सोमवार, 16 अक्तूबर 2017

👉 देवत्व विकसित करें, कालनेमि न बनें (भाग 4)

🔴 श्रीकृष्ण ने अर्जुन का रथ चलाया था, आपका रथ हम चलाएँगे। काहे का रथ? आपके कारोबार का रथ, आपके व्यापार का रथ? आपके धन्धे का रथ, आपके शरीर का रथ, आपकी गृहस्थी का रथ-यह सब हम चलायेंगे, इसका हम वायदा करते हैं, लेकिन साथ-साथ आपसे यह निवेदन भी करते हैं कि आप हमारे रास्ते पर आइए, साथ-साथ चलिए। हमारे कन्धे से कन्धा मिलाइए। इसमें आपको कोई नुकसान नहीं होगा। आप यह यकीन रखिए हमने उन विरोधियों को मारकर रखा है और विजय की माला आपके लिए गूँथकर रखी है। पाँचों पाण्डवों के लिए विजय की मालाएँ बनी हुई रखी थीं। आपको पहनना है, आपको श्रेय भर लेना है।
    
🔵 यह जो नवयुग का क्रम चल रहा है, उसमें जब आप भागीदार होंगे तो श्रेय आपको ही मिलेगा। आप पूछें-गुरुजी हमारे बीबी-बच्चों का क्या होगा? बेटे, उनकी जिम्मेदारी हमारी है। यदि वे बीमार रहते हैं तो हम उनकी बीमारियाँ दूर कर देंगे। व्यापार में नुकसान होता है तो तेरे उस नुकसान को पूरा करना हमारी जिम्मेदारी है। तेरे व्यापार में जो घाटा पड़ जाए तो तू हमसे वसूल ले जाना। लेकिन जब बच्चा बड़ा हो जाता है, तब कुछ बड़ी चीज दी जाती है जो छोटे बच्चे को नहीं दी जा सकती। अब आप जवान हो गए हैं। अब हम सबको काम-धन्धे से लगाएँगे और जो हमारे पास बाकी बचा है वह भी आप सबको बाँट देंगे। नहीं गुरुजी, जब आप जाएँगे तब अपनी कमाई भी अपने संग ले जाएँगे? बेटे, हम ऐसा नहीं करेंगे। हम आपको देकर जाएँगे। चाहे वह पुण्य की कमाई हो, चाहे वह सांसारिक कमाई हो, चाहे आध्यात्मिक कमाई हो। उस कमाई में तुम्हारा हिस्सा है।

🔴 साथियो ! हमने जीवन भर दिया है। बाप-दादों की दो हजार बीघे जमीन थी, वह हम दे आए और स्त्री के पास जेवर था, वह भी हम दान में दे आए। बच्चों की गुल्लक में पैसे थे वह भी हम दे आए। अब आपके पास कुछ और धन है? नहीं बेटे, धन के नाम पर एक कानी कौड़ी का लाखवाँ हिस्सा भी हमारे पास नहीं है। आपको तलाशी लेना हो या मरने के बाद पता लगाना हो कि गुरुजी के पास क्या मिला, तो मालूम पड़ेगा कि शान्तिकुञ्ज में एक ऋषि रहा करता था और यहाँ की रोटी खाया करता था। बेटे, धन के नाम पर हमारे पास कुछ भी नहीं है, लेकिन हाँ एक पूँजी है हमारे पास, यदि वह न होती तो हम इतनी बड़ी बात क्यों कहते? हमारे पास वह पूँजी है तप की, जिसको हम सामान्य क्लास का कहते हैं। जिससे हम आपकी मुसीबतों में, कठिनाइयों में सहायता कर सकते हैं।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य (अमृतवाणी)

👉 सौभाग्य भरे क्षणों को तिरस्कृत न करें

🔴 ईश्वर ने मनुष्य को एक साथ इकट्ठा जीवन न देकर उसे अलग−अलग क्षणों में टुकड़े−टुकड़े करके दिया है। नया क्षण देने से पूर्व वह पुराना वापिस ले लेता है और देखता है कि उसका किस प्रकार उपयोग किया गया। इस कसौटी पर हमारी पात्रता कसने के बाद ही वह हमें अधिक मूल्यवान क्षणों का उपहार प्रदान करता है।।

🔵 समय ही जीवन है। उसका प्रत्येक क्षण बहुमूल्य है। वे हमारे सामने ऐसे ही खाली हाथ नहीं आते वरन् अपनी पीठ कीमती उपहार लादे होते हैं। यदि उनकी उपेक्षा की जाय तो निराश होकर वापिस लौट जाते है किन्तु यदि उनका स्वागत किया जाय तो उन मूल्यवान संपदाओं को देकर ही जाते है किन्तु यदि ईश्वर ने अपने परम प्रिय राजकुमार के लिए भेजी है।

🔴 जीवन का हर प्रभात सच्चे मित्र की तरह नित नये अनुदान लेकर आता है। वह चाहता है उस दिन का शृंगार करने में इस अनुदान के किये गये सदुपयोग को देख कर प्रसन्नता व्यक्त करें।

🔵 उपेक्षा और तिरस्कार पूर्वक लौटा दिये गये जीवन के क्षण−घटक दुखी होकर वापिस लौटते हैं। आलस्य और प्रमाद में पड़ा हुआ मनुष्य यह देख ही नहीं पाता कि उसके सौभाग्य का सूर्य दरवाजे पर दिन आता है और कपाट बन्द देख कर निराश वापिस लौट जाता है।

🌹 रवीन्द्रनाथ टैगोर
🌹 अखण्ड ज्योति- अप्रैल 1974 पृष्ठ 1

👉 आज का सद्चिंतन 16 Oct 2017


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 16 Oct 2017


👉 क्रोध से बचिये:-

🔴 विश्वामित्र का महर्षि वशिष्ठ से झगड़ा था। विश्वामित्र बहुत विद्वान थे। बहुत तप उन्होंने किया। पहले महाराजा थे, फिर साधु हो गये। वशिष्ठ सदा उनको राजर्षि कहते थे।

🔵 विश्वामित्र कहते थे, "मैंने ब्राह्मणों जैसे सभी कर्म किये हैं, मुझे ब्रह्मर्षि कहो।"

🔴 वसिष्ठ मानते नहीं थे; कहते थे, "तुम्हारे अंदर क्रोध बहुत है, तुम राजर्षि हो।"

🔵 यह क्रोध बहुत बुरी बला है। सवा करोड़ नहीं, सवा अरब गायत्री का जाप कर लें, एक बार का क्रोध इसके सारे फल को नष्ट कर देता है।

🔴 विश्वामित्र वास्तव में बहुत क्रोधी थे। क्रोध में उन्होंने सोचा,'मैं इस वसिष्ठ को मार डालूँगा, फिर मुझे महर्षि की जगह राजर्षि कहने वाला कोई रहेगा नहीं।'

🔵 ऐसा सोचकर एक छुरा लेकर, वे उस वृक्ष पर जा बैठे जिसके नीचे बैठकर महर्षि वसिष्ठ अपने शिष्यों को पढ़ाते थे। शिष्य आये; वृक्ष के नीचे बैठ गये। वसिष्ठ आये; अपने आसन पर विराजमान हो गये। शाम हो गई। पूर्व के आकाश में पूर्णमासी का चाँद निकल आया।

🔴 विश्वामित्र सोच रहे थे,'अभी सब विद्यार्थी चले जाएँगे, अभी वसिष्ठ अकेले रह जायेंगे, अभी मैं नीचे कूदूँगा, एक ही वार में अपने शत्रु का अन्त कर दूँगा।'

🔵 तभी एक विद्यार्थी ने नये निकले हुए चाँद की और देखकर कहा,"कितना मधुर चाँद है वह ! कितनी सुन्दरता है !"

🔴 वसिष्ठ ने चाँद की और देखा ; बोले, "यदि तुम ऋषि विश्वामित्र को देखो तो इस चांद को भूल जाओ। यह चाँद सुन्दर अवश्य है परन्तु ऋषि विश्वामित्र इससे भी अधिक सुन्दर हैं। यदि उनके अंदर क्रोध का कलंक न हो तो वे सूर्य की भाँति चमक उठें।

🔵 "विद्यार्थी ने कहा,"महाराज ! वे तो आपके शत्रु हैं। स्थान-स्थान पर आपकी निन्दा करते हैं।"

🔴 वसिष्ठ बोले, "मैं जानता हूँ,मैं यह भी जानता हूँ कि वे मुझसे अधिक विद्वान् हैं, मुझसे अधिक तप उन्होंने किया है, मुझसे अधिक महान हैं वे, मेरा माथा उनके चरणों में झुकता है।"

🔵 वृक्ष पर बैठे विश्वामित्र इस बात को सुनकर चौंक पड़े। वे बैठे थे इसलिए कि वसिष्ठ को मार डालें और वसिष्ठ थे कि उनकी प्रशंसा करते नहीं थकते थे। एकदम वे नीचे कूद पड़े, छुरे को एक ओर फेंक दिया, वसिष्ठ के चरणों में गिरकर बोले, "मुझे क्षमा करो !"

🔴 वसिष्ठ प्यार से उन्हें उठाकर बोले, "उठो ब्रह्मर्षि !"

🔵 विश्मामित्र ने आश्चर्य से कहा, "ब्रह्मर्षि? आपने मुझे ब्रह्मर्षि कहा? परन्तु आप तो ये मानते नहीं हैं?"

🔴 वसिष्ठ बोले,"आज से तुम ब्रह्मर्षि हुए। महापुरुष! तुम्हारे अन्दर जो चाण्डाल (क्रोध) था, वह निकल गया।"

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...