युग निर्माण के सत्संकल्प में विवेक को विजयी बनाने का शंखनाद है। हम हर बात को उचित-अनुचित की कसौटी पर कसना सीखें, जो उचित हो वही करें, जो ग्राह्य हो वही ग्रहण करें, जो करने लायक हो उसी को करें। लोग क्या कहते हैं, क्या कहेंगे इस पर ध्यान न दें।
यदि किसी के दिल में वस्तुतः देश, धर्म, समाज, संस्कृति की दुर्दशा पर दुःख होता हो और यदि वस्तुतः उसकी आकाँक्षा इस विषमता को बदल देने की हो तो उसे अपनी सारी शक्ति लगाकर देश में प्रबुद्ध वर्ग उत्पन्न करने की-जो है उसे संगठित एवं सक्रिय बनाने की चेष्टा करनी चाहिए। यदि ऐसा हो सका तो समझना चाहिए कि अनेक क्षेत्रों में बिखरी हुई एक से एक बढ़कर विपन्नताओं में से प्रत्येक का हल ढूँढ लेना संभव हो गया।
ऐसे परिजन जो हमारी वाणी को सुनना नहीं चाहते, जिन्हें हमारे विचारों और प्रेरणाओं की आवश्यकता नहीं, जो हमारे सुझावों और संदेशों का कोई मूल्य नहीं मानते वे हमसे छल करतेह ैं और उनसे सहयोग की आशा हम नहीं कर सकते। शरीर को पूजने वालों के प्रति नहीं, हमारी आत्मा को संतोष देने के लिए जो प्रयत्न करते हैं, उन्हीं के प्रति कृतज्ञता और श्रद्धा से हमारा मस्तक नत हो सकता है।
यदि किसी के दिल में वस्तुतः देश, धर्म, समाज, संस्कृति की दुर्दशा पर दुःख होता हो और यदि वस्तुतः उसकी आकाँक्षा इस विषमता को बदल देने की हो तो उसे अपनी सारी शक्ति लगाकर देश में प्रबुद्ध वर्ग उत्पन्न करने की-जो है उसे संगठित एवं सक्रिय बनाने की चेष्टा करनी चाहिए। यदि ऐसा हो सका तो समझना चाहिए कि अनेक क्षेत्रों में बिखरी हुई एक से एक बढ़कर विपन्नताओं में से प्रत्येक का हल ढूँढ लेना संभव हो गया।
ऐसे परिजन जो हमारी वाणी को सुनना नहीं चाहते, जिन्हें हमारे विचारों और प्रेरणाओं की आवश्यकता नहीं, जो हमारे सुझावों और संदेशों का कोई मूल्य नहीं मानते वे हमसे छल करतेह ैं और उनसे सहयोग की आशा हम नहीं कर सकते। शरीर को पूजने वालों के प्रति नहीं, हमारी आत्मा को संतोष देने के लिए जो प्रयत्न करते हैं, उन्हीं के प्रति कृतज्ञता और श्रद्धा से हमारा मस्तक नत हो सकता है।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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