मंगलवार, 2 अप्रैल 2019

👉 दया और सौम्यता

एक नगर में एक जुलाहा रहता था। वह स्वाभाव से अत्यंत शांत, नम्र तथा वफादार था।उसे क्रोध तो कभी आता ही नहीं था। एक बार कुछ लड़कों को शरारत सूझी। वे सब उस जुलाहे के पास यह सोचकर पहुँचे कि देखें इसे गुस्सा कैसे नहीं आता ?

उन में एक लड़का धनवान माता-पिता का पुत्र था। वहाँ पहुँचकर वह बोला यह साड़ी कितने की दोगे? जुलाहे ने कहा - दस रुपये की।

तब लडके ने उसे चिढ़ाने के उद्देश्य से साड़ी के दो टुकड़े कर दिये और एक टुकड़ा हाथ में लेकर बोला - मुझे पूरी साड़ी नहीं चाहिए, आधी चाहिए। इसका क्या दाम लोगे?

जुलाहे ने बड़ी शान्ति से कहा पाँच रुपये। लडके ने उस टुकड़े के भी दो भाग किये और दाम पूछा? जुलाहे अब भी शांत था। उसने बताया - ढाई रुपये। लड़का इसी प्रकार साड़ी के टुकड़े करता गया। अंत में बोला - अब मुझे यह साड़ी नहीं चाहिए। यह टुकड़े मेरे किस काम के?

जुलाहे ने शांत भाव से कहा - बेटे! अब यह टुकड़े तुम्हारे ही क्या, किसी के भी काम के नहीं रहे। अब लडके को शर्म आई और कहने लगा - मैंने आपका नुकसान किया है। अंतः मैं आपकी साड़ी का दाम दे देता हूँ।

संत जुलाहे ने कहा कि जब आपने साड़ी ली ही नहीं तब मैं आपसे पैसे कैसे ले सकता हूँ? लडके का अभिमान जागा और वह कहने लगा कि, मैं बहुत अमीर आदमी हूँ। तुम गरीब हो। मैं रुपये दे दूँगा तो मुझे कोई फर्क नहीं पड़ेगा,पर तुम यह घाटा कैसे सहोगे? और नुकसान मैंने किया है तो घाटा भी मुझे ही पूरा करना चाहिए।

संत जुलाहे मुस्कुराते हुए कहने लगे - तुम यह घाटा पूरा नहीं कर सकते। सोचो, किसान का कितना श्रम लगा तब कपास पैदा हुई। फिर मेरी स्त्री ने अपनी मेहनत से उस कपास को बीना और सूत काता। फिर मैंने उसे रंगा और बुना। इतनी मेहनत तभी सफल हो जब इसे कोई पहनता, इससे लाभ उठाता, इसका उपयोग करता। पर तुमने उसके टुकड़े-टुकड़े कर डाले। रुपये से यह घाटा कैसे पूरा होगा? जुलाहे की आवाज़ में आक्रोश के स्थान पर अत्यंत दया और सौम्यता थी।

लड़का शर्म से पानी-पानी हो गया। उसकी आँखे भर आई और वह संत के पैरो में गिर गया।

जुलाहे ने बड़े प्यार से उसे उठाकर उसकी पीठ पर हाथ फिराते हुए कहा - बेटा, यदि मैं तुम्हारे रुपये ले लेता तो है उस में मेरा काम चल जाता। पर तुम्हारी ज़िन्दगी का वही हाल होता जो उस साड़ी का हुआ। कोई भी उससे लाभ नहीं होता।साड़ी एक गई, मैं दूसरी बना दूँगा। पर तुम्हारी ज़िन्दगी एक बार अहंकार में नष्ट हो गई तो दूसरी कहाँ से लाओगे तुम? तुम्हारा पश्चाताप ही मेरे लिए बहुत कीमती है।

सीख - संत की उँची सोच-समझ ने लडके का जीवन बदल दिया।

ये कोई और नहीं ये सन्त थे कबीर दास जी

👉 अपनी कमजोरियों को दूर कीजिये (भाग 1)

आप कितनी भी कठिन परिस्थितियों में क्यों न हों, आप अपनी खिन्नता, अपनी मानसिक दशा परिवर्तित करके दूर कर सकते हैं। मस्तिष्क के एक भाग (Cerebrum) से, जहाँ विचार उत्पन्न होते हैं, मस्तिष्क के दूसरे भाग (Thalamus) में जहाँ प्रसन्नता अथवा अप्रसन्नता का अनुभव करते हैं, दूसरे प्रकार के विचार भेज कर खिन्नता तथा उदासीनता दूर की जा सकती है।

निम्नलिखित नाना प्रकार की मानसिक दशाओं में भिन्न-भिन्न विचारों को अपनाइये—

(1) आप अपनी त्रुटियों एवं अवगुणों के विषय में मनन करना बन्द कर दीजिये। अन्य मनुष्यों के अवगुणों की सूची बना लीजिए और उनमें से किसी मुख्य पर ध्यान दीजिए और मनन कीजिए। अपने गुणों को बढ़ाने का प्रयत्न करिए। देखिए कि आप किन-किन बातों में दूसरे मनुष्यों से बढ़कर हैं और उन बातों पर विचार कीजिए। अपने विषय में सोचने के स्थान में दूसरों के विषय में सोचिए। किसी भी काली लड़की का अत्यन्त सुन्दर महिलाओं की संगति में अपने आपको हीन अथवा निकृष्ट नहीं समझना चाहिए। उसे संगीतज्ञ और शिक्षित हो जाने का भरसक प्रयत्न करना चाहिए। अपने गुणों को बढ़ाने के विषय में सोचते रहना चाहिए और दूसरी महिलाओं से अपनी समानता करनी छोड़ देनी चाहिए। अन्य क्षेत्रों में भी जहाँ आपने समानता करने में अपने को दूसरों से कम पाया है, इसी प्रकार अपने विचारों को बदल देना चाहिए।

(2) अन्य मनुष्यों के कार्य और क्रियाओं को उनके दृष्टिकोण से भी देखिए। किसी भी विषय पर केवल अपने ही दृष्टिकोण से विचार करने और दूसरों के विचारों की प्रशंसा न कर सकने के कारण ही क्रोध उत्पन्न होता है। दूसरे मनुष्यों को सुधारने अथवा बदलने की चेष्टा मत करिए।

उपस्थित परिस्थितियों के अनुसार अपने कार्यों और योजनाओं को बदलने का संकल्प कर लीजिए। दूसरे मनुष्यों को अपनी इच्छानुसार बदलने की अपेक्षा स्वयं प्रस्तुत परिस्थिति के अनुसार अपनी योजनायें बदल दीजिए।

क्रोध से बचे रहने का मन में दृढ़ संकल्प कर लीजिए। शान्ति और प्रसन्नता अमूल्य वस्तुयें हैं। आप यदि एक बार भूखे भी रह जायं तो उसकी परवाह मत करिये और शान्त रहिए, किन्तु परेशान, एवं दुखी मत होइए।

.....क्रमशः जारी
📖 अखण्ड ज्योति फरवरी 1956 पृष्ठ 25


http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1956/February/v1.25

👉 The Absolute Law Of Karma (Part 2)


WHO MAINTAINS RECORD OF SINS AND VIRTUES?

A verse in the scriptures states that a suppressed conscience takes one to hell and an awakened conscience leads to heaven. This statement explains the enigma of Heaven and Hell i.e. an individual himself is responsible for creating heaven and hell in his life. Scriptures (Garura Purana) describes this phenomenon metaphorically. It is deity named Chitragupta, who maintains the record of
good and evil deeds of a sentient being. When a living being dies and its soul enters the astral world, this deity presents the record of its good and evil deeds and, based on this account, the soul is assigned to live in heaven or hell.Common sense would not accept existence of a deity like Chitragupta.

The number of human beings inhabiting this earth itself is in billions. If we take into account the other living beings of millions of non-human species, the total number would be beyond mathematical calculation. It would be an impossible task for an individual to work day and night without rest for millions of years maintaining records of each moment of life of innumerable beings of the cosmos. Impracticability of maintenance of such a stupendous record puts a question mark on the very existence of Chitragupta.

Modern science, however, substantiates the reality underlying the metaphorical descriptions given in the scriptures. Science has now established that all mental, verbal and physical activities carried out by an individual having a discriminative mind leave subtle impressions on the deeper levels of the psyche. In this way, like the compressed audio-visual recordings of events on a
microchip of the computer or compact disc, all good and evil deeds are being recorded in the secret chambers of the sub-conscious mind. This record, like a C.D., remains in storage till it is required to be played at a desired moment through an appropriate mechanism. Since time immemorial, enlightened persons in India have wondered about the role of fate in human life. Sanskrit and Hindi literature has abundant references to the “footprints of Karma” (Karma Rekha), which it is said, cannot be erased by any degree of intellectual endeavour.

.... to be continue
✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya
📖 The Absolute Law Of Karma Page 5

👉 आत्मचिंतन के क्षण 2 April 2019

★ विचार मनुष्य जीवन के बनाने अथवा बिगाड़ने में बहुत बड़ा योगदान किया करते हैं। मानव जीवन और उसकी क्रियाओं पर विचारों का आधिपत्य रहने से उन्हीं के अनुसार जीवन का निर्माण होता है। असद्विचार रखकर यदि कोई चाहे कि वह अपने जीवन को आत्मोन्नति की ओर ले जाएगा तो वह अपने इस मंतव्य में कदापि सफल नहीं हो सकता। मानव जीवन का संचालन विचारों द्वारा ही होता है। बुरे विचार उसे पतन की ओर ही ले जाएँगे। यह एक धु्रव सत्य है। इसमें किसी प्रकार भी अपवाद का समावेश नहीं किया जा सकता।

◆ स्वार्थ वृत्ति एक जहरीले साँप की तरह होती है। यह जब अपना फन फैलाती है तो शत्रु-मित्र का विचार किए बिना समान रूप से सबको डस लेती है। एक स्वार्थ वृत्ति से ही मनुष्य में न जाने और कितनी दूषित वृत्तियाँ आ जाती हैं। ईर्ष्या, द्वेष, काम, क्रोध, लोभ और मोह आदि के अनर्थकारी विकार एक स्वार्थ की ही संतति समझनी चाहिए। लौकिक और पारलौकिक, भौतिक तथा आध्यात्मिक, वैयक्तिक तथा सामाजिक किसी भी कल्याण के लिए मनुष्य की स्वार्थ वृत्ति बड़ी भयानक पिशाचिनी है। अपने प्रभाव में लेकर यह मनुष्य को अपने अनुरूप पिशाच ही बना लेती है।

◇ विचारों का परिष्कार एवं प्रसार करके आप मनुष्य से महामनुष्य, दिव्य मनुष्य और यहाँ तक ईश्वरत्त्व तक प्राप्त कर सकते हैं। इस उपलब्धि में आड़े आने के लिए कोई अवरोध संसार में नहीं। यदि कोई अवरोध हो सकता है, तो वह स्वयं ेका आलस्य, प्रमाद, असंमय अथवा आत्म अवज्ञा का भाव। इस अनंत शक्ति का द्वार सबके लिए समान रूप से खुला है और यह परमार्थ का पुण्य पथ सबके लिए प्रशस्त है। अब कोई उस पर चले या न चले यह उसकी अपनी इच्छा पर निर्भर है।

■ आशा, विश्वास और परिवर्तन के अटल विधान में आस्था रखने के साथ समय रूपी महान् चिकित्सक में विश्वास रखिए। समय बड़ा बलवान् और उपचारक होता है। वह धैर्य रखने पर मनुष्य के बड़े-बड़े संकटों को ऐसे टाल देता है जैसे वह आये ही न थे। संकट तथा दुःख  देखकर भयभीत होना कापुरुषता है। आप ईश्वर के अंश हैं-आनंद स्वरूप हैं। आपको तो धैर्य, साहस, आत्म-विश्वास और पुरुषार्थ के आधार पर संकट और विपत्तियों की अवहेलना करते हुए सिंह पुरुषों की तरह ही जीवन व्यतीत करना चाहिए।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 गुरु गोविन्दसिंह के बच्चे

गुरुगोविन्दसिंह ने अपने १६ वर्षीय बड़े पुत्र अजीतसिंह को आज्ञा दी कि 'तलवार लो और युद्ध में जाओ। पिता की आज्ञा पाकर अजीत सिंह युद्ध में कूद पड़ा और वहीं काम आया। इसके बाद गुरु ने अपने द्वितीय पुत्र जोझारसिंह को वही आज्ञा दी। पुत्र ने इतना ही कहा- 'पिताजी प्यास लगी है, पानी पी लूँ। '  इस पर पिता ने कहा-'तुम्हारे भाई के पास खून की नदियाँ बह रही हैं। वहीं प्यास बुझा लेना। ' जोझारसिंह उसी समय युद्ध क्षेत्र को चल दिया और वह अपने भाई का बदला लेते हुए मारा गया।

इन बच्चों के बलिदान से सिखों में ऐसी आग पैदा हुई कि दुश्मनों को अपना खेमा उखाड़ते ही बना। आदर्शो से जुड़ने वाले नरपुंगव दैवी अनुग्रह के पात्र किस प्रकार बनते हैं इसका प्रत्यक्ष उदाहरण आद्य शंकराचार्य, स्वामी दयानन्द, मीरा, स्वामी विवेकानन्द, स्वामी रामतीर्थ एवं तुलसीदास हैं। इन्होंने प्रतिकूलताओं से संघर्ष हेतु साहस दिखाया-यह दैवी अनुग्रह ही था जो उनके अन्त: में प्रेरणा के रूप में उभरा एवं आदर्शवादी उत्कृष्टता से जुड़कर बदले में उन्हें यश-सम्मान भी दे गया।

📖 प्रज्ञा पुराण भाग 1

👉 प्रज्ञा पुराण (भाग 1) श्लोक 83 से 85

भगवन्तं ततो नत्वा वांछा साम्यं विचार्य च।
प्रज्ञापुराणसन्देशमुपदेष्टं जनं जनमू ॥८३॥
जागृतात्मन प्रज्ञाभियान मार्गे नियोजितुम्।
संकल्प्य धरणीमायात् प्रसन्नहृदयस्तदा ॥८४॥
सप्तर्षीणां तपोभूमौ विरम्याथ गतक्लम:।
युगान्तरचिते रूपे विश्वव्यापी बभूव च ॥८५॥

टीका:- नारद ने भगवान् को नमन किया और उनकी इच्छा में अपनी इच्छा मिलाते हुए जन-जन को 'प्रज्ञा पुराण' का सन्देश सुनाने, जागृत-आत्माओं को प्रज्ञा-अभियान प्रयासों में लगाने कौ संकल्प लेकर, प्रसन्न हृदय धरती पर उतरे। सप्त ऋषियों की तपोभूमि मे थोड़ा विराम-विश्राम करके वे युगान्तरीय-चेतना के रूप में विश्वव्यापी बन गये ॥८३-८५॥

व्याख्या"- भक्त की स्वयं की कोई इच्छा नहीं होती। वह भगवान का काम करने का संकल्प लेकर जन्मता है व अपने 'स्व' को चेतन शक्ति में घुला देता है। देवर्षि नारद ने अपनी इच्छा को भगवान की प्रेरणा के साथ मिलाया। एक बार नारद स्वयं मोह में पड़े थे और अपने अहंकार के मद में प्रभु प्रेरणा को समझने में असफल रहे। भगवान ने उनका मोह भंग किया, उन्हें वास्तविकता से अवगत कराया। तब से उन्होंने संकल्प ले लिया कि अब आगे से कभी भी अपनी इच्छा को प्रभु से अलग नहीं रखेंगे।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 प्रज्ञा पुराण (भाग १) पृष्ठ 35-36

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Sep 2024

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