सोमवार, 28 मार्च 2022

👉 आध्यात्मिक शिक्षण क्या है? भाग 6

मित्रो! भावनाओं से भरी हुई, भावनाओं से रंगी हुई जब कभी भी आपकी जिंदगी होगी, तब रामकृष्ण परमहंस की तरह से आपको सर्वत्र काली नजर आयेगी। मीरा की तरह से एक छोटे वाले पत्थर में आपको भगवान नजर आयेगा तब मीरा दस बारह साल की एक छोटी बच्ची थी। एक बाबा जी आये थे। उससे उसने कहा कि हमको भगवान् के दर्शन करा दीजिए। मीरा ने कहा कि भगवान् मिलेगा? महात्मा जी ने कहा कि हाँ, मिल जायेगा। तो हमको भी दर्शन करा दीजिए।

बाबा जी ने अपने झोले में से पत्थर का एक बड़ा सा टुकड़ा निकाला, जो हाथ से छेनी द्वारा तराशा गया था। ऐसा भी चिकना नहीं था, जैसी कि मूर्तियाँ मिलती हैं। गोल सफाचट पत्थर को खोदकर मूर्ति बना दी गयी थी। बाबा जी ने वही मूर्ति मीरा के हाथ में थमा दिया। उसने कहा कि ये कौन हैं? ये तो भगवान् हैं। तो इन भगवान् को मैं क्या मानूँ? उन्होंने कहा कि जो तेरे मन में आये, मान सकती है।

मीरा ने कहा कि मेरे ब्याह शादी की जिरह चल रही है। मैं इनसे ब्याह कर लूँ तो? बाबा ने कहा कि कर लो। फिर तो वह तुम्हारा पति हो जायेगा तेरा भगवान्। बस मीरा का पति हो गया भगवान्। उस गोल वाले पत्थर के टुकड़े को लेकर गिरिधर गोपाल मानकर के मीरा जब घुँघरू पहन करके नाचती थी और जब गीत गाती थी, तो भगवान् का कलेजा गीत में बस जाता था और मीरा का हृदय गीत गाता था।

मित्रो! यह भावनाओं से भरी उपासना जब कभी भी आपके जीवन में आयेगी, तब भगवान् आयेगा और भगवान एवं भक्त दोनों तन्मय हो जायेंगे, तल्लीन हो जायेंगे।

क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/lectures_gurudev/44.2

शांतिकुंज की गतिविधियों से जुड़ने के लिए 
Shantikunj WhatsApp 8439014110 

👉 आत्मचिंतन के क्षण 28 March 2022

विचारशीलता ही मनुष्य की एकमात्र निधि है। इसी आधार पर उसने उच्च स्थान प्राप्त किया है। इस शक्ति का दुरुपयोग होने लगे तो जितना उत्थान हुआ है, उतना ही पतन भी संभव है। बुद्धि दुधारी तलवार है। वह सामने वाले को भी मार सकती है और अपने को काटने के लिए भी प्रयुक्त हो सकती है। उच्च स्थिति पर पहुँचा हुआ मनुष्य अपने उत्तरदायित्वों को न पहचाने, अपने कर्त्तव्य, कर्म के प्रति आस्थावान् न रहे तो वह अपनी विशेष स्थिति के कारण संसार का भारी अहित करने और भारी अव्यवस्था उत्पन्न करने का कारण बन सकता है।

मनुष्य का जीवनकाल बहुत थोड़ा होता है, किन्तु कामनाओं की कोई सीमा नहीं। इच्छाएँ कभी पूर्ण नहीं होतीं। भोगों से आज तक कभी आत्म- संतुष्टि नहीं मिली, फिर इन्हीं तक अपने जीवन को संकुचित कर डालना बुद्धिमानी की बात नहीं है। मनुष्य जीवन मिलता है देश, धर्म, जाति और संस्कृति के लिए। बहुत बड़े उद्देश्य की पूर्ति के लिए यह शरीर मिला है। हमें यह बात खूब देर तक विचारनी चाहिए और उस लक्ष्य को पूरा करने के लिए तपने, गलने और विस्तृत होने की परम्परा डालनी चाहिए।

मन को-मस्तिष्क को अस्त-व्यस्त उड़ानें उड़ने की छूट नहीं देनी चाहिए। शरीर की तरह उसे भी क्रमबद्ध और उपयोगी चिंतन के लिए सधाया जाना चाहिए। कुसंस्कारी मन जंगली सुअर की तरह कहीं भी किधर भी दौड़ लगाता रहता है। शरीर भले ही विश्राम करे पर मन तो कुछ सोचेगा ही। यह सोचना भी शारीरिक श्रम की तरह ही उत्पादक होता है। समय की बर्बादी की तरह ही अनुपयोगी और निरर्थक  चिंतन भी हमारी बहुमूल्य शक्ति को नष्ट करता है। दुष्ट चिंतन तो आग से खेलने की तरह है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

शांतिकुंज की गतिविधियों से जुड़ने के लिए 
Shantikunj WhatsApp 8439014110 

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...