सोमवार, 18 मार्च 2024

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के नरक में जलाया। विजय चाहे आरम्भिक या क्षणिक ही क्यों न रही हो पर वह उन्हें इसलिए मिली कि उन्होंने संगठन, साहस और पराक्रम को अपना सहचर बनाया और अवसर चूकने का आलस्य, प्रमाद नहीं किया। इतने अंशों में जो सजग समर्थता उनमें थी उसी को देवत्व की एक नन्हीं किरण कहा जा सकता है, उतने ही अंशों में वे विजेता भी होते रहे हैं।

🔶 देवों की पराजय का दोष उनके देवत्व अथवा सद्गुणों को नहीं दिया जाना चाहिए। उन विशेषताओं के कारण तो वे स्वर्ग लोक के अधिपति, लोकपूजित, यशस्वी और अजर-अमर बन सके हैं। पराजय का दोष तो उन थोड़े अंशों में पाई जाने वाली उस असावधानी और अदूरदर्शिता को ही दिया जायेगा, जिसके कारण उन्होंने पारम्परिक संगठन, सहयोग को सुदृढ़ बनाने और अवांछनीयता से आरम्भ में ही निपटने की आवश्यकता ही भूला दी, जब तक उन्होंने अपनी यह भूल सुधारी नहीं, तब तक उन्हें पराजय, उत्पीडऩ, और अपयश ही मिलता रहा।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 युग निर्माण योजना - दर्शन, स्वरूप व कार्यक्रम-६६ (४.६३)

👉 तपस्वी बने

🔷 मित्रो! तपस्वी का जीवन जीने के लिए आपको हिम्मत और शक्ति इकठ्ठी करनी चाहिए। तपाने के बाद हर चीज मजबूत हो जाती है। कच्ची मिट्टी को जब हम तपाते हैं तो तपाने के बाद मजबूत ईंट बन जाती है। कच्चा लोहा तपाने के बाद स्टेनलेस स्टील बन जाता है। पारे को जब हकीम लोग तपाते हैं तो पूर्ण चंद्रोदय बन जाता है। पानी को गरम करते हैं तो भाप बन जाता है और उससे रेल के बड़े-बड़े इन्जन चलने लगते हैं।

🔶 कच्चे आम को पकाते हैं तो पका हुआ आम बन जाता है। जब हम वेङ्क्षल्डग करते हैं तो लोहे के दो टुकड़े जुड़ जाते हैं। उस पर जब हम शान धरते हैं तो वह हथियार बन जाता है। बेटे! यह सब गलने की निशानियाँ हैं। आपको अपने ऊपर शान धरनी चाहिए और भगवान के साथ वेङ्क्षल्डग करनी चाहिए। आपको अपने आप को इतना तपाना चाहिए कि आप पानी न होकर स्टीम भाप बन जाएँ। कौन-सी वाली स्टीम? जो रेलगाड़ी को धकेलती हुई चली जाती है। यह गरमी के बिना नहीं हो सकता। आपको तपस्वी बनने के लिए यही करना चाहिए।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

गुरुवार, 7 मार्च 2024

👉 आत्मचिंतन के क्षण 7 March 2024

🔸 आज का युग "खूब कमाओ, आवश्यकताएँ बढाओं, मजा उडाओं" की भ्रान्त धारणा में लगा है और सुख कोक दु:खमय स्थानों में ढूँढ़ रहा है। उसकी सम्पत्ति बढी है, अमेरिका जैसे देशों में अनन्त सम्पत्ति भरी पडी है। धन में सुख नहीं है, अतृप्ति है, मृगतृष्णा है। संसार में शक्ति की कमी नहीं, आराम और विलासिता की नाना वस्तुएँ बन चुकी हैं, किन्तु इसमें तनिक भी शान्ति या तृप्ति नहीं।  
 
🔹   जब तब कोई मनुष्य या राष्ट्र ईश्वर में विश्वास नहीं रखता, तब तक उसे कोई स्थायी विचार का आधार नहीं मिलता। अध्यात्म हमें एक दृढ़ आधार प्रदान करता है। अध्यात्मवादी जिस कार्य को हाथ में लेता है वह दैवी शक्ति से स्वयं ही पूर्ण होता है। भौतिकवादी सांसारिक उद्योगों मे कार्य पूर्ण करना चाहता है, लेकिन ये कार्य पूरे होकर भी शान्ति नहीं देते।
 
🔸  दूसरों के अनुशासन की अपेक्षा आत्मानुशासन का विशेष महत्त्व है। हमारी आत्म-ध्वनि हमें सत्य के मार्ग की ओर प्रेरित कर सकती है। सत्य मार्ग से ही पृथ्वी स्थिर है, सत्य से ही रवि तप रहा है और सत्य से ही वायु बह रहा है। सत्य से ही सब स्थिर है। सत्य का ग्रहण और पाप का परित्याग करने को हमें सदैव प्रस्तुत रहना चाहिए।

🔹   आस्तिकता हमें ईश्वर पर श्रद्धा सिखाती है। हमें चाहिए कि ईश्वर को चार हाथ-पाँव वाला प्राणी न समझें। ईश्वर एक तत्त्व है, उसी प्रकार जैसे वायु एक तत्त्व है। वैज्ञानिको ने वायु के अनेक उपभाग किये हैं- आँंक्सीजन, नाइट्रोजन, इत्यादि। इसके हर एक भाग को भी स्थूल रुप से वायु ही कहेंगे। इसी प्रकार एक तत्त्व, जो सर्वत्र ओत-प्रोत है जो सब के भीतर है तथा जिसके भीतर सब कुछ है, वह परमेश्वर है। यह तत्त्व सर्वत्र है, सर्वत्र व्याप्त है । परमेश्वर हमारे ऋषि-मुनियों की सबसे बडी़ खोज है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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बुधवार, 6 मार्च 2024

👉 आत्मचिंतन के क्षण 6 March 2024

🔹 यह सांसारिक जीवन सत्य नहीं है। सत्य तो परमात्मा है, हमारे अन्दर बैठी हुई साक्षात ईश्वर स्वरुप आत्मा है, वास्तविक उन्नति तो आत्मिक उन्नति है। इसी उन्नति की ओर हमारी प्रवृत्ति बढे़, इसी में हमारा सुख-दु:ख हो। यही हमारा लक्ष्य रहा है। अपने हास के इतिहास में भी भारत ने अपनी संस्कृति, अपने धर्म, अपने ऊँचे आदर्शों को प्रथम स्थान दिया है।  
 
🔸  मनुष्य अच्छी तरह जानता है कि असत्य अच्छा नहीं फिर भी वह उसी में आसक्त रहता है। वह अपने दुर्गुणों को नहीं छोड़ सकता। वह अपने दुर्गुणों को नष्ट करने के लिए प्रयत्नशील नहीं होता। इसका कारण क्या है? अविद्या रहस्यमयी है। बुरे संस्कारों के कार्य रहस्यमय है। सत्संग तथा गुरुसेवा के द्वारा इस मोह को नष्ट किया जा सकता है।
 
🔹 सभ्यता का आचरण वह प्रणाली है जिससे मनुष्य अपने कर्तव्य का पालन करता है। कर्तव्यपालन करने का तात्पर्य है नीति का पालन करने का अर्थ है अपने मन और इन्द्रियों को वश में रखना। ऐसा करने से हम अपने आपको पहिचानते हैं। यही सभ्यता है और इससे विरुद्ध आचरण करना असभ्यता है।

🔸  हम भले ही अपने दुष्कर्मों को भूल जायें, पर "कर्म" छोटे से छोटे और बुरे से बुरे किसी भी कार्य को नहीं भूलता और समय पर उसका अवश्य भोगवाता है। इसलिए यदि इस तथ्य को हम समझकर ग्रहण करें तो अनेक बुरे कार्य हम से आप छूट जायेंगे और इस प्रकार जीवन बहुत सुधर जायेगा।

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मंगलवार, 5 मार्च 2024

👉 आत्मचिंतन के क्षण 5 March 2024

🔸  जमनुष्य अपने अभद्र विचारों से सरलता से मुक्त नहीं होता। इसके लिए भी त्याग की आवश्यकता होती है। जो व्यक्ति जितना ही अधिक त्याग करता है वह अपने विचारों का उतना ही अधिक सृजनात्मक बना लेता है। जीवन के सभी संकल्पों और इच्छाओं का त्याग कर देना मनुष्य को देवी शक्ति प्रदान करता है। परोपकार के निमित्त लाये गए विचारों में जो बल होता है वह स्वार्थ युक्त विचारों में नहीं रहता।
 
🔹  साधना उपासना के क्रिया-कृत्य में यही रहस्यमय संकेत सन्निहित है कि हम अपने व्यक्तित्व को किस प्रकार समुन्नत करें और जो प्रसुप्त पडा है उसे जागृत करने के लिए क्या कदम उठायें। सच्चा साधना वही है। जिसमें देवता की मनुहार करने के माध्यम से आत्म-निर्माण की दूरगामी योजना तैयार की जाती और सुव्यवस्था बनाई जाती है।
 
🔸  सच्चे ईश्वरानुभूति वाले पुरुष और अपने स्वार्थ के लिए कार्य करने वाले पुरुषों में मुख्य अन्तर यही है कि ईश्वर पुरुष बिना कुछ कहे दूसरों की सहायता करता रहता है और दिखावटी धर्मात्मा बनने वाले दूसरों के कल्याण और उपकार का ढोंग करते हैं, पर उनका उद्देश्य सदैव अपना ही स्वार्थ-साधन रहता है। इसी कसौटी से इन दोनों प्रकार के व्यक्तियों की परीक्षा सहज में की जा सकती है।

🔹  संसार में जितने भी चमत्कारी देवता जाने माने गये हैं, उन सबसे बढ़कर आत्म-देव है। उसकी साधना प्रत्यक्ष है। नकद धर्म की तरह उसकी उपासना कभी भी-किसी की भी निष्फल नहीं जाती। यदि उद्देश्य समझते हुए सही दृष्टिकोण अपनाया जा सके तो जीवन साधना को अमृत, पारस कल्पवृक्ष की कामधेनु की सार्थक उपमा दी जा सकती।

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सोमवार, 4 मार्च 2024

👉 आत्मचिंतन के क्षण 4 March 2024

🔹 सब कर्मों से निवृत होकर जब निद्रा देवी की गोद में जाने की घडी आये, तब कल्पना करनी चाहिए कि एक सुन्दर नाटक का अब पटाक्षेप हो चला। यह संसार एक नाट्यशाला है। आज का दिन अपने को अभिनय करने के लिए मिला था, सो उसको अच्छी तरह खेलने का ईमानदारी से प्रयत्न किया। जो भूलें रह गई उन्हें याद रखने और अगले दिन उसकी पुनरावृत्ति न होने देने की अधिक सावधानी बरतेंगे।
 
🔸  श्रद्धा वह प्रकाश है जो आत्मा की, सत्य की प्रति के लिए बनाये गए मार्ग को दिखाता रहत है। जब भी मनुष्य एक क्षण के लिए लौकिक चमक-दमक, कामिनी और कंचन के लिए मोहग्रस्त होता है तो माता की ठण्डे जल से मुँह धोकर जगा देने वाली शक्ति यह श्रद्धा ही होती है। सत्य के सद्गुण, ऐश्वर्यस्वरुप एवं ज्ञान की थाह अपनी बुद्धि से नहीं मिलती उसके प्रति सविनय प्रेम भावना विकसित होती है, उसी को श्रद्धा कहते हैं। श्रद्धा सत्य की सीमा तक साधक को साधे रहती है, संभाले रहती है।
 
🔹  जीवन को किसी निर्दिष्ट ढाँचे में ढाल देने वाली, सबसे प्रबल एवं उच्चस्तरीय शक्ति श्रद्धा है। यह अन्त:करण की दिव्यभूमि में उत्पन्न होकर समस्त जीवन को हरियाली से सजा देती है। श्रद्धा का अर्थ है श्रेष्ठता के प्रति अटूट आस्था। वह आस्था जब सिद्धान्त एवं व्यवहार में उतरती है तो उसे निष्ठा कहते हैं। यही जब आत्मा के स्वरुप, जीवन दर्शन एवं ईश्वर भक्ति के क्षेत्र में प्रवेश करती है तो श्रद्धा कहलाती है।

🔸   जीवन लक्ष्य की पूर्ति के लिए सबसे प्रथम अनिवार्य रुप से आत्म-निरीक्षण और आत्म सुधार ही करना पड़ता है । भगवान का नाम स्मरण करने, जप-तप, पूजा-पाठ के अनुष्ठान करने का उद्देश्य यही है कि मनुष्य भगवान को सर्वव्यापी एवं न्यायकारी होने की मान्यता को अधिक गहराई तक हृदय में जमा ले ताकि दुष्कर्मों से डरे और सत्कर्मों में रुचि ले।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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रविवार, 3 मार्च 2024

👉 आत्मचिंतन के क्षण 3 March 2024

🔸  शिखा रखते समय हर व्यक्ति को इसके मूल प्रयोजन का ध्यान रखना चाहिए। मस्तिष्क में उन्हीं विचारणाओं, मान्यताओं और आकांक्षाओं को स्थान मिले, जो विवेकशीलता, नैतिकता, मानवता, सामाजिकता की कसौटी पर खरे उतरते हों। दुर्बुद्धि, दुर्भावना और दुष्टता की जो दुष्प्रवृत्तियाँ चारों ओर फैली हैं, उनका उन्मूलन करने के  लिए हमें शिखा रूपी धर्मध्वजा फहराते हुए एक ऐसा भावनात्मक महाभारत खड़ा करना चाहिए, जिसमें अनौचित्य की कौरवी सेना को परास्त कर औचित्य- अर्जुन के गले में विजय बैजयन्ती पहनाई जा सके।

🔹  विचारों की शक्ति और उपयोगिता समझ सकने वाले लोग इस विशाल भीड़ से तलाश किए जाएं। जो स्वयं प्रकाश पूर्ण,बौद्घिक प्रखरता के सुनने- समझने के लिए तैयार नहीं, वे भला और किसी को क्या कुछ कह- सुन सकेंगे और क्या अपने जीवन में प्रखरता ला सकेंगे।

🔸   हे भगवान् ! यह शरीर तेरा मन्दिर, है अतः इसे मैं हमेशा पवित्र रखूँगा। आपने मुझे यह हृदय दिया है, मैं इसे प्रेम से भर दूँगा, आपने मुझे यह बुद्धि दी है, मैं इस दीपक को हमेशा निर्मल और तेजस्वी बनाये रखूँगा। 
 
🔹   गुरु- शिष्य संबंध बड़ा कोमल, किन्तु कल्याणकारी होता है। गुरु शिष्य को पुत्रवत् समझकर, उसे टेढे- मेढ़े मार्गों से निकाल ले जाते हैं, जिन्हें शिष्य के लिए समझ पाना कठिन होता है। इसलिए कई बार शिष्य अभिमान में आकर, गुरु की अवज्ञा कर जाता है, इच्छा तथा आदेश की अवहेलना करता है। यद्यपि गुरु उसे कुछ भी न कहें, किन्तु फिर भी वह संभावित लाभ से वंचित रह जाता है। इसके लिए शिष्य में गुरु के प्रति सम्पूर्ण समर्पण की आवश्यकता होती है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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शनिवार, 2 मार्च 2024

👉 आत्मचिंतन के क्षण 2 March 2024

🔹  गुरु- शिष्य संबंध बड़ा कोमल, किन्तु कल्याणकारी होता है। गुरु शिष्य को पुत्रवत् समझकर, उसे टेढ़े- मेढ़े मागों से निकाल ले जाते हैं, जिन्हें शिष्य के लिए समझ पाना कठिन होता है ।। इसलिए कई बार शिष्य अभिमान में आकर गुरु की अवज्ञा कर जाता है, इच्छा तथा आदेश की अवहेलना करता है। यद्यपि गुरु उसे कुछ भी न कहें, किन्तु फिर भी वह संभावित लाभ से वंचित रह जाता है। इसके लिए शिष्य में गुरु के प्रति सम्पूर्ण समर्पण की आवश्यकता है।

🔸   कुविचारों और दुःस्वभावों से पीछा छुड़ाने का तरीका यह है कि सद्विचारों के सम्पर्क में निरन्तर रहा जाये उनका स्वाध्याय, सत्संग और चिंतन- मनन किया जाये। साथ ही अपने सम्पर्क क्षेत्र में सुधार कार्य जारी रखा जाये। सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन का सेवा कार्य किसी न किसी रूप में कार्यान्वित करते रहा जाये। इतना करने पर ही मन को स्वच्छ, निर्मल व स्वयं को प्रगति के पथ पर अग्रगामी बनाए रखा जा सकता है।

🔹  योग का उद्देश्य ‘‘चित्त वृत्तियों’’ का संशोधन है ।। पशु- प्रवृतियों को देव आस्थाओं में बदल देने वाल मानसिक उपचार का नाम योग है। योगीजन अपने संगृहीत कुसंस्कारों को उच्चस्तरीय आस्थाओं में परिणत करने के लिए भावनात्मक पुरूषार्थ करते रहते हैं और इन्हीं प्रयत्नों में तल्लीन रहते हैं। जिससे वे उतने ही अंशों में आत्मा को परमात्मा से जोड़ लेता है।
 
🔸   वातावरण मानवी चिंतन, विचारणा एवं गतिविधि के समन्वय से उत्पन्न होता है। जैसी भी पीढ़ियां बनानी हो ,जैसा भी समाज का ढ़ाँंचा खड़ा करना हो, उसके अनुरूप ही वातावरण बनाना होगा। जब जब भी महामानवों की पीढ़ियां जन्मी हैं, ऐसे सूक्ष्म घटकों के आधार पर ही विकसित हुई है।माहौल को विनिर्मित करने ,वातावरण को बदलने जिसमें श्रेष्ठ मानवों की ढलाई होती चले। आज उज्ज्वलमान व्यक्तियों की आवश्यकता है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...