मंगलवार, 3 अप्रैल 2018

👉 "पागलपन"

🔷 एक छोटे से सम्राज्य मे एक राजा राज करता था, और प्रजा भी ज्यादातर खुश थी, एक देख राजा के पडोसी देश और उनके शुभचिन्तक जलने लगे थे!

🔶 पडोसी देश के राजाओ ने उस राजा को बर्वाद करने के लिए एक जादूगर को वह राज्य देने की पेस कस कर दी, ताकतवर जादूगर ने उस शहर को तबाह कर देने की नीयत से वहां के कुँए में कोई जादुई रसायन डाल दिया।

🔷 जिसने भी उस कुँए का पानी पिया वह पागल हो गया। क्योकि वह मुख्य कुआं था और सारा शहर उसी कुँए से पानी लेता था। अगली सुबह उस कुँए का पानी पीने वाले सारे लोग अपने होशहवास खो बैठे।

🔶 शहर के राजा और उसके परिजनों ने उस कुँए का पानी नहीं पिया था क्योंकि उनके महल में उनका निजी कुआं था जिसमें जादूगर अपना रसायन नहीं मिला पाया था।

🔷 राजा ने अपनी जनता को सुधबुध में लाने के लिए कई फरमान जारी किये लेकिन उनका कोई प्रभाव नहीं पड़ा क्योंकि सारे कामगारों और पुलिस वालों ने भी जनता कुँए का पानी पिया था और सभी को यह लगा कि राजा बहक गया है और ऊलजलूल फरमान जारी कर रहा है।

🔶 सभी राजा के महल तक गए और उन्होंने राजा से गद्दी छोड़ देने के लिए कहा। राजा उन सबको समझाने-बुझाने के लिए महल से बाहर आ रहा था तब रानी ने उससे कहा – “क्यों न हम भी जनता कुँए का पानी पी लें! हम भी फिर उन्हीं जैसे हो जायेंगे।”

🔷 राजा और रानी ने भी जनता कुँए का पानी पी लिया और वे भी अपने नागरिकों की तरह बौरा गए और बे सिर पैर की हरकतें करने लगे।

🔶 अपने राजा को ‘बुद्धिमानीपूर्ण’ व्यवहार करते देख सभी नागरिकों ने निर्णय किया कि राजा को हटाने का कोई औचित्य नहीं है. उन्होंने तय किया कि राजा को ही राजकाज चलाने दिया जाय।

🔷 मित्रों कहानी से तात्पर्य है कि अगर हजारों लोग हमारे विरुद्ध है तो हम गलत हो गए क्या, कभी - कभी ऐसी भी परिश्थितियाँ आ जाती है कि सिर्फ हम सही होते है और हजारों गलत, इसलिए अगर आप सही है तो सिर्फ अपने आप पर विश्वास रखिये, लोगों का क्या है उनका तो काम है कहना।

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 4 April 2018


👉 आज का सद्चिंतन 4 April 2018


👉 THE COMPULSORY RULE OF REACTION OF ACTION

🔶 The reaction of each action is a universal rule of this world. This can be seen being characterised anytime anywhere. A farmer reaps what he sows. Though the opportunities of fortune and misfortune appear naturally; but behind them too, the deeds of human beings work only. However they have been done ever in the past, not in the present. Nothing happens all of a sudden here. Whatsoever happens, its background is reared much before. The birth of a child is seen directly with these eyes after delivery; but its foundation has been set up much before during insemination. The time of dawn is accepted as sunrise with these skinny eyes; but in reality this is connected with the time of ending of darkness.

🔷 Similar convention shows its miracle behind good time and fortune too. The consequeces of one’s deeds are everything here. Everything in the market of this world is well decorated, preserved and pre defined. But no one gets free of cost out of it. The venture of buying and selling works here. The universal truth of barter introduces its fixed mechanism continuously. Even the sand and soil spreaded on the ground do not get collected in the basket free of cost on its own. For this too, someone or other has to work for digging and collecting. The lines of Sanskrit rightly describe this—a deer doesn’t go inside the mouth of a sleeping lion on its own.          

✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya

👉 Amrit Chintan 4 April

🔷 Four habits constitute human nature – mind, nature, instinct and ego. Mind’s job is to decide yes or no to the proposals of thoughts. Chit is memory chip and ego which covers self. These four factors always keep man in body sense and does allow to be conscious of soul. Hence, the only way to become soul conscious is through process of self rectification and selfless love which permits soul radiation to come out.

🔶 The aim of sadhana is realization. Most of the devotees do all their worship for worldly gains and for that they do Anusthan – a – disciplined package of enchanting. This intense to become a type of ritual oriented results of material things. Such way of worship does not help to grow spiritual power. Sadhana can only bring result when a long steady practice is done under the guidance of a Guru in most disciplined way.

🔷 Every one who has chosen the field for spiritual developments, a wave of that discipline must spread. Diet control, chasticity in life, income, daily routine of life, expense, reading of good books, help to become soul conscious. Worship, exercise, helping others and like activities will have to be imposed on our-self strictly. Vices must be controlled. Restrain in life and adopting of good virtues must be the aim of everyone in this field of spirituality.

✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya

👉 जीवन-साधना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी (भाग 3)

🔶 आज दूसरी बात बताते हैं आपको। अपनी पात्रता का विकास करना पड़ेगा, पात्र इसके लिए बनना पड़ेगा। पात्र अगर न होंगे तब? शादी कोई लड़की करना चाहे किसी अच्छे लड़के से और वह बुड्ढी हो तब? गूँगी, बहरी, अन्धी हो तब? तो कौन शादी करेगा? इसीलिए पात्रता बहुत जरूरी है। कल हमने कहा था न—उस दिन आपसे कहा था, पानी का गड्ढा होना जरूरी है, बादलों की कृपा प्राप्त करने के लिए। बादल तो बरसते ही रहते हैं। उनकी कृपा तो सबके ऊपर है। गड्ढा जहाँ होगा, वहीं तो पानी जमा होगा न। गड्ढा न होगा तब? सूरज की कृपा तो हरेक के ऊपर है; लेकिन जिसकी आँखें खराब हो गई हों, उसके लिए क्या कर सकता है सूरज! दुनिया में एक से एक सुहावने दृश्य दिखाई पड़ते हैं; पर एक-से सुहावने दृश्य को देख कौन सकेगा?

🔷 जिसकी आँखों का तिल साबुत होगा, वही तो देखेगा? जिसकी आँखों का तिल साबुत नहीं है, तो कैसे देखेगा! जरा आप ही बताइये। जिसके कानों की झिल्ली खराब हो गई है, दुनिया में एक-से बढ़िया संगीत और आवाज निकलती है, पर कानों की झिल्ली खराब हो जाए, तब दुनिया के संगीत सुनने के लिए आदमी की कोई सहायता-सेवा नहीं कर सकता। आदमी का दिमाग खराब हो जाए तब? तब एक से एक बढ़िया परामर्श देने वाले, एक-से सहायता देने वाले क्या कर सकते हैं? कोई सहायता नहीं कर सकता। किसकी? जिसका दिमाग खराब हो गया है। क्या करेंगे? अपना दिमाग तो सही हो, अपनी झिल्ली तो सही हो, अपनी आँखों का तिल तो सही हो। ये सही होंगे, तो फिर सूरज भी सहायता करेगा, वायु भी सहायता करेगी।

🔶 पाँच तत्त्व दुनिया में हैं, जिसमें से हवा भी है, रोशनी भी है, सूरज भी है—ये सब आदमी की सहायता करते हैं। इन्हीं की सहायता से तो आदमी जिन्दा है; लेकिन आदमी जिन्दा तो होना चाहिए। मर गया होगा तब, साँस क्या करेगी? बहुत अच्छी प्रातःकाल की हवा है; हवा फेफड़ों को मिलनी चाहिए; पर लेगा तो तभी, जब वह जिन्दा हो। जिन्दा नहीं हो, तो क्या करेगी हवा। एक से एक बढ़िया आहार है और भोजन है; लेकिन आहार और भोजन के होते हुए अगर किसी आदमी का पेट खराब हो जाए तब? आप क्या खिला करके करेंगे? और उल्टा पेट में दर्द हो जाएगा। आप पौष्टिक पदार्थ दीजिए, मलाई-मिठाई दीजिए। अगर पेट खराब है, पचता नहीं है, तो मलाई-मिठाई क्या करेगी? और जहर पैदा कर देगी। मेरा मतलब पात्रता से है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य (अमृत वाणी)

👉 गुरुगीता (भाग 80)

👉 गुरु का वाक्य ब्रह्मवाक्य समान

🔶 इस अनुभूति को बताने वाली एक शिष्य की बड़ी मधुर आप बीती है। गुरु के स्पर्श ने इस शिष्य को अनायास ही लोहे से सोने में बदल दिया। बंगाल के एक गाँव सिहुड़ में जन्म हुआ। माँ-बाप ने नाम दिया सिद्धेश्वर। जिसे बाद में गाँव-टोले के लोगों ने मिलकर सिधुआ बना दिया। जैसा नाम वैसा गुण, सिद्धेश्वर बचपन से ही सीधा और भोला था। दैव का प्रकोप माँ-बाप बचपन में ही चल बसे। अनाथ होने का दर्द उसके सिवा भला और कौन अनुभव कर सकता था। अपमान से दिया गया अन्न और तिरस्कार से दिया गया जल उसकी भूख-प्यास बुझा देता था, पर कभी-कभी जब और अधिक अपमान सहने की हिम्मत न पड़ती, तो वह भूखा ही सो जाता।
  
🔷 उसका बचपन ऐसे ही बीत रहा था। तभी एक दिन बाबा सोमेश्वर उसके गाँव में आये। उनकी भव्य देह यष्टि, शुभ्र केश, ज्योति बिखेरती आँखें, आशीर्वचन सुनाते होंठ उसने जब पहली बार उनको देखा तो देखता ही रह गया। समझ में नहीं आया क्या कहे? कैसे कहे? उसने तो बस इतना ही सुना कि बाबा को लोग परमहंस देव कह रहे हैं। उसने जब उनके पास जाने के लिए सोचा, तो किसी ने उसे जोर का धक्का दिया, पर बाबा ने अपने बलिष्ठ हाथों से उसे सम्भाल लिया। वह तो बस डर के मारे उनसे चिपट गया। भीड़ जब बाबा के पास से विदा हुई, तो बाबा उसका सिर सहलाते हुए बोले-बेटा! मैं इस गाँव में केवल तुम्हारे लिये आया हूँ।
  
🔶 उसका भी कोई अपना है, यह उसके लिए बड़े अचरज की बात थी। पर बाबा ने उसे बड़े प्यार से माँ दुर्गा का मंत्र स्मरण करना सिखाया और बोले-बेटा! तुम बिना परेशान हुए इसी गाँव में रहते हुए सबकी सेवा करते रहो। पर बाबा ये लोग तो ......! वह आगे और कुछ बोल पाता तभी बाबा बोले ‘बहुत सताते हैं न तुम्हें।’ हाँ बाबा। उसकी हाँ सुनकर बाबा सोमेश्वर ने अपनी आँखें शून्य में टिका ली और कहीं आकाश में खो गये। कुछ सोचते हुए उनकी आँखों में आँसू भर आये। फिर थोड़ी देर में प्रकृतिस्थ हुए और बोले- ये सब जो भी सतायें, उसे प्रसन्नतापूर्वक सहन करो। इन सबके उत्पीड़न को प्रसन्नतापूर्वक सहते हुए इनकी सेवा करो। यही तुम्हारा साधना पथ है। मानोगे मेरी बात, कर सकोगे ऐसा।
  
🔷 १५-१६ साल का सिद्धेश्वर चुप हो गया। पर मना कैसे करता, जिन्दगी में पहली बार तो किसी ने उससे प्रेम से बात की है। उसने हामी भर दी। माँ दुर्गा का स्मरण, सारे तिरस्कार को सहकर सबकी सेवा, यही उसका जीवन बन गया। लोग जितना अधिक अपमानित करते, माँ दुर्गा उसे उतनी ज्यादा याद आती। बड़े विह्वल होकर वह माँ को पुकारने लगता। रात में जब सोता, तब सपने में कभी-कभी वह परमहंस बाबा सोमेश्वर उसके सिरहाने बैठे दिखते। इन सालों में उसमें एक फर्क यह हुआ कि अब वह युवा हो गया। एक दूसरा फर्क यह हुआ कि अब सोते-जागते उसका मन जगन्माता माँ दुर्गा और अपने प्यारे गुरुदेव में विलीन रहता।
  
🔶 अब धीरे-धीरे उसे लोगों ने अपमानित करना बन्द कर दिया। पर उसका मन अब माँ का हो गया था। माँ के स्मरण से ही उसकी सुबह होती और माँ के स्मरण से ही उसकी पलके मुँदती। एक रात जब वह सो रहा था, तभी अचानक मूलाधार में सोई महासर्पिणी जाग उठी। अजीब सा प्रभाव हुआ उस पर। लगभग विक्षिप्त सा हो गया। यह दशा सालों बनी रही, परन्तु बाद में उसका मन स्थिर और शान्त हो गया। उसके मन के ज्ञान-कपाट खुल गए। इतने दिनों में चौबीस सालों का अन्तराल हो गया था। एक दिन बाबा सोमेश्वर फिर से उसके पास आए और बोले बेटा! तुम्हारी साधना सफल हो गयी है। अब तुम सिद्ध हो। उसने विह्वल हो उनके पाँव पकड़ लिए और बोला बाबा मैं तो इन चरणों का दास हूँ। मैं तो कुछ किया ही नहीं, बस आपके कहे को करता रहा हूँ। बाबा हँसते हुए बोले, गुरु के कहे हुए को जो अक्षरशः कर लेता है, वह शुद्ध, बुद्ध व मुक्त हो जाता है। इसके विपरीत जो गुरु का विरोध करता है, वह दुर्गति को प्राप्त होता है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ प्रणव पंड्या
📖 गुरुगीता पृष्ठ 121

👉 आत्म-चिन्तन

🔷 सुजाता ने खीर दी, वृद्ध ने उसे ग्रहण कर परम सन्तोष का अनुभव किया। उस दिन उनकी जो समाधि लगी तो फिर सातवें दिन जाकर टूटी। जब वे उठे, उन्हें आत्म-साक्षात्कार हो चुका था।

🔶 निरञ्जरा नदी के तट पर प्रसन्न मुख आसीन भगवान् बुद्ध को देखने गई सुजाता बड़ी विस्मित हो रही थी कि यह सात दिन तक एक ही आसन पर कैसे बैठे रहे? तभी सामने से एक शव लिये जाते हुए कुछ व्यक्ति दिखाई दिये। उस शव को देखते ही भगवान् बुद्ध हँसने लगे।

🔷 सुजाता ने प्रश्न किया- योगिराज! कल तक तो आप शव देखकर दुःखी हो जाते थे, आज वह दुःख कहाँ चला गया?

🔶 भगवान बुद्ध ने कहा- बालके! सुख-दुःख मनुष्य की कल्पना मात्र है। कल तक जड़ वस्तुओं में आसक्ति होने के कारण यह भय था कि कहीं यह न छूट जाय, वह न बिछुड़ जाये। यह भय ही दुःख का कारण था, आज मैंने जान लिया कि जो जड़ है, उसका तो गुण ही परिवर्तन है, पर जिसके लिये दुःख करते हैं, वह तो न परिवर्तनशील है न नाशवान्। अब तू ही बता जो सनातन वस्तु पा ले, उसे नाशवान् वस्तुओं का क्या दुःख?

🔷 सुजाता यह उत्तर सुन कर प्रसन्न हुई और स्वयं भी आत्म-चिन्तन में लग गई।

📖 अखण्ड ज्योति जून 1970 पृष्ठ 31

👉 O GOD! MAY YOUR WISHES GET FULFILLED.

🔷 Lin-Chi was contemporary to the famous Chinese philosopher Confucius and he deserved his honor too. Confucius always used to say that God listens only to the prayers of Lin-Chi. One of his disciples, in curiosity, went to see Lin-Chi. He asked Lin-Chi about his daily routine. Lin-Chi laughed and said—I am a common farmer. I passed my day in the farm. I take my meal when am hungry. I go to sleep when feel drowsy. Why to pray separately—everything in my life is all His and is dedicated to Him only.

🔶 The disciple got disappointed hearing all this. He narrated this incident to Confucius. Confucius said—Son! Whose life has already become the psalm of God; he doesn’t need any kind of pomposity. True devotee calls Him with his soul, not through any external sources. The disciple learnt that the secret of devotion is in true sigh of soul, not inside any external coverings and colorings.

📖 From Akhand Jyoti

👉 हे ईश्वर! तेरी इच्छा पूर्ण हो।

🔷 लिंची चीन के प्रसिद्ध दार्शनिक कन्फ्यूशियस के समकालीन थे और उनके सम्मान के पात्र भी। वे सदा कहा करते थे कि भगवान सिर्फ लिंची की प्रार्थनाएँ सुनता है। कौतूहलवश कन्फ्यूशियस का एक शिष्य लिंची से मिलने पहुँचा। उसने लिंची से उनकी दिनचर्या के विषय में पूछा। लिंची हँसे और बोले—मैं साधारण किसान हूँ। दिन खेत में गुजर जाता है। जब भूख लगती है, खा लेता हूँ। जब नींद आती है तो सो जाता हूँ। भगवान की अलग से प्रार्थना क्या करनी—यह सब तो उसी का है, उसी को अर्पित है।

🔶 शिष्य यह सुनकर बड़ा निराश हुआ। उसने यह घटना कन्फ्यूशियस को सुनाई। कन्फ्यूशियस बोले—वत्स! जिसका जीवन ही भगवान की प्रार्थना बन गया हो, उसे अलग से आडम्बर करने की क्या आवश्यकता है। सच्चा भक्त परमात्मा को अंतरात्मा से पुकारता है, बाहर के साधनों से नहीं। शिष्य की समझ में आ गया कि भक्ति का मर्म अंतर्मन की सच्ची पुकार में है, बाह्य कलेवरों में नहीं।

📖 अखण्ड ज्योति से

👉 Amrit Chintan 3 April

🔷 The motto of our life our action and reaction must not be self centered but others welfare must also be considered. It must be constructive ans should not hurt others – anyway. Our life is a part of society and we owe society for its big share to develop the present civilization. Our development depends on the growth of the society we live. If we participate in the development of society with our utmost sincerity at individual level – we will create heaven on earth.

🔶 Society grows and develops it’s– culture and establish its civilization by a collective efforts of the individuals of the society. But our all abilities status, position must also be used to help downtrodden people and impart help to those who are trying to stand on their feet. Only then we are making proper use of our life given by the creator. This way our all habits and actions should not be individualistic but for others too. The philosophy of our life must be so that we are for others too. The interest and welfare of masses must be the aim of our life.

🔷 To develop greatness in life is to leave an example on the hearts of people for ages, we will have to develop own will power. A constant divine light in yourself must guide you. It is that divine light which every man has. One can successfully overpower all sorts of hurdles in life. A firm believes on self – the purest and sacred most consciousness of yours – is the secret to lead you the true success is life and also to achieve greatness – the excellence of life.

✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya

👉 जीवन-साधना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी (भाग 2)

🔷 नारद एक बार मनोकामना माँगने के लिए भगवान के पास गए और ये कहने लगे—एक युवती का स्वयंवर होने वाला है और मुझे आप राजकुमार बना दीजिये, सुन्दर बना दीजिए, ताकि मेरी अच्छी लड़की से शादी भी हो जाए और मैं सम्पन्न भी हो जाऊँ; दहेज जो मिलेगा, उससे मालदार भी हो जाऊँगा। मालदार बनने की और सम्पन्न बनने की दो ही तो मनोकामनाएँ हैं और क्या मनोकामना है? एक लोभ की मनोकामना है, एक मोह की मनोकामना है। दोनों के अलावा और कोई तीसरी मनोकामना दुनिया में है ही नहीं। इन दोनों मनोकामनाओं को लेकर जब नारद भगवान के यहाँ गए, तो भगवान के अचम्भे का ठिकाना नहीं रहा। भक्त कैसा? जिसकी मनोकामना हो। मनोकामना होगी तो भक्त नहीं होगा—भक्त होगा तो मनोकामना नहीं होगी। दोनों का निर्वाह एक साथ नहीं हो सकता।

🔶 जहाँ अँधेरा होगा, वहाँ उजाला नहीं रहेगा; जहाँ उजाला रहेगा, वहाँ अँधेरा नहीं होगा। दोनों एक साथ जोड़ कैसे होगा? इसलिए भगवान सिर पर हाथ रख करके जा बैठे। अरे! तुम क्या कहते हो नारद? लेकिन नारद ने अपना आग्रह जारी रखा—नहीं, मेरी मनोकामना पूरी कीजिए, मुझे मालदार बनाइये, मेरी विषय-वासना पूरी कीजिए। भगवान चुप हो गए। नारद ने सोचा—भगवान ने चुप्पी साध ली है, शायद मेरी बात को मान लिया होगा। भगवान को माननी चाहिए भक्त की बात ऐसा ख्याल था। बस वो चले गए स्वयंवर में। स्वयंवर में जाकर के बैठे। राजकुमारी ने देखा—कौन बैठा है? नारद जी का और भी बुरा रूप बना दिया—बन्दर जैसा। राजकुमारी देखकर मजाक करने लगी, हँसने लगी; ये बन्दर जैसा कौन आ करके बैठा है? बस, उसको माला तो नहीं पहनाई और दूसरे राजकुमार को माला पहना दी।

🔷 नारद जी दुःखी हुए, फिर विष्णु भगवान के पास गए; गालियाँ बकने लगे। विष्णु ने कहा—अरे नारद! एक बात तो सुन। हमने किसी भक्त की मनोकामना पूरी की है क्या आज तक। इतिहास तो ला भक्तों का उठा करके। जब से सृष्टि बनी है और जब से भक्ति का विधान बना है, तब से भगवान् ने एक भी भक्त की मनोकामना पूरी नहीं की है। हर भक्त को मनोकामना का त्याग करना पड़ा है और भगवान की मनोकामना को अपनी मनोकामना बनाना पड़ा है। बस, कल हम ये बता रहे थे कि आप अगर उपासना कर सकते हों, तो आप भी भगवान के बराबर हो सकते हैं और उनसे बड़े भी हो सकते हैं और भगवान के गुण और आपके गुण एक बन सकते हैं; आप महापुरुष हो सकते हैं, महामानव हो सकते हैं, ऋषि हो सकते हैं, देवात्मा हो सकते हैं और अवतार हो सकते हैं, अगर आप उपासना का ठीक तरीके से अवलम्बन लें तो। कल का ये विषय था।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य (अमृत वाणी)

👉 गुरुगीता (भाग 78)

👉 गुरु का वाक्य ब्रह्मवाक्य समान

🔷 इस सच के नये आयाम खोलते हुए भगवान् सदाशिव आदि माता भवानी से कहते हैं-

गुरुदर्शितमार्गेण मनःशुदिं्ध तु कारयेत्। अनित्यं खण्डयेत् सर्वं यतिं्कञ्चिदात्मगोचरम्॥ ९९॥
ज्ञेयं सर्वस्वरूपं च ज्ञानं च मन उच्यते। ज्ञानं ज्ञेयसमं कुर्यात् नान्यः पन्था द्वितीयकः॥ १००॥

🔶 गुरुदेव जो भी राह दिखायें, उसी राह पर चलते हुए मन की शुद्धि करना कर्त्तव्य है। शिष्य को चाहिए कि मन व इन्द्रियों से भोगे जाने वाले सभी भोगों को और सभी अनित्य पदार्थों को त्याग दे ॥ ९९॥ सभी को आत्मस्वरूप अनुभव करना ज्ञान हैं। जिसे ज्ञान हो रहा है और जिसका ज्ञान हो रहा है, ये दोनों ही समान है अर्थात् यह सम्पूर्ण जगत् अपनी आत्मा का विस्तार है। ऐसा अनुभव ही मोक्ष कारक है। इसके सिवा अन्य कोई पथ नहीं है॥ १००॥

🔷 गुरुगीता के रूप में उचारे गये इन शिव वचनों में साधना, साध्य व सिद्धि का मर्म छिपा है। साधना वही, जो गुरुदेव बतायें। साध्य वही, जिसकी ओर वे इशारा करें और सिद्धि वही, जिसमें कि उनकी आत्मतत्त्व के विस्तार रूप में अनुभव हो। इस सम्पूर्ण जगत् में एक ही तत्त्व है-एक ही सत्य है। इस आत्मतत्त्व के अनुभव में जो प्रतिष्ठित हो गये, वही ज्ञानी हैं। ज्ञान, ज्ञाता व ज्ञेय में कोई भेद नहीं है। सब एक ही का विस्तार है। गुरु द्वारा दिखाई गयी राह पर चलने से प्रत्येक शिष्य को यह अनुभूति हो जाती है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ प्रणव पंड्या
📖 गुरुगीता पृष्ठ 120

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 3 April 2018


👉 आज का सद्चिंतन 3 April 2018


👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...