शनिवार, 27 जुलाई 2024

👉 अपनी स्थिति के अनुसार साधना चाहिए।

🔸 साधु, संत और ऋषियों ने लोगों को अपने-अपने ध्येय पर पहुँचने के अनगिनत साधन बतलाये हैं। हर एक साधन एक दूसरे से बढ़कर मालूम होता है, और यदि वह सत्य है, तो उससे यह मालूम होता है कि ये सब साधन इतनी तरह से समझाने का अर्थ यह है कि ज्यादातर एक कोई भी साधन उपयोग में आ सकता है। और यह है भी स्वाभाविक ही कि वह किसी एक के लिए उपयोगी हो।

🔹 परन्तु बहुधा ऐसा होता है कि बहुत से साधन अपने अनुकूल नहीं होते। कठिनाई यह है कि हम लोगों में वह शक्ति नहीं है कि उस साधन को खोज निकालें जिसके कि हम सचमुच योग्य हैं। इसके विपरीत हम दूसरे ऐसे साधन अनिश्चित समय के लिए अपनाते हैं जो हमारी शारीरिक और मानसिक स्थिति के अनुकूल नहीं होते। आज ऐसे अनुभवी पथ-प्रदर्शकों की भी भारी कमी है जो अपनी सूक्ष्म दृष्टि से यह जान लें कि किस व्यक्ति के अनुकूल क्या साधन ठीक होगा।

🔸 जो व्यक्ति जिस साधना का अधिकारी है, उसी के अनुकूल कार्यक्रम उसके सामने रखा जाना चाहिए। बालकों का शिक्षण और अध्ययन भी इसी आधार पर होना चाहिए। रुचि के अनुकूल दिशा में शिक्षा मिलने पर बालक थोड़े ही समय में आश्चर्यजनक उन्नति कर लेता है। इसके विपरीत जो कार्यक्रम उसकी रुचि न होते हुए भी लादा जाता है वह बड़ी कठिनाई से जैसे-तैसे पार पड़ता है।

> 👉 *अमृतवाणी:- साधक कैसे बनें? | Amritvanni Sadhak Kaise Banen* 

> 👉 *शांतिकुंज हरिद्वार के (अधिकारिक) Official WhatsApp Channel `awgpofficial Shantikunj`को Link पर Click करके चैनल को Follow करें* 

🔹 हमें चाहिए कि अपना एक ध्येय निर्धारित करें और उस लक्ष्य को पूरा करने के लिए ऐसे साधन चुनें जो निर्धारित उद्देश्य की ओर तेजी से हमें बढ़ा ले चलें, साथ ही उन साधनों का अपनी रुचि, प्रकृति और स्थिति के अनुकूल होना भी आवश्यक है। यदि ऐसा न हुआ तो उत्साह थोड़े ही समय में शिथिल हो जाता है और दुर्गम मार्ग पर चलने का अभ्यास न होने से बीच में ही यात्रा तोड़ने को विवश होना पड़ता है।

🔸 लक्ष्य-लक्ष्य के अनुकूल, साधन-साधन के अनुकूल, अपनी स्थिति- इन तीन बातों का जहाँ समन्वय हो जाता है यहाँ सफलता मिलने में संशय नहीं रहता। हमें अपना विवेक इतना जाग्रत करना चाहिए जो इस दिशा में समुचित ज्ञान रखता हो और अपने उज्ज्वल प्रकाश में हमें अभीष्ट लक्ष्य की ओर अग्रसर कर सके।

✍🏻 श्रीराम शर्मा आचार्य

शुक्रवार, 26 जुलाई 2024

👉 अन्तर्दोषों का प्रतिफल

नैतिक आदर्शों का पालन शरीर के प्रतिबंधों पर नहीं मन की उच्चस्थिति पर निर्भर है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर के षडरिपु जो मन में छिपे बैठे रहते हैं समय−समय पर हिंसा, झूठ, पाखंड, स्वार्थ, बेईमानी, रिश्वतखोरी, दहेज,कन्या विक्रय, वर विक्रय, माँसाहार जुआ, चोरी आदि सामाजिक बुराइयों के रूप में फूट पड़ते हैं। नाना प्रकार के दुष्कर्म यद्यपि अलग−अलग प्रकार के दीख पड़ते हैं पर उनका मूल एक ही है ‘मन की मलीनता’। जिस प्रकार पेट खराब होने से नाना प्रकार के शारीरिक रोग उत्पन्न होते हैं उसी प्रकार मन मलीन होने पर हमारे वैयक्तिक और आन्तरिक जीवन में नाना प्रकार के कुकर्म बन पड़ते हैं। जिस प्रकार रोगों के कारण शरीर की पीड़ा उठानी पड़ती है उसी प्रकार मन की मलीनता से हमारा सारा बौद्धिक संस्थान—विचार क्षेत्र औंधा हो जाता है और कार्यशैली ऐसी ओछी बन पड़ती है कि पग−पग पर असफलता, चिन्ता, त्रास, शोक, विक्षोभ के अवसर उपस्थित होने लगते हैं। अव्यवस्थित मनोभूमि को लेकर इस संसार में न तो कोई महान बना है और न किसी ने अपने जीवन को सफल बनाया है। उसके लिए क्लेश और कलह, शोक और संताप दैन्य और दारिद्र ही सुनिश्चित हैं, न्यूनाधिक मात्रा में वे ही उसे मिलने हैं, वे ही मिलते भी रहते हैं।

> 👉 *कर्म का फल सबको लेना पड़ता है | Karm Ka Phal Sabko Lena Padta Hai* 

> 👉 *शांतिकुंज हरिद्वार के (अधिकारिक) Official WhatsApp Channel `awgpofficial Shantikunj`को Link पर Click करके चैनल को Follow करें* 

एक स्मरणीय तथ्य
यह स्मरण रखने योग्य बात है, यह गाँठ बाँध लेने योग्य तथ्य है कि मनुष्य के जीवन में एकमात्र विभूति उसका मन है। इस मन को यदि संभाला और साधा न जाएगा, सुधारा और सुसंस्कृत न किया जाएगा तो वह नीचे बहने वाले जल की तरह स्वभावतः पतनोन्मुख होगा। मन को स्वच्छ बनाना—हमारे चेतन जगत का सबसे बड़ा पुरुषार्थ की ओर जिनके कदम बढ़े हैं उनके लिए लौकिक सफलताओं और समृद्धियों का द्वार प्रशस्त होता है और उन्हीं ने आत्मिक लक्ष प्राप्त किया है। मन पर चढ़े हुए मल आवरण जब हट जाते हैं तो अपनी आत्मा में ही परमात्मा के प्रत्यक्ष दर्शन होने लगते हैं। मन की मलीनता के रहते प्रत्येक दुख और अशुभ मनुष्य के आगे−पीछे ही घूमता रहेगा। देवत्व तो मानसिक स्वस्थता का ही दूसरा नाम है। जिसने अपना अन्तःकरण स्वच्छ कर लिया उसने इसी देह में देवत्व का लाभ उठाया है और इसी धरती पर स्वर्ग का आनन्द लिया है। ‘स्वच्छ मन’ जीवन की एक महत्वपूर्ण आवश्यकता है। युग−निर्माण के लिए हमें इस पर पूरी सावधानी से ध्यान देना होगा।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1962 पृष्ठ 24

👉 परिस्थिति से परिवर्तन

बेतार के तार यन्त्र के निर्माता बंगाल के संसार प्रसिद्ध वैज्ञानिक सर जगदीशचन्द्र बोस इस बात पर विश्वास करते हैं कि बुरे से बुरे व्यक्ति को सद्व्यवहार द्वारा सुधारा जा सकता है।

सर बोस के पिताजी भगवानचन्द्रजी डिप्टी कलक्टर थे और चोर डाकुओं को पकड़वाने का कार्य भी उन्हें करना पड़ता था। एक बार एक खतरनाक डाकू को उन्होंने पकड़वाया, अदालत ने उसे जेलखाने की कड़ी सजा दी।

जब यह डाकू जेल से छूट कर आया, तो वह जगदीशचन्द्र के पास गया और कहने लगा-”सुविधापूर्वक खर्चे न चलने के कारण मुझे अपराध करने पड़ते हैं। यदि आप मेरा कोई काम लगवा दें, तो मैं उत्तम जीवन व्यतीत कर सकूँगा।”

> 👉 *जनमानस का परिष्कार धर्मतंत्र के मंच से | Janmanas Ka Parishkar* 

> 👉 *शांतिकुंज हरिद्वार के (अधिकारिक) Official WhatsApp Channel `awgpofficial Shantikunj`को Link पर Click करके चैनल को Follow करें* 

जगदीश अपनी दयालुता के लिए प्रसिद्ध है। उनने उस डाकू को बिना अधिक पूछताछ किये अपने पास एक अच्छी नौकरी पर रख लिया। उस दिन से कभी भी उस डाकू ने कोई अपराध न किया और मालिक के कुटुम्ब पर आई हुई आपत्तियों के समय उसने अपने प्राणों को खतरे में डाल कर भी उनकी रक्षा की।

स्वभावतः कोई व्यक्ति बुरा नहीं है। बुरी परिस्थितियां मनुष्य को बुरा बनाती है। यदि उसकी परिस्थितियां बदल दी जाय, तो बुरे से बुरे व्यक्ति को भी अच्छे मार्ग पर चलने वाला बनाया जा सकता है।

📖 अखण्ड ज्योति मार्च 1943 पृष्ठ 9

गुरुवार, 25 जुलाई 2024

👉 इन 5 कामों में देर करना अच्छी बात है

कबीरदास का एक बहुत ही प्रसिद्ध दोहा है-

काल करे सो आज कर, आज करै सो अब।

यानी जो काम कल करना है, उसे आज ही कर लेना चाहिए और जो काम आज करना है, उसे अभी कर लेना चाहिए। इसका सीधा सा अर्थ ये है कि किसी भी काम को करने में देर नहीं करना चाहिए। ये बात सभी कामों के लिए सही नहीं है। स्त्री और पुरुष, दोनों के लिए कुछ काम ऐसे भी हैं, जिनमें देर करना अच्छी बात है।

महाभारत के एक श्लोक में बताया है कि हमें किन कामों को टालने की कोशिश करनी चाहिए…

रागे दर्पे च माने च द्रोहे पापे च कर्मणि।
अप्रिये चैव कर्तव्ये चिरकारी प्रशस्यते।।

ये श्लोक महाभारत के शांति पर्व में दिया गया है। इसमें 5 काम ऐसे बताए गए हैं, जिनमें देर करने पर हम कई परेशानियों से बच सकते हैं।

1 पहला काम है राग
इन पांच कामों में पहला काम है राग यानी अत्यधिक मोह, अत्यधिक जोश, अत्यधिक वासना। राग एक बुराई है। इससे बचना चाहिए। जब भी मन में राग भाव जागे तो कुछ समय के लिए शांत हो जाना चाहिए। अधिक जोश में किया गया काम बिगड़ भी सकता है। वासना को काबू न किया जाए तो इसके भयंकर परिणाम हो सकते हैं। किसी के प्रति मोह बढ़ाने में भी कुछ समय रुक जाना चाहिए। राग भाव जागने पर कुछ देर रुकेंगे तो ये विचार शांत हो सकते हैं और हम बुराई से बच जाएंगे।

2 दूसरा काम है घमंड
दर्प यानी घमंड ऐसी बुराई है जो व्यक्ति को बर्बाद कर सकती है। घमंड के कारण ही रावण और दुर्योधन का अंत हुआ था। घमंड का भाव मन में आते ही एकदम प्रदर्शित नहीं करना चाहिए। कुछ देर रुक जाएं। ऐसा करने पर हो सकता है कि आपके मन से घमंड का भाव ही खत्म हो जाए और आप इस बुराई से बच जाएं।

3 तीसरा काम है लड़ाई करना
यदि कोई ताकतवर इंसान किसी कमजोर से भी लड़ाई करेगा तो कुछ नुकसान तो ताकतवर को भी होता है। लड़ाई करने से पहले थोड़ी देर रुक जाना चाहिए। ऐसा करने पर भविष्य में होने वाली कई परेशानियों से हम बच सकते हैं। आपसी रिश्तों में वाद-विवाद होते रहते हैं, लेकिन झगड़े की स्थिति आ जाए तो कुछ देर शांत हो जाना चाहिए। झगड़ा भी शांत हो जाएगा।

> 👉 *आस्तिकता व्यवहार में उतरेगी तो ही संकट मिटेंगे | Pt Shriram Sharma Acharya* https://youtu.be/zSPVmNPSqEY

> 👉 *शांतिकुंज हरिद्वार के (अधिकारिक) Official WhatsApp Channel `awgpofficial Shantikunj`को Link पर Click करके चैनल को Follow करें* 

4 चौथा काम है पाप करना
यदि मन में कोई गलत काम यानी पाप करने के लिए विचार बन रहे हैं तो ये परेशानी की बात है। गलत काम जैसे चोरी करना, स्त्रियों का अपमान करना, धर्म के विरुद्ध काम करना आदि। ये काम करने से पहले थोड़ी देर रुक जाएंगे तो मन से गलत काम करने के विचार खत्म हो सकते हैं। पाप कर्म से व्यक्ति का सुख और पुण्य नष्ट हो जाता है।

5 पांचवां काम है दूसरों को नुकसान पहुंचाना
यदि हम किसी का नुकसान करने की योजना बना रहे हैं तो इस योजना पर काम करने से पहले कुछ देर रुक जाना चाहिए। इस काम में जितनी देर करेंगे, उतना अच्छा रहेगा। किसी को नुकसान पहुंचाना अधर्म है और इससे बचना चाहिए। पुरानी कहावत है जो लोग दूसरों के लिए गड्ढा खोदते हैं, एक दिन वे ही उस गड्ढे में गिरते हैं। इसीलिए दूसरों का अहित करने से पहले कुछ देर रुक जाना चाहिए।

👉 आशावादी आस्तिक

आशावाद आस्तिकता है। सिर्फ नास्तिक ही निराशावादी हो सकता है। आशावादी ईश्वर का डर मानता है, विनयपूर्वक अपना अन्तर नाद सुनता है, उसके अनुसार बरतता है और मानता है कि ‘ईश्वर जो करता है वह अच्छे के लिये ही करता है।’

निराशावादी कहता है ‘मैं करता हूँ।’ अगर सफलता न मिले तो अपने को बचाकर दूसरे लोगों के मत्थे दोष मढ़ता है, भ्रमवश कहता है कि “किसे पता ईश्वर है या नहीं’, और खुद अपने को भला तथा दुनिया को बुरा मानकर कहता है कि ‘मेरी किसी ने कद्र नहीं की’ ऐसा व्यक्ति एक प्रकार का आत्मघात कर लेता है और मुर्दे की तरह जीवन बिताता है।

आशावादी प्रेम में मगन रहता है, किसी को अपना दुश्मन नहीं मानता। भयानक जानवरों तथा ऐसे जानवरों जैसे मनुष्यों से भी वह नहीं डरता, क्योंकि उसकी आत्मा को न तो साँप काट सकता है और न पापी का खंजर ही छेद सकता है, शरीर की वह चिन्ता नहीं करता क्योंकि वह तो काया को काँच की बोतल समझता है। वह जानता है कि एक न एक दिन तो यह फूटने वाली है, इसलिए वह है, इसलिए वह उसकी रक्षा के निमित्त संसार को पीड़ित नहीं करता। वह न किसी को परेशान करता है न किसी की जान पर हाथ उठाता है, वह तो अपने हृदय में वीणा का मधुर गान निरंतर सुनता है और आनन्द सागर में डूबा रहता है।

> 👉 *परिस्थितियों के अनुकूल बनिए | Paristhitiyon Ke Anukul Bniye* https://youtu.be/diViQbebPBs?si=P3IC_Bjw_BeLCMiG

> 👉 *शांतिकुंज हरिद्वार के (अधिकारिक) Official WhatsApp Channel `awgpofficial Shantikunj`को Link पर Click करके चैनल को Follow करें* 

निराशावादी स्वयं राग-द्वेष से भरपूर होता है, इसलिए वह हर एक को अपना दुश्मन मानता है और हर एक से डरता है, वह मधु-मक्खियों की तरह इधर उधर भिनभिनाता हुआ बाहरी भोगों को भोग कर रोज थकता है और रोज नया भोग खोजता है। इस तरह वह अशान्त, शुष्क और प्रेमहित होकर इस दुनिया से कूच कर देता है।

📖 अखण्ड ज्योति अक्टूबर 1943 पृष्ठ 4

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1943/October/v1.4

बुधवार, 24 जुलाई 2024

👉 अभागो! आँखें खोलो!!

🔹 अभागे को आलस्य अच्छा लगता है। परिश्रम करने से ही है और अधर्म अनीति से भरे हुए कार्य करने के सोच विचार करता रहता है। सदा भ्रमित, उनींदा, चिड़चिड़ा, व्याकुल और संतप्त सा रहता है। दुनिया में लोग उसे अविश्वासी, धोखेबाज, धूर्त, स्वार्थी तथा निष्ठुर दिखाई पड़ते हैं। भलों की संगति उसे नहीं सुहाती, आलसी, प्रमादी, नशेबाज, चोर, व्यभिचारी, वाचाल और नटखट लोगों से मित्रता बढ़ाता है। कलह करना, कटुवचन बोलना, पराई घात में रहना, गंदगी, मलीनता और ईर्ष्या में रहना यह उसे बहुत रुचता है।

🔸 ऐसे अभागे लोग इस दुनिया में बहुत है। उन्हें विद्या प्राप्त करने से, सज्जनों की संगति में बैठने से, शुभ कर्म और विचारों से चिढ़ होती है। झूठे मित्रों और सच्चे शत्रुओं की संख्या दिन दिन बढ़ता चलता है। अपने बराबर बुद्धिमान उसे तीनों लोकों में और कोई दिखाई नहीं पड़ता। खुशाकय, चापलूस, चाटुकार और धूर्तों की संगति में सुख मानता है और हितकारक, खरी खरी बात कहने वालों को पास भी खड़े नहीं होने देता नाम के पथ पर सरपट दौड़ता हुआ वह मंद भागी क्षण भर में विपत्तियों के भारी भारी पाषाण अपने ऊपर लादता चला जाता है।


> 👉 *शांतिकुंज हरिद्वार के (अधिकारिक) Official WhatsApp Channel `awgpofficial Shantikunj`को Link पर Click करके चैनल को Follow करें* 

🔹 कोई अच्छी बात कहना जानता नहीं तो भी विद्वानों की सभा में वह निर्बलता पूर्वक बेतुका सुर अलापता ही चला आता है। शाम का संचय, परिश्रम, उन्नति का मार्ग निहित है यह बात उसके गले नहीं उतरती और न यह बात समझ में आती है कि अपने अन्दर की त्रुटियों को ढूँढ़ निकालना एवं उन्हें दूर करने का प्रचण्ड प्रयत्न करना जीवन सफल बनाने के लिए आवश्यक है। हे अभागे मनुष्य! अपनी आस्तीन में सर्प के समान बैठे हुए इस दुर्भाग्य को जान। तुम क्यों नहीं देखते? क्यों नहीं पहचानते?

✍🏻 समर्थ गुरु रामदास
📖 अखण्ड ज्योति जून 1943 पृष्ठ 12

👉 प्रलोभन के आगे न झुकिये।

🔹 आध्यात्मिक उन्नति का आधार इस महान तत्व पर निर्भर है कि साधक प्रलोभन के सामने सर न झुकाए। विषय- वासना, क्रोध, घृणा, स्वार्थ के विचार से सन्निविष्ट होकर प्रलोभन हमारे दैनिक जीवन में प्रवेश करते हैं। वे इतने मनमोहक, इतने लुभावने, इतने मादक होते हैं कि क्षणभर के लिए हम विक्षिप्त हो उठते हैं। हमारी चित्तवृत्तियां उत्तेजित हो उठती हैं और हम पथभ्रष्ट हो जाते हैं।

🔸 विषयों में रमणीयता का भास बुद्धि के विपर्यय से होता है। बुद्धि के विपर्यय में अज्ञान-सम्भूत अविद्या प्रधान कारण है। इस अविद्या के ही कारण हमें प्रलोभन में रमणीयता का बोध होता है।

🔹 प्रलोभन में दो तत्व मुख्यतः कार्य करते हैं उत्सुकता तथा दूरी। प्रारम्भिक काल में आदि पुरुष का पतन उत्सुकता के कारण ही हुआ। जिस वस्तु से दूर रहने को कहा जाता है उसी के प्रति उत्सुकता उत्पन्न होती है और औत्सुक्य से प्रभावित होकर हमें रमणीयता का भास होता है। इसी भाँति जो वस्तुएँ हमसे दूर हैं उनमें रमणीयता का आकर्षण प्रतीत होता है। वास्तव में रमणीयता किसी वस्तु में नहीं होती, वह तो हमारी कल्पना तथा उत्सुकता की भावनाओं की प्रतिच्छाया (Reflection) मात्र है।

🔸 साधन यथारुढ़ होने से पूर्व आप यह निश्चित कर लीजिए कि प्रलोभन चाहे जिस रूप में आवे, हम उसे आत्म समर्पण न करेंगे। अल्प सुख विशेष को ही पूर्ण सुख मानकर उससे परितृप्त न होंगे, हताश होकर नहीं बैठेंगे, विषयासक्ति के शिकार नहीं बनेंगे, अपने मनःक्षेत्र से कुत्सित प्रलोभनों की जड़े उखाड़ फेंकेंगे।


शांतिकुंज हरिद्वार के प्रेरणादायक वीडियो देखने के लिए Youtube Channel Shantikunj Rishi Chintan को आज ही Subscribe करें। 

> 👉 शांतिकुंज हरिद्वार के (अधिकारिक) official WhatsApp Channel `awgpofficial Shantikunj`को Link पर Click करके चैनल को Follow करें 

🔹 प्रलोभन दुर्बल हृदय की कल्पना मात्र है। दुर्बल चित्त वालों के चंचल मन में प्रलोभन एक छोटी सी तरंग के समान आता है किन्तु आश्रय पाकर वह वृहत् रूप धारण कर लेती है और साधक को डुबो देता है।

🔸 पतन का मार्ग सदैव ढालू और सुगम होता है। गिरते हुए नहीं, गिर जाने पर मनुष्य को अपनी भूल का भान होता है और कई बार तो यह चोट इतनी भयंकर होती है कि वह मनुष्य को जीवन पर्यन्त के लिए पंगु कर देता है। अतः प्रलोभन से सावधान रहिए।

📖 अखण्ड ज्योति, मार्च 1945

गुरुवार, 16 मई 2024

👉 जीवन लक्ष्य और उसकी प्राप्ति भाग ३

👉 *जीवन का लक्ष्य भी निर्धारित करें *

🔹 जीवन-यापन और जीवन-लक्ष्य दो भिन्न बातें हैं। प्रायः सामान्य लोगों का लक्ष्य जीवन यापन ही रहता है। खाना-कमाना, ब्याह-शादी, लेन-देन, व्यवहार-व्यापार आदि साधारण जीवन क्रमों को पूरा करते हुए मृत्यु तक पहुंच जाना, बस, इसके अतिरिक्त उनका अन्य कोई लक्ष्य नहीं होता। एक जीविका का साधन जुटा लेना, एक परिवार बसा लेना और बच्चों का पालन-पोषण करते हुए शादी-ब्याह आदि कर देना मात्र ही साधारणतया लोगों ने जीवन-लक्ष्य मान लिया है।

🔸 वस्तुतः यह जीवन-यापन की साधारण प्रक्रिया मात्र है, जीवन-लक्ष्य नहीं। जीवन-लक्ष्य उस सुनिश्चित विचार को ही कहा जायेगा, जो संसार के साधारण कार्यक्रम से, कुछ अलग, कुछ ऊंचा हो और जिसे पूरा करने में कुछ अतिरिक्त पुरुषार्थ करना पड़े।

🔹 जीवन में कोई सुनिश्चित लक्ष्य, कुछ विशेष ध्येय धारण करके चलने वालों को असाधारण व्यक्तियों की कोटि में रक्खा जाता है। उनकी विशेषता तथा महानता केवल यही होती है कि परम्परा के साधारण जीवन के अभ्यस्त व्यक्तियों में से उनने कुछ आगे बढ़कर, कुछ असामान्यता ग्रहण की है। लोग उनको महान् इसलिए मान लेते हैं कि जहां सामान्य लोग समझी-बुझी तथा एक ही लीक पर चलती चली जा रही जीवन-गाड़ी में न जाने कितनी दुःख तकलीफें अनुभव करते हैं, तब उस व्यक्ति ने एक अन्य, अनजान एवं असामान्य मार्ग चुना है। इसका साहस एवं कष्ट-सहिष्णुता कुछ अधिक बढ़ी-चढ़ी है।



शांतिकुंज हरिद्वार के प्रेरणादायक वीडियो देखने के लिए Youtube Channel Shantikunj Rishi Chintan को आज ही Subscribe करें। 

👉 awgpofficial Shantikunj*शान्तिकुंज हरिद्वार का (अधिकारिक) official WhatsApp Channel है। Link पर Click करके चैनल को Follow करें

🔸 जीवन-यापन की साधारण प्रक्रिया को भी यदि एक असामान्य दृष्टिकोण से लेकर चला जाय तो वह भी एक प्रकार का जीवन-लक्ष्य बन जाता है। इस साधारण प्रक्रिया का असाधारणत्व केवल यही हो सकता है कि जीवन इस प्रकार से बिताया जाये, जिसमें मनुष्य पतन के गर्त में न गिरकर एक आदर्श-जीवन बिताता हुआ उसकी परिसमाप्ति तक पहुंच जाये। जिसने जीवन की आहों, आंसुओं तथा विषादों से मुक्त करके हास, उल्लास, हर्ष, प्रमोद तथा उत्साह के साथ बिता लिया है, उसने भी मानो सफल जीवन-यापन का एक लक्ष्य ही प्राप्त कर लिया है। जिसने सन्तोषपूर्वक हंसते हुए जीवन-परिधि के बाहर पैर रक्खा है, उसका जीवन सफल ही माना जायेगा। इसके विपरीत जिसने जीवन-परिधि को रोते, बिलखते, तड़फते तथा तरसते हुए पार किया, मानो उसका जीवन घोर असफल ही हुआ।

जीवन की सफलता का प्रमाण जहां किसी के कार्य और कर्तृत्व से दिया करते हैं, वहां उसकी अन्तिम श्वास में सन्निहित शान्ति एवं सन्तोष की मात्रा भी उसका एक सुन्दर प्रमाण है।

.... क्रमशः जारी
📖 पुस्तक:- जीवन लक्ष्य और उसकी प्राप्ति, पृष्ठ ५
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 मनुष्य-जीवन का अमूल्य यात्रा-पथ, भाग २

👉 जीवन लक्ष्य और उसकी प्राप्ति

🔹 मनुष्य इन बुराइयों से बचता रहे इसके लिये उसे हर घड़ी अपना लक्ष्य अपना उद्देश्य सामने रखना चाहिए। यात्रा में गड़बड़ी तब फैलती है जब अपना मूल-लक्ष्य भुला दिया जाता है। मनुष्य जीवन में जो अधिकार एवं विशेषताएं प्राप्त हैं वह किसी विशेष प्रयोजन के लिये हैं। इतनी सहूलियत अन्य प्राणियों को नहीं मिली। मनुष्य ही ऐसा प्राणी है जिसको सुन्दर शरीर, विचार, विवेक, भाषा आदि के बहुमूल्य उपहार मिले हैं, इनकी सार्थकता तब है जब मनुष्य इनका सही उपयोग कर ले। मनुष्य देह जैसे अलभ्य अवसर प्राप्त करके भी यदि वह अपने पारमार्थिक लक्ष्य को पूरा नहीं करता तो उसे अन्य प्राणियों की ही कोटि का समझा जाना चाहिए। जन्म-जन्मान्तरों की थकान मिटाने के लिये यह बहुमूल्य अवसर है जब मनुष्य अपने प्राप्त ज्ञान और साधनों का उपभोग कर ईश्वर-प्राप्ति की चरम शान्ति-दायिनी स्थिति को प्राप्त कर सकता है। जिन्हें साधन-निष्ठा की इतनी शक्ति नहीं मिल या जो कठिन तपश्चर्याओं के मार्ग पर नहीं जाना चाहते वे इस जीवन में उत्तम संस्कार, सद्भावनायें और श्रद्धा भक्ति तो पैदाकर ही सकते हैं ताकि अगले जीवन में परिस्थितियों की अनुकूलता और भी बढ़ जाय और धीरे-धीरे अपने जीवन लक्ष्य की ओर बढ़ने का कार्यक्रम चालू रख सके।

🔸 पर इस अभागे इन्सान को क्या कहें जो आत्म-स्वरूप को भूलकर उसे वासना ‘शरीर’ को ही सजाने में आनन्द ले रहा है। मनुष्य यह देखते हुये भी कि शरीर नाशवान है और अन्य जीवधारियों के समान इसे भी किसी न किसी दिन धूल में मिल जाना है फिर भी वह शारीरिक सुखों की मृगतृष्णा में इस तरह पागल हो रहा है कि उसको आप अपने सही स्वरूप तक का ज्ञान नहीं है। शारीरिक सुखों के सम्पादन में ही वह जीवन का अधिकांश भाग नष्ट कर देता है। जब तक शक्ति और यौवन रहता है तब तक उसकी यह समझदारी की आंख खुलती तक नहीं, बाद में जब संस्कार की जड़ें गहरी जम जाती हैं और शरीर में शिथिलता आ जाती है तब फिर समझ आने से भी क्या बनता है। चतुरता तो तब है जब अवसर रहते मनुष्य सद्गुणों का संचय करके इस योग्य बन जाय कि यह यात्रा सन्तोषपूर्वक पूरी करके लौटने में कोई बाधा शेष न रहे।

🔹 हमारा सहज धर्म यह है कि हम इस जीवन में प्रकाश की अर्चना करें और उसी की ओर अग्रसर हों। इसमें कुछ देर लगे पर जब भी उसे एक नया जीवन मिले हम प्रकाश की ओर ही गतिमान बने रहें। मनुष्य का दृढ़ निश्चय उसके साथ बना रहना चाहिए। हमारा विवेक कुतुबनुमा की सुई की भांति ठीक जीवन-लक्ष्य की ओर लगा रहना चाहिए ताकि हम अपनी इस यात्रा में भूले भटके नहीं।


शांतिकुंज हरिद्वार के प्रेरणादायक वीडियो देखने के लिए Youtube Channel Shantikunj Rishi Chintan को आज ही Subscribe करें। 

👉 awgpofficial Shantikunj*शान्तिकुंज हरिद्वार का (अधिकारिक) official WhatsApp Channel है। Link पर Click करके चैनल को Follow करें

🔸 इस जीवन में काम, क्रोध, लोभ तथा मोह आदि के मल विक्षेप आत्म-पवित्रता को मलिन करते रहते हैं। इस पवित्रा को ब्रह्मचर्य, श्रद्धा, श्रम और प्रेम के दिव्य गुणों द्वारा दूर करने के लिए सदैव प्रयत्नशील रहना चाहिए। मार्ग, इसमें सन्देह नहीं, कठिनाइयों और जटिलताओं से ग्रस्त हैं। पर यदि सच्चाई, श्रद्धा, भक्ति एवं आत्म समर्पण के द्वारा ईश्वर के सतोगुणी प्रकाश की ओर बढ़ते रहें तो यह कठिनाइयां मनुष्य को कुछ बिगाड़ नहीं सकती।

.... क्रमशः जारी
📖 पुस्तक:- जीवन लक्ष्य और उसकी प्राप्ति, पृष्ठ ५
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 मन जीता तो जग जीता

🔸 जैसे शत्रु से युद्ध करते समय इस बात का ध्यान रखना होता है कि न जाने कब आक्रमण हो जाय, कब किस ओर से किस रूप में शत्रु प्रकट हो जाए, उसी प्रकार मन रूपी शत्रु के प्रत्येक कार्य पर तीव्र दृष्टि रखना उचित है। जहाँ मन तुम्हें अपने वश में करके उल्टा सीधा कराना चाहें वहीं उसके व्यापार में हस्तक्षेप करना चाहिये।

🔹 मन बड़ा बलवान शत्रु है, इससे युद्ध करना भी अत्यन्त दुष्कर कृत्य है। इससे युद्ध काल में एक विचित्रता है। यदि युद्ध करने वाला दृढ़ता से युद्ध में संलग्न रहे, निज इच्छा शक्ति को मन के व्यापारों पर लगाये रहे तो युद्ध में संलग्न सैनिक की शक्ति अधिकाधिक बढ़ती है और एक दिन वह इस पर पूर्ण विजय प्राप्त कर लेता है। यदि तनिक भी इसकी चंचलता में बहक गए तो यह तोड़-फोड़ कर सब कुछ नष्ट-भ्रष्ट कर डालता है।

🔸 मन को दृढ़ निश्चय पर स्थिर रखने से मुमुक्षु की इच्छाशक्ति प्रबल होती है। मन का स्वभाव मनुष्य के अनुकूल बन जाने का है। उसे कार्य दीजिए। वह चुपचाप नहीं बैठना चाहता। यदि तुम उसे फूल-फूल पर विचरण करने वाली तितली बना दोगे तो यह तुम्हें न जाने कहाँ-कहाँ की खाक छनवायेगा। यदि तुम इसे उद्दण्ड रखोगे तो यह रात-दिन भटकता ही रहेगा पर यदि तुम इसे चिंतन योग्य पदार्थों में स्थिर रखने का प्रयत्न करोगे तो यह तुम्हारा सबसे बड़ा मित्र बन जायेगा।


👉 शांतिकुंज हरिद्वार के प्रेरणादायक वीडियो देखने के लिए Youtube Channel Shantikunj Rishi Chintan को आज ही Subscribe करें। 

🔹 जब-जब तुम्हारे अन्तःकरण में वासना की प्रबल जंग उत्पन्न हो निश्चयात्मिक बुद्धि को जाग्रत करो। मन से थोड़ी देर के निमित्त पृथक होकर इसके व्यापारों पर तीव्र दृष्टि रक्खो। बस, विचार शृंखला टूट जायेगी और तुम इसके साथ चलायमान न होगे। मन के व्यापार के साथ निज आत्मा की समस्वरता न होने दो। इसी अभ्यास द्वारा यह आज्ञा देने वाला न रहकर सीधा साधा आज्ञाकारी अनुचर बन जायेगा-

मन लोभी, मन लालची, मन चंचल मन चौर।
मन के मत चलिए नहीं, पलक पलक मन और।

📖 अखण्ड ज्योति, मार्च 1945

👉 मनुष्य-जीवन का अमूल्य यात्रा-पथ, भाग १

🔹 मनुष्यता परमात्मा की अलौकिक कलाकृति है। वह विश्वम्भर परमात्मा देव की महान् रचना है। जीवात्मा अपनी यात्रा का अधिकांश भाग मनुष्य शरीर में ही पूरा करता है। अन्य योनियों से इसमें उसे सुविधायें भी अधिक मिली हुई होती हैं। यह जीवन अत्यन्त सुविधाजनक है। सारी सुविधायें और अनन्त शक्तियां यहां आकर केन्द्रित हो गई हैं ताकि मनुष्य को यह शिकायत न रहे कि परमात्मा ने उसे किसी प्रकार की सुविधा और सावधानी से वंचित रक्खा है। ऐसी अमूल्य मानव देह पाकर भी जो अन्धकार में ही डूबता उतरता रहे उसे भाग्यहीन न कहें तो और क्या कहा जा सकता है। आत्मज्ञान से विमुख होकर इस मनुष्य जीवन में भी जड़-योनियों की तरह काम, क्रोध, मोह, लोभ आदि की कैद में पड़े रहना, सचमुच बड़े दुर्भाग्य की बात है। किन्तु इतना होने पर भी मनुष्य को दोष देने का जी नहीं करता। बुराई में नहीं, वह तो अपने स्वाभाविक रूप में सत्, चित् एवं आनन्दमय ही है। शिशु के रूप में वह बिलकुल अपनी इसी मूल-प्रकृति को लेकर जन्म लेता है किन्तु माता-पिता की असावधानी, हानिकारक शिक्षा, बुरी संगति, विषैले वातावरण तथा दुर्दशाग्रस्त समाज की लपेट में आकर वह अपने उद्देश्यों से भटक जाता है और तुच्छ प्राणी का सा अविवेकपूर्ण जीवन व्यतीत करने लग जाता है।

🔸 इसलिए निन्दा मनुष्य की नहीं दोषों की, दुर्गुणों की, की जानी चाहिए जो मनुष्य को प्रकाश से अन्धकार में ढकेल देते हैं। मनुष्य का जीवन तो सामाजिक जीवन के ढांचे में ढाले गये किसी उपकरण की तरह है जिसके अच्छे बुरे होने का श्रेय सामाजिक शिक्षा एवं तात्कालिक परिस्थितियों को ही देना उचित प्रतीत होता है। यदि मनुष्य को सदाचार युक्त एवं आदर्शों से प्रेरित देखना चाहते हों तो द्वेष, दुर्गुणों को मिटाकर सुन्दर प्रकाशयुक्त वातावरण पैदा करने का प्रयास करना चाहिये। अपनी महत्त्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए किसी वर्ग, व्यक्ति या समाज पर आत्म-हीनता का भार लादना उचित नहीं है। इससे मानवता कलंकित होती है। हम वह करें जिससे यह अज्ञान का पर्दा नष्ट हो और दिव्य-ज्ञान का प्रकाश चारों तरफ झिलमिलाने लगे।

🔹 सुविधाजनक यात्रा का सामान्य नियम यह है कि समय-समय पर यात्री अपना स्थान दूसरों के लिये छोड़ते जायें। उतरते-चढ़ते रहने की प्रतिक्रिया से ही कोई यात्रा विधिपूर्वक सम्पन्न हो सकती है। ऐसी ही व्यवस्था मनुष्य जीवन में भी होनी चाहिये। परमात्मा ने अपना यह नियम बना दिया है कि मनुष्य एक निश्चित समय तक ही इस वाहन का उपयोग करे और आगे के लिये उस स्थान को किसी दूसरे के लिये सुरक्षित छोड़ जाय। यह एक प्रकार की उसकी जिम्मेदारी है कि आगन्तुकों का भावी नागरिकों का निर्माण चतुराई और बुद्धिमत्ता के साथ करे। केवल अपने ही स्वार्थ का ध्यान न रखकर आने वाले यात्री के लिये इस प्रकार का वातावरण छोड़ जाय ताकि वह भी अपनी यात्रा सुविधा और समझदारी के साथ पूरी कर सके।

जीवन का उद्देश्य क्या है | Jeevan Ka Uddeshya Kya Hai | Dr Chinmay Pandya https://youtu.be/ESS7tLe3stM?si=l_avzJ45GjxZswiy

आदरणीय डॉ चिन्मय पंड्या जी प्रेरणादायक वीडियो देखने के लिए शांतिकुंज हरिद्वार के Youtube Channel Shantikunj Rishi Chintan को आज ही Subscribe करें। 




🔸 कर्तव्य की इतिश्री इतने से ही नहीं हो जाती। अपने साथ अनेकों दूसरे यात्री भी सफर तय कर रहे होते हैं। मानवता के नाते उन्हें भी आपकी तरह सुविधापूर्वक यात्रा करने का अधिकार मिला हुआ होता है। यदि आपको कुछ अधिक शक्ति और सामर्थ्य मिली है तो इसका यह मतलब नहीं कि आप औरों को बलपूर्वक सतायें उन्हें परेशान करें। खुद तो मौज मजा उड़ाते रहे और दूसरों को बैठने की सुविधा न दें। हमारे ऋषियों ने एक व्यवस्था स्थापित की थी कि प्रत्येक नागरिक उतनी ही वस्तु ग्रहण करे जितने से उसकी आवश्यकतायें पूरी हो जायें शेष भाग समाज के अन्य पीड़ित प्राणियों अभाव ग्रस्त लोगों को बांट दी जाये ताकि समाज में किसी तरह की गड़बड़ी न फैले। विषमता चाहे वह धन की हो चाहे जमीन-जायदाद की हो, हर अभाव ग्रस्त के मन में विद्रोह ही पैदा करेगी और उससे सामाजिक बुराइयां ही फैलेंगी। इसलिए न्यायनीति का परित्याग कभी नहीं होना चाहिए। सबके हित में ही अपना भी हित समझकर मनुष्य को मनुष्यता से विमुख नहीं होना चाहिये। इसी में शान्ति है सुख और सुव्यवस्था है।

.... क्रमशः जारी
📖 पुस्तक:- जीवन लक्ष्य और उसकी प्राप्ति, पृष्ठ ३
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

सोमवार, 18 मार्च 2024

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के नरक में जलाया। विजय चाहे आरम्भिक या क्षणिक ही क्यों न रही हो पर वह उन्हें इसलिए मिली कि उन्होंने संगठन, साहस और पराक्रम को अपना सहचर बनाया और अवसर चूकने का आलस्य, प्रमाद नहीं किया। इतने अंशों में जो सजग समर्थता उनमें थी उसी को देवत्व की एक नन्हीं किरण कहा जा सकता है, उतने ही अंशों में वे विजेता भी होते रहे हैं।

🔶 देवों की पराजय का दोष उनके देवत्व अथवा सद्गुणों को नहीं दिया जाना चाहिए। उन विशेषताओं के कारण तो वे स्वर्ग लोक के अधिपति, लोकपूजित, यशस्वी और अजर-अमर बन सके हैं। पराजय का दोष तो उन थोड़े अंशों में पाई जाने वाली उस असावधानी और अदूरदर्शिता को ही दिया जायेगा, जिसके कारण उन्होंने पारम्परिक संगठन, सहयोग को सुदृढ़ बनाने और अवांछनीयता से आरम्भ में ही निपटने की आवश्यकता ही भूला दी, जब तक उन्होंने अपनी यह भूल सुधारी नहीं, तब तक उन्हें पराजय, उत्पीडऩ, और अपयश ही मिलता रहा।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 युग निर्माण योजना - दर्शन, स्वरूप व कार्यक्रम-६६ (४.६३)

👉 तपस्वी बने

🔷 मित्रो! तपस्वी का जीवन जीने के लिए आपको हिम्मत और शक्ति इकठ्ठी करनी चाहिए। तपाने के बाद हर चीज मजबूत हो जाती है। कच्ची मिट्टी को जब हम तपाते हैं तो तपाने के बाद मजबूत ईंट बन जाती है। कच्चा लोहा तपाने के बाद स्टेनलेस स्टील बन जाता है। पारे को जब हकीम लोग तपाते हैं तो पूर्ण चंद्रोदय बन जाता है। पानी को गरम करते हैं तो भाप बन जाता है और उससे रेल के बड़े-बड़े इन्जन चलने लगते हैं।

🔶 कच्चे आम को पकाते हैं तो पका हुआ आम बन जाता है। जब हम वेङ्क्षल्डग करते हैं तो लोहे के दो टुकड़े जुड़ जाते हैं। उस पर जब हम शान धरते हैं तो वह हथियार बन जाता है। बेटे! यह सब गलने की निशानियाँ हैं। आपको अपने ऊपर शान धरनी चाहिए और भगवान के साथ वेङ्क्षल्डग करनी चाहिए। आपको अपने आप को इतना तपाना चाहिए कि आप पानी न होकर स्टीम भाप बन जाएँ। कौन-सी वाली स्टीम? जो रेलगाड़ी को धकेलती हुई चली जाती है। यह गरमी के बिना नहीं हो सकता। आपको तपस्वी बनने के लिए यही करना चाहिए।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

गुरुवार, 7 मार्च 2024

👉 आत्मचिंतन के क्षण 7 March 2024

🔸 आज का युग "खूब कमाओ, आवश्यकताएँ बढाओं, मजा उडाओं" की भ्रान्त धारणा में लगा है और सुख कोक दु:खमय स्थानों में ढूँढ़ रहा है। उसकी सम्पत्ति बढी है, अमेरिका जैसे देशों में अनन्त सम्पत्ति भरी पडी है। धन में सुख नहीं है, अतृप्ति है, मृगतृष्णा है। संसार में शक्ति की कमी नहीं, आराम और विलासिता की नाना वस्तुएँ बन चुकी हैं, किन्तु इसमें तनिक भी शान्ति या तृप्ति नहीं।  
 
🔹   जब तब कोई मनुष्य या राष्ट्र ईश्वर में विश्वास नहीं रखता, तब तक उसे कोई स्थायी विचार का आधार नहीं मिलता। अध्यात्म हमें एक दृढ़ आधार प्रदान करता है। अध्यात्मवादी जिस कार्य को हाथ में लेता है वह दैवी शक्ति से स्वयं ही पूर्ण होता है। भौतिकवादी सांसारिक उद्योगों मे कार्य पूर्ण करना चाहता है, लेकिन ये कार्य पूरे होकर भी शान्ति नहीं देते।
 
🔸  दूसरों के अनुशासन की अपेक्षा आत्मानुशासन का विशेष महत्त्व है। हमारी आत्म-ध्वनि हमें सत्य के मार्ग की ओर प्रेरित कर सकती है। सत्य मार्ग से ही पृथ्वी स्थिर है, सत्य से ही रवि तप रहा है और सत्य से ही वायु बह रहा है। सत्य से ही सब स्थिर है। सत्य का ग्रहण और पाप का परित्याग करने को हमें सदैव प्रस्तुत रहना चाहिए।

🔹   आस्तिकता हमें ईश्वर पर श्रद्धा सिखाती है। हमें चाहिए कि ईश्वर को चार हाथ-पाँव वाला प्राणी न समझें। ईश्वर एक तत्त्व है, उसी प्रकार जैसे वायु एक तत्त्व है। वैज्ञानिको ने वायु के अनेक उपभाग किये हैं- आँंक्सीजन, नाइट्रोजन, इत्यादि। इसके हर एक भाग को भी स्थूल रुप से वायु ही कहेंगे। इसी प्रकार एक तत्त्व, जो सर्वत्र ओत-प्रोत है जो सब के भीतर है तथा जिसके भीतर सब कुछ है, वह परमेश्वर है। यह तत्त्व सर्वत्र है, सर्वत्र व्याप्त है । परमेश्वर हमारे ऋषि-मुनियों की सबसे बडी़ खोज है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

All World Gayatri Pariwar Official  Social Media Platform

*शांतिकुंज हरिद्वार के ऑफिशल व्हाट्सएप चैनल *awgpofficial Channel* को Follow करे*  
https://whatsapp.com/channel/0029VaBQpZm6hENhqlhg453J

Shantikunj Official WhatsApp Number

8439014110 शांतिकुंज की गतिविधियों से जुड़ने के लिए 8439014110 पर अपना नाम लिख कर WhatsApp करें

Official Facebook Page
Official Twitter

Official Instagram

Youtube Channel Rishi Chintan

Youtube Channel Shantikunjvideo

👉 अपनी स्थिति के अनुसार साधना चाहिए।

🔸 साधु, संत और ऋषियों ने लोगों को अपने-अपने ध्येय पर पहुँचने के अनगिनत साधन बतलाये हैं। हर एक साधन एक दूसरे से बढ़कर मालूम होता है, और...