शनिवार, 29 जून 2019

👉 मजदूर के जूते Labor shoes

एक बार एक शिक्षक संपन्न परिवार से सम्बन्ध रखने वाले एक युवा शिष्य के साथ कहीं टहलने निकले उन्होंने देखा की रास्ते में पुराने हो चुके एक जोड़ी जूते उतरे पड़े हैं, जो संभवतः पास के खेत में काम कर रहे गरीब मजदूर के थे जो अब अपना काम ख़त्म कर घर वापस जाने की तयारी कर रहा था।

शिष्य को मजाक सूझा उसने शिक्षक से कहा,  गुरु जी क्यों न हम ये जूते कहीं छिपा कर झाड़ियों के पीछे छिप जाएं; जब वो मजदूर इन्हें यहाँ नहीं पाकर घबराएगा तो बड़ा मजा आएगा!!

शिक्षक गंभीरता से बोले, किसी गरीब के साथ इस तरह का भद्दा मजाक करना ठीक नहीं है क्यों ना हम इन जूतों में कुछ सिक्के डाल दें और छिप कर देखें की इसका मजदूर पर क्या प्रभाव पड़ता है!!

शिष्य ने ऐसा ही किया और दोनों पास की झाड़ियों में छुप गए।

मजदूर जल्द ही अपना काम ख़त्म कर जूतों की जगह पर आ गया उसने जैसे ही एक पैर जूते में डाले उसे किसी कठोर चीज का आभास हुआ, उसने जल्दी से जूते हाथ में लिए और देखा की अन्दर कुछ सिक्के पड़े थे, उसे बड़ा आश्चर्य हुआ और वो सिक्के हाथ में लेकर बड़े गौर से उन्हें पलट -पलट कर देखने लगा फिर उसने इधर -उधर देखने लगा, दूर -दूर तक कोई नज़र नहीं आया तो उसने सिक्के अपनी जेब में डाल लिए अब उसने दूसरा जूता उठाया, उसमे भी सिक्के पड़े थे …मजदूर भावविभोर हो गया, उसकी आँखों में आंसू आ गए, उसने हाथ जोड़ ऊपर देखते हुए कहा – हे भगवान्, समय पर प्राप्त इस सहायता के लिए उस अनजान सहायक का लाख -लाख धन्यवाद, उसकी सहायता और दयालुता के कारण आज मेरी बीमार पत्नी को दावा और भूखें बच्चों को रोटी मिल सकेगी।

मजदूर की बातें सुन शिष्य की आँखें भर आयीं शिक्षक ने शिष्य से कहा –  क्या तुम्हारी मजाक वाली बात की अपेक्षा जूते में सिक्का डालने से तुम्हे कम ख़ुशी मिली?

शिष्य बोला, आपने आज मुझे जो पाठ पढाया है, उसे मैं जीवन भर नहीं भूलूंगा आज मैं उन शब्दों का मतलब समझ गया हूँ जिन्हें मैं पहले कभी नहीं समझ पाया था कि लेने की अपेक्षा देना कहीं अधिक आनंददायी है देने का आनंद असीम है देना देवत्त है।

👉 आज का सद्चिंतन Today's Thought 29 June 2019


👉 प्रेरणादायक प्रसंग Prernadayak Prasang 29 June 2019



👉 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति (भाग 18)

👉 कर्मफल के सिद्धान्त को समझना भी अनिवार्य
इस सम्बन्ध में एक बड़ी मार्मिक घटना है। महाराष्ट्र का कोई व्यक्ति उनसे मिलने आया। उसकी आयु यही कोई ३०- ३५ वर्ष रही होगी। पर जिन्दगी की मार ने उसे असमय बूढ़ा कर दिया था। रुखे- उलझे सफेद बाल, हल्की पीली सी धंसी आँखें। चेहरे पर विषाद की घनी छाया। दुबली- पतली कद- काठी, सांवला रंग- रूप। बड़ी आशा और उम्मीद लेकर वह गुरुदेव के पास आया था। आते ही उसने प्रणाम करते हुए अपना नाम बताया उदयवीर घोरपड़े। साथ ही यह कहा कि वह महाराष्ट्र के जलगांव के पास के किसी गांव का रहने वाला है। इतना सा परिचय देने के बाद वह फफक- फफक कर रो पड़ा। और रोते हुए उसने अपनी विपद् कथा कह सुनायी।

सचमुच ही उसकी कहानी करुणा से भरी थी। लम्बी बीमारी से पत्नी की मृत्यु, डकैती में घर की सारी सम्पत्ति का लुट जाना और साथ ही सभी स्वजनों की नृशंस हत्या। वह स्वयं तो इसलिए बच गया क्योंकि कहीं काम से बाहर गया था। अब निर्धनता और प्रियजनों के विछोह ने उसे अर्ध विक्षिप्त बना दिया था। जीवन उसके लिए अर्थहीन था और मौत ने उसे अस्वीकार कर दिया था। अपनी कहानी सुनाते हुए उसने एक रट लगा रखी थी कि गुरुजी! मेरे साथ ऐसा क्यों हुआ। मैंने तो किसी का भी कुछ नहीं बिगाड़ा था। भगवान ऐसा अन्यायी क्यों है? पूज्य गुरुदेव ने बड़े प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा- बेटा! अभी तेरा मन ठीक नहीं है। मैं तुझे कुछ बताऊँगा भी तो तुझे समझ नहीं आएगा। 

अभी तो मैं तुझे एक कहानी सुनाता हूँ। यह कहानी उस समय जन्मी जब भगवान श्रीकृष्ण पाण्डवों के दूत बनकर कौरव सभा में गए थे। और वहाँ उन्होंने उद्दण्ड दुर्योधन को डपटते हुए अपना विराट् रूप दिखाया। इस दिव्य रूप को भीष्म, विदुर जैसे भक्तों ने देखा। ऐसे में धृतराष्ट्र ने भी कुछ समय के लिए आँखों का वरदान माँगा, ताकि वह भी भगवान् की दिव्य छवि निहार सके। कृपालु प्रभु ने धृतराष्ट्र की प्रार्थना स्वीकार की। तभी धृतराष्ट्र ने कहा- भगवन् आप कर्मफल सिद्धान्त को जीवन की अनिवार्य सच्चाई मानते हैं। सर्वेश्वर मैं यह जानना चाहता हूँ, किन कर्मों के परिणाम स्वरूप मैं अन्धा हूँ।

भगवान ने धृतराष्ट्र की बात सुनकर कहा, धृतराष्ट्र इस सच्चाई को जानने के लिए मुझे तुम्हारे पिछले जन्मों को देखना पड़ेगा। भगवान के इन वचनों को सुनकर धृतराष्ट्र विगलित स्वर में बोले- कृपा करें प्रभु, आपके लिए भला क्या असम्भव है। कुरु सम्राट के इस कथन के साथ भगवान योगस्थ हो गए। और कहने लगे- धृतराष्ट्र मैं देख रहा हूँ कि पिछले तीन जन्मों में तुमने ऐसा कोई पाप नहीं किया है, जिसकी वजह से तुम्हें अन्धा होना पड़े? श्रीकृष्ण के इस कथन को सुनकर धृतराष्ट्र बोले- तब तो कर्मफल विधान मिथ्या सिद्ध हुआ प्रभु! नहीं धृतराष्ट्र अभी इतना शीघ्र किसी निष्कर्ष पर न पहुँचो और भगवान् धृतराष्ट्र के विगत जन्मों का हाल बताने लगे। एक- एक करके पैंतीस जन्म बीत गए।

सुनने वाले चकित थे। धृतराष्ट्र का समाधान नहीं हो पा रहा था। तभी प्रभु बोले- धृतराष्ट्र मैं इस समय तुम्हारे १०८ वें जन्म को देख रहा हूँ। मैं देख रहा हूँ- एक युवक खेल- खेल में पेड़ पर लगे चिड़ियों के घोंसले उठा रहा है। और देखते- देखते उसने चिड़ियों के सभी बच्चों की आँखें फोड़ दीं। ध्यान से सुनो धृतराष्ट्र, यह युवक और कोई नहीं तुम ही हो। विगत जन्मों में तुम्हारे पुण्य कर्मों की अधिकता के कारण यह पाप उदय न हो सका। इस बार पुण्य क्षीण होने के कारण इस अशुभ कर्म का उदय हुआ है।

इस कथा को सुनाते हुए परम पूज्य गुरुदेव ने उस युवक के माथे पर भौहों के बीच हल्का सा दबाव दिया। और वह निस्पन्द होकर किसी अदृश्य लोक में प्रविष्ट हो गया। कुछ मिनटों में उसने पता नहीं क्या देख लिया। जब वापस उसकी चेतना लौटी तो वह शान्त था। गुरुदेव उससे बोले- समझ गए न बेटा। वह बोला- हाँ गुरुजी मेरे ही कर्म हैं। यह सब मेरे ही दुष्कर्मों का फल है। कोई बात नहीं बेटा, जब जागो तभी सबेरा। अब से तुम अपने जीवन को संवारों। मैं तुम्हारा साथ दूँगा। क्या करना होगा, उस युवक ने पूछा। चित्त के संस्कारों को जानो और इनका परिष्कार करो। गुरुदेव के इस कथन ने उसके जीवन में नयी राह खोल दी।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति

👉 इस आपत्ति−काल में हम थोड़ा साहस तो करें ही! (भाग 2)

वर्तमान साधु−ब्राह्मणों का दरवाजा खटखटाते हमें एक युग बीत गया। उन्हें नीच−ऊँच समझाने में जितना श्रम किया और समय लगाया, उसे सर्वथा व्यर्थ चला गया ही समझना चाहिए। निराश होकर ही हमें इस नतीजे पर पहुंचना पड़ा है कि सड़ी वस्तु को पुनः स्वस्थ स्थिति में नहीं लाया जा सकेगा। हमें नई पौध लगाने और नई हरियाली उगाने के लिए अभिनव प्रयत्न करने होंगे। उसी का आरम्भ कर भी रहे हैं।

विश्वास किया जाना चाहिए कि आदर्शवादिता अभी पूरी तरह अपंग नहीं हो गई हैं। महामानव स्तर की भावनायें सर्वथा को विलिप्त नहीं हो गई हैं। लोभ और मोह ने मनुष्य को जकड़ा तो जरूर है, पर वह ग्रहण पूरा खग्रास नहीं है। सूर्य का एक ऐसा कोना अभी भी खाली है और उतने से भी काम चलाऊ प्रकाश किरणें विस्तृत होती रह सकती है। ऋषि−रक्त की प्रखरता उसकी सन्तानों की नसों में एक बूँद भी शेष रही हो—ऐसी बात नहीं है। दम्भ का कलेवर आकाश छू रहा है—सो ठीक है,पर सत्य न अभी भी मरण स्वीकार नहीं किया है। अपराधी में हर व्यक्ति अन्धा हो रहा हैं पर ऐसा नहीं समझना चाहिए कि परमार्थ की परम्परा का अस्तित्व ही समाप्त हो गया।

देश,धर्म, समाज और संस्कृति की बात सोचने के लिए किसी के भी मस्तिष्क में गुंजाइश नहीं रहीं ही, अभी ऐसा अन्धकार नहीं छाया है। अब किसी के भी मन में दूसरों के लिए दर्द ने रह गया हों, दूसरों के सुख में अपना सुख देखने वाले हृदय सर्वथा उजड़−उखड़ गये हों, ऐसी बात नहीं है। धर्म के बीच नष्ट तो कभी भी नहीं हुए हैं। आत्म−सत्ता की वरिष्ठता का आत्यन्तिक मरण हो गया हो— ऐसी स्थिति अभी नहीं आई है। मनुष्य ने पाप और पतन के हाथों अपने को बेच दिया हो और देवत्व से उसका कोई वास्ता न रह गया हो— ऐसा नहीं सोचना चाहिए। मानवी महानता अभी कहीं न कहीं, किसी न किसी अंश में जीवित जरूर मिल जायगी। हम उसी को ढूंढ़ेंगे। जहाँ थोड़ी−सी साँस मिलेगी,यहाँ आशा के चीवर ढुलाऐंगे और कहेंगे—पशुता से ऊँचे उठकर देवत्व की परिधि में प्रवेश करने का प्रयत्न करो।

मरणोन्मुख मनुष्यता तुम्हारी बाट जोहती है। चलो,उसे निराश न करों। हमें आशा है कि कहीं न कहीं से ऐसी आत्मा ढूंढ़ ही निकाली जा सकेगी, जिनमें मानवी महानता जीवित बच रही हो। उन्हें युग की दर्द भरी पुकार सुनने के लिए अनुरोध करेंगे और कहेंगे—मनुष्य जाति को सामूहिक आत्महत्या करने से रोकने का अभी भी समय बाकी है। कुछ तो अभी किया जा सकता है, सो करना चाहिए। अपने को खोकर यदि संस्कृति को जीवित रखा जा सकता है तो इस सौदे को पक्का कर ही लेना चाहिए।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1974 पृष्ठ 22

http://literature.awgp.org/hindi/akhandjyoti/1974/January/v1.22

👉 The Absolute Law Of Karma (Part 28)

THE RELATIVITY OF VIRTUES AND SINS

On many occasions, I have succeeded in reconciling the differences between bitter adversaries by making them understand the triviality of the root cause, which had made a mountain out of a molehill. Such situations arise because of gap in communication. With mutual understanding, sharing of feelings and objective analysis of each other’s expectations, behaviour and psychological background, ninety percent of estrangements can be amicably resolved. In fact the factors responsible for such estrangements are very minor. We may compare their incidence with the quantity of salt in our food. Salt and pepper themselves are distasteful, but a small quantity of these makes food palatable. Occasional cooling off of warmth in close relationships is required to break the monotony of life. Given mutual trust, we bounce back into the relationship with deeper understanding and warmth. It has already been discussed that on human birth, the soul brings with it many imperfections and traits of its past lives including its embodiments in sub-human species.

The newly born human child is very little qualified to live amongst human beings. It falls asleep anytime during the day, keeps awake during nights, soils the clothes and makes loud hues and cries for its biological needs of fondling, food and water. Nevertheless, neither these babytantrums disturb the household, nor does addition of one more member make the house unlivable. On the contrary, the innocent and immature child becomes a means of entertainment for the family. The morally less evolved persons of the society should be treated in the same way.

For evolutionary soul growth, it is the duty of each enlightened soul to work for the progress of other persons, who are at lower stages of soul-growth and encourage them, to work for their own upliftment. Wickedness will always be there in this world. There is no reason to be afraid of it. Whosoever is desirous of self-enlightenment should learn to face and overcome the disturbances caused by the wicked. It is necessary to restrain the evil and prevent the beastly traits from polluting humane values. Flies have to be kept away from sweets. The efficiency of one’s karmas is demonstrated in preventing spread of sinful traits in the society. A great deal of caution is required in this endeavour. It is like walking on the razor’s edge. This truly is yog-the skill in works- equanimity in the face of all provocations.

.... to be continue
✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya
📖 The Absolute Law Of Karma Page 49

👉 आत्मचिंतन के क्षण Moments of self-expression 29 June 2019

■ अपने भाग्य को स्वयं बन जाने की राह देखना भूल ही नहीं, मूर्खता भी है। यह संसार इतना व्यस्त है कि लोगों को अपनी परवाह से ही फुरसत नहीं। यदि कोई थोड़ा सा सहारा देकर आगे बढ़ा भी दे और उतनी  योग्यता न हो तो फिर पश्चाताप, अपमान और अवनति का ही मुख देखना पड़ता है। स्वयं ही मौलिक सूझबूझ और परिश्रम से बनाये हुए भाग्य में इस तरह की कोई आशंका नहीं रहती, क्योंकि वैसी स्थिति में अयोग्य सिद्ध होने का कोई कारण नहीं होता।

◇ विश्वास बड़ा मूल्यवान् भाव है। जिस विषय में समझ-बूझकर विश्वास बना लिया जाय, उसका दृढ़तापूर्वक निर्वाह भी किया जाना चाहिए। आज विश्वास बनाया और कल तोड़ दिया, विश्वास का यह सस्तापन न तो योग्य है और न ही वांछनीय।

★ जिस प्रकार कमाना, खाना, सोना, नहाना जीवन के आवश्यक नित्य कर्म होते हैं, उसी प्रकार परमार्थ भी मानव जीवन का एक अत्यन्त आवश्यक धर्म कर्त्तव्य है। इसकी उपेक्षा करते रहने से आध्यात्मिक पूँजी घटती है, आत्मबल नष्ट होता है और अंतःभूमिका दिन-दिन निम्न स्तर की बनती चली जाती है। यही तो पतन है।

□ सत्कर्मों की पुण्य प्रवृत्ति कभी-कभी ही पैदा होती है। ऐसा उत्साह भगवान् की प्रेरणा और पूर्व संचित शुभ कर्मों का उदय होने पर ही जाग्रत् होता है, अन्यथा मनुष्य स्वार्थ और पाप की बातें सोचने में ही दिन गुजारता रहता है। इसलिए परमार्थ की पुण्य प्रवृत्तियाँ जब कभी उत्पन्न हों, तब कार्यान्वित करने के लिए साहस का प्रयोग ही कर डालना चाहिए।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 Moments of self-expression 29 June 2019

◇ A wandering monk once visited the city of Mithila, ruled by the Sage King Janaka. “Who is the best teacher around here?” He asked We have to create strength where it does not exist; we have to change our natures, and become new men with new hearts, to be born again… We need a nucleus of men in whom the Shakti is developed to its uttermost extent, in whom it fills every corner of the personality and overflows to fertilize the earth. These, having the fire of Bhawani in their hearts and brains, will go forth and carry the flame to every nook and cranny of our land.
Sri Aurobindo

★ A student asked his teacher: "Who are the two angels who nurture life?" "Heart and tongue", was the reply. The next question was: “Who are the two demons who destroy life?" "Heart and tongue", was the reply again. The cruelty or tenderness of heart and tongue makes a person mean or great respectively.

■ It is already becoming clearer that a chapter which has a western beginning will have to have an Indian ending if it is not to end in the self-destruction of human race…. At this supremely dangerous moment in history, the only way of salvation for mankind is the Indian way.
Arnold Toynbee

□ By simplifying our lives, we rediscover our child-like stalk of innocents that reconnects us with the central resin of our innate humanity that knows truth and goodness. To see the world through a lens of youthful rapture is to see life for what it can be and to see for ourselves what we wish to become. In this beam of newly discovered ecstasy for life, we realize the splendor of love, life, and the unbounded beauty of the natural world.
Kilroy J. Oldste

शुक्रवार, 28 जून 2019

👉 10% का हक

एक बहुत अमीर आदमी ने रोड के किनारे एक भिखारी से पूछा.. "तुम भीख क्यूँ मांग रहे हो जबकि तुम तन्दुरुस्त  हो...??"

भिखारी ने जवाब दिया... "मेरे पास महीनों से कोई काम नहीं है...
अगर आप मुझे कोई नौकरी दें तो मैं अभी  से भीख मांगना छोड़ दूँ"

अमीर मुस्कुराया और कहा.. "मैं तुम्हें कोई नौकरी तो नहीं दे सकता ..
लेकिन मेरे पास इससे भी अच्छा कुछ है...
क्यूँ नहीं तुम मेरे बिज़नस पार्टनर बन जाओ..."

भिखारी को उसके कहे पर यकीन नहीं हुआ...
"ये आप क्या कह रहे हैं क्या ऐसा मुमकिन है...?"

"हाँ मेरे पास एक चावल का प्लांट है.. तुम चावल बाज़ार में सप्लाई करो और जो भी मुनाफ़ा होगा उसे हम महीने के अंत में आपस में बाँट लेंगे.."

भिखारी के आँखों से ख़ुशी के आंसू निकल पड़े...
" आप मेरे लिए जन्नत के फ़रिश्ते बन कर आये हैं मैं किस कदर आपका शुक्रिया अदा करूँ.."

फिर अचानक वो चुप हुआ और कहा.. "हम मुनाफे को कैसे बांटेंगे..?
क्या मैं 20% और आप 80% लेंगे ..या मैं 10% और आप 90% लेंगे..
जो भी हो ...मैं तैयार हूँ और बहुत खुश हूँ..."

अमीर आदमी ने बड़े प्यार से उसके सर पर हाथ रखा ..
"मुझे मुनाफे का केवल 10% चाहिए बाकी 90% तुम्हारा ..ताकि तुम तरक्की कर सको.."

भिखारी अपने घुटने के बल गिर पड़ा.. और रोते हुए बोला...
"आप जैसा कहेंगे मैं वैसा ही करूंगा... मैं आपका बहुत शुक्रगुजार हूँ ...।

और अगले दिन से भिखारी ने काम शुरू कर दिया ..उम्दा चावल और बाज़ार से सस्ते... और दिन रात की मेहनत से..बहुत जल्द ही उसकी बिक्री काफी बढ़ गई... रोज ब रोज तरक्की होने लगी....

और फिर वो दिन भी आया जब मुनाफा बांटना था.

और वो 10% भी अब उसे बहुत ज्यादा लग रहा  था... उतना उस भिखारी ने कभी सोचा भी नहीं था... अचानक एक शैतानी ख्याल उसके दिमाग में आया...

"दिन रात मेहनत मैंने की है...और उस अमीर आदमी ने कोई भी काम नहीं किया.. सिवाय मुझे अवसर देने की..मैं उसे ये 10% क्यूँ दूँ ...वो इसका
हकदार बिलकुल भी नहीं है..।

और फिर वो अमीर आदमी अपने नियत समय पर मुनाफे में अपना हिस्सा 10% वसूलने आया और भिखारी ने जवाब दिया
" अभी कुछ हिसाब बाक़ी है, मुझे यहाँ नुकसान हुआ है, लोगों से कर्ज की अदायगी बाक़ी है, ऐसे शक्लें बनाकर उस अमीर आदमी को हिस्सा देने को टालने लगा."

अमीर आदमी ने कहा के "मुझे पता है तुम्हे कितना मुनाफा हुआ है फिर कयुं तुम मेरा हिस्सा देनेसे टाल रहे हो ?"

उस भिखारी ने तुरंत जवाब दिया "तुम इस मुनाफे के हकदार नहीं हो ..क्योंकि सारी मेहनत मैंने की है..."

अब सोचिये...
अगर वो अमीर हम होते और भिखारी से ऐसा जवाब सुनते ..
तो ...हम क्या करते ?

ठीक इसी तरह.........
भगवान  ने हमें जिंदगी दी..हाथ- पैर..आँख-कान.. दिमाग दिया..
समझबूझ  दी...बोलने को जुबान दी...जज्बात दिए..."

हमें याद रखना चाहिए कि दिन के 24 घंटों में  10% भगवान का हक है....
हमें इसे राज़ी ख़ुशी भगवान के नाम सिमरन में अदा करना चाहिए.
अपनी Income से 10%  निकाल कर अछे कामो मे लगाना चाहिए और... भगवान का शुक्रिया अदा करना चाहिए जिसने हमें  जिंदगी दी सुख दिए ....

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 28 June 2019


👉 आज का सद्चिंतन 28 June 2019


👉 इस आपत्ति−काल में हम थोड़ा साहस तो करें ही! (भाग 1)

क्रिया या कलेवर एक जैसे होने पर भी व्यक्तियों की वास्तविकता एक जैसी नहीं हो सकती। किसी ऐतिहासिक व्यक्ति की फिल्म बनाने वाले सुरत का आदमी ढूँढ़ निकालते हैं और उससे ऐक्टिंग भी वैसा ही करा लेते हैं। इतने पर भी वह नर वैसा नहीं हो सकता, जैसा कि वह मृत व्यक्ति था। सूर, कबीर, मीरा, तुलसी, चैतन्य,विवेकानन्द, ज्ञानेश्वर आदि पर फिल्में बन चुकी हैं। जिनने पाठ किये है, वे देखने वाले को असली या नकली के भ्रम में डाल देते हैं। ’बहुरूपिये’ कई−कई तरह के वेष बदल कर दर्शकों को चक्कर में डाल देते हैं और अपनी कला का पुरस्कार पाते है। इतने पर भी वे उस असली के स्थान पर नहीं पहुँच सकते, जिसकी कि नकल बनाई गई थी।

आज साधु−ब्राह्मणों की नकल बनाने वाले बहुरूपियों की—ऐक्टरों की भरमार है। जटा, कमण्डल, धूनी, चिमटा, दाढ़ी, कोपीन सब ऐसी मानों महर्षि वेदव्यास अभी सीधे ही हिमालय से चले आ रहे हैं। ब्राह्मणों के तिलक−छाप, पगड़ी,दुपट्टा,कथा,मंत्रोच्चार ठीक वैसा ही गुरु−वशिष्ठ का आगमन अभी−अभी हो रहा है। बाहरी दृष्टि से सब कुछ ऐसा बन जाता है कि ‘टू कापी’ कहने में किसी को झिझकना पड़े। किन्तु आचार और विचार में जमीन−आसमान जितना अन्तर होने से उस नकल से कुछ प्रयोजन साधता नहीं—कुछ बात बनती नहीं।

अवाँछनीय लाभ उठाते रहने वाले वर्गों को कष्टसाध्य आदर्शवादी मार्ग पर चलने के लिए तैयार करना प्रायः असम्भव हो जाता है। राजा लोग समय रहते बदल सकते थे। ऐसा करके वे अपना प्रभाव और वर्चस्व भी बनाये रह सकते थे, जनता का हित कर सकते थे और दुर्गति से बच सकते थे, पर उनसे वैसा साहस करते बन नहीं पड़ा। जमींदार,रईस, सामन्त मिटते गये,पर बदले नहीं। जिन्हें मुफ्त में प्रचूर धन वैभव मिल रहा है। बिना तप, त्याग के पूजा−सम्मान पा रहे हैं, उनकी आत्मा इतनी बलिष्ठ न हों सकती कि आदर्शवादी जीवनचर्या अपना सकें, अहंकार को त्याग सकें और कष्टसाध्य सेवा साधना में आने को संलग्न कर सकें। यह इसलिए और भी अधिक कठिन है कि उन्हें आरम्भिक प्रेरणा व्यक्तिवादी स्वार्थपरता की पूर्ति से मिली है। उनका मन, मस्तिष्क इसी लाभ ने आकर्षित किया है। लोक में धन, सम्मान,परलोक में स्वर्ग−मुक्ति का लाभ तनिक −सा वेष बदलने भर से मिल सकता है। यही आकर्षण उन्हें इस राह पर खींच कर लाया है।

दूसरों का शोषण अपनी स्वार्थ −सिद्धि जिन्हें उपयुक्त जंची है, उन्हीं ने इस मार्ग पर छलाँग लगाई है। यदि उन्हें आरम्भ में ही तप, त्याग,संयम,सेवा की बात कही जाती तो कदाचित वे साधु बनने के लिए कदापि तैयार न होते। इस आन्तरिक दुर्बलता का लगातार पोषण ही होता रहा है, समर्थन ही मिलता रहा है। अब वे अपनी मूल मान्यताएँ बदलें तभी उन्हें सेवा−साधना की बात जँच−रुच। यह इतना कठिन है, जिसे लगभग असम्भव भी कहा जा सकता है। जो लोग संसार को माया कहते हैं, सेवा का शूद्रों का कार्य बताते रहे हैं, जिन्हें” तोहि बिरानी क्या पड़ी, तू अपनी निरबेर “ की बात आदि से अन्त तक सुनने को मिलती रही हैं, वे परम गहन सेवा−धर्म स्वीकार करने का, प्रभू समर्पित जीवन जीने का साहस कर सकेंगे,ऐसी आशा नहीं ही की जानी चाहिए।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1974 पृष्ठ 22

http://literature.awgp.org/hindi/akhandjyoti/1974/January/v1.22

👉 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति (भाग 17)

👉 कर्मफल के सिद्धान्त को समझना भी अनिवार्य

कर्मसु कौशलम् -- यानि कि कर्मों में कुशलता की सीख जरूरी है। और यह तभी सम्भव है, जब कर्मफल सिद्धान्त को समझा जाय। इसे समझे बिना आध्यात्मिक चिकित्सा सम्भव नहीं। जीवन की आध्यात्मिक दृष्टि कहती है कि उपयुक्त कारण के बिना कोई कार्य हो नहीं सकता। यदि जिन्दगी में कुछ घटित हो रहा है- तो इसके पीछे किन्हीं कारणों का होना आवश्यक है। फिर ये रोग- शोक पैदा करने वाली घटनाएँ हो अथवा हर्ष- उल्लास के उत्प्रेरक घटनाक्रम। जीवन की किसी घटना को संयोग कहकर टालने की कोशिश करना पूरी तरह से अवैज्ञानिक है। सच तो यह है कि प्रकृति के सम्पूर्ण परिदृश्य में कभी भी- कहीं भी संयोग घटित नहीं होते। प्रत्येक घटना उपयुक्त कारणों के गर्भ से जन्म लेती है। प्रत्येक फल बीज के समुचित विकास का परिणाम होता है।

कई बार ऐसा होता है कि हम किसी घटनाक्रम के लिए जिम्मेदार उपयुक्त कारणों को ढूँढने में असफल रहते हैं। और अपनी इस असफलता को संयोगों के मत्थे मढ़कर छुट्टी पा लेते हैं। लेकिन यह प्रक्रिया सिरे से गलत है। इसे गैर जिम्मेदारी के सिवा और कुछ नहीं कहा जा सकता। प्रत्येक वर्तमान का अतीत होता है, और इसका भविष्य भी। अतीत के गर्भ के बिना कोई वर्तमान अपना अस्तित्त्व नहीं पा सकता। इसी तरह वर्तमान के कार्यों की परिणति भविष्य में अपना सुफल अथवा कुफल प्रकट किए बिना नहीं रहेगी। घटना छोटी हो या बड़ी- प्रत्येक के साथ यही नियम विधान काम करता है। इसे अस्वीकारने अथवा झुठलाने की कोशिश अज्ञान जनित मूढ़ता के सिवा और कुछ नहीं।

कर्मफल विधान की यही सच्चाई हमारी अपनी जिन्दगी के साथ जुड़ी हुई है। हमारा यह जीवन- यह मनुष्य जन्म किन्हीं संयोगों के कारण नहीं उपजा या पनपा है। इसके पीछे हमारे ही द्वारा किए गए कुछ सुनिश्चित कर्म हैं। हमारी बचपन की किलकारियाँ, किशोरवय की कुहेलिकाएँ, यौवन का पौरूष, बुढ़ापे की लाचारी के जिम्मेदार हमारे अपने सिवा और कोई नहीं। परमात्मा कभी किसी के प्रति भेद- भाव नहीं करते। उनकी कृपा या कोप के पीछे हमारे अपने ही सत्कर्म या दुष्कर्म जिम्मेदार होते हैं। जिन्दगी में सुख आएँ अथवा दुःख उनके कारण केवल हम होते हैं। हमारी जिन्दगी की छोटी या बड़ी, सुखद अथवा दुःखद परिस्थितियों के लिए हमारे सिवा कोई भी दूसरा जिम्मेदार नहीं।

जो जीवन की, प्रकृति की, कर्मफल के नियम की, परमेश्वर के समर्थ विधान की इस सच्चाई को जानते हैं, उन्हीं को विवेकवान कहा जा सकता है। अपने जीवन की जिम्मेदारी स्वीकारने वाले ऐसे कुशल व्यक्ति ही इसे संवारने का सच्चा प्रयत्न कर पाते हैं। अन्यथा और लोग तो अपने गैर जिम्मेदाराना रवैये के कारण अपनी विपन्नताओं का दोष दूसरों के माथे थोपते रहते हैं। इनकी विषम परिस्थितियों के लिए कभी तो भगवान् जिम्मेदार होता है, तो कभी भाग्य, कभी कोई मित्र तो कभी कोई शत्रु। हां जब कोई सुखद परिस्थितियाँ इनके जीवन में आती हैं, तो इनकी अहंता का पारा यकायक चढ़ जाता है। और इसका श्रेय लेने में ये किसी भी तरह से नहीं चूकते। ऐसे लोगों का जीवन हमेशा ही विडम्बना भरी कहानी बना रहता है।

जिन्हें जिन्दगी की आध्यात्मिक चिकित्सा में रुचि या रस है, उनसे समझदारी की अपेक्षा है। इसके लिए वे पूरी ईमानदारी से अपनी जिन्दगी की जिम्मेदारी को स्वीकारें और बहादुरी से इसे निभाएँ। इस रीति को निभाए बगैर महानतम आध्यात्मिक चिकित्सक भी हमारी कारगर चिकित्सा न कर पाएगा। युगऋषि गुरुदेव का कहना था कि कर्मफल विधान आध्यात्मिक चिकित्सा का सर्वमान्य सिद्धान्त है। इसे समझे और स्वीकारे बिना किसी की कोई भी मदद सम्भव नहीं।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति

👉 The Absolute Law Of Karma (Part 27)

THE RELATIVITY OF VIRTUES AND SINS

Each individual has his own personal perspective of people, places, things and events. On account of the confusion of perspective, one finds the world bad, whereas the other sees only goodness in it. Throw away the cobwebs of your old biased perspectives. Use your third eye of wisdom to see through the illusions of your old world. Let your present wicked world (Kaliyug) destroy itself and in its place create your own Golden Age (Satyug) in your inner psyche. Stop being deluded by the darkness of the world (Tamogun) and focus your vision at the brightness (Satogun). You will find the world changing into heaven.

When you change your field of vision, you will find your disobedient son/ daughter changing into an obedient one. Your worst enemies, quarrelsome wife and hypocritic neighbours will appear totally different. Actually, the factor of negativity in the character or behaviour of a person is usually very small.

Antagonism in the mind of the observer magnifies it manifold. Suppose your husband or wife does not behave as per your expectations because of preoccupation or some other valid reason; when you are not aware of it, you are likely to take it as an affront and become resentful or angry. With the anger, the evil traits lying dormant in the inner recesses of your mind become activated and produce negative mental image of the subject. Darkness makes out a monster out of a bush. Similarly, anger, due to distortion caused by inner turbulence, produces a defiant, disobedient, disrespectful picture of an otherwise simple, innocent person who receives a harsh punishment for a small lapse. On the other hand, this unjust reaction also infuriates the recipient of the undeserved treatment. The counter-reacting angry person too begins to see wickedness, foolishness, cruelty and many other negative traits in the other person. On repetition of such trivial incidents, the two imaginary ghost personalities continue to grow and their confrontations convert two simple – hearted warmly related persons into bitter antagonists.

.... to be continue
✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya
📖 The Absolute Law Of Karma Page 48

मंगलवार, 18 जून 2019

The Cause of Failure | असफलताओं का कारण | Hariye Na Himmat Day 14



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वह शक्ति हमें दो दयानिधे | Vah Shakti Hame Do Dayanidhe



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Forget Painful Memories | दुःखद स्मृतियों को भूलो | Hariye Na Himmat D...



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👉 विष को अमृत बना लीजिए।

शायद तुम्हारा मन अपने दुस्स्वभावों को छोड़ने के लिए तैयार नहीं होता। काम क्रोध लोभ मोह के चंगुल में तुम जकड़े हुए हो और जकड़े ही रहना चाहते हो। अच्छा तो एक काम करो। इन चारों का ठीक ठीक स्वरूप समझ लो। इनको ठीक तरह प्रयोग में लाना सीख लो। तो तुम्हारा काम चल जायेगा।

कामना करना कोई बुरी बात नहीं है। अब तक तुम गुड़ की कामना करते थे अब मिठाई की इच्छा करो। स्त्री, पुत्र, धन, यश आदि के लाभ छोटे, थोड़े नश्वर और अस्थिर हैं, तुम्हें एक कदम आगे बढ़कर ऐसे लाभ की कामना करनी होगी जो सदा स्थिर रहे और बहुत सुखकर सिद्ध हो। धन ऐश्वर्य को तलाश करने के लिए तुम्हें बाहर ढूँढ़ खोज करनी पड़ती है पर अनन्त सुख का स्थान तो बिल्कुल पास अपने अन्तःकरण में ही है। आओ, हृदय को साफ कर डालो, कूड़े कचरे को हटाकर दूर फेंक दो और फिर देखो कि तुम्हारे अपने खजाने में ही कितना ऐश्वर्य दबा पड़ा है।

अपने विरोधियों पर तुम्हें क्रोध आ जाता है सो ठीक ही है। देखो, तुम्हारे सबसे बड़े शत्रु कुविचार हैं, ये तेजाब की तरह तुम्हें गलाये डाल रहे हैं और घुन की तरह पीला कर रहे हैं। उठो, इन पर क्रोध करो। इन्हें जी भरकर गालियाँ दो और जहाँ देख पाओ वहीं उनपर बसर पड़ो। खबरदार कर दो कि कोई कुविचार मेरे घर न आवें, अपना काला मुँह मुझे न दिखावें वरना उसके हक में अच्छा न होगा।

लोभ- अरे लोभ में क्या दोष? यह तो बहुत अच्छी बात है। अपने लिए जमा करना ही चाहिए इसमें हर्ज क्या है? तुम्हें सुकर्मों की बड़ी सी पूँजी संग्रह करना उचित है, जिसके मधुर फल बहुत काल तक चखते रहो। दूसरे लोग जिन्होंने अपना बीज कुटक लिया और फसल के वक्त हाथ हिलाते फिरेंगे, तब उनसे कहना कि ऐ उड़ाने वालो, तुम हो जो टुकड़े टुकड़े को तरसते हो और मैं हूँ जो लोभ के कारण इकट्ठी की हुई अपनी पूँजी का आनन्द ले रहा हूँ।

मोह अपनी आत्मा से करो। अब भूख लगती है तो घर में रखी हुई सामग्री खर्च करके भूख बुझाते हैं। सर्दी गर्मी से बचने के लिए कपड़ों को पहनते हैं और उनके फटने की परवाह नहीं करते। शरीर को सुखी बनाने के लिए दूसरी चीजों की परवाह कौन करता है? फिर तुम्हें चाहिए कि आत्मा की रक्षा के लिए सारी संपदा और शरीर की भी परवाह न करो। जब मोह ही करना है तो कल नष्ट हो जाने वाली चीजों से क्यों करना? अपनी वस्तु आत्मा है। उससे मोह करो, उसको प्रसन्न बनाने के लिए उद्योग करो।

📖 अखण्ड ज्योति दिसम्बर 1943 पृष्ठ 32

सोमवार, 17 जून 2019

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 17 June 2019


👉 आज का सद्चिंतन 17 June 2019


👉 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति (भाग 16)

👉 नैतिकता की नीति, स्वास्थ्य की उत्तम डगर

कभी- कभी तो ये रोग इतने विचित्र होते हैं कि इन्हें महावैद्य भी समझने में विफल रहते हैं। घटना महाभिषक आर्य जीवक के जीवन की है। आर्य जीवक तक्षशिला के स्नातक थे। आयुर्विज्ञान में उन्होंने विशेषज्ञता हासिल की थी। गरीब- भिक्षुक से लेकर धनपति श्रेष्ठी एवं नरपति सम्राट सभी उनसे स्वास्थ्य का आशीष पाते थे। मरणासन्न रोगी को अपनी चमत्कारी औषधियों से निरोग कर देने में समर्थ थे आर्य जीवक। उनकी औषधियों एवं चिकित्सा के बारे में अनेकों कथाएँ- किंवदन्तियों प्रचलित थी। युवराज अभयकुमार एवं सम्राट बिम्बसार भी उनकी प्रशंसा करते नहीं थकते थे।

ऐसे समर्थ चिकित्सक जीवक अपने एक रोगी को लेकर चिन्तित थे। इस रोगी का रोग भी बड़ा विचित्र था। यूं तो वह सभी तरह से स्वस्थ था, बस उसे तकलीफ इतनी थी कि उसकी दायीं आँख नहीं खुलती थी। इस परेशानी को लेकर जीवक अपनी सभी तरह की चिकित्सकीय पड़ताल कर चुके थे। कहीं कोई कमी नजर नहीं आ रही थी। शरीर के सभी अंगों के साथ आँख के सभी अवयव सामान्य थे। आर्य जीवक को समझ में नहीं आ रहा था- क्या करें? हार- थक कर उन्होंने अपनी परेशानी महास्थविर रेवत को कह सुनायी। महास्थविर रेवत भगवान् तथागत के समर्थ शिष्य थे। मानवीय चेतना के सभी रहस्यों को वह भली- भाँति जानते थे।

जीवक की बातों को सुनकर पहले तो उन्होंने एकपल को अपने नेत्र बन्द किए, फिर हल्के से हँस दिए। जीवक उनके मुख से कुछ सुनने के लिए बेचैन थे। उनकी बेचैनी को भांपते हुए महाभिक्षु रेवत ने कहा- महाभिषक जीवक, तुम्हारे रोगी की समस्या शारीरिक नहीं मानसिक है। उसने अपने जीवन में नैतिकता की नीति की अवहेलना की है। इसी वजह से वह मानसिक ग्रन्थि का शिकार हो गया है। उसकी मानसिक परेशानी ही इस तरह शारीरिक विसंगति के रूप में प्रत्यक्ष है। इसका समाधान क्या है आर्य? जीवक बोले। इसे लेकर तुम भगवान् बुद्ध के पास जाओ। प्रभु के प्रेम की ऊष्मा से इसे अपनी मनोग्रन्थि से मुक्ति मिलेगी। और यह ठीक हो जाएगा।

जीवक उसे लेकर भगवान् के पास गए। भगवान् के पास पहुँचते ही उस रोगी युवक ने अपने मन की व्यथा प्रभु को कह सुनायी। अपने अनैतिक कार्यों को प्रभु के सामने प्रकट करते हुए उसने क्षमा की प्रार्थना की। भक्तवत्सल भगवान् ने उसे क्षमादान करते हुए कहा- वत्स नैतिक मर्यादाएँ हमेशा पालन करनी चाहिए। आयु, वर्ग, योग्यता, देश एवं काल के क्रम में प्रत्येक युग में नैतिकता की नीति बनायी जाती है। इसका आस्थापूर्वक पालन करना चाहिए। नैतिकता की नीति का पालन करने वाला आत्मगौरव से भरा रहता है। जबकि इसकी अवहेलना करने वालों को आत्मग्लानि घेर लेती है।

प्रभु के वचनों ने उस युवक को अपार शान्ति दी। उसे अनायास ही अपनी मनोग्रन्थि से छुटकारा मिल गया। जीवक को तब भारी अचरज हुआ, जब उन्होंने उसकी दायीं आँख को सामान्यतया खुलते हुए देखा। अचरज में पड़े जीवक को सम्बोधित करते हुए भगवान् तथागत ने कहा- आश्चर्य न करो वत्स जीवक, नैतिकता की नीति स्वास्थ्य की उत्तम डगर है। इस पर चलने वाला कभी अस्वस्थ नहीं होता। वह स्वाभाविक रूप से शारीरिक एवं मानसिक रूप से स्वस्थ होता है। जो इसे जानते हैं, वे कर्मसु कौशलम् के रहस्य को जानते हैं।


.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति

👉 The Absolute Law Of Karma (Part 26)

THE RELATIVITY OF VIRTUES AND SINS

Taken together, virtues in this world are far in excess of vices. No doubt, immorality is also there, but morality is much more prevalent. There is more enlightenment than ignorance in this world. There are bad people everywhere in the world, but they have more virtues than vices in them. We should keep in sight only the goodness of the world, enjoy the beauty of the virtuous
and work for enhancement of these virtues.

Nature has made a provision of day and night to teach us how to behave in the world. During the day we keep awake, take advantage of the sunlight for working and prefer to live in an illuminated place, than in darkness. Light gives us the advantage of acquiring knowledge through sight. When darkness of night descends, we go to sleep or, if required to work, use artificial light. Because of the natural structure of eyes, man intrinsically prefers to live in an illuminated environment. Light makes our perspective illuminated. In the light we clearly see objects as they are and dispel our ignorance about them. It shows that we should ignore the dark side of the world and become more enlightened by preferring to look only at the brighter aspects of human personalities i.e. virtues.

We should make an endeavour to enjoy, imbibe and encourage only the virtuous traits in a person. It does not mean that we close our eyes to the blemishes. Be aware of the vices but do not get involved in them. There is that well known story of Rishi Dattatreya. As long as he continued to compare the bright and dark aspects of life he remained troubled and unhappy. When he concentrated only on the positive aspects of creation, he found that in this world all living creatures were sacred and adorable. He realized that he could learn something from each of them. It is said that he acquired his spiritual insights from twenty-four beings (teachers). Amongst these were insignificant creatures like dog, cat, jackal, spider, fly, vulture, crow etc. He felt that no animate being was despicable, that each one had within it, the soul, which is a spark of that Super-Being, that each was a link in the spiraling chain of evolution. When we make ourselves receptive to virtues, the field of vision changes. Shortcomings are overlapped by excellence, wickedness by goodness and prevalence of unhappiness by abundance of things of joy. The world that we earlier thought to be full of wicked people now appears rich with decent, well-mannered, altruistic and aspiring persons.

.... to be continue
✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya
📖 The Absolute Law Of Karma Page 46

रविवार, 16 जून 2019

👉 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति (भाग 15)

👉 नैतिकता की नीति, स्वास्थ्य की उत्तम डगर

नैतिकता की नीति पर चलते हुए स्वास्थ्य के अनूठे वरदान पाए जा सकते हैं। इसकी अवहेलना जिन्दगी में सदैव रोग- शोक, पीड़ा- पतन के अनेकों उपद्रव खड़े करती है। अनैतिक आचरण से बेतहाशा प्राण ऊर्जा की बर्बादी होती है। साथ ही वैचारिक एवं भावनात्मक स्तर पर अनगिनत ग्रन्थियाँ जन्म लेती हैं। इसके चलते शारीरिक स्वास्थ्य के साथ चिन्तन, चरित्र एवं व्यवहार का सारा ताना- बाना गड़बड़ा जाता है। आधुनिकता, स्वच्छन्दता एवं उन्मुक्तता के नाम पर इन दिनों नैतिक वर्जनाओं व मर्यादाओं पर ढेरों सवालिया निशान लगाए जा रहे हैं। इसे पुरातन ढोंग कहकर अस्वीकारा जा रहा है। नयी पीढ़ी इसे रूढ़िवाद कहकर दरकिनार करती चली जा रही है। ऐसा होने और किए जाने के दूषित दुष्परिणाम आज किसी से छुपे नहीं हैं।

हालाँकि नयी पीढ़ी के सवाल नैतिकता क्यों? की अनदेखी नहीं की जानी चाहिए। इसका उपयुक्त जवाब देते हुए उन्हें इसके वैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक प्रभावों का बोध कराया जाना चाहिए। प्रश्र कभी भी गलत नहीं होते, गलत होती है प्रश्रों की अवहेलना व उपेक्षा। इनके उत्तर न ढूँढ पाने के किसी भी कारण को वाजिब नहीं ठहराया जा सकता। ध्यान रहे प्रत्येक युग अपने सवालों के हल मांगता है। नयी पीढ़ी अपने नए प्रश्रों के ताजगी भरे समाधान चाहती है। नैतिकता क्यों? यह युग प्रश्र है। इस प्रश्र के माध्यम से नयी पीढ़ी ने नए समाधान की मांग की है। इसे परम्परा की दुहाई देकर टाला नहीं जा सकता। ऐसा करने से नैतिकता की नीति उपेक्षित होगी। और इससे होने वाली हानियाँ बढ़ती जाएँगी। 

नैतिकता क्यों? इस प्रश्र का सही उत्तर है- ऊर्जा के संरक्षण एवं ऊर्ध्वगमन हेतु। इस प्रक्रिया में शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य के सभी रहस्य समाए हैं। अनैतिक आचरण से प्राण ऊर्जा के अपव्यय की बात सर्वविदित है। हो भी क्यों नहीं- अनैतिकता से एक ही बात ध्वनित होती है- इन्द्रिय विषयों का अमर्यादित भोग। स्वार्थलिप्सा, अहंता एवं तृष्णा की अबाधित तुष्टि। फिर इसके लिए कुछ भी क्यों न करना पड़े। प्राण की सम्पदा जब तक है- तब तक यह सारा खेल चलता रहता है। लेकिन इसके चुकते ही जीवन ज्योति बुझने के आसार नजर आने लगते हैं।

इतना ही नहीं, ऐसा करने से जो वर्जनाएँ टूटती हैं, मर्यादाएँ ध्वस्त होती हैं, उससे अपराध बोध की ग्रन्थि पनपे बिना नहीं रहती। वैचारिक एवं भावनात्मक तल पर पनपी हुई ग्रन्थियों से अन्तर्चेतना में अनगिन दरारें पड़ जाती हैं। समूचा व्यक्तित्व विशृंखलित- विखण्डित होने लगता है। दूसरों को इसका पता तब चलता है, जब बाहरी व्यवहार असामान्य हो जाता है। यह सब होता है अनैतिक आचारण की वजह से। अभी हाल में पश्चिमी दुनिया के एक विख्यात मनोवैज्ञानिक रूडोल्फ विल्किन्सन ने इस सम्बन्ध में एक शोध प्रयोग किया है। उन्होंने अपने निष्कर्षों को ‘साइकोलॉजिकल डिसऑडर्स ः कॉज़ एण्ड इफेक्ट’ नाम से प्रकाशित किया है। इस निष्कर्ष में उन्होंने इस सच्चाई को स्वीकारा है कि नैतिकता की नीति पर आस्था रखने वाले लोग प्रायः मनोरोगों के शिकार नहीं होते। इसके विपरीत अनैतिक जीवन यापन करने वालों को प्रायः अनेक तरह के मनोरोगों के शिकार होते देखा गया है।

समाज मनोविज्ञानी एरिक फ्रॉम ने अपने ग्रन्थ ‘मैन फॉर- हिमसेल्फ’ में भी यही सच्चाई बयान की है। उनका कहना है कि अनैतिकता मनोरोगों का बीज है। विचारों एवं भावनाओं में इसके अंकुरित होते ही मानसिक संकटों की फसल उगे बिना नहीं रहती। योगिवर भतृहरि ने वैराग्य शतक में इसकी चर्चा में कहा है- ‘भोगे रोग भयं’ यानि कि भोगों में रोग का भय है। इसे यूं भी कह सकते हैं कि भोग होंगे तो रोग पनपेंगे ही। नैतिक वर्जनाओं की अवहेलना करने वाला निरंकुश भोगवादी रोगों की चपेट में आए बिना नहीं रहता। इनकी चिकित्सा नैतिकता की नीति के सिवा और कुछ भी नहीं।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति

शनिवार, 15 जून 2019

प्रेम एक महान शक्ति | Love, a Great Power | Hariye Na Himmat Day 13



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👉 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति (भाग 14)

👉 आध्यात्मिक चिकित्सा का मूल है आस्तिकता

तमिलनाडु के तिरूवन्नामल्लाई स्थान पर साधना करने वाले योगिवर रमण। पवित्र पर्वत अरूणाचलम् में तप कर रहे सन्त रमण महर्षि। इस नाम ने उनके हृदय के तारों में एक मधुर झंकार पैदा कर दी। उन्हें ऐसा लगा जैसे कि महर्षि अपने अदृश्य स्वरों से उन्हें आमंत्रित कर रहे हों। स्वर अनजाने थे, पर पुकार आत्मीय थी। वह चल पड़े। कुछ एक दिनों में अपनी इस यात्रा को पूरा कर वह पवित्र पर्वत अरूणाचलम् के पदभ्रान्त में पहुँच गए। यहाँ पहुँचकर उन्हें पता चला कि महर्षि अभी अपनी गुफा में हैं। हो सकता है कि वे साँझ को नीचे उतरें। पॉल ब्रॉन्टन के लिए यह साँझ की प्रतीक्षा बड़ी कष्टकारी थी। फिर भी उन्होंने धैर्यपूर्वक यह समय गुजारा।

प्रतीक्षा के क्षण बीतने पर महर्षि से उनकी मुलाकात हुई। इस मिलन के प्रथम क्षण में ही उन्होंने अपनी जिज्ञासा उड़ेल दी, आस्तिकता क्या है? ईश्वर है भी या नहीं? उनके इस सवालों पर महर्षि हँस पड़े और बोले- पहले यह बताओ कि तुम हो या नहीं और यदि तुम हो तो तुम कौन हो? उनके सहज प्रश्रों के उत्तर में महर्षि के अटपटे प्रश्र। पॉल ब्रॉन्टन कुछ कह सके, पर महर्षि के व्यक्तित्व की पारदर्शी सच्चाई ने उन्हें गहरे तक छू लिया। महर्षि की बातों में उन्हें सत्य का दर्शन हुआ। और वे मैं कौन हूँ? इस प्रश्र का समाधान पाने में जुट गए।

पॉल ब्रान्टन की जिज्ञासा तीव्र थी। उनकी भावनाएँ सच्ची थी, फिर उनमें लगन की भी कोई कमी न थी। महर्षि का प्रश्र ही उनका ध्यान बन गया। वह अपने अस्तित्व की परत- दर भेदते हुए गहनता में उतरते चले गए। ज्यों- ज्यों वह अपनी गहराई में उतरते- उनका अचरज बढ़ता जाता। परिधि में सीमाएँ थीं, परन्तु केन्द्र में असीमता की अनुभूति थी। मैं की सच्ची पहचान में उन्हें ईश्वर की पहचान भी मिल गयी। आस्तिकता के अस्तित्व का बोध भी हो गया। जब वह वापस महर्षि के पास पहुँचे तो उनके होठों पर बड़ी करुणापूर्ण मुस्कान थी। पॉल ब्रॉन्टन को देखकर वह बोले, पुत्र आस्तिकता आध्यात्मिक चिकित्सा की एक विधि है। जीवन का सारा दुःख इसके अधूरेपन की अनुभूति में है। जब कोई इसे सम्पूर्णता में अनुभव करता है तो उसके सारे सन्ताप शमित हो जाते हैं। अपनी अन्तरात्मा में ही उसे परमात्मा की झाँकी मिलती है। स्वयं के जीवन में ही जगत् के विस्तार का बोध होता है। हालाँकि इस अनुभूति के लिए नैतिकता की नीति का अनुसरण करना जरूरी है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ 20

👉 आज का सद्चिंतन 15 June 2019


👉 प्रेरणादायक गुरुदेव का सन्देश


👉 अध्यात्म से मानव-जीवन का चरमोत्कर्ष (अंतिम भाग)

पूर्वकालीन ऋषि मुनियों ने भी उच्च स्तरीय अध्यात्म में सहसा छलाँग नहीं लगाई। उन्होंने भी अभ्यास द्वारा पहले अपने बाह्य जीवन को ही परिष्कृत किया और तब क्रम क्रम से उस आत्मिक जीवन में उच्च साधना के लिये पहुँचे थे। इस नियम का-कि पहले बाह्य जीवन में व्यावहारिक अध्यात्म का समावेश करके उसे सुख शान्तिमय बनाया जाय। इस प्रसंग में जो भी पुण्य परमार्थ अथवा पूजा उपासना अपेक्षित हो उसे करते रहा जाये। लौकिक जीवन को सुविकसित एवं सुसंस्कृत बना लेने के बाद ही आत्मिक अथवा अलौकिक जीवन में प्रवेश किया जाय-उल्लंघन करने वाले कभी सफलता के अधिकारी नहीं बन सकते। लौकिक जीवन की निकृष्टता आत्मिक जीवन के मार्ग में पर्वत के समान अवरोध सिद्ध होती है।

अध्यात्म मानव जीवन के चरमोत्कर्ष की आधार शिला है, मानवता का मेरुदण्ड है। इसके अभाव में असुखकर अशान्ति एवं असन्तोष की ज्वालाएँ मनुष्य को घेरे रहती है। मनुष्य जाति की अगणित समस्याओं को हल करने और सफल जीवन जीने के लिये अध्यात्म से बढ़कर कोई उपाय नहीं है। पूर्वकाल में, जीवन में सुख समृद्धियों के बहुतायत के कारण जिस युग को सतयुग के नाम से याद किया जाता है, उसमें और कोई विशेषता नहीं थी-यदि विशेषता थी तो यह कि उस युग के मनुष्यों का जीवन अध्यात्म की प्रेरणा से ही अनुशासित रहता था। आज उस तत्व की उपेक्षा होने से जीवन में चारों ओर अभाव, अशान्ति और असन्तोष व्याप्त हो गया है और इन्हीं अभिशापों के कारण ही आज का युग कलियुग के कलंकित नाम से पुकारा जाता है।

अपने युग का यह कलंक आध्यात्मिक जीवन पद्धति अपनाकर जब मिटाया जा सकता है तो क्यों न मिटाया जाना चाहिये? मिटाया जाना चाहिये और अवश्य मिटाया जाना चाहिये। अपने युग को लाँछित अथवा यशस्वी बनाना उस युग के मनुष्यों पर ही निर्भर है, तब क्यों न हम सब जीवन में आध्यात्मिक पद्धति का समावेश कर अपने युग को भी उतना ही सम्मानित एवं स्मरणीय बना दें, जितना कि सतयुग के मनुष्यों ने अपने आचरण द्वारा अपने युग को बनाया था?

.... समाप्त
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1969 पृष्ठ 10

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1969/January/v1.10

👉 The Absolute Law Of Karma (Part 25)

THE RELATIVITY OF VIRTUES AND SINS

The qualitative assessment of good and evil is always relative. On the scale of virtue you will find persons, who belong to a grade lower than yours, those who are in the same grade as your own; and others who have a much higher grade than yours. Suppose you are studying in a college. You may consider the persons with the highest character (Satoguni) studying in a class senior to your own, your classmates as students of the intermediate class (Rajoguni) and the juniors, being educated in the lower class (Tamoguni). However, as mentioned earlier, this relationship of moral status is relative. For instance, in comparison to a bandit, a thief is more virtuous (has more Satogun), because the latter is more humane.

Compared to both the thief and the dacoit, a labourer has more Satogun. A social reformer would have more Satogun than a common man, and a spiritual teacher more than that of the social worker. Thus, on the scale of Satogun, a spiritual teacher stands at a much higher level than a bandit, but he is graded lower than enlightened, liberated soul whose Silent Presence is the greatest of sermons. It does not mean that the dacoit is the most degraded soul. He is better than animal.

The superiority of spiritual status of a person is measured by the number of people being ethically benefited by his altruistic deeds. On the lowest level, a self-centered person acts only for the welfare of his own family. A dacoit does not rob members of his family. A thief does not commit theft in the house of a friend. For a social worker, welfare activities are confined to a particular class or community. The spiritual teacher works for enlightenment of all human beings.

The enlightened souls see all living beings, as manifestations of God, be it man or beast, plant or animal. In a nutshell, in the process of progressive evolution, before attaining self-realization, all living beings are at different stages of conscious awakening. Everyone lives with lack of one virtue or the other. When all impurities are removed, nothing can stop a person from reaching the ultimate state of liberation from cycles of birth and death. This is the ultimate goal of human existence.

.... to be continue
✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya
📖 The Absolute Law Of Karma Page 44

👉 भगवान् की कृपा Bhagwan Ki Kripa

किसी स्थान पर संतों की एक सभा चल रही थी, किसी ने एक घड़े में गंगाजल भरकर वहां रखवा दिया ताकि संतजन को जब प्यास लगे तो गंगाजल पी सकें।

संतों की उस सभा के बाहर एक व्यक्ति खड़ा था, उसने गंगाजल से भरे घड़े को देखा तो उसे तरह-तरह के विचार आने लगे। वह सोचने लगा:- "अहा, यह घड़ा कितना भाग्यशाली है, एक तो इसमें किसी तालाब पोखर का नहीं बल्कि गंगाजल भरा गया और दूसरे यह अब सन्तों के काम आयेगा। संतों का स्पर्श मिलेगा, उनकी सेवा का अवसर मिलेगा, ऐसी किस्मत किसी-किसी की ही होती है।

घड़े ने उसके मन के भाव पढ़ लिए और घड़ा बोल पड़ा:- बंधु मैं तो मिट्टी के रूप में शून्य पड़ा था, किसी काम का नहीं था, कभी नहीं लगता था कि भगवान् ने हमारे साथ न्याय किया है। फिर एक दिन एक कुम्हार आया, उसने फावड़ा मार-मारकर हमको खोदा और गधे पर लादकर अपने घर ले गया। वहां ले जाकर हमको उसने रौंदा, फिर पानी डालकर गूंथा, चाक पर चढ़ाकर तेजी से घुमाया, फिर गला काटा, फिर थापी मार-मारकर बराबर किया।

बात यहीं नहीं रूकी, उसके बाद आंवे के अंदर आग में झोंक दिया जलने को। इतने कष्ट सहकर बाहर निकला तो गधे पर लादकर उसने मुझे बाजार में भेज दिया, वहां भी लोग ठोक-ठोककर देख रहे थे कि ठीक है कि नहीं?

ठोकने-पीटने के बाद मेरी कीमत लगायी भी तो क्या- बस 20 से 30 रुपये, मैं तो पल-पल यही सोचता रहा कि:- "हे ईश्वर सारे अन्याय मेरे ही साथ करना था, रोज एक नया कष्ट एक नई पीड़ा देते हो, मेरे साथ बस अन्याय ही अन्याय होना लिखा है।"

भगवान ने कृपा करने की भी योजना बनाई है यह बात थोड़े ही मालूम पड़ती थी। किसी सज्जन ने मुझे खरीद लिया और जब मुझमें गंगाजल भरकर सन्तों की सभा में भेज दिया तब मुझे आभास हुआ कि कुम्हार का वह फावड़ा चलाना भी भगवान् की कृपा थी। उसका वह गूंथना भी भगवान् की कृपा थी, आग में जलाना भी भगवान् की कृपा थी और बाजार में लोगों के द्वारा ठोके जाना भी भगवान् की कृपा ही थी।

अब मालूम पड़ा कि सब भगवान् की कृपा ही कृपा थी। परिस्थितियां हमें तोड़ देती हैं, विचलित कर देती हैं- इतनी विचलित की भगवान के अस्तित्व पर भी प्रश्न उठाने लगते हैं। क्यों हम सबमें इतनी शक्ति नहीं होती ईश्वर की लीला समझने की, भविष्य में क्या होने वाला है उसे देखने की? इसी नादानी में हम ईश्वर द्वारा कृपा करने से पूर्व की जा रही तैयारी को समझ नहीं पाते।

बस कोसना शुरू कर देते हैं कि सारे पूजा-पाठ, सारे जतन कर रहे हैं फिर भी ईश्वर हैं कि प्रसन्न होने और अपनी कृपा बरसाने का नाम ही नहीं ले रहे। पर हृदय से और शांत मन से सोचने का प्रयास कीजिए, क्या सचमुच ऐसा है या फिर हम ईश्वर के विधान को समझ ही नहीं पा रहे? आप अपनी गाड़ी किसी ऐसे व्यक्ति को चलाने को नहीं देते जिसे अच्छे से ड्राइविंग न आती हो तो फिर ईश्वर अपनी कृपा उस व्यक्ति को कैसे सौंप सकते हैं जो अभी मन से पूरा पक्का न हुआ हो।

कोई साधारण प्रसाद थोड़े ही है ये, मन से संतत्व का भाव लाना होगा। ईश्वर द्वारा ली जा रही परीक्षा की घड़ी में भी हम सत्य और न्याय के पथ से विचलित नहीं होते तो ईश्वर की अनुकंपा होती जरूर है, किसी के साथ देर तो किसी के साथ सवेर।

यह सब पूर्वजन्मों के कर्मों से भी तय होता है कि ईश्वर की कृपादृष्टि में समय कितना लगना है। घड़े की तरह परीक्षा की अवधि में जो सत्यपथ पर टिका रहता है वह अपना जीवन सफल कर लेता है।

शुक्रवार, 14 जून 2019

👉 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति (भाग 13)

👉 आध्यात्मिक चिकित्सा का मूल है आस्तिकता

वैज्ञानिक समुदाय को हार मानकर यह बात स्वीकारनी पड़ी कि जीवन के सभी तन्तु एक दूसरे से गहराई से गुँथे हैं। जीवन और जगत् अपनी गहराइयों में परस्पर जुड़े हैं। इन्हें अलग समझना भारी भूल है। ये वैज्ञानिक निष्कर्ष ही प्रकारान्तर से इकॉलॉजी, इकोसिस्टम, डीप इकॉलॉजी एवं इन्वायरन्मेटल साइकोलॉजी जैसी शब्दावली के रूप में प्रकाशित हुए। इन तथ्यों को यदि अहंकारी हठवादिता को त्यागते हुए स्वीकारें तो इसे आस्तिकता के अस्तित्व की स्वीकारोक्ति ही कहेंगे। इस वैज्ञानिक निष्कर्ष के बारे में युगों पूर्व श्रीमद्भगवद्गीता में कहा गया था- ‘सूत्रे मणिगणाइव’। यानि कि जीवन के सभी रूप एक परम दिव्य चेतना के सूत्र में मणियों की भाँति गुँथे हैं। उपनिषदों ने इसी सच्चाई को ‘अयमात्मा ब्रह्म’ कहकर प्रतिपादित किया। इसका मतलब यह है कि यह मेरी अन्तरात्मा ही ब्राह्मी चेतना का विस्तार है। इसे यूँ भी कहा जा सकता है कि अपने जीवन का भाव भरा विस्तार ही यह जगत् है। अपने विस्तार में ही समष्टि है।

उपनिषद् युग की इन अनुभूतियों को कई मनीषी इस वैज्ञानिक युग में भी उपलब्ध कर रहे हैं। और यही वजह है कि उन्होंने आस्तिकता को आध्यात्मिक चिकित्सा के सर्वमान्य सिद्धान्त के रूप में मान्यता दी है। इन्हीं में एक टी.एल. मिशेल का कहना है कि आस्तिकता से इन्कार जीवन चेतना को विखण्डित कर इसे अपंग- अपाहिज बना देता है। इस इन्कार से जीवन में अनेकों नकारात्मक भाव पैदा होते हैं, जिनके बद्धमूल होने से कई तरह के रोगों के होने की सम्भावना पनपती है। उनका यह भी मत है कि यदि आस्तिकता को सही अर्थों में समझा एवं आत्मसात कर लिया जाय तो निजी जिन्दगी में पनपती हुई कई तरह की मनोग्रन्थियों से छुटकारा पाया जा सकता है।

इस सम्बन्ध में अंग्रेज पत्रकार एवं लेखक पॉल ब्रॉन्टन की अनुभूति बहुत ही मधुर है। कई देशों की यात्रा करने के बाद पॉल ब्रॉन्टन भारत वर्ष आए। अपनी खोजी प्रकृति के कारण यहाँ वे कई महान् विभूतियों से मिले। इनमें से कई सिद्ध और चमत्कारी महापुरुष भी थे। लेकिन ये सभी चमत्कार, अचरज से भरे करतब उनकी जिज्ञासाओं का समाधान न दे पाए। इन सारी भेंट मुलाकातों के बावजूद उनके सवाल अनुत्तरित रहे। मन जस का तस अशान्त रहा। वे अपने आप में आध्यात्मिक चिकित्सा की गहरी आवश्यकता महसूस कर रहे थे। पर यह सम्भव कैसे हो? अपने सोच- विचार एवं चिन्तन के इन्हीं क्षणों में उन्हें महर्षि रमण का पता चला।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ 19

मंगलवार, 11 जून 2019

👉 आज का सद्चिंतन परिवर्तन की बेला


👉 प्रेरणादायक स्वामी विवेकानन्द Swami Vivekanand


👉 अध्यात्म से मानव-जीवन का चरमोत्कर्ष (भाग 4)

आज हम सब जिस स्थिति में चल रहे है, उसमें जीवन निर्माण की सरल आध्यात्मिक साधना ही सम्भव है। इस स्तर से शुरू किए बिना काम भी तो नहीं चल सकता। बाह्य जीवन को यथास्थिति में छोड़कर आत्मिक स्तर पर पहुँच सकना भी तो सम्भव नहीं है। अस्तु हमें उस अध्यात्म को लेकर ही चलना होगा, जिसे जीवन जीने की कला कहा गया है। जीवन विषयक अध्यात्म हमारे गुण, कर्म, स्वभाव से सम्बन्धित है। हमें चाहिये कि हम अपने में गुणों की वृद्धि करते रहे। ब्रह्मचर्य, सच्चरित्रता, सदाचार, मर्यादा-पालन और अपनी सीमा में अनुशासित रहना आदि ऐसे गुण हैं, जो जीवन जीने की कला के नियम माने गये हैं। व्यसन, अव्यवस्था, अस्तव्यस्तता व आलस्य अथवा प्रमाद जीवनकाल के विरोधी दुर्गुण है। इनका त्याग करने से जीवनकाल को बल प्राप्त होता है। हमारे कर्म भी गुणों के अनुसार ही होने चाहिये। गुण और कर्म में परस्पर विरोध रहने से जीवन में न शांति का आगमन होता है और न प्रगतिशीलता का समावेश। हममें सत्य-निष्ठा का गुण तो हो पर उसे कर्मों में मूर्तिमान् करने का साहस न हो तो कर्म तो जीवन कला के प्रतिकूल होते ही है, वह गुण भी मिथ्या हो जाता है।

सत्कर्म में हमारी आस्था तो हो पर पुण्य परमार्थ की सक्रियता से दूर ही रहें तो जीवन कला के क्षेत्र में यह एक आत्म प्रवंचना ही होगी। इसी प्रकार हमारा स्वभाव भी इन दोनों के अनुरूप ही होना चाहिये। हममें दानशीलता का गुण भी हो और अवसरानुसार सक्रिय भी होता हो, किन्तु उसके साथ यदि अहंकार भी जुड़ा है तो यह उस गुण कर्म का स्वाभाविक विरोध होगा, जो जीवन कला के अनुरूप नहीं है। हम सदाशयी, परमार्थी और सेवाभावी तो हे और कर्मों में अपनी इन भावनाओं को मूर्तिमान् भी करते है, किन्तु यदि स्वभाव से क्रोधी, कठोर अथवा निर्बल है तो इन सद्गुणों और सत्कर्मों का कोई मूल्य नहीं रह जाता। किसी को यदि परोपकार द्वारा सुखी करते है और किसी को अपने क्रोध का लक्ष्य बनाते है तो एक ओर का पुण्य दूसरे ओर के पाप से ऋण होकर शून्य रह जायेगा। गुण, कर्म, स्वभाव तीनों का सामंजस्य एवं अनुरूपता ही वह विशेषता है, जो जीवन जीने की कला में सहायक होती है।

जीवन यापन की वह विधि ही जीवन जीने की कला है, जिसके द्वारा हम स्वयं अधिकाधिक सुखी, शान्त और संतुष्ट रह सकें, साथ ही दूसरों को भी उसी प्रकार रहने में सहयोगी बना सकें और यही वह प्रारम्भिक अध्यात्म है, जिसके द्वारा जीवन निर्माण होता है और आत्मा की सूक्ष्म अध्यात्म साधना का पथ प्रशस्त होता है। हम सबको इसी सरल एवं साध्य अध्यात्म को लेकर क्रम क्रम से आगे बढ़ना चाहिये। सहसा आदि से अन्त पर कूद जाने का प्रयत्न करना एक ऐसी असफलता को आमन्त्रित करना है, जिससे न तो ठीक से जीवन जिया जा सकता है और न उच्च स्तरीय साधना को सामान्य बनाया जा सकता है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1969 पृष्ठ 9

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1969/January/v1.9

👉 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति (भाग 12)

👉 आध्यात्मिक चिकित्सा का मूल है आस्तिकता

आस्तिकता के अस्तित्व को झुठलाना सम्भव नहीं। यह इतना स्पष्ट है जितना कि हम स्वयं, हमारा अपना जीवन। जिन्हें जीवन की सम्पूर्णता का अहसास होता है, वे आस्तिकता की अनुभूति किए बिना नहीं रहते। जो आस्तिकता को नकारते हैं, दरअसल वे जिन्दगी को नकारते हैं, अपने आप को अस्वीकार करते हैं। आस्तिकता का मतलब है, जीवन के होने की सच्ची स्वीकारोक्ति, जीवन और जगत् के सम्बन्धों की सूक्ष्म व सघन अनुभूति। लोक प्रचलन में ईश्वर के प्रति विश्वास या आस्था को आस्तिकता का पर्याय माना जाता है। वैदिक विद्वान ‘नास्तिकोवेद निन्दकः’ कहकर वेदज्ञान के प्रति आस्था को आस्तिकता के रूप में परिभाषित करते हैं।

अपने सार मर्म में, प्रचलन में एवं दर्शन में आस्तिकता के बारे में जो भी कुछ कहा गया है, वह एक ही सच के विविध रूप हैं। कथन और परिभाषाएँ अनेक होने पर भी आस्तिकता का सच एक ही है। जब हम आस्तिकता को ईश्वर के प्रति आस्था कहते हैं, तो इसका मतलब इतना ही है कि हमें समष्टि जीवन के प्रति, सर्वव्यापी अस्तित्व के प्रति आस्थावान होना चाहिए। यही बात वेदज्ञान के बारे में है। वेद का मतलब चार पोथियाँ नहीं हैं। बल्कि यह सत्यज्ञान एवं सत्य विद्या है। परम्परागत ढंग से सोचें तो प्राचीन ऋषिगणों ने जीवन और जगत् की सूक्ष्मताओं एवं गहनताओं का जो ज्ञान पाया वही वेदों में संकलित है। इसकी अवहेलना या उपेक्षा कर के हम जीवन के समग्र विकास को कभी भी नहीं पा सकते।

बीते सालों में विज्ञान के नाम पर आस्तिकता को झुठलाने की अनेकों कोशिशें की गई। कई तरह के व्यंग, कटाक्ष एवं कटूक्तियाँ उच्चारित की गयीं। बात यहाँ तक बढ़ी कि नास्तिकता को वैज्ञानिकता का पर्याय माना जाने लगा। इस उलटी सोच ने अनेकों उलटे काम कराए। समष्टि जीवन चेतना को नकारने से स्वार्थपरता व अहंता को भारी बढ़ावा मिला। प्राकृतिक संसाधनों का अन्धाधुंध दोहन हुआ। मानवीय अहंता की चपेट में आकर जीव- जन्तुओं की अनगिनत प्रजातियाँ नष्ट हुई। इसी के साथ प्राकृतिक संकटों के बादल भी घहराए। पर्यावरण संकट, मौसम के संकट, भाँति- भाँति की बीमारियाँ, महामारियाँ, आपदाएँ इन्सानी जिन्दगी को दबोचने की तैयारियाँ करने लगीं। स्वार्थलिप्सा से ग्रसित अहंकारी मानव को मनोरोगों ने भी धर पटका। यह सब हुआ क्यों? किस तरह? और कैसे? इन सवालों के जवाब की ढूँढ खोज में जब वैज्ञानिक जुटे तो उन्होंने अपने प्रयोगों के निष्कर्ष में यही पाया कि समष्टि चेतना के अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ 18

👉 The Absolute Law Of Karma (Part 24)

YOUR WORLD – A REFLECTION OF YOUR MIND

In this world, we find people complaining about many types of misfortunes and feeling euphoric on insignificant occasions of pleasure. There are habitual pessimists blaming everyone for everything. Expressions like “This world is very bad”; “Times are bad”; “Honesty is a virtue of the past”; “Religion has been buried for good”- are very commonly bandied about. If someone is in the habit of repeating such phrases, he is expressing only the impressions of his mind and you can safely assume that he himself is a cheat and dishonest person.

Man has systematically built the image of his unhappy world by interacting with pessimistic people around himself. If someone is in the habit of complaining about lack of opportunities for work, widespread unemployment, failure of good industries and non-availability of good jobs, take it for granted that his ideosphere is full of thick clouds of indolence, torpor and incompetence. This he finds reflected everywhere in the world. If someone sees this world as full of self-centered hypocrites or sinners or evil and uncivilized persons, infer that the individual himself has an abundance of corresponding negative attributes in his own self. This world is like a magnificent large mirror, which faithfully reflects your ideosphere. As mentioned earlier, elements of this world
precipitate three types of qualitative attributes (Sat, Raj and Tam) in life. Whichever attribute dominates in the personality
of an individual, it attracts its counterpart from the world at large.

Wherever a short-tempered person goes, he finds someone to quarrel with. One who has hatred in mind will always find out an object to be hated. To an unfair person everyone appears, ill-mannered, uncivil and worthy of punishment. Whenever an individual interacts with someone, he/she views the latter in the same light with which his own personality is coloured. A person of impeccable morality rarely comes across a woman of fallen virtue. Scholars do get avenues for right information. Seekers of truth always find opportunities for quenching their thirst for wisdom. Enlightened souls have always been living on this earth. Wherever they live, environment around them attracts virtuous persons.

However, it is not our intention to prove that there is absolutely no evil on this earth and whatever good or bad we find here is totally a reflection of our own field of view. It has been repeatedly stated that in this world, good, average and bad (Sat, Raj and Tam) coexist and one receives what one gets tuned into.

.... to be continue
✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya
📖 The Absolute Law Of Karma Page 42-43

सोमवार, 10 जून 2019

👉 The Absolute Law Of Karma (Part 23)

WHO ARE YOU?

Each individual has different identities for different roles in life. This identity depends on the relationship with the person with whom he/she interacts. For mother he/she may be an object of maternal affection, for father an obedient child, for the teacher an intelligent pupil and for friends a dependable good-humoured buddy. Wife looks at a man as her beloved darling, whereas his son relates to him as his father. The same person appears to his enemy as an adversary; to the shopkeeper as a customer; to the servant as a master; to the horse as a rider; to the caged bird as the jailor. Bed bugs and mosquitoes find him as nothing else but a source of delicious blood. If one could visualize the various mental images, which people have for an individual, it would be found that each person has one’s own peculiar concept and none of these conform to the other. Besides, none of these images identifies the whole individual accurately.

Everyone conceptualizes an individual according to the particular bend with which they are mutually related to each other. It is even more amusing that man himself lives confused in his multi-personal bends. Throughout life he lives with multiple self-identifications. Various thoughts like “I am an adulterer”; “I am wealthy”; “I am old”; “I have no family”; “I am ugly”; “I am popular”; “I am unhappy”; “I am surrounded by vile persons”;……….keep on changing and churning his ideosphere. As other persons form an image about an individual according to their interests, the individual too builds an eccentric lop-sided image of himself based on perceptions of his sense organs. Like a drugged person he keeps on hallucinating in his numerous momentary identities. If he could truly identify with his own inner self, he would be surprised to know how far he has strayed away from Truth. (Read, “What am I” by the author).

Man always lives in a make-believe world created by his own imagination. In this dream world, one man builds castles in the air, the other fights with the windmills like Don Quixote and yet other derives pleasure of embracing and kissing his beloved while fondling his pet dog. Deluded by ignorance, we are all hallucinating in an imaginary world. One thinks that he is living in a palace.

The other trembles because of imaginary fears. Yet another daydreams of being engaged to the most beautiful damsel in the world. Some insane person is found rejoicing in showing off wealth and ‘kingdom’. This world is like a mental asylum where we find all types of mad caps. Each has one’s own eccentricity. Everyone considers himself as the most intelligent person. Go to a mental asylum and observe the fantasies of the long-term inmates. You will find a close parallel to the daydreamers of this world, who very much consider themselves as sane and sober.

.... to be continue
✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya
📖 The Absolute Law Of Karma Page 40-41

👉 Bapu Roti Laya बापू रोटी लाया...

डाइनिंग टेबल पर खाना देखकर बच्चा भड़का, फिर वही सब्जी, रोटी और दाल में तड़का...? मैंने कहा था न कि मैं पिज्जा खाऊंगा, रोटी को बिलकुल हाथ नहीं लगाउंगा! बच्चे ने थाली उठाई और बाहर गिराई...

बाहर थे कुत्ता और आदमी, दोनों रोटी की तरफ लपके.. कुत्ता आदमी पर भोंका, आदमी ने रोटी में खुद को झोंका और हाथों से दबाया.. कुत्ता कुछ भी नहीं समझ पाया उसने भी रोटी के दूसरी तरफ मुहं लगाया..

दोनों भिड़े जानवरों की तरह एक तो था ही जानवर, दूसरा भी बन गया था जानवर.. आदमी ज़मीन पर गिरा, कुत्ता उसके ऊपर चढ़ा कुत्ता गुर्रा रहा था और अब आदमी कुत्ता है या कुत्ता आदमी है कुछ भी नहीं समझ आ रहा था...

नीचे पड़े आदमी का हाथ लहराया, हाथ में एक पत्थर आया कुत्ता कांय-कांय करता भागा.. आदमी अब जैसे नींद से जागा हुआ खड़ा और लड़खड़ाते कदमों से चल पड़ा.... वह कराह रहा था रह-रह कर हाथों से खून टपक रहा था बहते खून के साथ ही आदमी एक झोंपड़ी पर पहुंचा..

झोंपड़ी से एक बच्चा बाहर आया और ख़ुशी से चिल्लाया.. आ जाओ, सब आ जाओ बापू रोटी लाया, देखो बापू रोटी लाया, देखो बापू रोटी लाया..

👉 आज का सद्चिंतन10 June 2019


👉 प्रेरणादायक गायत्री मंत्र की महिमा


👉 अध्यात्म से मानव-जीवन का चरमोत्कर्ष (भाग 3)

वरदायी अथवा अलौकिक ऐश्वर्य का आधार अध्यात्म सामान्य उपासना मात्र नहीं है। उसका क्षेत्र आत्मा के सूक्ष्म संस्थानों की साधना है। उन शक्तियों के प्रबोधन की प्रक्रिया है, जो मनुष्य के अन्तःकरण में बीज रूप में सन्निहित रहती है। आत्मिक अध्यात्म के उस क्षेत्र में एक से एक बढ़कर सिद्धियाँ एवं समृद्धियाँ भरी पड़ी है। किन्तु उनकी प्राप्ति तभी सम्भव है, जब मन, बुद्धि, चित, अहंकार से निर्मित अन्तःकरण पंचकोशों, छहों चक्रों, मस्तिष्कीय ब्रह्म-रन्ध्र में अवस्थित कमल, हृदय स्थित सूर्यचक्र, नाभि की ब्रह्म-ग्रन्थि और मूलाधार वासिनी कुण्डलिनी आदि के शक्ति संस्थानों और कोश-केन्द्रों को प्रबुद्ध, प्रयुक्त और अनुकूलता पूर्वक निर्धारित दिशा में सक्रिय बनाया जा सके। यह बड़ी गहन, सूक्ष्म और योग साध्य तपस्या है। जन्म-जन्म से तैयारी किए हुये कोई बिरले ही यह साधना कर पाते है और अलौकिक सिद्धियों को प्राप्त करते है। यह साधना न सामान्य है और न सर्वसाधारण के वश की।

तथापि असम्भव भी नहीं है। एक समय था, जब भारतवर्ष में अध्यात्म की इस साधना पद्धति का पर्याप्त प्रचलन रहा। देश का ऋषि वर्ग उसी समय की देन है। जो-जो पुरुषार्थी इस सूक्ष्म साधना को पूरा करते गये, वे ऋषियों की श्रेणी में आते गये। यद्यपि आज इस साधना के सर्वथा उपयुक्त न तो साधन है और न समय, तथापि वह परम्परा पूरी तरह से उठ नहीं गई है। अब भी यदाकदा, यत्र-तत्र इस साधना के सिद्ध पुरुष देखे सुने जाते है। किन्तु इनकी संख्या बहुत विरल है। वैसे योग का स्वांग दिखा कर और सिद्धों का वेश बनाकर पैसा कमाने वाले रगें सियार तो बहुत देखे जाते है। किन्तु उच्च स्तरीय अध्यात्म विद्या की पूर्वोक्त वैज्ञानिक पद्धति से सिद्धि की दिशा में अग्रसर होने वाले सच्चे योगी नहीं के बराबर ही है। जिन्होंने साहसिक तपस्या के बल पर आत्मा की सूक्ष्म शक्तियों को जागृत कर प्रयोग योग्य बना लिया होता है, वे संसार के मोह जाल से दूर प्रायः अप्रत्यक्ष ही रहा करते है। शीघ्र किसी को प्राप्त नहीं होते और पुण्य अथवा सौभाग्य से जिसको मिल जाते है, उसका जीवन उनके दर्शनमात्र से ही धन्य हो जाता है।

इतनी बड़ी तपस्या को छोटी-मोटी साधना अथवा थोड़े से कर्मकाण्ड द्वारा पूरी कर लेने की आशा करने वाले बाल-बुद्धि के व्यक्ति ही माने जायेंगे। यह उच्च स्तरीय आध्यात्मिक साधना शीघ्र पूरी नहीं की जा सकती। स्तर के अनुरूप ही पर्याप्त समय, धैर्य, पुरुषार्थ एवं शक्ति की आवश्यकता होती है। इस आवश्यकता की पूर्ति धीरे धीरे अपने बाह्य जीवन के परिष्कार से प्रारम्भ होती है। बाह्य की उपेक्षा कर सहसा है, जिसमें सफलता की आशा नहीं की जा सकती।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1969 पृष्ठ 9

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1969/January/v1.9

👉 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति (भाग 11)

👉 मानवी जीवन आध्यात्मिक रहस्यों से भरा

अपनी इस अनुभूति के बाद उन्होंने कहा- आइन्स्टीन का सूत्र E=mc2 वैज्ञानिक ही नहीं आध्यात्मिक सूत्र भी है। आध्यात्मिक अनुभव भी यही कहता है कि पदार्थ और ऊर्जा आपस में रूपान्तरित होते हैं। मानव जीवन भी इसी रूपान्तरण का परिणाम है। जिसे हम देह, प्राण एवं मन, अन्तःकरण एवं अन्तरात्मा के संयोग से बना व्यक्तित्व कहते हैं वह दरअसल कुछ विशिष्ट ऊर्जा तरंगों का सुखद संयोग है। कर्म, इच्छा एवं भावना के अनुसार इन ऊर्जा तरंगों में न्यूनता व अधिकता होती रहती है। स्थिति में होने वाले इस परिवर्तन के लिए वर्तमान जीवन के साथ अतीत में किए गए कर्म, इच्छाएँ व भावनाएँ जिम्मेदार होती हैं।

इन्हीं की उपयुक्त एवं अनुपयुक्त स्थिति के अनुसार जीवन में सुखद एवं दुःखद परिवर्तन आते हैं। किसी विशिष्ट ऊर्जा तरंग की न्यूनता जब जीवन में होती है, तो स्वास्थ्य, मानसिक स्थिति, पारिवारिक एवं सामाजिक परिस्थिति में तदानुरूप परिवर्तन आ जाते हैं। इस स्थिति को तप, योग, मंत्रविद्या आदि प्रयासों से ठीक भी किया जा सकता है। सत्प्रेम ने ये सभी प्रयोग एक वैज्ञानिक की भाँति किए। साथ ही उन्होंने अपने निष्कर्षों को लिपिबद्ध भी किया। जो भी मानव जीवन के आध्यात्मिक रहस्यों को विस्तार से जानना चाहते हैं उनके लिए सत्प्रेम की रचनाएँ मार्गदर्शक प्रदीप की भाँति हैं।

प्रयोगिक निष्कर्ष के क्रम में उन्होंने सबसे पहले ‘श्री अरविन्द ऑर द एडवेन्चर ऑफ कॉन्शसनेस’ लिखा। इसके कुछ ही बाद उन्होंने ‘ऑन द वे ऑफ सुपरमैनहुड’ प्रकाशित किया। श्री मां के संग साथ की अनुभूतियों को उन्होंने ‘मदर्स एजेण्डा’ के १३ खण्डों में लिखा। इसके बाद ‘द डिवाइन मैटीरियलिज़्म,’ ‘द न्यू स्पेसीज़, द म्यूटेशन ऑफ डेथ’ की एक ग्रन्थ त्रयी लिखी। इसके बाद ‘द माइण्ड ऑफ सेल्स’ प्रकाश में आया। सन् १९८९ में अपनी साधना कथा को ‘द रिवोल्ट ऑफ अर्थ’ नाम से प्रकाशित किया।
सत्प्रेम ने अपना सम्पूर्ण जीवन मानव जीवन के आध्यात्मिक रहस्यों की खोज में बिताया। एक गम्भीर वैज्ञानिक की भाँति उन्होंने अपने शोध निष्कर्ष प्रस्तुत किए। सार रूप में उनके निष्कर्षों के बारे में दो बातें कही जा सकती हैं-

१. हम सभी, सृष्टि एवं स्रष्टा के साथ एक दूसरे से गहराई में गुँथे हैं।
२. कर्म चक्र ही हम सबके जीवन को प्रवर्तित, परिवर्तित कर रहा है।

इन दो बातों के साथ दो बातें और भी हैं- १. इच्छा, संकल्प, साहस एवं श्रद्धा के द्वारा हम सभी अपनी अनन्त शक्तियों को जाग्रत् कर सकते हैं। २. आध्यात्मिक चिकित्सा ही मानव व्यक्तित्व का एक मात्र समाधान है। इसे आस्तिकता के अस्तित्त्व में अनुभव किया जा सकता है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ 16

👉 Motivational Story

A wandering monk once visited the city of Mithila, ruled by the Sage King Janaka. “Who is the best teacher around here?” He asked around. To his surprise every spiritual person around referred to him the name of King Janaka. The monk was both puzzled and furious. “How can a King be spiritually that high? These people don’t know what true spirituality is.” he thought.

He went to the King and asked him “O King, learned people around here, speak highly of you, how can you a worldly man of pleasures be more spiritual than those who have given up their everything for the sake of knowing the highest truth?” “Dear one, you have come from a far place, you must have been tired. Let’s eat and rest for the day, we can discuss further tomorrow.”
The King took him to the royal dinner table, fed him variety of foods, and pleased his palates. He took him to a spacious room and told him to rest there.

There was a huge sword hung from the ceiling, hanging just above the bed. “What is this?” asked the monk. “Oh don’t mind it, it has been there for ages, it is an old custom, just have a good sleep. See you in the morning.” said the King and rushed out hurriedly.

The monk was worried that the sword might fall on him and kill him during the night; he couldn’t close his eyes even if he tried.
The king met him the next day, “Sir, how was the night. I hope you slept well” asked the King.

“How could I sleep? there was a huge sword hanging on my neck.” monk explained his trouble.

“When one knows death is certain, how the pleasures of world can sway him away, how can the worldly duties ever limit his eyes from the supreme goal?” said the King answering the Monk’s earlier question.

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...