मंगलवार, 26 जुलाई 2016

🌞 शिष्य संजीवनी (अन्तिम भाग) 👉 परमशान्ति की भावदशा


🔴 भगवान् बुद्ध कहते हैं जो आघात से, संघात से पैदा होता है, आहत होने से जिसकी उत्पत्ति होती है, वह मरणशील है। उसे मरना ही है। इसके विपरीत जो अनाहत है, वह शाश्वत है। मंत्र शास्त्र ने इसके श्रवण की व्यवस्था की है। इन पंक्तियों में हम अपने पाठकों को एक अनुभव की बात बताना चाहते हैं। बात गायत्री मंत्र की है, जिसे हम रोज बोलते हैं। यह बोलना दो तरह का होता है, पहला- जिह्वा से, दूसरा विचारों से। इन दोनों अवस्थाओं में संघात है। परन्तु जो निरन्तर इस प्रक्रिया में रमे रहते हैं, उनमें एक नया स्रोत पैदा होता है। निरन्तर के संघात से एक नया स्रोत फूटता है। अन्तस् के स्वर। ऐसा होने पर हमें गायत्री मंत्र बोलना नहीं पड़ता, बस सुनना पड़ता है।
     
🔵 फिर तो हमारा रोम- रोम गायत्री जपता है। हवाओं, फिजाओं में गायत्री की गूंज उठती है। सारी सृष्टि गायत्री का गायन करती है। यह अनुभव की सच्चाई है। इसमें बौद्धिक तर्क की या फिर किताबी ज्ञान की कोई बात नहीं है। ऐसा होने पर गायत्री का जीवन का स्वर बन जाता है, जो निरन्तर साधना कर रहे हैं, उन्हें एक दिन यह अनुभव अवश्य होता है। यह अनुभव दरअसल अपनी साधना के पकने की पहचान है। इन अनाहत स्वरों को जो सुनता है, वह शाश्वत में प्रवेश करता है। थोड़ा सा अलंकारिक भाषा में कहें तो ये स्वर प्रभु के परम मन्दिर में घण्टा ध्वनि है, जो इस मंदिर में प्रवेश करते हैं, वे इस मधुर ध्वनि को भी सुनते हैं।
   
🔴 इस सूत्र की आखिरी बात है, जो बाहरी और आन्तरिक दोनों चक्षुओं से अदृश्य है, उसका दर्शन करो। इस सूत्र का सच यह है कि हमारी आँखें दो है और दृश्य भी दो हैं। पहली आँख हमारी दृश्येन्द्रिय है, जो घटनाओं को देखती है। वस्तु, व्यक्ति, पदार्थ, संसार इससे दिखाई देता है। जबकि दूसरी आँख हमारे मन की है- यह विचारों को देखती है। तर्क और निर्णय की साक्षी होती है। भगवान् का सच, अध्यात्म का अन्तिम छोर इन घटनाओं और विचारों दोनों के ही पार है। इसके लिए हमें मन के पार जाना पड़ता है। जो मन के पार जाते हैं, वहाँ उस अदृश्य का दर्शन करते हैं। और अनुभव तो यह कहता है कि अपना मन ही उस अदृश्य में विलीन हो जाता है।

इस विलीनता में ही शान्ति की अनुभूति है, जो शिष्य को अपने गुरु के कृपा- प्रसाद से मिलती है। यह सब कुछ स्वयमेव शान्त हो जाता है। साधना के सारे संघर्ष, जीवन के सभी तूफान यहाँ आकर शान्त हो जाते हैं। बस यहाँ तक शिष्य और गुरु का द्वैत भी समाप्त हो जाता है। शिष्य दिखता है होता नहीं है। अस्तित्त्व तो उसी परम सद्गुरु का होता है। यह परम शान्ति की भावदशा शिष्य, सद्गुरु एवं परमेश्वर को परम एकात्म होने की भाव दशा है। यह अकथ कथा कही नहीं जा सकती बस इसका अनुभव किया जा सकता है। बड़भागी हैं वे जो इस अनुभव में जीते हैं और अपने शिष्यत्व की सार्थकता, कृतार्थता का अनुभव करते हैं।

🌹 समाप्त
🌹 डॉ. प्रणव पण्डया
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/Devo/bhav

🌞 शिष्य संजीवनी (भाग 65) 👉 परमशान्ति की भावदशा


🔴 बात भी सही है, जो सीखा गया था, जो जाना गया था, वह तो संसार के लिए था। अब जब चेतना का आयाम ही बदल गया तो सीखे गए, जाने गए तत्त्वों की जरूरत क्या रही। इसीलिए यहाँ कोई नहीं है और न ही पथ प्रदर्शन की जरूरत। यह तो मंजिल है, और मंजिल में तो सारे पथ विलीन हो जाते हैं। जब पथ ही नहीं तब किस तरह का पथ- प्रदर्शन। यहाँ तो स्वयं को प्रभु में विलीन कर देने का साहस करना है। बूंद को समुद्र में समाने का साहस करना है। जो अपने को सम्पूर्ण रूप से खोने का दुस्साहस करता है, वही प्रवेश करता है। इसीलिए सूत्र कहता है कि यहाँ न तो कोई नियम है और न कोई पथ प्रदर्शक।
      
🔵 यहाँ खड़े होकर- जो मूर्त नहीं है और अमूर्त भी नहीं है, उसका अवलम्बन लो। मूर्त यानि कि पदार्थ अर्थात् साकार। और अमूर्त अर्थात् यानि कि निराकार। सूत्र कहता है कि इन दोनों को छोड़ो। और दोनों से पार चले जाओ। यह सूत्र थोड़ा समझने में अबूझ है। परन्तु बड़ा गहरा है। मूर्त और अमूर्त ये दोनों एक दूसरे के विपरीत है। इन विरोधो में द्वन्द्व है। और शिष्य को अब द्वन्द्वों से पार जाना है। इसलिए उसे इन दोनों के पार जाना होगा। सच तो यह है कि मूर्त और अमूर्त में बड़ा भारी विवाद छिड़ा रहता है। कोई कहता है कि परमात्मा साकार है तो कोई उसे निराकार बताता है। और साकारवादी और निराकारवादी दोनों झगड़ते रहते हैं। जो अनुभवी हैं- वे कहते हैं कि परमात्मा इस झगड़े के पार है। वह बस है, और जो है उसे अनुभव किया जा सकता है। उसे जिया जा सकता है, पर उसके बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता है। जो नहीं कहा जा सकता, उसी में लय होना है।
    
🔴 अगली बात इस सूत्र की और भी गहरी है। इसमें कहा गया है- केवल नाद रहित वाणी सुनो। बड़ा विलक्षण सच है यह। जो भी वाणी हम सुनते हैं, वह सब आघात से पैदा होती है। दो चीजों की टक्कर से, द्वन्द्व से पैदा होती है। हवाओं की सरसराहट में वृक्षों के झूमने, पत्तियों के टकराने का द्वन्द्व है। ताली बजाने में दोनों हाथों की टकराहट है। हमारी वाणी भी कण्ठ की टकराहट का परिणाम है। जहाँ- जहाँ स्वर है, नाद है, वहाँ- वहाँ आहत होने का आघात है। परन्तु सन्तों ने कहा है कि एक नाद ऐसा भी है, जहाँ कोई किसी से आहत नहीं होता। यहाँ नाद तो है, पर अनाहत है।

🌹 अगले अंक में समाप्त
🌹 डॉ. प्रणव पण्डया
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/Devo/bhav

👉 अट्ठाईस बरस बाद


🔴 उस समय दूसरा विश्व युद्ध चल रहा था। अमेरिका और जापान की सेनाएँ मोर्चों पर आमने-सामने डटी हुई थीं। जापान की सरकार ने अपने एक छोटे से टापू गुआम को बचाने के लिए 13 हजार सैनिक तैनात कर दिये थे और अमेरिका जल्दी से जल्दी इस टापू पर अपना अधिकार देखना चाहता था क्योंकि गुआम सैनिक दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण था। यहाँ से दुश्मन पर सीधे वार किया जा सकता था।

🔵 गुआम पर कब्जा बनाये रखने और उस पर अधिकार करने के लिए दोनों देशों की सेनाएं घमासान लड़ाई लड़ रही थीं। जब जापानी सैनिकों के हारने का मौका आया तो उन्होंने आत्म-समर्पण करने के स्थान पर लड़ते-लड़ते मर जाना श्रेयस्कर समझा। संख्या और साधन बल में अधिक शक्तिशाली होने के कारण अमेरिकी सैनिकों को जल्दी विजय मिल गई और गुआम का पतन हो गया। सैकड़ों जापानी सैनिक निर्णायक युद्ध की अन्तिम घड़ियों तक लड़ते रहने के बाद, कुछ बस न चलता देख जंगलों में भाग गये क्योंकि सामने रहते हुए उन्हें हथियार डालने पड़ते, समर्पण करना पड़ता, पर उन्हें यह किसी कीमत पर स्वीकार नहीं था।

🔴 सन् 1973 में इन्हीं सैनिकों में से सैनिक सार्जेण्ट शियोर्चा योकोई वापस लौटा, जिसे जापान ने सर्वोच्च राष्ट्रीय सम्मान से सम्मानित किया। योकोई अट्ठाईस वर्षों तक जंगल की खाक छानता हुआ, पेड़-पौधों को अपना साथी मानते हुए, प्रगति की दौड़ दौड़ रही दुनिया से बेखबर सभ्य संसार में लौटा था। उसके इस वनवास की कहानी बहुत ही रोमाँचकारी है। योकोई को किन-किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा? और उसने इन सबको किस सहजता से स्वीकार किया। उसके मूल में है- आत्म सम्मान और राष्ट्रीय गौरव की अक्षुण्ण बनाये रखने की भावना। ‘टूट’ जायेंगे पर झुकेंगे नहीं, यह निष्ठा।

🔵 अट्ठाईस वर्षों तक जंगल में रहते हुए योकोई को यह पता ही नहीं चला कि दूसरा विश्व युद्ध समाप्त हो गया है। इस सम्बन्ध में वह क्या सोचता था? पत्रकारी ने योकोई से यह प्रश्न किया तो उसने बताया, मैंने यह सीखा था कि जीतेजी बन्दी बनने की अपेक्षा मर जाना अच्छा है। गुआम की लड़ाई में आसन्न पराजय को देखते हुए सैकड़ों सैनिकों के साथ में भी जंगल में भाग गया। मेरे साथ आठ सैनिक और थे। हमें लगा कि सबका एक साथ रहना खतरे से खाली नहीं है। इसलिए हम टोलियों में बँट गये। मेरी टोली में दो सैनिक और थे। हम तीनों टोलोफोफोखिर किले की आरे चले गये। यहीं पर हमें पता चला कि जापान हार गया है। अब तो नगर में जाने की सम्भावना और भी समाप्त हो गई।

🔴 अट्ठाईस वर्षों तक योकोई ने आदिम जीवन बिताया। उसके पास केवल एक कैंची थी, जिससे वह पेड़ों की शाखाएँ काटता और उनका उपयोग भोजन पकाने तथा छाया करने के लिए करता। कपड़े सीने के लिए उसने अपने बढ़े हुए नाखूनों का सुई के रूप में इस्तेमाल किया। रहने के लिए उसने जमीन में गुफा खोद ली और वह बिछौने के लिए पेड़ों की पत्तियों का उपयोग करता। भोजन के काम जंगली फल काम आते।

🔵 समय की जानकारी तो कैसे रखता? परन्तु महीने और वर्ष की गणना तो वह रखता ही था। पूर्णिमा का चाँद देखकर वह पेड़ के तने पर एक निशान बना देता। वह गुफा से बाहर बहुत कम निकलता था। प्रायः रात को ही वह बाहर भोजन की तलाश में आता था। कभी कभार बाहर आना उसे पुनः सभ्य संसार में ले आया।

🔴 एक बार टोलोफोको नहीं के किनारे घूम रहा था कि जो मछुआरों ने उसे देख लिया और सन्देह होने के कारण वे उसे पकड़ कर ले आये तथा पुलिस को सौंप दिया। वहाँ पूछताछ करने पर पता चला कि वह जापान की शाही सेना की 38 वीं इन्फैक्ट्री रेजीमेंट का सिपाही है। जापान की सरकार ने उसे करीब 350 सेन वेतन और सहायता के रूप में काफी रकम देने की घोषणा की है।

🌹 अखण्ड ज्योति 1981 जनवरी

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