गुरुवार, 26 अप्रैल 2018

👉 संयम का महत्व

🔷 एक देवरानी और जेठानी में किसी बात पर जोरदार बहस हुई और दोनो में बात इतनी बढ़ गई कि दोनों ने एक दूसरे का मुँह तक न देखने की कसम खा ली और अपने-अपने कमरे में जा कर दरवाजा बंद कर लिया।

🔶 परंतु थोड़ी देर बाद जेठानी के कमरे के दरवाजे पर खट-खट हुई। जेठानी तनिक ऊँची आवाज में बोली कौन है, बाहर से आवाज आई दीदी मैं ! जेठानी ने जोर से दरवाजा खोला और बोली अभी तो बड़ी कसमें खा कर गई थी। अब यहाँ क्यों आई हो ?

🔷 देवरानी ने कहा दीदी सोच कर तो वही गई थी, परंतु माँ की कही एक बात याद आ गई कि जब कभी किसी से कुछ कहा सुनी हो जाए तो उसकी अच्छाइयों को याद करो और मैंने भी वही किया और मुझे आपका दिया हुआ प्यार ही प्यार याद आया और मैं आपके लिए चाय ले कर आ गई।

🔶 बस फिर क्या था दोनों रोते रोते, एक दूसरे के गले लग गईं और साथ बैठ कर चाय पीने लगीं। जीवन मे  क्रोध को क्रोध से नहीं जीता जा सकता, बोध से जीता जा सकता है। अग्नि अग्नि से नहीं बुझती जल से बुझती है।

🔷 समझदार व्यक्ति बड़ी से बड़ी बिगड़ती स्थितियों को दो शब्द प्रेम के बोलकर संभाल लेते हैं। हर स्थिति में संयम और बड़ा दिल रखना ही श्रेष्ठ है।

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 27 April 2018


👉 आज का सद्चिंतन 27 April 2018


👉 आत्मचिंतन के क्षण 27 April 2018

🔷 कहते हैं कि शनिश्चर और राहू की दशा सबसे खराब होती है और जब वे आती हैं तो बर्बाद कर देती हैं। इस कथन में कितनी सचाई है यह कहना कठिन है, पर यह नितान्त सत्य है कि आलस्य को शनिश्चर और प्रमाद को-समय की बर्बादी को-राहू माना जाय तो इनकी छाया पड़ने मात्र से मनुष्य की बर्बादी का पूरा-पूरा सरंजाम बन जाता है।

🔶 दुःख और कठिनाइयेां में ही सच्चे हृदय से परमात्मा की याद आती है। सुख-सुविधाओं में तो भोग और तृप्ति की ही भावना बनी रहती है। इसलिए उचित यही है कि विपत्तियों का सच्चे हृदय से स्वागत करें। परमात्मा से माँगने लायक एक ही वरदान है कि वह कष्ट दे, मुसीबतें दें, ताकि मनुष्य अपने लक्ष्य के प्रति सावधान व सजग बना रहे।

🔷 निराशा वह मानवीय दुर्गुण है, जो बुद्धि को भ्रमित कर देती है। मानसिक शक्तियों को लुंज-पुंज कर देती है। ऐसा व्यक्ति आधे मन से डरा-डरा सा कार्य करेगा। ऐसी अवस्था में सफलता प्राप्त कर सकना संभव ही कहाँ होगा? जहाँ आशा नहीं वहाँ प्रयत्न नहीं। बिना प्रयत्न के ध्येय की प्राप्ति न आज तक कोई कर सका है, न आगे संभव है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 Yajna – The Root of Vedic Culture (Part 1)

🔷 Gayatri and Yajna constitute the foundation of the Vedic Indian Culture. While Gayatri imparts wisdom and pure intelligence, Yajna inspires corresponding creativity and actions.

🔶 In talking of the Vedic age the images of the great saints performing agnihotra-Yajnas instantly flashes in our memory. In those days, apart from the saints, the rich and the poor, the kings and citizens also had an equally deep faith and respect for Yajna and they used to sincerely participate in and lend wholehearted support for different kinds of Yajnas. The saints used to spend at least one-third of their lives in conducting Yajnas.

🔷 It was a common belief and an observed fact in the Vedic Indian society that Yajna was essential for the refinement of human life from a sudra (i.e. a person living a life driven by animal instincts) to a Brahmin (i.e. a wise, knowledgeable, charitable person), and ultimately to a divine, great personality. Yajnas played an essential role in the all-round progress, prosperity and happiness in the Vedic age. This was indeed natural, as the philosophy and science of Yajna and the different modes of performing agni-Yajna were discovered and developed by the rishis based on their deep understanding and in-depth research of the human self, the intricacies of the social system and the mysteries of Nature.

📖 From Akhand Jyoti Jan 2001

👉 गुरुगीता (भाग 96)

👉 सद्गुरू की कृपा से ही मिलती है मुक्ति

🔷 गुरूगीता में योगसाधना के गहन रहस्य उजागर होते हैं। इसमें जो कुछ भी है, वह सभी तरह के बुद्धि कौशल से परे है। गुरूगीता के महामंत्रों में निहित रहस्य बुद्धि से नहीं, बोध से अनुभव होता है। इसके मंत्रोंक्षरों की सच्चाई के तर्क से नहीं, साधना से ही जाना जा सकता है। जो लोग गुरूगीता को बुद्धि और तर्क से जानने की कोशिश करते हैं, वे अपने ही जाल में उलझ कर रह जाते हैं। गुरूगीता के सम्बन्ध में उनकी बौद्धिक तत्परता उन्हें भ्रमों के सिवा और कुछ नहीं दे पाती। तर्कों से उन्हें केवल बहस का खोखलापन मिलता है। इसके विपरीत जो साधना करते हैं, वे अपनी साधना से प्राप्त अन्तर्दृष्टि के सहारे सब कुछ जान लेते हैं।

🔶 गुरूगीता की रहस्य कथा में अन्तर्दृष्टि के रहस्यों की श्रृंखला स्पष्ट होती रही है। इसकी प्रत्येक कड़ी ने साधकों एवं शिष्यों की अन्तर्दृष्टि में हर बार नये आयाम जोड़े हैं। पिछले क्रम में माँ पार्वती ने भगवान् सदाशिव से अनूठी जिज्ञासा जतायी है। उन्होंने पूछा है कि हे महादेव! पिण्ड क्या है? पद किसे कहते हैं? हे भोलेनाथ रूप क्या है और रूपातीत क्या है? माँ की यह सभी जिज्ञासाएँ जीवात्मा के अस्तित्व के अतिगूढ़ प्रश्न हैं और इनका उत्तर केवल साधना की समाधि से शिवमुख से सुनकर ही जाना जा सकता है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ प्रणव पंड्या
📖 गुरुगीता पृष्ठ 144

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 26 April 2018


👉 आज का सद्चिंतन 26 April 2018


👉 संकल्पवान

🔶 गुरजिएफ ने कहा कि सामान्य व्यक्ति वादा नहीं कर सकता, संकल्प नहीं कर सकता, क्योंकि यह सब तो साधकों के गुण हैं, शिष्यत्व के लक्षण हैं।

🔷 गुरजिएफ के पास लोग आते और कहते— अब मैं व्रत लूँगा। उसके शिष्य औस्पेन्सकी ने लिखा है कि वह जोर से हँसता और कहता 'इससे पहले कि तुम कोई प्रतिज्ञा लो, दो बार फिर सोच लो। क्या तुम्हें पूरा आश्वासन है कि जिसने वादा किया है, वह अगले क्षण भी बना रहेगा? तुम कल से सुबह तीन बजे उठने का निर्णय कर लेते हो और तीन बजे तुम्हारे भीतर कोई कहता है, झंझट मत लो। बाहर इतनी सर्दी पड़ रही है। और ऐसी जल्दी भी क्या है? मैं यह कल भी कर सकता हूँ और तुम फिर सो जाते हो। दूसरे दिन सारे पछतावे के बावजूद यही स्थिति फिर से दुहराई जाती है। क्योंकि जिसने प्रतिज्ञा की, वह सुबह तीन बजे वहाँ होता ही नहीं, उसकी जगह कोई दूसरा ही आ बैठता है। अनुशासन का मतलब है, भीड़ की इस अराजक अव्यवस्था को समाप्त कर केन्द्रीयकरण की लयबद्धता उत्पन्न करना और तभी जानने की क्षमता आती है।

🔶 संकल्पवान ही आत्मतत्त्व को जान पाते हैं। गुरुदेव का समूचा जीवन इसी संकल्प का पर्याय था। उनके समूचे जीवन में, अन्तर्चेतना में अविराम लयबद्धता थी; तभी उनके गुरु ने उन्हें जो अनुशासन दिया, वह बड़ी प्रसन्नतापूर्वक पालन करते रहे। अनुशासन से मिलता-जुलता अंग्रेजी का शब्द है- डिसिप्लिन। यह डिसिप्लिन शब्द बड़ा सुन्दर है। यह उसी जड़, उसी उद्ïगम से आया है, जहाँ से डिसाइपल शब्द आया है। इससे यही प्रकट होता है कि अनुशासन शिष्य का सहज धर्म है। केन्द्रस्थ, लयबद्ध, संकल्पवान व्यक्ति ही गुरु के दिए गए अनुशासन को स्वीकार, शिरोधार्य कर सकता है। ऐसे ही व्यक्ति के अन्दर विकसित होती है, जानने की क्षमता।

📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान से

👉 गुरुगीता (भाग 95)

👉 सद्गुरु को तत्त्व से जान लेने का मर्म

🔶 जीव को पिण्ड मिलने और इसमें आबद्ध होने का कारण उसकी वासनाएँ, चाहतें और इच्छाएँ हैं। वासनाएँ जब तक हैं, जीव का पिण्ड से छुटकारा नहीं है। इतना ही नहीं, वह इन वासनाओं से लिपटे रहने के कारण स्वयं को ही पिण्ड समझने लगता है। ग्रामीण अंचल में एक बड़ा प्रचलित मुहावरा है- पिण्ड छुड़ाना। किसी जंजाल या विपत्ति से पीछा छूटने पर कहते हैं कि चलो पिण्ड छूटा। भले ही इस कहावत पर किसी ने गहराई से विचार न किया हो, परन्तु सच यही है कि पिण्ड छूटना बड़े महत्त्व की बात है; परन्तु योगीजन जानते हैं कि पिण्ड से मुक्त होना वासनाओं से मुक्त होने के बाद ही सम्भव है और वासनाएँ कुण्डलिनी शक्ति के जागरण व ऊर्ध्वगमन के बाद ही छूट पाती हैं। सो वासनाओं और इससे पैदा होने वाले कर्म बीजों व इसके परिणामों को जिसने जान लिया, समझो उसने पिण्ड के तत्त्व को जान लिया।
    
🔷 माता जगदम्बा प्रभु से अगला सवाल करती हैं-प्रभु पद किसे कहते हैं? यह पद शब्द भी यौगिक शब्दावली की एक गहरी विशेषता है। योग में जीवात्मा को पद कहा गया है। इसका एक नाम हंस भी है। इस हंस का ज्ञान सामान्य जनों को नहीं होता; क्योंकि वासनाओं से चंचल प्राणों में यह अनुभूति नहीं हो पाती। जब वासनाओं का वेग थमता है, तब प्राण स्थिर होते हैं। और प्राणों की इस स्थिरता में हंस का अनुभव होता है। यह अनुभव जीवात्मा का है। जीवात्मा का मतलब है आत्मचेतना का वह स्वरूप जिसने प्रकृति बन्धनों के कारण जीव भाव को स्वीकार कर लिया है। जीव भाव से मुक्त होने पर ही योग साधना में आत्मतत्त्व की अनुभूति होती है।
    
🔶 इसी क्रम में माँ की अगली जिज्ञासा है कि प्रभु रूप क्या है? रूप का मतलब है—आत्मरूप का। यह आत्मरूप है—आत्मज्योति रूप नीलबिन्दु। इसका अनुभव साधक को आत्मज्योति का अनुभव देता है। इस अनुभूति के साथ ही साधक को अपने आत्मरूप का ज्ञान व भान हो जाता है। सभी जप, योग एवं तप का सुफल यही है। जिसकी यह स्थिति नहीं है समझो उसे अभी अध्यात्म की कक्षा में प्रवेश नहीं मिला। योग साधना में रूप दर्शन एवं रूप मुक्ति यही दो क्रम हैं। इन्हें पूरा कर लेने पर रूपातीत अनुभूति का क्रम होता है। यह अध्यात्म विद्या की उच्च कक्षा है। इसमें प्रवेश साधक को जन्मों की साधना के बाद मिलता है।
    
🔷 इस उच्च कक्षा के बारे में जगन्माता भवानी अगली जिज्ञासा करती हैं—प्रभु रूपातीत क्या है? रूपातीत है ब्राह्मीचेतना। सभी रूप इसी से उदय होते हैं और इसी में विलीन हो जाते हैं। यह अनुभूति विरल है। जन्म-जन्मान्तर की साधना के बाद ही साधक इसकी प्राप्ति का अधिकारी हो पाता है। इसे पाने पर न शोक रह जाता है और न मोह। माया से परे अगम-अगोचर प्रभु की अनुभूति अति असाधारण अनुभव है। इस अनुभव में साधना की सार्थकता है। यहीं जीव शिव बनता है। इस शिवत्व की प्राप्ति में उसकी गुरुसेवा की सफलता है। उसके सद्गुरु के वरदान का सुफल है। जिसको यह मिल गया समझो उसे सब मिल गया।
    
🔶 हालाँकि यह तत्त्व बोध होता है क्रमवार ही। सबसे पहले पिण्ड बोध करना होता है। किन वासनाओं के प्रतिफल से यह देह मिली है। किन कर्मबीजों के कारण वर्तमान परिस्थितियाँ हैं। इसे अपनी साधना की गहराई में अनुभव करना होता है। इसके बाद आता है प्राणों की गति का क्रम। प्राणों की गति का ऊर्ध्व व स्थिर होना जीवात्मा के साक्षात्कार का कारण बनता है। इसके बाद ही हो पाता है आत्मज्योति के दर्शन का क्रम और बाद में ब्र्राह्मी चेतना से सायुज्य की स्थिति बनती है। यह सायुज्यता मिलने पर साधक को अपने सद्गुरु के निराकार निरञ्जन तत्त्व का  साक्षात्कार होता है। माँ  की इन जिज्ञासाओं में भगवान् सदाशिव के उत्तर अत्यन्त मर्मस्पर्शी हैं।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ प्रणव पंड्या
📖 गुरुगीता पृष्ठ 143

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Sep 2024

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