भगवान् की इच्छा युग परिवर्तन की व्यवस्था बना रही है। इसमें सहायक बनना ही वर्तमान युग में जीवित प्रबुद्ध आत्माओं के लिये सबसे बड़ी दूरदर्शिता है। अगले दिनों में पूँजी नामक वस्तु किसी व्यक्ति के पास नहीं रहने वाली है। धन एवं सम्पत्ति का स्वामित्व सरकार एवं समाज का होना सुनिश्चित है। हर व्यक्ति अपनी रोटी मेहनत करके कमायेगा और खायेगा। कोई चाहे तो इसे एक सुनिश्चित भविष्यवाणी की तरह नोट कर सकता है। अगले दिनों इस तथ्य को अक्षरशः सत्य सिद्ध करेंगे। इसलिये वर्तमान युग के विचारशील लोगों से हमारा आग्रह पूर्वक निवेदन है कि वे पूँजी बढ़ाने, बेटे पोतों के लिये जायदादें इकट्ठी करने के गोरख-धंधे में न उलझें। राजा और जमींदारों को मिटते हमने अपनी आँखों देख लिया अब इन्हीं आँखों को व्यक्तिगत पूँजी को सार्वजनिक घोषित किया जाना देखने के लिए तैयार रहना चाहिए।
भले ही लोग सफल नहीं हो पा रहे हैं पर सोच और कर यही रहे हैं कि वे किसी प्रकार अपनी वर्तमान सम्पत्ति को जितना अधिक बढ़ा सकें, दिखा सकें उसकी उधेड़ बुन में जुटे रहें। यह मार्ग निरर्थक है। आज की सबसे बड़ी बुद्धिमानी यह है कि किसी प्रकार गुजारे की बात सोची जाए। परिवार के भरण-पोषण भर के साधन जुटाये जायें और जो जमा पूँजी पास है उसे लोकोपयोगी कार्य में लगा दिया जाए। जिनके पास नहीं है वे इस तरह की निरर्थक मूर्खता में अपनी शक्ति नष्ट न करें। जिनके पास गुजारे भर के लिए पैतृक साधन मौजूद हैं, जो उसी पूँजी के बल पर अपने वर्तमान परिवार को जीवित रख सकते हैं वे वैसी व्यवस्था बना कर निश्चित हो जायें और अपना मस्तिष्क तथा समय उस कार्य में लगायें, जिसमें संलग्न होना परमात्मा को सबसे अधिक प्रिय लग सकता है।
जो जितना समय बचा सकता है वह उसका अधिकाधिक भाग नव-निर्माण जैसे इस समय के सर्वोपरि पुण्य परमार्थ में लगाने के लिये तैयार हो जाए। समय ही मनुष्य की व्यक्तिगत पूँजी है, श्रम ही उसका सच्चा धर्म है। इसी धन को परमार्थ में लगाने से मनुष्य के अन्तःकरण में उत्कृष्टता के संस्कार परिपक्व होते हैं। धन वस्तुतः समाज एवं राष्ट्र की सम्पत्ति है। उसे व्यक्तिगत समझना एक पाप एवं अपराध है। जमा पूँजी में से जितना अधिक दान किया जाए वह तो प्रायश्चित मात्र है। सौ रुपये की चोरी करके कोई पाँच रुपये दान कर दें तो वह तो एक हल्का सा प्रायश्चित ही हुआ। मनुष्य को अपरिग्रही होना चाहिए। इधर कमाता और उधर अच्छे कर्मों में खर्च करता रहे यही भलमनसाहत का तरीका है। जिसने जमा कर लिया उसने बच्चों को दुर्गुणी बनाने का पथ प्रशस्त किया और अपने को लोभ-मोह के माया बंधनों में बाँधा। इस भूल का जो जितना प्रायश्चित कर ले, जमा पूँजी को सत्कार्य में लगा दे उतना उत्तम है। प्रायश्चित से पाप का कुछ तो भार हल्का होता ही है। पुण्य परमार्थ तो निजी पूँजी से होता है। वह निजी पूँजी है- समय और श्रम। जिसका व्यक्तिगत श्रम और समय परमार्थ कार्यों में लगा समझना चाहिए कि उसने उतना ही अपना अन्तरात्मा निर्मल एवं सशक्त बनाने का लाभ ले लिया।
युग-निर्माण योजना की क्रिया पद्धति इसी धुरी पर घूमती है। हमने अपने प्रत्येक परिजन को गंभीर चेतावनी और प्रबल प्रेरणा के साथ इस दिशा में मोड़ने के लिये प्रयत्न किया है कि यह युग बदलने का अनुपम अवसर है। हममें से हर प्रबुद्ध आत्मा का कुछ विशेष कर्त्तव्य एवं कुछ विशेष उत्तर दायित्व है। भगवान का प्रयोजन पूरा करने में सहयोगी होना वर्तमान युग के जीवित अध्यात्मवादियों के लिये विवेक की सबसे बड़ी चुनौती है। इसे समझा और स्वीकारा जाए।
📖 अखण्ड ज्योति मार्च 1967 पृष्ठ 36
भले ही लोग सफल नहीं हो पा रहे हैं पर सोच और कर यही रहे हैं कि वे किसी प्रकार अपनी वर्तमान सम्पत्ति को जितना अधिक बढ़ा सकें, दिखा सकें उसकी उधेड़ बुन में जुटे रहें। यह मार्ग निरर्थक है। आज की सबसे बड़ी बुद्धिमानी यह है कि किसी प्रकार गुजारे की बात सोची जाए। परिवार के भरण-पोषण भर के साधन जुटाये जायें और जो जमा पूँजी पास है उसे लोकोपयोगी कार्य में लगा दिया जाए। जिनके पास नहीं है वे इस तरह की निरर्थक मूर्खता में अपनी शक्ति नष्ट न करें। जिनके पास गुजारे भर के लिए पैतृक साधन मौजूद हैं, जो उसी पूँजी के बल पर अपने वर्तमान परिवार को जीवित रख सकते हैं वे वैसी व्यवस्था बना कर निश्चित हो जायें और अपना मस्तिष्क तथा समय उस कार्य में लगायें, जिसमें संलग्न होना परमात्मा को सबसे अधिक प्रिय लग सकता है।
जो जितना समय बचा सकता है वह उसका अधिकाधिक भाग नव-निर्माण जैसे इस समय के सर्वोपरि पुण्य परमार्थ में लगाने के लिये तैयार हो जाए। समय ही मनुष्य की व्यक्तिगत पूँजी है, श्रम ही उसका सच्चा धर्म है। इसी धन को परमार्थ में लगाने से मनुष्य के अन्तःकरण में उत्कृष्टता के संस्कार परिपक्व होते हैं। धन वस्तुतः समाज एवं राष्ट्र की सम्पत्ति है। उसे व्यक्तिगत समझना एक पाप एवं अपराध है। जमा पूँजी में से जितना अधिक दान किया जाए वह तो प्रायश्चित मात्र है। सौ रुपये की चोरी करके कोई पाँच रुपये दान कर दें तो वह तो एक हल्का सा प्रायश्चित ही हुआ। मनुष्य को अपरिग्रही होना चाहिए। इधर कमाता और उधर अच्छे कर्मों में खर्च करता रहे यही भलमनसाहत का तरीका है। जिसने जमा कर लिया उसने बच्चों को दुर्गुणी बनाने का पथ प्रशस्त किया और अपने को लोभ-मोह के माया बंधनों में बाँधा। इस भूल का जो जितना प्रायश्चित कर ले, जमा पूँजी को सत्कार्य में लगा दे उतना उत्तम है। प्रायश्चित से पाप का कुछ तो भार हल्का होता ही है। पुण्य परमार्थ तो निजी पूँजी से होता है। वह निजी पूँजी है- समय और श्रम। जिसका व्यक्तिगत श्रम और समय परमार्थ कार्यों में लगा समझना चाहिए कि उसने उतना ही अपना अन्तरात्मा निर्मल एवं सशक्त बनाने का लाभ ले लिया।
युग-निर्माण योजना की क्रिया पद्धति इसी धुरी पर घूमती है। हमने अपने प्रत्येक परिजन को गंभीर चेतावनी और प्रबल प्रेरणा के साथ इस दिशा में मोड़ने के लिये प्रयत्न किया है कि यह युग बदलने का अनुपम अवसर है। हममें से हर प्रबुद्ध आत्मा का कुछ विशेष कर्त्तव्य एवं कुछ विशेष उत्तर दायित्व है। भगवान का प्रयोजन पूरा करने में सहयोगी होना वर्तमान युग के जीवित अध्यात्मवादियों के लिये विवेक की सबसे बड़ी चुनौती है। इसे समझा और स्वीकारा जाए।
📖 अखण्ड ज्योति मार्च 1967 पृष्ठ 36