शनिवार, 4 फ़रवरी 2023

👉 जीवन संग्राम में विजय अवसर न चूकिए

हम लोग प्रतिदिन थोड़ा-थोड़ा करके जो समय खो दिया करते हैं, वह पहले तो सामान्य ही जान पड़ता है, पर यदि हम अपने जीवन के अंतिम भाग में पहुँच कर इस प्रकार के खोये समय का हिसाब लगायें, तो उसका विशाल परिणाम देखकर आश्चर्य होगा। जिन क्षणों को छोटा समझकर हम व्यर्थ खो देते हैं उन्हीं छोटे क्षणों को काम में लाकर अनेक व्यक्तियों ने बड़े-बड़े महत्वपूर्ण कार्य कर दिखाए हैं। संसार में अनेक विद्वान ऐसे हुए हैं जिन्होंने इसी प्रकार प्रतिदिन दस-दस, बीस-बीस मिनट का समय बचाकर नई भाषाओं का ज्ञान प्राप्त किया है, महत्वपूर्ण ग्रन्थ लिख डाले हैं, या कोई कार्य कर दिखलाया है। अगर हम यह कहें कि संसार में जितने महापुरुष हुये हैं उनकी सफलता की कुँजी वास्तव में उनके समय के सदुपयोग में ही है तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं। संसार के अनेक प्रसिद्ध व्यक्ति ऐसे भी हुए हैं जिनमें कोई विशेष प्रतिभा अथवा असाधारण जन्मजात गुण नहीं था तो भी वे अविश्रान्त परिश्रम तथा समय के प्रत्येक क्षण का सदुपयोग करके ही इतिहास में अपना नाम स्थायी कर गये हैं।

जीवन में सिद्धि प्राप्त करनी हो तो एक क्षण भी व्यर्थ नहीं गँवाना चाहिए। समय का सदुपयोग करना हमारे हाथ में है। बाजार में जाकर हम रुपये देकर कोई चीज खरीदते हैं। इस तरह हम उन रुपयों को गँवाते नहीं हैं, बल्कि वस्तु के रूप में वे हमारे पास ही बने रहते हैं। समय की भी यही बात है। समय का का सदुपयोग करके हमने यदि शक्ति, सामर्थ्य और सद्गुणों की प्राप्ति की तो हमारा वह समय व्यर्थ नहीं गया, लेकिन शक्ति, सामर्थ्य और सद्गुणों के रूप में हमारे ही पास है। जिन्होंने इस प्रकार समय का सदुपयोग किया है, उन्हें अपने जीवन में शान्ति, प्रसन्नता, धन्यता और कुतार्थता का अनुभव होता है। यही यथार्थ जीवन है। ऐसा जीवन बिताने वाले को मृत्यु का भय भी नहीं लगेगा। उस अवसर पर भी वह शान्त और स्थिर रह सकेगा। जिसने मानव-जीवन का महत्व समझकर संयम का पालन करके मानवता प्राप्त की है, वह कभी चिन्ताग्रस्त या बेचैन नहीं रहता।

मनुष्य को धन, विद्या, सत्ता, सामर्थ्य आदि का अनेक प्रकार का मद चढ़ता है। लेकिन उच्च तथा उदात्त जीवन की आकाँक्षा रखने वाला मनुष्य भिन्न प्रकार के आत्म गौरव का अनुभव करता है। वह कठिन प्रसंगों में, मृत्यु के समय भी शान्त रह सकता है। ऐसे प्रसंगों में उसका तेज बढ़ता है। यदि वह ऐसे अवसर पर निर्बल बनता है तो उसके आत्म-विश्वास में कमी समझी जायेगी। शूर का तेज रण में जाग्रत होता है, पक्षी को आकाश का भय नहीं होता, सिंह को जंगल का भय नहीं लगता। मछली पानी से नहीं डरती। इसी तरह सज्जन को संकट का भय नहीं होता। उसमें भी वह शांति का अनुभव करता है। मृत्यु के समय भी शान्ति और प्रसन्नता का भाव रह सके तभी जीवन सार्थक हुआ ऐसा कह सकते हैं।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1965 पृष्ठ 18

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👉 मन तथा शरीर का सम्बन्ध

मन का शरीर पर अटूट अविच्छिन्न एवं अकाट्य प्रभाव है और यह सब काल, सब स्थितियों तथा समस्त अवस्थाओं में समान रूप से रहता है। मानसिक जर्जरता, मानसिक अशान्ति, उद्वेग, आवेश, विकार, मन में उद्भूत अनिष्ट कल्पना, चिंतन की अकल्याणकारी मूर्ति, ईर्ष्या, द्वेष इत्यादि मन की विभिन्न भूमिकाओं का शरीर पर भयंकर प्रभाव पड़ता है। मनोविकार निरन्तर हमें नाच नचाया करते हैं, काम, क्रोध, इत्यादि मनुष्य के षट्रिपु हमें समूल नष्ट करने को प्रस्तुत रहते हैं। अनेक व्यक्ति सर्वत्र इनके मिथ्या प्रलोभनों में ग्रसित होकर अनेक स्नायु रोगों के शिकार बनते हैं।

शरीर में प्रत्येक प्रकार की अनुकूल अथवा प्रतिकूल अवस्था का निर्माण करने की सामर्थ्य मनुष्य के मन में अंतर्निहित है। मन के गर्भ भाग में जो कुटिल अथवा भव्य मनः संस्कार अंकित होते हैं, वही सिद्धान्त एवं निश्चय रूप धारण करके प्रतिमा रूप बन कर बाह्य जगत में प्रकट होते हैं और तद्रूप जीवन निर्माण करते हैं।

जो मनः स्थिति हमारे अन्तःकरण में वर्तमान है, उसी ने हमारी रूप रेखा का निर्माण किया है। यदि मनुष्य की आन्तरिक स्थिति तुच्छ एवं घृणित है, तो उसके पीछे दुःख तथा क्लेश इस प्रकार लगे हैं जैसे जीव के पीछे उसकी परछाहीं। मनुष्य अपने विचारों का फल है। बाह्य स्वरूप मन द्वारा विनिर्मित शरीर वह ढांचा (Mould) है, जिसमें वह निरन्तर अविच्छिन्न गति से निज शक्तियाँ संचारित किया करता है। आन्तरिक भावनाओं की प्रतिकृति मुख, अंग प्रत्यंगों, क्रियाओं, वार्तालाप, मूक चेष्टाओं, रहन-सहन, व्यवहार में क्षण-क्षण में परिलक्षित होती हैं। जिस प्रकार जिह्वा द्वारा उदर की गतिविधि जानी जाती है, उसी प्रकार मुखमण्डल आन्तरिक भावनाओं का प्रतिबिम्ब है।

मन की शरीर पर क्रिया एवं शरीर की मन पर प्रतिक्रिया निरन्तर होती रहती है। जैसी आपका मन, वैसा ही आपका शरीर, जैसा शरीर वैसा ही मन का स्वरूप। यदि शरीर में किसी प्रकार की पीड़ा है, तो मन भी क्लान्त, अस्वस्थ, एवं पीड़ित हो जाता है। वेदान्त में यह स्पष्ट किया गया है कि समस्त संसार की गतिविधि का निर्माण मन द्वारा ही हुआ है। जैसी हमारी भावनाएं, इच्छाएँ, वासनाएँ अथवा कल्पनाएँ हैं, तदनुसार ही हमें शरीर, अंग-प्रत्यंग, बनावट प्राप्त हुई है। मनुष्य के माता-पिता, परिस्थितियाँ, जन्म स्थान, आयु, स्वास्थ्य, विशेष प्रकार के छिन्न-भिन्न शरीर प्राप्त करना, स्वयं हमारे व्यक्तिगत (Personal) मानसिक संस्कारों पर निर्भर है। हमारा बाह्य जगत हमारे प्रसुप्त संस्कारों की प्रतिच्छाया मात्र है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति-फर. 1946 पृष्ठ 3


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👉 व्यक्ति-व्यक्ति जीवन सुँदर बनाने में सहायता करे

समाज भी एक परिवार है। वैयक्तिक परिवार छोटा और सामाजिक परिवार बड़ा है। जैसे जब किसी परिवार में कोई विवाह आदि उत्सव होता है, तब बाहर से नाते-रिश्तेदार आकर परिवार की परिधि को बढ़ा देते हैं। सारे परिवार के लोग उनको परिवार का एक विशेष अंग समझते हैं और आये हुए लोग भी परिवार को अपना ही परिवार मानते हैं। उसी प्रकार यदि जीवन के प्रत्येक क्षण को एक सुँदर अवसर समझकर मनुष्य अन्य सामाजिक सदस्यों को आया हुआ बन्धु समझे तो पूरे समाज में सहयोग और सद्भावना की स्थिति आते देर न लगे।

मनुष्य को एक सीमित और अनजान अवधि का जीवन रूपी अवसर मिला है, जिसे उसे सुँदर से सुँदर ढंग से बिताना चाहिए। इसे उलझन और अशाँति में व्यतीत करना मानवता नहीं है। हर व्यक्ति को अच्छे से अच्छा जीवन बिताने में सहायता देता हुआ स्वयं भी अच्छे ढंग से जिये, तभी मानव जीवन का उद्देश्य सफल और संसार की सृष्टि का मंतव्य पूरा होगा, अन्यथा नहीं।

✍🏻 ~ लियो टॉलस्टाय
📖 अखण्ड ज्योति फरवरी 1970 पृष्ठ 3


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👉 अनन्त संभावनाओं से युक्त मानवी सत्ता

बीज में वृक्ष की समस्त सम्भावनाएँ छिपी पड़ी हैं। सामान्य स्थिति में वे दिखाई नहीं पड़ती, पर जैसे ही बीज के उगने की परिस्थितियाँ प्राप्त होती हैं वैसे ही यह तथ्य अधिकाधिक प्रकट हो जाता है। पौधा उगता है—बढ़ता और वृक्ष बनता है। उससे छाया, लकड़ी, पत्र, पुष्प फल आदि के ऐसे अनेक अनुदान मिलने लगते है, जो अविकसित बीज से नहीं मिल सकते थे।

मनुष्य की सत्ता एक बीज है, जिससे विकास की वे सभी सम्भावनाएँ विद्यमान हैं जो अब तक उत्पन्न हुए मनुष्यों में से किसी को भी प्राप्त हो चुकी है। प्रत्येक व्यक्ति की मूल सत्ता समान स्तर है अन्तर केवल प्रयास एवं परिस्थितियों का है, यदि अवसर मिले तो प्रत्येक व्यक्ति उतना ही ऊँचा उठ सकता है जितना कि, इस संसार का कोई व्यक्ति कभी आगे बढ़ सका। भूतकाल में जो हो चुका है वह शक्य सिद्ध हो चुका।

सुनिश्चित सिद्धि तक उपयुक्त साधना पर पहुँचने में कोई सन्देह नहीं किया जा सकता। बात आगे की सोची जा सकती हैं। जो भूतकाल में नहीं हो सका वह भी भविष्य में हो सकता है। मनुष्य की सम्भावनाएँ अनन्त है। भूत से भी अधिक शानदार भविष्य हो सकता है, इसकी आशा की जा सकती है—की जानी चाहिए।

मनुष्य की अपनी सत्ता में अनन्त सामर्थ्य और महान सम्भावनाएँ छिपी पड़ी हैं। उन्हें समझने और विकसित करने के लिए सही रीति से—सही दिशा में अथक एवं अनवरत प्रयास करना—समस्त सिद्धियों का राज मार्ग है ऐसी सिद्धियों का जो उसकी प्रत्येक अपूर्णता को पूर्णता में परिणत कर सकती हैं।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति दिसम्बर 1974 पृष्ठ 1

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👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...