रविवार, 15 जुलाई 2018

👉 तीन मूर्तियाँ

🔷 एक राजा था। एक दिन वह अपने दरबार में मंत्रियों के साथ कुछ सलाह–मश्वरा कर रहा था। तभी एक चोबदार ने आकर कहा कि.. पडोसी राज्य से एक मूर्तिकार आया है और महाराज से मिलने की आज्ञा चाहता है। राजा ने आज्ञा दे दी।

🔶 थोडी देर में मूर्तिकार दरबार में हाजिर किया गया। वह अपने साथ तीन मूर्तियाँ लाया था, जिन्हें उसने दरबार में रख दिया। उन मूर्तियों की विशेषता थी कि तीनो अत्यंत सुंदर और कलात्मक तो थीं ही, पर एक जैसी दिखती थीं और बनी भी एक ही धातु से थीं। मामूली सवाल-जवाब के बाद राजा ने उससे दरबार में प्रस्तुत होने का कारण पूछा।

🔷 जवाब में मूर्तिकार बोला.. “राजन! मै आपके दरबार में इन मूर्तियों के रूप में एक प्रश्न लेकर उपस्थित हुआ हूँ, और उत्तर चाहता हूँ। मैने आपके मंत्रियों की बुद्धिमत्ता की बहुत प्रसंशा सुनी है। अगर ये सच है तो मुझे उत्तर अवश्य मिलेगा।“

🔶 राजा ने प्रश्न पूछने की आज्ञा दे दी। तो मूर्तिकार ने कहा.. “राजन! आप और आपके मंत्रीगण मूर्तियों को गौर से देखकर ये तो जान ही गये होंगे कि ये एक सी और एक ही धातु से बनी हैं। परंतु इसके बावजूद इनका मुल्य अलग-अलग है। मै जानना चाहता हूँ कि कौन सी मूर्ति का मूल्य सबसे अधिक है, कौन सी मूर्ति सबसे सस्ती है, और क्यों?”

🔷 मूर्तिकार के सवाल से एकबारगी तो दरबार में सन्नाटा छा गया। फिर राजा के इशारे पर दरबारी उठ-उठ कर पास से मूर्तियों को देखने लगे। काफी देर तक किसी को कुछ समझ न आया। फिर एक मंत्री जो औरों से चतुर था, और काफी देर से मूर्तियों को गौर से देख रहा था, उसने एक सिपाही को पास बुलाया और कुछ तिनके लाने को कह कर भेज दिया। थोडी ही देर में सिपाही कुछ बडे और मजबूत तिनके लेकर वापस आया और तिनके मंत्री के हाथ में दे दिये। सभी हैरत से मंत्री की कार्यवाही देख रहे थे।

🔶 तिनके लेकर मंत्री पहली मूर्ति के पास गये और एक तिनके को मूर्ति के कान में दिखते एक छेद में डाल दिया। तिनका एक कान से अंदर गया और दूसरे कान से बाहर आ गया, फिर मंत्री दूसरी मूर्ति के पास गये और पिछली बार की तरह एक तिनका लिया और उसे मूर्ति के कान में दिखते छेद में डालना शुरू किया.. इस बार तिनका एक कान से घुसा तो दूसरे कान की बजाय मूर्ति के मुँह के छेद से बाहर आया, फिर मंत्री ने यही क्रिया तीसरी मूर्ति के साथ भी आजमाई इस बार तिनका कान के छेद से मूर्ति के अंदर तो चला गया पर किसी भी तरह बाहर नहीं आया। अब मंत्री ने राजा और अन्य दरबारियों पर नजर डाली तो देखा राजा समेत सब बडी उत्सुकता से उसी ओर देख रहे थे।

🔷 फिर मंत्री ने राजा को सम्बोधित कर के कहना शुरू किया और बोले... “महाराज! मैने मूर्ति का उचित मुल्य पता कर लिया है।“ राजा ने कहा... “तो फिर बताओ। जिससे सभी जान सकें।“

🔶 मंत्री ने कहा... “महाराज! पहली मूर्ति जिसके एक कान से गया तिनका दूसरे कान से निकल आया उस मूर्ति का मुल्य औसत है। दूसरी मूर्ति जिसके एक कान से गया तिनका मुँह के रास्ते बाहर आया वह सबसे सस्ती है। और जिस मूर्ति के कान से गया तिनका उसके पेट में समा गया और किसी भी तरह बाहर नहीं आया वह मूर्ति सर्वाधिक मुल्यवान बल्कि बेशकीमती है।“

🔷 राजा नें कहा… “ किंतु तुमने कैसे और किस आधार पर मूर्तियों का मुल्य तय किया है यह भी बताओ।“

🔶 मंत्री बोले... “महाराज! वास्तव में ये मूर्तियाँ तीन तरह के मानवी स्वभाव की प्रतीक है। जिसके आधार पर मानव का मुल्याँकन किया जाता है। पहली मूर्ति के कान से गया तिनका दूसरे कान से बाहर आया; ये उन लोगों की तरफ इशारा करता है जिनसे कोई बात कही जाय तो एक कान से सुन कर दूसरे कान से निकाल देते हैं, ये किसी काम के नही होते, किंतु यद्यपि ये किसी बात को गंभीरता से नहीं लेते पर इनमें इधर की बात उधर करने का अवगुण भी नहीं होता सो इनका मूल्य औसत है।

🔷 दूसरी मूर्ति जिसके कान से डाला गया तिनका मुँह के रास्ते बाहर आया; वह उन लोगों का प्रतीक है जो कोई बात पचा या छिपा नहीं सकते, चुगलखोरी, दूसरों की गुप्त बातों को इधर-उधर कहते रहने के कारण ये सर्वथा त्याज्य होते हैं, ऐसे लोगों को निकृष्ट और सबसे सस्ता कह सकते हैं। अतः दूसरी मूर्ति सबसे सस्ती है।

🔶 अब रही तीसरी मूर्ति जिसके कान में डाला गया तिनका पेट में जाकर गायब हो गया ये उन लोगों का प्रतीक है, जो दूसरों की कही बात पर ध्यान तो देते ही हैं साथ ही दूसरों के राज को राज बनाये रखते हैं। ऐसे लोग समाज में दुर्लभ और बेशकीमती होते हैं। सो तीसरी मूर्ति सबसे मुल्यवान है।“

🔷 राजा नें मूर्तिकार की ओर देखा। मूर्तिकार बोला... “महाराज! मै मंत्री महोदय के उत्तर से संतुष्ट हूँ.. और स्वीकार करता हूँ कि आपके मंत्री सचमुच बुद्धिमान हैं। उनका उत्तर सत्य और उचित है। ये मूर्तियाँ मेरी ओर से आपको भेंट हैं। इन्हें स्वीकार करें। और अब मुझे अपने राज्य जाने की आज्ञा दें।“

🔶 राजा ने मूर्तिकार को सम्मान सहित अपने राज्य जाने की आज्ञा दे दी और अपने मंत्री को भी इनाम देकर सम्मानित किया।

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 15 July 2018


👉 आज का सद्चिंतन 15 July 2018


👉 सेवा और प्रार्थना

🔷 तुम मुझे प्रभु कहते हो, गुरु कहते हो, उत्तम कहते हो, मेरी सेवा करना चाहते हो और मेरे लिए सब कुछ बलिदान कर देने को तैयार रहते हो। किन्तु मैं तुम से फिर कहता हूँ, तुम मेरे लिये न तो कुछ करते हो और न करना चाहते हो।

🔶 तुम जो कुछ करना चाहते हो मेरे लिये करना चाहते हो जबकि मैं चाहता हूँ तुम औरों के लिये ही सब कुछ करो। औरों के लिये कुछ न करने पर तुम मेरे लिये कुछ न कर सकोगे। मैं तुमसे सच कहता हूँ कि यदि तुमने इन छोटों के लिये कुछ न किया तो मेरे लिये भी कुछ न किया।

🔷 मैं फिर कहता हूँ कि मुझे प्रसन्न करने का प्रयत्न मत करो, मेरी प्रसन्नता तो इन छोटे और गरीब आदमियों की प्रसन्नता है। मुझे प्रसन्न करने के स्थान पर इनको प्रसन्न करो, मेरी सेवा की जगह इनकी सेवा और सहायता करो।

🔶 तुम सब प्रार्थना करते हो। लेकिन मैं सच कहता हूँ, तुम प्रार्थना नहीं करते। अगर तुम प्रार्थना करते हो तो मुझे ठीक-ठीक बतलाओ, क्या तुम लोग प्रार्थना में खड़े हुए संसार को भूल जाते हो। तुम्हारे मन को सारा द्वन्द्व नष्ट हो जाता है और तुम्हें ऐसा लगता है कि तुम्हारा कोई शत्रु नहीं है और न तुम ही किसी के शत्रु हो।

🔷 यदि ऐसा नहीं होता तो तुम प्रार्थना नहीं करते। तुम्हारी प्रार्थना में खड़ा होना ठीक वैसा ही है जैसे ग्वाले के डंडे से घिरी हुई भेड़े बाड़े में खड़ी हो जाती हैं।

🔶 मैं तुमसे सच कहता हूँ यदि पिता में विश्वास रखकर प्रार्थना की जाये तो मनुष्य को संसार की बुराइयों का स्मरण ही न आवे। यदि तुझमें राई के दाने भर भी सच्चा विश्वास हो तो तुम इस पहाड़ से अधिकारपूर्वक एक स्थान से दूसरे स्थान पर सरक जाने के लिये कह सकते हो और वह सरक कर चला भी जाये।

✍🏻 रामकृष्ण परमहंस
📖 अखण्ड ज्योति फरवरी 1969 पृष्ठ 1
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1969/February/v1.3

👉 युग की माँग प्रतिभा परिष्कार 1 (भाग 2)

👉 प्राणवान् प्रतिभाओं की खोज

🔷 समय की माँग के अनुरूप, दो दबाव इन दिनों निरंतर बढ़ते जा रहे हैं। एक व्यापक अवांछनीयताओं से जूझना और उन्हें परास्त करना। दूसरा है नवयुग की सृजन व्यवस्था को कार्यान्वित करने की समर्थता। निजी और छोटे क्षेत्र में भी यह दोनों कार्य अति कठिन पड़ते हैं, फिर जहाँ देश, समाज या विश्व का प्रश्न है, वहाँ तो कठिनाई का अनुपात असाधारण होगा ही।
  
🔶 प्रगति पथ पर अग्रसर होने के लिए तदनुरूप योग्यता एवं कर्मनिष्ठा उत्पन्न करनी पड़ती है। साधन जुटाने पड़ते हैं। इनके बिना सामान्य स्थिति में रहते हुए किसी प्रकार दिन काटते ही बन पड़ता है। इसी प्रकार कठिनाइयों से जूझने, अड़चनों के निरस्त करने और मार्ग रोककर बैठे हुए अवरोधों को किसी प्रकार हटाने के लिए समुचित साहस, शौर्य और सूझ-बूझ का परिचय देना पड़ता है। अनेकों समस्याएँ और कठिनाइयाँ, आए दिन त्रास और संकट भरी परिस्थितियाँ, बनी ही रहती हैं। जो कठिनाइयों से जूझ सकता है और प्रगति की दिशा में बढ़ चलने के साधन जुटा सकता है, उसी को प्रतिभावान् कहते हैं।
  
🔷 प्रतिभा की निजी जीवन के विकास में निरंतर आवश्यकता पड़ती है और अवरोधों को निरस्त करने में भी। जो आगे बढ़े-ऊँचे उठे हैं, उन्हें यह दोनों ही सरंजाम जुटाने पड़े। उत्कर्ष की सूझ-बूझ और कठिनाइयों से लड़ सकने की हिम्मत, इन दोनों के बिना उन्नतिशील जीवन जी सकना संभव ही नहीं होता। फिर सामुदायिक सार्वजनिक क्षेत्र में सुव्यवस्था बनाने के लिए और भी अधिक प्रखरता चाहिए। यह विशाल क्षेत्र, आवश्यकताओं और गुत्थियों की दृष्टि से तो और भी बढ़ा-चढ़ा होता है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 युग की माँग प्रतिभा परिष्कार पृष्ठ 3

👉 व्याधियों का उद्भव स्थान

🔷 अन्तस्तल के गहन स्तरों के नीचे हमारी रहस्य मयि अन्तश्चेतना (Sub-conscious) में हमारे नित्यप्रति के विद्वेष, व्यंगपूर्ण कटुता, ईर्ष्या, द्रोह तथा असंतोष की जड़ें मिल सकती हैं। मानव के नित्य प्रति के जीवन में जो परस्पर विरोधिता और असामंजस्य कल्पनातीत रूप से वर्तमान है उसका मर्म हमारी अज्ञात चेतना के भीतर निहित है।

🔶 मन की यह अन्तश्चेतना ही व्याधियों का उद्भव स्थान है। प्रत्येक रोग बीज रूप से यहीं से प्रारम्भ होता है। शरीर में उत्पन्न होने से पूर्व प्रत्येक रोग अज्ञात चेतना में अंकुरित पल्लवित एवं फलित होकर क्रमशः शरीर में प्रकट होता है। हमारी जाग्रत चेतना (Consciousness) उसे आकस्मिक और नूतन समझती है और इन अन्तर्स्थित कटुताओं, वैषम्य, असंतोष को भुलाकर अपने आपको (और स्वभावतः दूसरों को) ठगने के लिए बिना विलम्ब कोई छोटा-मोटा कल्पित कारण उपस्थित कर देने की तत्परता में कमाल कर दिखाती है।

🔷 आइये, व्याधियों के कारण शरीर में न ढूंढ़ कर हम मन में ढूंढ़े, अज्ञात पहलुओं पर प्रकाश डालें मन के गहन स्तर से अपने रोगों की चिकित्सा प्रारम्भ करें। जितना ही हम रोग के अज्ञात कारणों को, जो अन्तश्चेतना में गढ़े हुए हैं, मालूम करने की चेष्टा करेंगे और उन्हें चेतन मन के समक्ष प्रस्तुत करने में सफल होंगे, उतनी ही लाभ की आशा करनी चाहिए।

🔶 आधुनिक काल का मानवजीवन अत्यन्त संघर्ष पूर्ण है, वैज्ञानिक जड़वाद तीव्र गति से समाज में विस्तीर्ण हो रहा है, मानव तृष्णा, ईर्ष्या, अहंकार इतने बढ़ गए हैं कि इन समस्त शुभ अशुभ इच्छाओं की परितृप्ति असंभव है। अतृप्त अशुभ संस्कार अत्यन्त मार्मिक रूप में फूटे पड़ रहे हैं। आन्तरिक अन्तर ज्वाला, कशमकश, आघात-प्रतिघात, वैषम्य, भय, भ्राँति और चिन्ता के विचार, अनिष्ट इच्छा के विकृत विचार दीमक की भाँति शरीर को जर्जरित करते तथा बलात्कार हमें रोग व्याधि ग्रस्त रखते हैं। मनुष्य के जीवन की दुर्दशा करने वाला और रोगों से परेशान करने वाला वास्तव में हमारा मन ही है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति फरवरी 1946 पृष्ठ 5

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1946/February/v1.5

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Sep 2024

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