भटकाव से भ्रमित और कुत्साओं से ग्रसित व्यक्ति ऐससी ललक लिप्साओं में संलग्न रहता है जिन्हें दूरदर्शिता की कसौटी पर कसने से व्यर्थ निरर्थक एवं अनर्थ की ही संज्ञा दी जा सकती है। पेट प्रजनन इतना कठिन नहीं है जिनकी उचित आवश्यकताएँ थोड़ा सा समय श्रम लगाकर जुटाकर जुटाई न जा सके। सामथ्यों और साधनों की बर्बादी तो मूर्खता एवं धूर्तता जैसे प्रयोजनों में ही नष्ट भ्रष्ट होती रहती है। इसे जो जितनी बचा सकेगा उसे अपने पास सत्प्रयोजनों में लगा सकने योग्य भण्डार उतनी ही मात्रा में भरा पूरा दृष्टिगोचर होने लगेगा। बर्बादी से बचने और प्रगति पथ पर चढ़ दौड़ने की सुविधा प्राप्त करने का एक ही उपाय है-संयम। सादा जीवन उच्च विचार का आदर्श अपनाने पर ही व्यक्तित्व के अभ्युदय का शुभारम्भ होता है।
इन्द्रिय संयम, समय संयम, अर्थ संयम और विचार संयम के चतुर्विध आत्मानुशासन को अध्यात्म की भाषा में तप साधना कहा गया है और साधना से सिद्धि का तत्वदर्शन समझाते हुए कहा गया है कि संयमी के पास ही श्रेय खरीदने के लिए पूँजी जुटती है। जिनकी तृष्णाएँ, महत्वाकांक्षाएँ ही आकाश चूमती हैं, जो संकीर्ण स्वार्थों की पूर्ति में ही चित्तवृत्तियों को केन्द्रित किए हुए हैं उन्हें विलास वैभव जुटाने की बात ही सोचते हुए जिन्दगी गुजारनी पड़ती है। परमार्थ की बात तो वे आत्म प्रवंचना एवं लोक विडम्बना के लिए करते रहते हैं। वस्तुतः उनसे उस सन्दर्भ में कोई कारगर कदम उठाते बन नहीं पड़ता। यही कारण है कि महानता और संयम साधना को पर्यायवाची पूरक माना जाता है। औसत नागरिक का स्तर अपनाना, महत्वाकांक्षाएँ उसी परिधि में सीमित कर लेना ऐसा निर्धारण है जिसे अपनाते ही हर स्तर और हर परिस्थिति का व्यक्ति महान प्रयोजनों के लिए नियोजित कर सकने योग्य शारीरिक, मानसिक ही नहीं आर्थिक अनुदान की भी बचत कर सकता है।
अगले दिनों नव सृजन के लिए इतने अधिक प्रकार के इतनी अधिक संख्या में कार्यक्रम अपनाने पड़ेंगे जो वर्तमान कुप्रचलनों का स्थान ग्रहण कर सकें। वर्तमान प्रयोजनों में असीम श्रम और धन लगा हुआ है। नशा एवं मांस व्यवसाय, कुत्सित साहित्य कामुकता भड़काने वाले फिल्म, जुआ, लाटरी जैसे कृत्यों में न जाने कितनी बुद्धि, मेहनत और दौलज लगाई गई है। इसे हटाना तभी संभव है जब समानान्तर सत्प्रवृत्तियों में उस उत्साह को नियोजित किया जा सके। इसके लिए पूँजी भी उतनी ही चाहिए और श्रम भी उतना ही। यह कहाँ से जुटे? स्पष्ट है कि इसकी पूँजी जागृत आत्माओं द्वारा की गई बचत कटौती से ही बन पड़ेगी। शिक्षा, साहित्य, कला, स्वास्थ्य, कुटीर उद्योग, बाल विकाश जैसे कार्यों को इतने विशाल परिमाण में खड़ा करना होगा कि ५०० करोड़ मनुष्यों की इस दुनिया को पुराना छोड़ने के साथ ही नया अपनाने के लिए ढाँचा खड़ा और सरंजाम जुटा दीखे। स्पष्ट है कि इसके लिए समय, श्रम और धन की प्रचुर परिमाण में आवश्यकता पड़ेगी। उसे असमंजस की बेला में सर्व साधारण से उपलब्ध न किया जा सकेगा। उसकी आरम्भिक पूर्ति युग चेतना के अग्रदूतों को ही करनी होगी, अनुकरण का प्रचलन तो बाद में बनेगा।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
इन्द्रिय संयम, समय संयम, अर्थ संयम और विचार संयम के चतुर्विध आत्मानुशासन को अध्यात्म की भाषा में तप साधना कहा गया है और साधना से सिद्धि का तत्वदर्शन समझाते हुए कहा गया है कि संयमी के पास ही श्रेय खरीदने के लिए पूँजी जुटती है। जिनकी तृष्णाएँ, महत्वाकांक्षाएँ ही आकाश चूमती हैं, जो संकीर्ण स्वार्थों की पूर्ति में ही चित्तवृत्तियों को केन्द्रित किए हुए हैं उन्हें विलास वैभव जुटाने की बात ही सोचते हुए जिन्दगी गुजारनी पड़ती है। परमार्थ की बात तो वे आत्म प्रवंचना एवं लोक विडम्बना के लिए करते रहते हैं। वस्तुतः उनसे उस सन्दर्भ में कोई कारगर कदम उठाते बन नहीं पड़ता। यही कारण है कि महानता और संयम साधना को पर्यायवाची पूरक माना जाता है। औसत नागरिक का स्तर अपनाना, महत्वाकांक्षाएँ उसी परिधि में सीमित कर लेना ऐसा निर्धारण है जिसे अपनाते ही हर स्तर और हर परिस्थिति का व्यक्ति महान प्रयोजनों के लिए नियोजित कर सकने योग्य शारीरिक, मानसिक ही नहीं आर्थिक अनुदान की भी बचत कर सकता है।
अगले दिनों नव सृजन के लिए इतने अधिक प्रकार के इतनी अधिक संख्या में कार्यक्रम अपनाने पड़ेंगे जो वर्तमान कुप्रचलनों का स्थान ग्रहण कर सकें। वर्तमान प्रयोजनों में असीम श्रम और धन लगा हुआ है। नशा एवं मांस व्यवसाय, कुत्सित साहित्य कामुकता भड़काने वाले फिल्म, जुआ, लाटरी जैसे कृत्यों में न जाने कितनी बुद्धि, मेहनत और दौलज लगाई गई है। इसे हटाना तभी संभव है जब समानान्तर सत्प्रवृत्तियों में उस उत्साह को नियोजित किया जा सके। इसके लिए पूँजी भी उतनी ही चाहिए और श्रम भी उतना ही। यह कहाँ से जुटे? स्पष्ट है कि इसकी पूँजी जागृत आत्माओं द्वारा की गई बचत कटौती से ही बन पड़ेगी। शिक्षा, साहित्य, कला, स्वास्थ्य, कुटीर उद्योग, बाल विकाश जैसे कार्यों को इतने विशाल परिमाण में खड़ा करना होगा कि ५०० करोड़ मनुष्यों की इस दुनिया को पुराना छोड़ने के साथ ही नया अपनाने के लिए ढाँचा खड़ा और सरंजाम जुटा दीखे। स्पष्ट है कि इसके लिए समय, श्रम और धन की प्रचुर परिमाण में आवश्यकता पड़ेगी। उसे असमंजस की बेला में सर्व साधारण से उपलब्ध न किया जा सकेगा। उसकी आरम्भिक पूर्ति युग चेतना के अग्रदूतों को ही करनी होगी, अनुकरण का प्रचलन तो बाद में बनेगा।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य