मंगलवार, 21 फ़रवरी 2017

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 22 Feb 2017


👉 आज का सद्चिंतन 22 Feb 2017


👉 नतमस्तक हो गये वनवासी लुटेरे

🔴 शान्तिकुञ्ज हरिद्वार में सन् १९८९ ई. में विचार क्रान्ति के प्रसार के लिए एक स्कूटर टोली बनाई गई। तय यह हुआ कि टोली बलसाड़ से स्कूटर से चलेगी, प्रचार- प्रसार करते हुए शान्तिकुञ्ज पहुँचेगी और तीन दिनों तक वहाँ रुककर दूसरे रूट से वापस बलसाड़ पहुँचेगी। पूरी यात्रा २५ दिनों की थी। पहले तो टोली में २५ लोगों का जाना तय हुआ था, लेकिन कई कारणों से अन्ततः ९ व्यक्तियों की टोली बनाई गई।

🔵 २२ अप्रैल को यात्रा शुरू हुई। चार स्कूटरों पर दो- दो व्यक्ति और एक स्कूटर पर एक अकेला आदमी। सभी इस भाव से भरे थे कि अकेले आदमी वाले स्कूटर पर पूज्य गुरुदेव सूक्ष्म रूप से बैठे हैं। टोली जहाँ- जहाँ रुकी, वहाँ सभी प्रज्ञा परिजनों का भव्य स्वागत हुआ। सभी अमदा में रात्रि विश्राम के लिए रुके। वहाँ के लोगों द्वारा किये गये स्वागत- सत्कार से सभी गदगद हो गए। एक ने तो इस आशय का पत्र लिखकर घर भेज दिया कि रास्ते भर हमने जो देखा- जाना है, जिस तरह से समाहित हुए हैं, उसके बाद जीवन में कुछ देखने- पाने की इच्छा शेष नहीं रह गई है। अब हम यदि जीवित न भी लौटे तो कोई अफसोस नहीं होगा। आप लोग भी चिन्ता मत करना।

🔴 उत्साह और उमंग से भरे सभी शान्तिकुञ्ज पहुँचे, तो उन्होंने देखा कि द्वार नं. २ से लेकर जहाँ अभी गुरुदेव की समाधि बनी है, वहाँ तक दोनों तरफ लोग हाथों में फूल लेकर खड़े थे। गेट के अन्दर प्रवेश करते ही इनके ऊपर पुष्प वृष्टि होने लगी। सभी अभिभूत हो गए।
  
🔵 तीन दिनों तक शान्तिकुञ्ज में रुककर यह टोली बलसाड़ के लिए रवाना हुई। ३,६०० कि.मी.की इस सड़क यात्रा का वापसी का रूट दूसरा था। ये लोग रोज ४००- ५०० कि. मी. चलकर रात्रि विश्राम करते थे व रात को १०- ११ बजे के बीच खाना खाकर सोते थे और सुबह ४ बजे अगले पड़ाव के लिए निकल पड़ते थे।

🔴 गर्मियों के दिन थे, लेकिन तेज धूप में भी इन्हें ऐसा लगता था, जैसे एयरकन्डीशन गाड़ी में सफर कर रहे हों। कहीं कोई थकान नहीं, हर पल तरोताजा। विचार क्रान्ति के बीज बोता हुआ यह काफिला इन्दौर पहुँचा। शाम के पाँच बजे जब ये अगले पड़ाव की ओर चलने को तैयार हुए तो वहाँ के लोगों ने इन्हें आगे जाने से रोका। कारण यह था कि इन्दौर से आगे दाऊद और उसके आसपास का इलाका भीलों के उत्पात के लिए प्रसिद्घ था। रात के समय इनके द्वारा राहगीरों को लूट कर उनकी हत्या तक कर दी जाती थी।

🔵  लेकिन युगशिल्पियों को मौत का भय भी रोक नहीं सका। उन्हें निर्धारित समय के अनुसार अगले पड़ाव पर पहुँचना ही था। इसलिए स्थानीय लोगों के लाख रोकने पर भी सभी पूज्य गुरुदेव का स्मरण करते हुए आगे बढ़ चले।

🔴 रात गहरी होती जा रही थी। सड़क पर दूर- दूर तक सन्नाटा पसरा हुआ था। सड़क के दोनों ओर बड़ी- बड़ी झाड़ियाँ थीं, जंगल ही जंगल था। पाँचों स्कूटर आगे पीछे तेज रफ्तार में बढ़े चले जा रहे थे। अचानक अगले स्कूटर सवार ने गाड़ी की रफ्तार बहुत धीमी कर दी। उसने हेडलाइट की रोशनी में यह देख लिया था कि सड़क पर एक छोर से दूसरे छोर तक बड़े- बड़े पत्थर रखे हुए हैं। धीमी गति से बढ़ते हुए उसने दोनों तरफ आँखें गड़ा कर देखा। दायें- बायें तहमद लपेटे हुए कुछ लोग नंगे बदन खड़े थे। सबके हाथों में तीर कमान।

🔵 स्कूटर सवार ने स्कूटर नहीं रोका। आँखें बंद करके पूज्य गुरुदेव से जीवन रक्षा की गुहार करते हुए उसने स्कूटर की रफ्तार बढ़ाई और दाँत भींचकर दो पत्थरों के बीच से स्कूटर निकाल ले गया।

🔴 अगले सवार को सुरक्षित निकलते देखकर पीछे आ रहे स्कूटर सवार का हौसला बढ़ा। उसने स्कूटर का हैंडिल हल्के से दाएँ- बाएँ घुमाकर हेडलाइट की रोशनी सड़क के दोनों ओर डाली। उसने देखा दोनों ओर तीस- चालीस के करीब लुटेरे खड़े हैं। सब के नंगे कंधों पर धनुष हैं। सबने सिर झुकाकर हाथ जोड़ रखा है।

🔵 सभी स्कूटर सवार एक- एक कर सुरक्षित निकल गए। कुछ दूर जाकर सभी एक जगह रुके। एक- दूसरे से कहने लगे- लुटेरे भीलों से बचकर निकल पाना परम पूज्य गुरुदेव की कृपा से संभव हुआ है। एक ने कहा- गुरुदेव की महिमा असीम है। उनकी कृपा से एक साथ एक ही क्षण में इतने सारे अंगुलिमालों का विचार परिवर्तन हो गया।

🌹 ई.एम.डी. शांतिकुंज हरिद्वार  (उत्तराखण्ड)    
🌹 अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य पुस्तक से
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Samsarn/Wonderfula

👉 महाकाल का प्रतिभाओं को आमंत्रण (भाग 1)

🌹 भूमिका  

🔴 व्यक्तित्व का परिष्कार ही प्रतिभा परिष्कार है। धातुओं की खदानें जहाँ भी होती हैं, उस क्षेत्र के वही धातु कण मिट्टी में दबे होते हुए भी उसी दिशा में रेंगते और खदान के चुम्बकीय आकर्षणों से आकर्षित होकर पूर्व संचित खदान का भार, कलेवर और गौरव बढ़ाने लगते हैं। व्यक्तित्ववान अनेकों का स्नेह, सहयोग, परामर्श एवं उपयोगी सान्निध्य प्राप्त करते चले जाते हैं। यह निजी पुरुषार्थ है।       

🔵 अन्य सुविधा-साधन तो दूसरों की अनुकम्पा भी उपलब्ध करा सकता है; किन्तु प्रतिभा का परिष्कार करने में अपना संकल्प, अपना समय और अपना पुरुषार्थ ही काम आता है। इस पौरुष में कोताही न करने के लिए गीताकार ने अनेक प्रसंगों पर विचारशीलों को प्रोत्साहित किया है। एक स्थान पर कहा गया है कि मनुष्य स्वयं ही अपना शत्रु और स्वयं ही अपना मित्र है। इसलिए अपने को उठाओ, गिराओ मत।  

🌹 इस पुस्तक में हम पढेंगे       
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1. सर्वोपरि उपलब्धि-प्रतिभा

2. प्रतिभा से बढ़कर और कोई समर्थता है नहीं

3. परिष्कृत प्रतिभा, एक दैवी अनुदान-वरदान

4. प्रचंड मनोबल की प्रतिभा में परिणति

5. आगे बढ़ें और लक्ष्य तक पहुँचें

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 व्यवस्थित जीवन की कुंजी- समय की पाबंदी

🔴 नियमपूर्वक तथा समय पर काम करने से सब काम भली प्रकार हो जाते हैं। जो लोग समय के पाबंद नही होते, उनके आधे काम अधूरे और हमेशा धमा-चौकडी़ मची रहती है। कम अच्छी तरह समाप्त हो जाता है तो उत्साह भी मिलता है और प्रसन्नता भी होती है। काम पूरा न होने से असंतोष और अप्रसत्रता होती है। विचारवान् व्यक्ति सदैव समय का पालन करते है। इस तरह दूसरी व्यवस्थाओं और प्रबंध के लिये भी समय बचाए रखते है।

🔵 अमेरिका के प्रथम राष्ट्रपति जार्ज वाशिंगटन के जीवन की एक घटना से समय की पाबंदी की उपयोगिता का प्रकाश मिलता है। एक बार उन्होंने कुछ मेहमानों को तीन बजे भोजन के लिए आमंत्रित किया। साढे़ तीन बजे सैनिक कमांडरो की एक आवश्यक बैठक मे भाग लेना था।

🔴 नौकर जानता था कि जार्ज साहब समय की नियमितता को कितनी दृढता से निबाहते है ? ३ बजे ठीक मेज तैयार हो गई सूचना दी गई तीन बज गये अभी तक मेहमान नहीं आए।

🔵 एकबारगी वाशिंगटन के मस्तिष्क मे एक चित्र उभरा मेहमानों की प्रतीक्षा न की गई तो वे अप्रसन्न हो जायेंगे तो फिर क्या बैठक स्थगित करें। यह समय सारे राष्ट्र के जीवन से संबधित है। क्या अपनी सुविधा के लिये राष्ट्र का अहित करना उचित है, क्या राष्ट्रहित को दो-तीन व्यक्तियों की प्रसन्नता के लिए उत्सर्ग करना बुद्धिमानी होगी।

🔴 हृदय ने दृढतापूर्वक कहा नहीं, नहीं जब परमात्मा अपने नियम से एक सेकण्ड आगे-पीछे नही होता, जिस दिन जितने बजे सूरज को निकलना होता है, बिना किसी की परवाह किये वह उतने ही समय उग आता है तो मुझे ही ईश्वरीय आदेश का पालन करने मे संकोच या भय क्यों होना चाहिये।

🔵 ठीक है नौकर को संबिधित कर उन्होंने कहा- शेष प्लेटें उठा लो, हम अकेले ही भोजन करेंगे। मेहमानो की प्रतीक्षा नहीं की गई।

🔴 आधा भोजन समाप्त हो गया तब मेहमान पहुँचे। उन्हें बहुत दुःख हुआ देर से आने का कुछ अप्रसन्नता भी हुई, वे भोजन में बैठ गये, तब तक बाशिगटन ने अपना भोजन समाप्त किया और निश्चित समय विदा लेकर उस बैठक में भाग लिया।

🔵 मेहमान इसी बात पर रुष्ट थे कि उनकी १५ मिनट प्रतीक्षा नहीं की गई अब और भी कष्ट हुआ क्योकि मेहमान से पहले वे भोजन समाप्त कर वहाँ से चले भी गये। किसी तरह भोजन करके वे लोग भी अपने घर लौट गये।

🔴 सैनिक कमांडरो की बैठक में पहुँचने पर उन्हे पता चला कि यदि वे नियत समय पर नही पहुँचते तो अमेरिका के एक भाग से भयंकर विद्रोह हो जाता। समय पर पहुँच जाने के कारण स्थिति संभाल ली गई और एक बहुत बड़ी जन-धन की हानि को बचा लिया गया।

🔵 इस बात का पता कुछ समय बाद उन मेहमानों को भी चला तो उन्हें समय की नियमित्त्ता का महत्व मालूम पडा। उन्होंने अनुभव किया कि प्रत्येक काम निश्चित समय पर करने, उसमें आलस्य प्रमाद या डील न देने से भयंकर हानियों को रोका जा सकता है और जीवन को सुचारु ढंग से जिया जा सकता है।

🔴 वे फिर से राष्ट्रपति के घर गये और उनसे उस दिन हुई भूल की क्षमा माँगी। राष्ट्रपति ने कहा- 'इसमें क्षमा जैसी तो कोई बात नहीं है पर हाँ, जिन्हें अपने जीवन की व्यवस्था, परिवार, समाज और देश की उन्नति का ध्यान हो, उन्हें समय का कडाई से पालन करना चाहिए।

🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 40, 31

👉 सद्विचारों की सृजनात्मक शक्ति (भाग 17)

🌹 विचारों का व्यक्तित्व एवं चरित्र पर प्रभा

🔴 इससे वे चिकित्सा के क्षेत्र में आन्तरिक स्थिति का लाभ उठाने के विषय में काफी पिछड़ गये। चिकित्सक अब धीरे धीरे इस बात का महत्व समझने और चिकित्सा में मनोदशाओं का समावेश करने लगे हैं। मानस चिकित्सा का एक शास्त्र ही अलग बनता और विकास करता हुआ जा रहा है। अनुभवी लोगों का विश्वास है कि यदि यह मानस चिकित्सा शास्त्र पूरी तरह विकसित और पूर्ण हो गया तो कितने ही रोगों में औषधियों के प्रयोग की आवश्यकता कम हो जायेगी। लोग अब यह मानने के लिए तैयार हो गये हैं कि मनुष्य के अधिकांश रोगों का कारण उसके विचारों तथा मनोदशाओं में नियत रहता है। यदि उनको बदला जाय तो वे  रोग बिना औषधियों के ही ठीक हो सकते हैं। वैज्ञानिक इसकी खोज, प्रयोग तथा परीक्षण में लगे हुए हैं।

🔵 शरीर रचना के सम्बन्ध में जांच करने वाले एक प्रसिद्ध वैज्ञानिक ने  अपनी प्रयोगशाला में तरह-तरह के परीक्षण करके यह निष्कर्ष निकला है कि मनुष्य का शरीर अर्थात् हड्डियां, मांस, स्नायु आदि मनुष्य की मनोदशा के अनुसार एक वर्ष में बिल्कुल परिवर्तित हो जाते हैं और कोई-कोई भाग तो एक दो सप्ताह में ही बदल जाते हैं।

🔴 इसमें सन्देह नहीं कि चिकित्सा के क्षेत्र में मानसोपचार का बहुत महत्व है। सच बात तो यह है कि आरोग्य प्राप्ति का प्रभावशाली उपाय आन्तरिक स्थिति का अनुकूल प्रयोग ही है। औषधियों तथा तरह-तरह की जड़ी-बूटियों का उपयोग कोई स्थाई लाभ नहीं करता, उनसे तो रोग के बाह्य लक्षण दब भर जाते हैं। रोग का मूल कारण नष्ट नहीं होता। जीवनी शक्ति जो आरोग्य का यथार्थ आधार है, मनोदशाओं के अनुसार बढ़ती-घटती रहती है। यदि रोगी के लिए ऐसी स्थिति उत्पन्न कर दी जाय कि वह अधिक से अधिक प्रसन्न तथा उल्लसित रहने लगे तो उसकी जीवनी-शक्ति बढ़ जायेगी, जो प्रभाव से रोग को निर्मूल कर सकती है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 मन: स्थिति बदले तो परिस्थिति बदले (भाग 25)


🌹 उदारता अपनाई ही जाए  
🔵 यह समझने समझाने के अतिरिक्त और किसी प्रकार बात बनती ही नहीं कि अपनी सोच बदल ली जाये, तो अत्यधिक व्यथित-व्याकुल किए रहने वाली समस्या चुटकी बजाने की तरह मिनटों में हल हो सकती है। रंगीन चश्मा पहन लेने पर सारा संसार रंगीला दीख पड़े, तो उस गड़बड़ी से एक ही प्रकार निपटा जा सकता है कि चश्मा उतार दिया जाये और जो वस्तु जैसी है, उसे उसी रूप में देख कर सन्तोष कर लिया जाये। अपने निजी शरीर से लेकर संसार भर में बिखरे अनेकानेक प्राणियों और पदार्थों तक प्रकृति का सुविस्तृत वैभव बिखरा पड़ा है।   

🔴 इसमें अपना अधिकार मात्र उतने पर है जितने से कि निर्वाह क्रम चलता रहे। इसके अतिरिक्त और जो कुछ बचा रहता है, वह इस सृष्टि के निवासी व अन्यान्य जड़ चेतन घटकों के लिए है। सब अपनी अपनी भागीदारी बरतें और इतने से ही सन्तुष्ट रहें, तो अच्छे बच्चों की तरह सभी अपने अरमान लेकर, हँसते-हँसाते खेलते-खिलाते रह सकते हैं। पर जब वे एक दूसरे का हक छीनने के लिए आक्रामक उद्दण्डता अपनाते हैं तो पारस्परिक सद्भावना तो गँवाते ही हैं, साथ ही उस हुड़दंग के लिए अभिभावकों की चपतें भी खाते हैं।    

🔵 ऐसे बुरे बच्चे कम से कम हमें तो नहीं ही होना चाहिए, जिनके सम्बन्ध में सर्वत्र समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी, बहादुरी जैसे व्यवहार की अपेक्षा की जाती है, साथ ही उपलब्धियों के न्यायोचित वितरण, विभाजन एवं सदुपयोग की आशा की जाती है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 पूजा-उपासना के मर्म (भाग 2)

👉 युग ऋषि की अमृतवाणी

🔴 मित्रो! यह सिंहासन है और इस पर हर आदमी को बैठने का हक नहीं। उस सिंहासन पर बैठने का हक उस आदमी को है, जिसने केवल अपनी जबान से, जबान तक सीमित नहीं रखा गायत्री मंत्र को। उँगलियों तक सीमित नहीं रखा गायत्री मंत्र को, बल्कि इस अमृत को पीता हुआ चला गया और अपने हृदय के अन्तरंग से लेकर के रोम-रोम में जिसने परिप्लावित कर लिया। उसको ये चमत्कार देखने का हक है और वो आदमी ये कह सकता है कि हमने गायत्री मंत्र जपा था और हमको फायदा नहीं हुआ, ऐसा आदमी आये मेरे पास और मैं कहूँगा आपको फायदा दिलाने की मेरी जिम्मेदारी है और मैं अपना तप, अपने पुण्य के अंश काटकर के आपको दूँगा और आपको ये यकीन और ये विश्वास करा करके जाऊँगा।

🔵 गायत्री मंत्र के माने है भावनाओं का परिष्कार, भावनाओं का परिष्कार जो मुझे मेरे गुरु ने सिखाया था। मित्रो! मेरे रोम-रोम में समाया हुआ है गायत्री महामंत्र बुद्धि का संशोधन करने का मंत्र। मैंने सारा का सारा दिमाग इस मार्ग पर खर्च किया कि मेरी अकल, मेरी विचारणाएँ, मेरी इच्छाएँ, मेरी आकांक्षाएँ, मेरा दृष्टिकोण और मेरे विचार करने के ढंग, मेरी आकांक्षाएँ और मेरी ख्वाहिशें, क्या उस तरह की हैं, जैसे कि एक गायत्री भक्त की होनी चाहिए। मैं अपने आपको बराबर कसता रहा और अपने आपकी परख बराबर करता रहा। खोटे होने की परख, खरे होने की परख।

🔴 पुराने जमाने के रुपये को कसौटी लगायी जाती थी, पुराने जमाने में जो रुपये चला करते थे, कसौटी लगाई जाती थी। वो खोटा अलग फेंक देते थे, खरा अलग फेंक देते थे। मैंने अपने आपकी कसौटी लगाई और कसौटी बता देती थी कि ये खोटा पैसा है, खरा पैसा है। अपनी हर मनोवृत्ति के ऊपर कसौटी लगाता चला गया और मैं यह देखता हुआ चला गया कि मैं कहाँ खोटा सिक्का हूँ, कहाँ खरा? जहाँ खोटा था, अपने आपको सँभालता रहा; जहाँ खरापन था, वहाँ सुधारता रहा।  

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/amart_vachan_jivan_ke_sidha_sutra/pooja_upasna_ke_marn

👉 हमारी वसीयत और विरासत (भाग 58)

🌹 अनगढ़ मन हारा, हम जीते

🔴 यह बातें पढ़ी और सुनीं तो पहले भी थीं, पर अनुभव में इस वर्ष के अंतर्गत ही आईं, जो प्रथम हिमालय यात्रा में व्यवहार में लानी पड़ीं। यह अभ्यास एक अच्छी-खासी तपश्चर्या थी, जिसने अपने ऊपर नियंत्रण करने का भली प्रकार अभ्यास करा दिया। अब हमें विपरीत परिस्थितियों में भी गुजारा करने से परेशानी का अनुभव नहीं होता था। हर प्रतिकूलता को अनुकूलता की तरह अभ्यास में उतारते देर नहीं लगती।

🔵 एकाकी जीवन में काम, क्रोध, लोभ, मोह का कोई अवसर नहीं था। इसलिए उनसे निपटने का कोई झंझट सामने नहीं आया। परीक्षा के रूप में जो भय प्रलोभन सामने आए उन्हें हँसी में उड़ा दिया गया। यहाँ स्वाभिमान भी काम न कर पाया। सोचा ‘‘हम आत्मा हैं। प्रकाश पुञ्ज और समर्थ। गिराने वाले भय और प्रलोभन हमें न तो गिरा सकते हैं न उल्टा घसीट सकते हैं।’’ मन का निश्चय सुदृढ़ देखकर पतन और पराभव के जो भी अवसर आए, वे परास्त होकर वापस लौट गए। एक वर्ष के उस हिमालय निवास में जो ऐसे अवसर आए, उनका उल्लेख करना यहाँ इसलिए उपयुक्त नहीं समझा कि अभी हम जीवित हैं और अपनी चरित्र निष्ठा की ऊँचाई का वर्णन करने में कोई आत्म-श्लाघा की गंध सूँघ सकता है।

🔴 यहाँ तो हमें मात्र इतना ही कहना है कि अध्यात्म पथ के पथिक को आए दिन भय और प्रलोभनों का दबाव सहना पड़ता है। इनसे जूझने के लिए हर पथिक को कमर कसकर तैयार रहना चाहिए। जो इतनी तैयारी न करेगा उसे उसी तरह पछताना पड़ेगा, जिस प्रकार सरकस के संचालक और रिंग मास्टर का पद बिना तैयारी किए कोई ऐसे सम्भाल ले और पीछे हाथ पैर तोड़ लेने अथवा जान जोखिम में डालने का उपहास कराए।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/hari/angarh

👉 "सुनसान के सहचर" (भाग 59)

🌹 लक्षपूर्ति की प्रतीक्षा

🔵 लगा कि नीचे पड़ी शिला की आत्मा बोल रही है उसकी वाणी कम्बल को चीरती हुई, कानों से लेकर हृदय तक प्रवेश करने लगी। मन तंद्रित अवस्था में भी उसे ध्यानपूर्वक सुनने लगा।

🔴 शिला की आत्मा बोली—‘‘साधक! क्या तुझे आत्मा में रस नहीं आता, जो सिद्धि की बात सोचता है? भगवान् के दर्शन से क्या भक्ति भावना में कम रस है? लक्ष प्राप्ति से क्या यात्रा मंजिल कम आनन्द दायक है? फल से क्या कर्म का माधुर्य फीका है? मिलन से क्या विरह में कम गुदगुदा है? तू इस तथ्य को समझ। भगवान तो भक्त से ओत-प्रोत ही हैं। उसे मिलने में देरी ही क्या है? जीवन को साधना का आनन्द लूटने का अवसर देने के लिए ही उसने अपने को पर्दे में छिपा लिया है और झांक-झांक कर देखता रहता है कि मेरा, भक्त, भक्ति के आनन्द में सराबोर हो रहा है या नहीं? जब वह उस रस में निमग्न हो जाता है तो भगवान भी आकर उसके साथ रास नृत्य करने लगता है। सिद्धि वह है जब भक्त कहता है—मुझे सिद्धि नहीं भक्ति चाहिये। मुझे मिलन की नहीं विरह की अभिलाषा है। मुझे सफलता में नहीं कर्म में आनन्द है। मुझे वस्तु नहीं भाव चाहिए।’’

🔵 शिला की आत्मा आगे भी कहती ही गई। उसने और भी कहा—साधक! सामने देख, गंगा अपने प्रियतम से मिलने के लिये कितनी आतुरता पूर्वक दौड़ी जा रही है। उसे इस दौड़ में आनन्द है। समुद्र से मिलन तो उसका कब का हो चुका पर उसमें उसने रस कहां पाया? जो आनन्द प्रयत्न में है, भावना में है, आकुलता में है वह मिलन में कहां है? गंगा उस मिलन से तृप्त नहीं हुई, उसने मिलन प्रयत्न को अनन्त काल तक जारी रखने का व्रत लिया हुआ है फिर अधीर साधक, तू ही क्या उतावली करता है। तेरा लक्ष महान् है, तेरा पथ महान् है, तू महान् है, तेरा कार्य भी महान् है। महान् उद्देश्य के लिए महान् धैर्य चाहिए। बालकों जैसी उतावली का यहां क्या प्रयोजन? सिद्धि कब तक मिलेगी यह सोचने में मन लगाने से क्या लाभ?’’

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Sep 2024

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