साथ किया जाता है तो छोटा माना जाता है और उसके करने वाला भी छोटा गिना जाता है।

👉 कड़वी बहु

🔶 जानकी के बहु बेटे शहर में बस चुके थे लेकिन उसका गाँव छोड़ने का मन नहीं हुआ इसलिए अकेले ही रहती थी। वह रोजाना की तरह मंदिर जा कर आ रही थी। रास्ते मे उसका संतुलन बिगड़ा और गिर पड़ी।

🔷 गाँव के लोगों ने उठाया, पानी पिलाया और समझाया 'अब इस अवस्था में अकेले रहना उचित नहीं। किसी भी बेटे के पास चली जाओ।' जानकी ने भी परिस्थिति को स्वीकार कर बेटे बहुओं को ले जाने के लिए कहने हेतु फोन करने का मन बना लिया।

🔶 जानकी की तीन बहुएँ थी। एक बड़ी अति आज्ञाकारी मंझली मध्यम आज्ञाकारी और छोटी कड़वी। जानकी अति धार्मिक थी। कोई व्रत त्यौहार आता पहले से ही तीनों बहुओं को सावचेत कर देती। 'अति' खुशी खुशी व्रत करती। माध्यम भी मान जाती थी लेकिन कड़वी विरोध पर उतर जाती।

🔷 "आप हर त्योहार पर व्रत रखवा कर उसके आनंद को कष्ट में परिवर्तित कर देती हैं।" "तेरी तो जुबान लड़ाने की आदत है। कुछ व्रत तप कर ले। आगे तक साथ जाएँगे।"
दोनों की किसी न किसी बात पर बहस हो जाती। गुस्से में एक दिन जानकी ने कह दिया था।

🔶 "तू क्या समझती है! बुढापे में मुझे तेरी जरूरत पड़ने वाली है। तो अच्छी तरह समझ ले। सड़ जाऊँगी लेकिन तेरे पास नहीं आऊँगी।" सबसे पहले उसने अति को फोन किया "गिर गई हूँ। आजकल कई बार ऐसा हो गया है। सोचती हूँ तुम्हारे पाया ही आजाउँ।"

🔷 "नवरात्र में? अभी नहीं माँ जी। नंगे पाँव रह रही हूं आजकल। किसी का छुआ भी नहीं खाती।" मध्यम को भी फोन किया लेकिन उसने भी बहाना कर टाल दिया।

🔶 जब अति और मध्यम ही टाल चुकी तो कड़वी को फोन करने का कोई फायदा नहीं था और अहम अभी टूटा था लेकिन खत्म नहीं हुआ था। फोन पर हाथ रख आने वाले कठिन समय की कल्पना करने लगी थी। तभी फोन की घण्टी बजी। आवाज़ से ही समझ गई थी कड़वी है।

🔷 "गिर गये ना? आपने तो बताया नहीं लेकिन मैंने भी जासूस छोड़ रखे हैं। पोते को भेज रही हूँ लेने।"

🔶 "क्या तुझे मेरे शब्द याद नहीं?"

🔷 "जिंदगी भर नहीं भूलूँगी। आपने कहा था सड़ जाऊँगी तो भी तेरे पास नहीँ आऊँगी। तभी मैंने व्रत ले लिया था इस बुढ़िया अम्मा को सड़ने नहीं देना है। मेरा तप अब शुरू होगा।"

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 29 July 2018


👉 आज का सद्चिंतन 29 July 2018


👉 युग की माँग प्रतिभा परिष्कार 1 (भाग 14)

👉 प्रतिभा परिवर्धन के तथ्य और सिद्धांत

🔶 प्रतिभावानों के होठों पर मंद-मुस्कान देखी जाती है। इसी आधार पर यह जाना जाता है कि वे अपने आप में संतुष्ट और प्रसन्न हैं। दूसरे भी ऐसे ही लोगों का सहारा ताकते और साथ देते हैं। खीजते और खिजाते रहने वालों को दूर से ही नमस्कार करने को जी करता है, जिन्हें अपना सही मूल्यांकन करना है, वे इस प्रकार की भूलें नहीं करते। यदि वे आदत में सम्मिलित होने लगें तो उन्हें बुहार फेंकने की मुस्तैदी दिखाते हैं।
  
🔷 तीसरा चरण है- सुव्यवस्था अस्त-व्यस्त स्थिति में ही, प्रचुर साधन रहते हुए भी लोग असफल रहते और उपहासास्पद बनते हैं। प्रतिभाएँ क्षण-क्षण में अपने कार्यों और नियोजनों की समीक्षा करती रहती हैं तथा उन्हें सही बनाने के लिए जो हेर-फेर करना आवश्यक होता है, उसे बिना हिचक तत्परतापूर्वक करती हैं। जड़ता हठवादिता के शिकंजे में जकड़ने का उन्हें तनिक भी आग्रह नहीं होता। वे जानते हैं कि प्रगतिशीलों को सदा परिस्थितियों के अनुरूप रणनीति बनानी और चलते ढर्रे में आवश्यक सुधार लाने की चेष्टा करनी पड़ती है। व्यवस्था इसी प्रकार बन पड़ती है। जो अपने समय का, श्रम का, साधनों का, विचारों का ,परिवार परिकर का सुनियोजन कर सकता है और उन्हें सही दिशा दे सकने में समर्थ हो सकता है, उसे ही इस योग्य समझा जाता है कि वह कोई बड़ी या अतिरिक्त जिम्मेदारी को वहन कर सके। किन्हीं बढ़ी-चढ़ी महत्त्वाकांक्षाओं को सँजोने से पूर्व यह प्रमाण देना पड़ता है कि व्यक्तित्व, परिकर एवं क्रियाकलापों में किस सीमा तक व्यवस्था बुद्धि का उपयोग किया गया और उन्हें कितना सफल-समुन्नत बनाकर दिखाया गया।
  
🔶 चौथा व अंतिम सूत्र है- अग्रगमन-नेतृत्व यह उत्साह, साहस और आत्मविश्वास का प्रतीक है। साधारण जन आत्महीनता से ग्रसित, झिझक, संकोच, अनिश्चय एवं साहसहीनता की मन:स्थिति में पड़े पाए जाते हैं। वे उचित कार्यों के लिए भी कदम बढ़ाने का साहस नहीं कर पाते। अधिक-से-अधिक इतना ही सोचते हैं कि कोई बढ़े तो उसके पीछे चलने लगें। ऐसे लोग उचित निष्कर्ष निकाल लेने पर भी उस मार्ग का अवलंबन नहीं कर पाते। अपनी स्थिति को अनुपयुक्त मानते हुए भी उस परिधि से एक कदम भी आगे नहीं रख पाते। ऐसों के बीच उन्हीं को मनस्वी माना जाता है, जो उचित के प्रति अटूट आस्था रखें और जो करना चाहिए उसे अन्यों का समर्थन-सहमति न मिलने पर भी एकाकी कर दिखाएँ। इसे दूध गरम करते ही मलाई के तैरकर ऊपर आ जाने के समकक्ष समझा जा सकता है। 

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 युग की माँग प्रतिभा परिष्कार पृष्ठ 18

👉 The Significance of Satsang

🔶 Satsanga means being in the company of good people, inspiring discourses and discussions. You should always try to be in the company of such people who protect you from evils and wrongs; who can induce hope even in the moments of despair and offer you encouraging support in adverse circumstances.

🔷 It is easy to get the sycophants or selfish friends around, who would just be ‘friends’ when they need something from you: they need not be your well wishers, and might even pull you in the rut of addictions, ego and avarice; they won’t hesitate in stepping you on your back if it suits their vested interests. You may find it difficult to find wise men who would be your guides; who would be your critiques on your face to correct your flaws and advice you righteously; who would warn you of the dangers or risks well n time. People often prefer the company of elite; we should know that the best company is that of the enlightened personalities, the elevated souls.

🔶 Having true friends, though few in numbers, is a sign of wisdom. Noble friendship is quite significant in the ascent of life in many respects. It is foolish to make enemies, but worse is to leave the friendship of good people.

🔷 Pure intellect and faith in sincere efforts with assiduity are the two key elements essential for transmutation of personality. Adoption of virtues transforms the bad, debased ones into great personalities; on the contrary, vices could decline and debouch the great ones into mean, inferior, scornful levels. So your friends should be those who inspire the virtues and uproot the vices. You may also begin on your own by cultivating food qualities, like constructive use of time, alertness, sincerity and perseverance… Small steps in the prudent direction lead to brighter goals.

📖 Akhand Jyoti, Apr. 1942

👉 पवित्र, श्रद्धालु और धार्मिक बनें

🔷 इस संसार को माया इसलिए कहा गया है कि यहाँ भ्रान्तियों की भरमार है। जो जैसा है, वैसा नहीं दीखता। यहाँ हर प्रसंग में कबीर को उलटबांसियों की भरमार हैं। पहेली बुझाने की तरह हर बात पर सोचना पड़ता है। प्रस्तुत गोरख धन्धा बिना बुद्धि पर असाधारण जोर लगाए समझ में ही नहीं आता। तिलस्म की इस इमारत में भूल-भुलैया ही भरी पड़ी हे। आँख मिचौनी का बेल यहाँ कोई जादूगर खेलता खिलाता रहता है।

🔶 प्रस्तुत परिस्थितियों को विधि की विडम्बना नियति की प्रवंचना भी कहा जा सकता है पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने पर प्रतीत होता हैं कि मनुष्य की बुद्धिमत्ता परखने के लिये उस चतुर चित ने पग-पग पर कसौटियाँ बिछा रखी हैं, जिनके माध्यम से गुजरने वाले के स्तर का पता लगता रहे। लगता है नियन्ता ने अपने युवराज को क्रमशः अधिकाधिक अनुदान देने की व्यवस्था बनाई है और उपयुक्त अधिकारी को उपयुक्त जिम्मेदारियाँ-विभूतियाँ सौंपते चलने की योजना विनिर्मित की है।      

🔷 दूरदर्शी और अदूरदर्शी का पता इस गुत्थी को सुलझा सकने, न सुलझा सकने से लग जाता है कि सच्चा स्वार्थ साधन किसमें है, किसमें नहीं। बाधक मात्र एक ही प्रवंचना होती है कि तात्कालिक आकर्षणों में यह चंचल मन इतना मचल जाता है कि बुद्धि को उसकी ललक पूरी करने तक का अवसर नहीं मिलता। तरकस से तीर निकल जाने पर पता चलता है कि निशाना जहाँ लगाना चाहिए था, वहाँ न लगकर कहीं से कहीं चला गया। सफलता और असफलता का निर्धारण यहीं हो जाता है। व्यवहार बुद्धि का आश्रय लेने वाले दूरदर्शी इसी कसौटी पर खरे उतरते एवं माया-प्रपंच से बचकर सफलता के साथ आत्मिक प्रगति के पथ पर प्रशस्त होते देखे जा सकते हैं।

📖 अखण्ड ज्योति फ़रवरी 1973 पृष्ठ 1
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1973/February/v1

👉 अपनों के साथ दुर्व्यवहार

🔷 ‘आप लोग मुझे क्षमा करें। आपको आज मैं “महिलाओं”, शब्द से संबोधन कर रहा हूँ। सचमुच हम लोग शताब्दियों से गुलामी करते-करते स्त्री जैसे हो गये हैं। आप लोग इस देश या दूसरे किसी देश में जाइए। आप देखेंगे कि यदि एक स्थान पर तीन स्त्रियाँ 5 मिनट के लिए भी इकट्ठी होंगी तो झगड़ा कर बैठेंगी। पाश्चात्य देशों में बड़ी-बड़ी सभाएं करके स्त्रियों की क्षमता और अधिकारों की घोषणा से आकाश को गूंजा देती हैं पर उसके दो दिन बीतते न बीतते आपस में झगड़ा कर बैठती हैं तब कोई पुरुष आकर प्रभुत्व जमा लेता है।

🔶 सभी जातियों में आप ऐसा ही देखेंगे। स्त्रियों को शासन में रखने के लिये अब भी पुरुषों की आवश्यकता है। हम लोग भी इसी तरह स्त्रियों के समान हो गये हैं। अगर कोई स्त्री आकर उनका नेतृत्व करने लगती है तो सब मिलकर उसकी बड़ी आलोचना करने लगती है। उसे बोलने नहीं देतीं जबरदस्ती बिठा देती हैं। लेकिन यदि कोई पुरुष आकर उन के प्रति कुछ कठोर व्यवहार करें बीच-बीच में बुरा भला भी कहता जाय तो उन्हें अच्छा लगेगा क्योंकि वे लोग इस प्रकार के व्यवहारों की अभ्यस्त हो गई हैं।      

🔷 संसार की जादूगरों और वशीकरण मंत्र जानने वालों से भरा हुआ है। शक्तिशाली पुरुष सदा इस प्रकार दूसरों को वश में करते हैं। हम लोगों के संबंध भी यही हुआ है। अगर आपके देश का कोई मनुष्यता बढ़ना चाहता है तो आप सब लोग मिलकर उसे दबाते हैं लेकिन एक विदेशी आकर अगर लाठी भी मारे उसे अनायास ही सहने को प्रस्तुत होते हैं। आप लोग इसी के अभ्यस्त हो गये हैं इसीलिये दासता बन्धनों में पड़े हुए हैं। अपनों के साथ दुर्व्यवहार करना दासता की एक अचूक निशानी है?

✍🏻 स्वामी विवेकानन्द
📖 अखण्ड ज्योति- अगस्त 1943 पृष्ठ 6
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1943/August/v1.6

शनिवार, 28 जुलाई 2018

👉 युग की माँग प्रतिभा परिष्कार 1 (भाग 13)

👉 प्रतिभा परिवर्धन के तथ्य और सिद्धांत

🔷 प्रतिभा परिष्कार के कुछ मूलभूत सिद्धांत हैं। इन्हें उन सभी को हृदयंगम करने का प्रयत्न करना चाहिए, जो समुन्नत, सुसंस्कृत एवं यशस्वी सफल जीवन जीने के लिए उत्सुक हैं।
  
🔶 प्रथम सिद्धांत अथवा आधार है- क्षमताओं का अभिवर्धन। उनके लिए निरंतर तत्परता का, तन्मयता का सुनियोजन। आलस्य-प्रमाद से बचकर सदा जागरूक और स्फूर्तिवान बने रहना। एक-एक क्षण को बहुमूल्य मानकर उन्हें सदुद्देश्यों में सुनियोजित रखने के लिए योजनाबद्ध आकलन। यही है वह मन:स्थिति जिसे ‘महाजागरण’ कहते हैं। आमतौर से लोग अर्द्ध तंद्रा की स्थिति में जिंदगी को दर्द की तरह जीते हैं। निर्वाह साधन पा लेने भर से उन्हें संतोष हो जाता है। वे भाव-तरंगें उठती ही नहीं, जो आज की तुलना में कल को अधिक परिष्कृत बनाने के लिए लालायित रहती हैं और प्रयत्नरत होती हैं। प्रतिभा के उपासक इस दलदल से उबरते हैं और अपनी निखरती क्षमताओं को बचाकर, मूल्यवान पूँजी की तरह एकत्रित करते हैं। जो हस्तगत है, उसका श्रेष्टतम सदुपयोग करते हैं। यही है कल्पवृक्ष का उत्पादन एवं उसका उद्देश्यपूर्ण सदुपयोग क्रियान्वयन।
  
🔷 दूसरा चरण है— अपने व्यक्तित्व को चुंबकीय, आकर्षक एवं विश्वस्त स्तर का विकसित करना। यह मनुष्यता के साथ जुड़ने वाला प्राथमिक गुण है। इसके लिए अपना रहन-सहन ऐसा बनाना पड़ता है जैसा जागरूक, जिम्मेदार और सज्जनता संपन्नों का होना चाहिए। शरीर और मन की स्वच्छता, साथ ही शिष्टाचार का निर्वाह और वाणी में मधुरता का गहरा पुट लगाए रहना भी आवश्यक है। इसके लिए अपनी नम्रता का परिचय देना और दूसरों को सम्मान देना आवश्यक है। उसे वे ही कर पाते हैं, जो दूसरों के गुण देखकर उनसे प्रेरणा ग्रहण करते रहते हैं, साथ ही अपनी त्रुटियों को खोजते एवं उनके निष्कासन-परिष्कार में लगे रहते हैं। ओछे अपनी शेखी बघारते और दूसरों के दोष गिनाते रहते हैं। उसी जंजाल में उनका चिंतन एवं वर्चस्व घटता और समाप्त होता रहता है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 युग की माँग प्रतिभा परिष्कार पृष्ठ 17

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 28 July 2018


👉 आज का सद्चिंतन 28 July 2018


शुक्रवार, 27 जुलाई 2018

👉 गुरु बिन सत्पथ कौन दिखाय।

🔷 गुरु बिन ज्ञान नहीं मिल पाता।
भला बुरा कुछ  समझ न आता ।
माटी  कंचन की कीमत  भी ।
गुरु बिन समझ न आय।
गुरु बिन सत्पथ कौन दिखाय ।  

🔶 दोष दुर्गुणों ने जकड़ा है।
पाप ताप ने भी पकड़ा है।
दया धरम सब भुल चुके है।
नेक करम न सुभाय।
गुरु बिन सत्पथ कौन दिखाय ।

🔷 मनुज विकल हो तडप रहा है।
अगणित कष्ट भी सबने  सहा है।
दुष्ट दनुज का दंभ मिटाने ,
तुम बिन कौन  सहाय ।
गुरु बिन सत्पथ कौन दिखाय ।  

🔶 हे प्रभू पथ से भटक चुके है।
मंजिल तक ना पहुच सके  है।
पर पीडा मे रमे सभी  है।
आचरण हुए दुःखदाय।
गुरु बिन सत्पथ कौन दिखाय ।

🔷 कथनी करनी भिन्न हुआ  है।
पाखंड से मन खिन्न हुआ है।
आचरण हमारे ठीक नही है।
सद्बुद्धि सबमे आए।
गुरु बिन सत्पथ कौन दिखाय ।

🔶 दरश दो प्रभू राह दिखाओ।
कष्ट हरो अब मार्ग बताओ ।
तिमिर निशा से त्राण  दिलाओ।
सही राह  चल पाए।
गुरु बिन सत्पथ कौन दिखाय ।

👉 इतनी शक्ति हमे दो गुरुवर

🔷 इतनी शक्ति हमे दो गुरुवर, अनुरुप तेरे हो  जायें।
समय आज है गुरु पर्व का,आओ यही  संकल्प जगाये।

🔶 गहन अन्धेरा छाया जग मे,चहुँ दिशि हाहाकार है।
राह नहीं कहीं भी दिखता,लगे की अपनी  हार है।
ज्ञान प्रकाश फैलाओ प्रभू जी ,सत्पथ पर  हम चल पायें ।
इतनी शक्ति हमे दो गुरुवर,अनुरुप तेरे हो  जायें।

🔷 तुम्ही हो ब्रह्मा विष्णु तुम्ही हो,जग के पालनहार हो।
डूबती जग के नैया के प्रभू,तुम ही खेवन हार हो।
बीच भॅवर  से पार निकालो,नहीं कहीं कोई डूब जाए।
इतनी शक्ति हमे दो गुरुवर,अनुरुप तेरे हो  जायें।

🔶 शिष्यों को शक्ति देकर ही,जग मे बहाई ज्ञान की धारा।
हर युग मे ही तुने उबारा,नयी दिशा दे जग को सुधारा।
दया दरश तुम करो प्रभू अब,पुनः  नया संसार बनाएं।
इतनी  शक्ति हमे दो गुरुवर,अनुरुप तेरे हो  जायें।

🔷 जब जब धर्म की हानि हुई है,मानवता को कष्ट हुआ है।
तब तब गुरु ने ज्ञान शक्ति से,नयी सृष्टि का सृजन  किया है।
अबकी बार उबारो प्रभू जी,सुखी सारा संसार हो जाये।
इतनी शक्ति हमे दो गुरुवर,अनुरुप तेरे हो  जायें।

गुरुवार, 26 जुलाई 2018

👉 बालू के कण

🔷 सीपी के पेट में बालू का एक कण घुस जाता है। उस कण के ऊपर सीपी के शरीर का रस लिपटता जाता है और वह बढ़ते-बढ़ते एक चमकते हुये कीमती मोती के रूप में प्रस्तुत हो जाता है। यो बालू के एक कण की कुछ कीमत नहीं, पर सीपी जब उसे अपने उदर में धारण कर अपने जीवन रस से सींचने लगती हैं तो वह तुच्छ रज कण एक मूल्यवान पदार्थ बनता है। उच्च नैतिक आदर्श भी ऐसे ही बालू के कण हैं जो यदि मनुष्य के हृदय में गहराई तक प्रवेश कर जाये तो एक तुच्छ व्यक्ति को महापुरुष, ऋषि और देवता के रुपये प्रस्तुत कर सकते है।

👉 युग की माँग प्रतिभा परिष्कार 1 (भाग 12)

👉 प्रतिभा परिवर्धन के तथ्य और सिद्धांत

🔶 जनसाधारण के बीच प्रतिभाशाली अलग से चमकते हैं, जैसे पत्तों व काँटों के बीच फूल, तारों के बीच चंद्रमा। यह जन्मजात उपलब्धि नहीं है और न किसी का दिया हुआ वरदान। इसे भाग्यवश मिला हुआ आकस्मिक संयोग-सुयोग भी नहीं कहा जा सकता। वह स्व-उपार्जित संपदा है। इस कार्य में दूसरे कुछ सहायक तो हो सकते हैं, पर प्रधानता तो अपने प्रबल प्रयास की ही रहती है।
  
🔷 धन आता है और चला जाता है। रूप यौवन भी सामयिक है। उसका संबंध चढ़ते खून से है। किशोर और तरुण ही सुंदर दिखते हैं। इसके बाद ढलान आरंभ होते ही अवयवों में कठोरता और चेहरे पर रुक्षता की हवाइयाँ उड़ने लगती हैं। विद्या उतनी ही स्मरण रहती है, जितनी कि व्यवहार में काम आती है। मित्र, सहयोगी, संबंधी, सहायकों के मन बदलते रहते हैं। आवश्यक नहीं कि उनकी घनिष्टता सदा एक-सी बनी रहे। अधिकार भी चिरस्थायी नहीं है। समर्थन घटते ही वे दूसरों के हाथों चले जाते हैं। वयोवृद्धों के उत्पादन की, परिश्रम की क्षमता घट जाती है। आयुवृद्धि के साथ-साथ स्मरण शक्ति और स्फूर्ति भी जवाब देने लगती है। ऐसी दशा में तब कोई योजना बनाना और उसे चलाना भी, बस से बाहर हो जाता है। यह सब मरण के ही लक्षण हैं। जीवनी शक्ति का भंडार धीरे-धीरे चुकता है और फिर वह अंतत: जवाब दे जाता है।
  
🔶 विकासोन्मुख शरीर, चढ़ते खून और परिपक्व व्यक्तित्व वाले दिनों में ही रहता है। उसे भले ही कोई आलस्य-प्रमाद में गुजारे, भले ही कोई लिप्सा-लालसा की वेदी पर विसर्जित कर दे। कोई-कोई तो उन दिनों भी अतिवादी उद्दंडता दिखाने से नहीं चूकते। यह सब शक्तियों और संभावनाओं के भंडार मनुष्य जीवन के साथ खिलवाड़ करने जैसा है। दूरदर्शी वे हैं, जो विभूतियों में सर्वश्रेष्ठ ‘प्रतिभा’ को मानते हैं और उसके संपादन हेतु प्राणपण से प्रयत्न करते हैं, क्योंकि वही हर स्थिति में साथ रहती है, अपनी तथा दूसरों की गुत्थियाँ सुलझाती है और जन्म-जन्मान्तरों तक साथ रहकर, क्रमश: अधिकाधिक ऊँचे स्तर वाली परिस्थितियों का निर्माण करती रहती है। इस उपार्जन के लिए किए गए प्रयत्नों को ही, हर दृष्टि से सराहा और स्वर्ण संपदा की तरह किसी भी बाजार में भुनाया जा सकता है। भौतिक प्रगति में भी उसी के चमत्कार दिखते हैं और आदर्शवादी परमार्थ अपनाने वाली महानता को भी उसी के सहारे विकसित परिष्कृत होते हुए देखा जा सकता है। 
  
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 युग की माँग प्रतिभा परिष्कार पृष्ठ 16

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 26 July 2018


👉 आज का सद्चिंतन 26 July 2018


👉 व्यर्थ का उलाहना

🔶 हे प्रभु ! हे जगत्-पिता, जगन्नियन्ता कैसे आप मौन, मन्दिर में बैठे हैं। क्या आप देख नहीं रहे हैं कि बाहर संसार में अन्याय और अनीति फैली हुई है। अत्याचारियों के आतंक और त्रास से संसार त्राहि-त्राहि कर रहा है। आप उठिये और बाहर आकर अत्याचारियों का विनाश करिये, संसार को त्रास और उत्पीड़न से बचाइये। देखिये, मैं कब से आपको पुकार रहा हूँ, विनय और प्रार्थना कर रहा हूँ। किन्तु आप अनसुनी करते जा रहे हैं। हे प्रभु, हे जगन्नियन्ता न जाने आप जल्दी क्यों नहीं सुनते। पुकारते-पुकारते मेरी वाणी शिथिल हो रही है किन्तु अभी तक आपने मेरी पुकार नहीं, सुनी कहते-कहते, प्रार्थी करुणा से रो पड़ा !

🔷 तभी मूर्ति ने गम्भीरता के साथ कहा- ‘मनुष्य मुझे संसार में आने के लिये न कहे- मैं मनुष्यों से बहुत डरता हूँ। प्रार्थी ने विस्मय पूर्वक पूछा- भगवान् ! आप मनुष्य से डरते हैं- यह क्यों !

🔶 मूर्ति पुनः बोली- इसलिये कि यदि मैं संसार में सशरीर ईश्वर के रूप में आ जाऊँ तो मनुष्य मेरी दुर्गति बना डालें। क्योंकि हर मनुष्य को मुझ से कुछ न कुछ शिकायत है, हर मनुष्य मुझ से कुछ न कुछ सेवा चाहता है। अपनी शिकायतों को ढूँढ़ने और उन्हें दमर करने की अपेक्षा वह दोष मुझे देता है। पुरुष अपनी समस्यायें आप हल करने की अपेक्षा मुझे से सारे काम कराना चाहता है और मूल्य चुकाये बिना वैभव पाने की याचना करता है।

🔷 अब तुम्हीं बताओ ऐसी स्थिति में मैं सशरीर ईश्वर के रूप में कैसे आ सकता हूँ ? मूर्ति मौन हो गई

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखंड ज्योति दिसम्बर 1971 पृष्ठ 1

बुधवार, 25 जुलाई 2018

👉 जैसी करनी वैसी भरनी

🔷 जो लोग भले होते हैं, वे तो किसी प्रकार उबर आते है पर कुटिल चाल चलने वाले अन्तत : स्वयं गिरते हैं। ऐसे गीदड़ वेशधारी अनेक व्यक्ति समाज में बैठे हैं।

🔶 एक गीदड़ एक दिन गढ्डे में गिर गया। बहुत उछल-कूद की किन्तु बाहर न निकल सका। अन्त में हताश होकर सोचने लगा कि अब इसी गढ्डे में मेरा अन्त हो जाना है। तभी एक बकरी को मिमियाते सुना। तत्काल ही गीदड़ की कुटिलता जाग उठी। वह बकरी से बोला-' बहिन बकरी। यहाँ अन्दर खूब हरी-हरी घास और मीठा-मीठा पानी है। आओ जी भरकर खाओ और पानी पियो। " बकरी उसकी लुभावुनी बातों में आकर, गढ्डे में कूद गयी।

🔷 चालाक गीदड़ बकरी की पीठ पर चढ़कर गढ्डे से बाहर कूद गया और हँसकर बोला-"तुम बड़ी बेवकूफ हो, मेरी जगह खुंद मरने गट्टे में आ गई हो। " बकरी बड़े सरल भाव से बोली-"गीदड़ भाई, मेरी उपयोगितावश कोई न कोई मुझे निकाल ही लेगा किन्तु तुम अपने ही क्षणों के कारण विनाश के बीज वो लोगे।

🔶 थोड़ी देर में मालिक ढूँढ़ता हुआ बकरी को निकाल ले गया। रास्ते में जा रही बकरी ने देखा वही गीदड़ किसी के तीर से घायल हुआ झाड़ी में करहा रहा  है।

👉 आज का सद्चिंतन 25 July 2018

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 25 July 2018


👉 युग की माँग प्रतिभा परिष्कार 1 (भाग 12)

👉 विशिष्टता का नए सिरे से उभार

🔷 यहाँ परिजनों के पिछले दिनों के योगदान का मूल्यांकन घटाकर नहीं किया जा रहा है, पर इतने भर से बात तो नहीं बनती? महाकाल की अभिनव चुनौती स्वीकार करने के लिए उतने पर ही संतोष नहीं किया जा सकता, जो पिछले दिनों हो चुका है। यह लंबा संग्राम है- संभवतः प्रस्तुत परिजनों के जीवन भर चलते रहने वाला। इक्कीसवीं सदी आरंभ होने में अभी दस वर्ष से भी अधिक समय शेष है। इस युगसंधि वेला में तो हम सबको, उस स्तर की तप साधना में संलग्न रहना है, जिसे भगीरथ ने अपनाया और धरती पर स्वर्गस्थ गंगा का अवतरण संभव कर दिखाया था।

🔶 महामानवों के जीवन में कहीं कोई विराम नहीं होता। वे निरंतर अनवरत गति से, शरीर छूटने तक चलते ही जाते हैं। इतने पर भी लक्ष्य पूरा न होने पर जन्म-जन्मान्तरों तक उसी प्रयास में निरत रहने का संकल्प संजोए रहते हैं। इसी परंपरा का निर्वाह उन्हें भी करना है, जिन्हें अपनी प्रतिभा निखारनी और निजी तथा सार्वजनिक क्षेत्र में ऐसी उपलब्धियाँ कमानी हों, जिन्हें प्रेरणाप्रद, अनुकरणीय, अभिनंदनीय एवं अविस्मरणीय कहा जा सके। अपने परिवार की प्रतिभाओं को उपेक्षित स्तर की नहीं रहना है। इनकी गणना उन लोगों में नहीं होनी चाहिए, जिन्हें परावलंबी या निर्वाह के लिए जीवित भर रहने वाला कहा जाता है।
  
🔷 कमल पुष्प, सामान्य तालाब में उगने पर भी अपनी पहचान अलग बनाते और दूर से देखने वाले के मन पर भी अपनी प्रफुल्लता की प्रतिक्रिया उत्पन्न करते हैं। अपना स्वरूप एवं स्तर ऐसा ही होना चाहिए।
  
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 युग की माँग प्रतिभा परिष्कार पृष्ठ 15

👉 आत्म-निरीक्षण

🔷 युग निर्माण परिवार के प्रत्येक परिजन को निरंतर आत्म-निरीक्षण करना चाहिए और देखना चाहिए कि भारत के औसत नागरिक के स्तर से वह अपने ऊपर अधिक खर्च तो नहीं करता? यदि करता है तो आत्मा की, न्याय की, कर्त्तव्य की पुकार सुननी चाहिए और उस अतिरिक्त खर्च को तुरंत घटाना चाहिए। हमें अधिक कमाने की, अधिक बढ़ाने की, अधिक जोड़ने की ललक छोड़नी चाहिए और यह देखना चाहिए कि जो उपलब्ध है उसका श्रेष्ठतम सदुपयोग क्या हो सकता है?

🔶 जो पास है उसी का ठीक उपयोग कर सकना जब संभव नहीं हो पा रहा है, तो अधिक उपार्जन से भी क्या बनने वाला है? उससे तो साँप के दूध पीने पर बढ़ने वाले विष की तरह अधिक तृष्णा-वासना प्रबल होगी और पतन का क्रम ही तीव्र होगा। हमें उपयोग करने की बात को उपार्जन की ललक से असंख्य गुना महत्त्व देना चाहिए। ऐसा साहस करना कुछ खोना, कुछ गँवाना नहीं है वरन् चक्र-वृद्धि ब्याज समेत अनेक गुना वापस करने वाले किसी प्रामाणिक बैंक में जमा करने की दूरदर्शिता दिखाना भर है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 वाङमय-६६ पृष्ठ-१.३२
http://awgpskj.blogspot.com/2016/12/blog-post_29.html

मंगलवार, 24 जुलाई 2018

👉 सबसे खुश कौन ??

🔶 जंगल में एक कौआ रहता था जो अपने जीवन से पूर्णतया संतुष्ट था। लेकिन एक दिन उसने बत्तख देखी और सोचा, “यह बत्तख कितनी सफ़ेद है और मैं कितना काला हूँ. यह बत्तख तो संसार की सबसे ज़्यादा खुश पक्षी होगी।” उसने अपने विचार बत्तख से बतलाए. बत्तख ने उत्तर दिया, “दरसल मुझे भी ऐसा ही लगता था कि मैं सबसे अधिक खुश पक्षी हूँ जब तक मैंने दो रंगों वाले तोते को नहीं देखा था। अब मेरा ऐसा मानना है कि तोता सृष्टि का सबसे अधिक खुश पक्षी है।”

🔷 फिर कौआ तोते के पास गया. तोते ने उसे समझाया, “मोर को मिलने से पहले तक मैं भी एक अत्यधिक खुशहाल ज़िन्दगी जीता था। परन्तु मोर को देखने के बाद मैंने जाना कि मुझमें तो केवल दो रंग हैं जबकि मोर में विविध रंग हैं।” तोते को मिलने के बाद वह कौआ चिड़ियाघर में मोर से मिलने गया. वहाँ उसने देखा कि उस मोर को देखने के लिए हज़ारों लोग एकत्रित थे।

🔶 सब लोगों के चले जाने के बाद कौआ मोर के पास गया और बोला, “प्रिय मोर, तुम तो बहुत ही खूबसूरत हो. तुम्हें देखने प्रतिदिन हज़ारों लोग आते हैं. पर जब लोग मुझे देखते हैं तो तुरंत ही मुझे भगा देते हैं। मेरे अनुमान से तुम भूमण्डल के सबसे अधिक खुश पक्षी हो।”

🔷 मोर ने जवाब दिया, “मैं हमेशा सोचता था कि मैं भूमण्डल का सबसे खूबसूरत और खुश पक्षी हूँ। परन्तु मेरी इस सुंदरता के कारण ही मैं इस चिड़ियाघर में फंसा हुआ हूँ। मैंने चिड़ियाघर का बहुत ध्यान से परीक्षण किया है और तब मुझे यह अहसास हुआ कि इस पिंजरे में केवल कौए को ही नहीं रखा गया है. इसलिए पिछले कुछ दिनों से मैं इस सोच में हूँ कि अगर मैं कौआ होता तो मैं भी खुशी से हर जगह घूम सकता था।”

🔶 यह कहानी इस संसार में हमारी परेशानियों का सार प्रस्तुत करती है: कौआ सोचता है कि बत्तख खुश है, बत्तख को लगता है कि तोता खुश है, तोता सोचता है कि मोर खुश है जबकि मोर को लगता है कि कौआ सबसे खुश है।

सीख :

🔷 दूसरों से तुलना हमें सदा दुखी करती है। हमें दूसरों के लिए खुश होना चाहिए, तभी हमें भी खुशी मिलेगी. हमारे पास जो है उसके लिए हमें सदा आभारी रहना चाहिए। खुशी हमारे मन में होती है।. हमें जो दिया गया है उसका हमें सर्वोत्तम उपयोग करना चाहिए। हम दूसरों की ज़िन्दगी का अनुमान नहीं लगा सकते। हमें सदा कृतज्ञ रहना चाहिए। जब हम जीवन के इस तथ्य को समझ लेंगें तो सदा प्रसन्न रहेंगें।

👉 आज का सद्चिंतन 24 July 2018

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 24 July 2018


👉 युग की माँग प्रतिभा परिष्कार 1 (भाग 11)

👉 विशिष्टता का नए सिरे से उभार

🔶 प्रयत्नपूर्वक खदानों से हीरे खोज तो लिए जाते हैं, पर उन्हें चमकदार, बहुमूल्य और हार में शोभायमान स्थान पाने के लिए खरादना अनिवार्य रूप से आवश्यक होता है। धातुएँ अनेक बार के अग्नि संस्कार से ही संजीवनी जैसे रसायनों के रूप में परिणत होती हैं। पहलवान अखाड़े में लंबा अभ्यास करने के उपरांत ही दंगल में विजयश्री वरण करते हैं। शिल्पी और कलाकार अपने विषय में प्रवीण-पारंगत बनने के लिए लंबे समय तक अभ्यासरत रहते हैं। प्रतिभाओं का प्रशिक्षण और परिवर्धन, आदर्शवादी गतिविधियों में बढ़-चढ़कर भूमिका निभाने के उपरांत ही संभव हो पाता है।

🔷 उस तथ्य के अनुरूप जहाँ प्रतिभाओं को खोजा जा रहा है, वहीं उनकी प्रखरता निखारने के लिए ऐसे कार्यों में जुटाया भी जा रहा है, जिनके कारण उनका ओजस्, तेजस् और वर्चस् जाज्वल्यमान हो सके। विश्वामित्र ने दशरथ पुत्रों को, युगसृजन प्रयोजन के लिए, उपयुक्त समय पर उनकी तेजस्विता उभारने के लिए यज्ञ की रक्षा करने और असुरों से जूझने का काम सौंपा था। हनुमान्, अर्जुन आदि ने ऐसी ही अग्निपरीक्षाओं से गुजरते हुए असाधारण गौरव पाया था। इनसे बचकर किसी पर भी महानता आकाश से नहीं बरसी है। पराक्रम से जी चुराने वाले तो कृपणों-प्रमादियों की तरह, मात्र हाथ ही मलते रहते हैं।
  
🔶 इन दिनों जन्मान्तरों से संचित सुसंस्कारों वाली प्रतिभाएँ खोज निकाली गई हैं। उन्हें युगचेतना के साथ जोड़ा गया है। इन्हें नवसृजन साहित्य के माध्यम से पुष्प वाटिका में मधुमक्खियों की तरह, दिव्य सुगंध ने आमंत्रित किया है और उसी परिकर में छत्ता बनाकर रहने के लिए सहमत किया है। प्रज्ञा परिकर को इसी रूप में देखा, समझा और आँका जा सकता है। प्रज्ञा परिजनों को युगसृजन का लक्ष्य लेकर अवतरित हुई दिव्य आत्माओं का समुदाय कहा जा सकता है। वे अंतरात्मा को अमृत पिलाने वाले, युगसाहित्य का रसास्वादन करते रहे हैं, मिशन की पत्रिकाएँ नियमित रूप से पढ़ते रहे हैं। युगचेतना की भावभरी प्रेरणाओं का यथासंभव अनुसरण भी करते रहे हैं। उनके अब तक के योगदान को, परमार्थ पुरुषार्थ को, मुक्त कंठ से सराहा जा सकता है, पर बड़े प्रयोजनों के लिए इतना ही तो पर्याप्त नहीं? समय की बढ़ती माँग को देखते हुए, बड़े कदम भी तो उठाने पड़ेंगे। बच्चे का छोटा-सा पुरुषार्थ भी अभिभावकों द्वारा भली-भाँति सराहा जाता है, पर युवा होने पर बचपन की पुनरावृत्तियाँ करने भर से कौन यशस्वी बनता है?
  
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 युग की माँग प्रतिभा परिष्कार पृष्ठ 13

👉 मनुष्य, अनन्त शक्ति का भाण्डागार है।

🔶 मनुष्य अपने आप में एक परिपूर्ण इकाई है। उसमें वे समस्त शक्तियाँ और सम्भावनायें जन्मजात रूप में विद्यमान् हैं, जिनके आधार पर किसी भी दिशा में पूर्णता एवं सफलता के उच्च-शिखर पर पहुँचना सम्भव हो सकता है।

🔷 समस्त दैवी शक्तियों का प्रतिनिधित्व मनुष्य की अन्तःचेतना करती है। प्रसुप्त पड़ी रहने पर वह भले ही अपना गौरव प्रकट न कर सके पर जब वह जाग जाती है तो यही अन्तःचेतना व्यक्तित्व में अगणित ऐसे सद्गुण प्रस्फुटित करती है, जिनसे किसी दिशा में चमत्कार प्रस्तुत किये जा सकते हैं।

🔶 बाहरी हानि-लाभ, सहयोग और अवरोध मनुष्य की प्राप्ति एवं अवगति के उतने बड़े कारण नहीं, जितने कि अपने आन्तरिक सद्गुण एवं दुर्गुण। व्यक्ति स्वयं ही अपने उत्थान, पतन का उत्तरदायी है। जिसने अपने को समझा, सम्भाला और बढ़ाया वह निश्चित रूप से प्रगति के पथ पर अग्रसर हुआ है। अपने भीतरी शक्ति-कोष को जगाने पर मनुष्य अपरिमित दिव्य-शक्तियों से विभूषित हो सकता है।

🔷 बाहरी सहायता की अपेक्षा करने की तुलना में यह अच्छा है कि मनुष्य अपने भीतर छिपी सत्प्रवृत्तियों को ढूंढ़े एवं उभारे। प्रगति का सार आधार व्यक्ति की अन्तःचेतना और भावनात्मक स्फुरण पर ही तो अवलम्बित है।

✍🏻 ~ जे. कृष्ण मूर्ति
📖 अखण्ड ज्योति 1968 अगस्त पृष्ठ 1
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1968/August/v1

👉 सच्चा आत्म-समर्पण करने वाली देवी

🔶 थाईजेन्ड ग्रीनलैण्ड पार्क में स्वामी विवेकानन्द का ओजस्वी भाषण हुआ। उन्होंने संसार के नव-निर्माण की आवश्यकता का प्रतिपादन करते हुए कहा- ‘‘यदि मुझे सच्चा आत्म-समर्पण करने वाले बीस लोक-सेवक मिल जायें, तो दुनिया का नक्शा ही बदल दूँ।”

🔷 भाषण बहुत पसन्द किया गया और उसकी सराहना भी की गई, पर सच्चे आत्म-समर्पण वाली माँग पूरा करने के लिए एक भी तैयार न हुआ।

🔶 दूसरे दिन प्रातःकाल स्वामीजी सोकर उठे तो उन्हें दरवाजे से सटी खड़ी एक महिला दिखाई दी। वह हाथ जोड़े खड़ी थी।

🔷 स्वामीजी ने उससे इतने सवेरे इस प्रकार आने का प्रयोजन पूछा, तो उसने रूंधे कंठ और भरी आँखों से कहा- भगवन्! कल आपने दुनिया का नक्शा बदलने के लिए सच्चे मन से आत्म-समर्पण करने वाले बीस साथियों की माँग की थी। उन्नीस कहाँ से आयेंगे यह मैं नहीं जानती, पर एक मैं आपके सामने हूँ। इस समर्पित मन और मस्तिष्क का आप चाहे जो उपयोग करें।

🔶 स्वामी विवेकानन्द गद्-गद् हो गये। इस भद्र महिला को लेकर वे भारत आये। उसने हिन्दू साध्वी के रूप में नव-निर्माण के लिए जो अनुपम कार्य किया उसे कौन नहीं जानता। वह महिला थी भगिनी निवेदिता- पूर्व नाम था मिस नोबल।

📖 अखण्ड ज्योति 1968 मार्च पृष्ठ 1
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1968/March/v1.3

सोमवार, 23 जुलाई 2018

Tree Plantation By Shantikunj Haridwar On Gayatrikunj वृक्षारोपण



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👉 बलि का तेज चला गया

🔷 राजा बलि असुर कुल में उत्पन्न हुए थे पर वे बड़े सदाचारी थे और अपनी धर्म परायपता के उनने बहुत वैभव और यश कमाया था। उनका पद इन्द्र के समान हो गया। पर धीरे-धीरे जब धन सें उत्पन्न होने वाले अहंकार, आलस्य, दुराचार जैसे दुर्गुण बढ़ने लगे तो उनके भीतर वाली शक्ति खोखली होने लगी।

🔶 एक दिन इन्द्र की बलि से भेंट हुई तो सबने देखा कि बलि के शरीर से एक प्रचण्ड तेज निकलकर इन्द्र के शरीर में चला गया है और बलि श्री विहीन हो गये।

🔷 उस तेज से पूछा गया कि आप कौन हैं? और क्यों बलि के शरीर से निकलकर इन्द्र की देह में गये? तो तेज ने उत्तर दिया कि मैं सदाचरण है। मैं जहां भी रहता हूँ वहीं सब विभूतियाँ रहती हैं। बलि ने तब तक मुझे धारण किया जब तक उसका वैभव बढ़ता रहा था। जब इसने मेरी उपेक्षा कर दी तो मैं सौभाग्य को साथ लेकर, सदाचरण में तत्पर इन्द्र के यहाँ चला आया हूँ।

🔶 बलि का सौभाग्य सूर्य अस्त हो गया और इन्द्र का चमकने लगा, उसमें सदाचरण रूपी तेज की समाप्ति ही प्रधान कारण थी।

🔷 ऐसे भी व्यक्ति होतै हैं जो अपने व्यक्तित्व को ऊँचा उठाकर अपने को महामानव स्तर तक पहुँचा देते है, जन सम्मान पाते हैं। ऐसे निष्ठावानों से भारतीय-संस्कृति सदा से गौरवान्वित होती रही है।

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 23 July 2018


👉 आज का सद्चिंतन 23 July 2018

👉 युग की माँग प्रतिभा परिष्कार 1 (भाग 10)

👉 विशिष्टता का नए सिरे से उभार

🔷 इन दिनों ऐसा ही कुछ चल रहा है। असंतुलन को संतुलन में बदलने के लिए महाकाल की कोई बड़ी योजना बन रही है। उसे मूर्त रूप देने के लिए दो छोटे किंतु अति महत्त्वपूर्ण कार्यक्रम सामने आए हैं। एक है आदर्शवादी सहायकों में उमंगों का उभारना और एक परिसर-एक सूत्र में संबद्ध होना। साथ ही कुछ नियमित एवं सृजनात्मक गतिविधियों को प्रारंभ करना, जो सद्विचारों को सद्कार्यों में परिणत  कर सकने की भूमिका बना सकें। दूसरा कार्य यह है कि अनीति विरोधी मोरचा खड़ा किया जाए, उसे एक प्रयास से आरंभ करके विशाल-विकराल बनाया जाए। एक चिनगारी दावानल बनती है। छोटे बीज से वृक्ष बनता है।

🔶 ध्वंस एवं सृजन दोनों का यही उपक्रम है। एक कदम शालीनता के सृजन का एवं दूसरा अनीति के दमन का। सत्प्रवृत्ति संवर्धन और दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन के दो मोरचे पर, दोधारी तलवार से, दो स्तर की रीति-नीति अपनाना। यह है वह अग्रगमन, जिस पर कदम-कदम बढ़ते हुए नवयुग का अवतरण संभव हो सकता है। उज्ज्वल भविष्य की सर्वतोमुखी प्रगति एवं चिरस्थायी शांति के लक्ष्य तक पहुँचा जा सकता है। इसी स्थिति में पहुँचने पर ‘सत्यमेव जयते’ का उद्घोष, प्रचंड प्रयासों का मार्ग पूरा करते हुए अपनी यथार्थता का परिचय दे सकता है।
  
🔷 इस महाजागरण से ही प्रतिभाओं की मूर्च्छना हटेगी। वे अँगड़ाई लेते हुए लंबी मूर्च्छना से पीछा छुड़ाती और दिनमान की ऊर्जा प्रेरणा से कार्य क्षेत्र में अपने पौरुष का परिचय देती दृष्टिगोचर होंगी। इस भवितव्यता को हम सब इन्हीं आँखों से अपने ही सामने मूर्तिमान होते हुए देखेंगे।
  
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 युग की माँग प्रतिभा परिष्कार पृष्ठ 12

👉 प्रकाश की आवश्यकता हमें ही पूरा करनी होगी

🔷 आज का संसार अन्धविश्वासों और मूढ़ मान्यताओं की जंजीरों में जकड़ा हुआ है। इन जंजीरों से जकड़े हुए लोगों की दयनीय स्थिति पर मुझे तरस आता है। एक विचार जो मुझे दिन में निकले सूरज की तरह स्पष्ट दिखाई दे रहा है, वह यह है कि- व्यक्ति तथा समाज के समस्त दुःख उनमें समाये हुए अज्ञान के कारण ही हैं। अज्ञान का अन्धकार मिटे बिना सब लोग ऐसे ही भटकते और ठोकरें खाते रहेंगे।

🔶 संसार में प्रकाश कहाँ से उत्पन्न हो? यह प्रक्रिया बलिदानों द्वारा सम्भव होती रही है। बलिदानी वीर अपना उदाहरण प्रस्तुत कर लोगों के सामने एक परम्परा उपस्थित करते हैं, फिर दूसरे उन पदचिन्हों पर चलने लगते हैं। प्रकाश उत्पन्न करने की यही परम्परा अनादि काल से चली आ रही है। इस धरती पर जो सच्चे शूरवीर अथवा उत्तम व्यक्ति उत्पन्न होते रहे हैं उन्होंने त्याग और बलिदान का मार्ग ही अपनाया है क्योंकि अपने सुख को बलिदान करने से ही दूसरे के सुख की सम्भावना उत्पन्न होती है। इस युग में शाश्वत प्रेम और अनन्त करुणा से भरे प्रबुद्ध हृदयों की जितनी अधिक आवश्यकता है, उतनी पहले कभी नहीं रही। साहसपूर्ण कदम उठाने की आज जितनी आवश्यकता है उतनी पहले कभी नहीं रही।

🔷 इसलिये ए, प्रबुद्ध आत्माओ! उठो, संसार दुःख दारिद्रय की ज्वाला में झुलस रहा है। क्या तुम्हें ऐसे समय में भी सोते रहना शोभा दे सकता है? प्रकाश आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है और वह तुम्हारे जागरण एवं बलिदान ये ही उत्पन्न होगा।

✍🏻 ~ स्वामी विवेकानन्द
📖 अखण्ड ज्योति 1968 जनवरी पृष्ठ 1

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Sep 2024

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