अविनाशी चैतन्य के प्रति समर्पण है भक्ति
महर्षि शाण्डिल्य कहते हैं कि जब तुम्हारे सामने चुनाव का अवसर आये तो जड़ को मत चुनना। चुन लेना तुम चैतन्य को, क्योंकि वही तुम्हारा अविरोधी है। उससे अनुराग तुम्हें स्वाभाविक रूप से ही प्रकाशित कर देगा। यदि चुनाव इसके विपरीत हुआ तो चैतन्यता सुप्त हो जायेगी और प्रकाश लुप्त हो जायेगा।’’
‘‘इस प्रसंग में मुझे बड़ा ही मधुर कथाप्रसंग स्मरण हो रहा है।’’ परम भागवताचार्य शुकदेव के मधुर स्वर प्रस्फुटित हुए। मुनि शुकदेव कथा सुनाना चाहते हैं, यह सुनना ही सबके लिए सुखद था। सभी ने लगभग एक साथ उनसे कथा कहने का अनुरोध कर डाला। मुनि श्रेष्ठ शुकदेव ने हरि ॐ तत्सत् का मधुर उच्चारण करते हुए कहना शुरु किया-‘‘यह कथा विदर्भ देश के ब्राह्मण श्वेताक्ष की है। श्वेताक्ष वेद-शास्त्र आदि ज्ञान में पारंगत-यज्ञविद्या के परम आचार्य थे। उनकी शास्त्रनिष्ठा एवं ईश्वरनिष्ठा अपूर्व थी। उनकी विनयशीलता एवं मधुर वचनों की सभी सराहना करते थे। उनका प्रत्येक आचरण शुद्ध एवं निष्कपट था। निष्काम कर्मयोग की वे जीवन्त मूर्ति थे। गुरुकुलों में उनका दृष्टान्त दिया जाता था कि आचार्य हो तो श्वेताक्ष की भाँति। आरण्यकों के तपस्वी उनमें तपोनिष्ठा का प्रमाण पाते थे।
इसे दुर्देव कहें या दुर्भाग्य अथवा फिर काल का कोप, आचार्य श्वेताक्ष की युवा पत्नी अपने नवजात शिशु को छोड़कर परलोक सिधार गयी। श्वेताक्ष ने बड़ी प्रसन्नतापूर्वक उसके सभी अंतिम संस्कार पूर्ण किये और आनन्द पूर्वक अपने शिशु का पालन-पोषण करते हुए अपने नित्य, नैमित्तिक कर्त्तव्यों में लग गये। यह महाघात उन्हें तनिक भी विचलित न कर सका। उनके मुख की ्रसन्नता व कान्ति यथावत बनी रही। परन्तु क्रूर काल का कोप अभी थमा नहीं था। उनकी सम्पत्ति-समृद्धि का क्षय होने लगा। कुछ ही समय में ब्राह्मण श्रेष्ठ श्वेताक्ष कंगाल हो गये। उन्हें रोज का भोजन मिलना भी कठिन हो गया। लेकिन अभी भी उनके जीवन में विपत्तियों के विषादी स्वर थमे न थे।
एक दिन अनायास ही उनकी इकलौती संतान नागदंश से मृत्यु को प्राप्त हो गयी। रोग भी उन्हें घेरने लगे। परन्तु इन दारुण यातनाओं में भी वे अविचलित थे। दुःख के अनगिनत कारणों एवं घटनाक्रमों के बीच भी वे प्रसन्न थे।’’ ब्राह्मण श्वेताक्ष के इस कथा के करुण प्रसंग को सुनाते हुए शुकदेव ने कहा- ‘‘हे महर्षि गण! इन दिनों उन महाभाग से हमारी भेंट हुई। उनके बारे में मुझे बहुत कुछ सुनने को मिल चुका था। उन्हें प्रत्यक्ष देखकर उनकी प्रसन्नता, शान्ति एवं उनकी कान्ति देखकर मैंने मन ही मन उन्हें प्रणाम किया।
ब्राह्मणश्रेष्ठ श्वेताक्ष ने बड़े ही प्रसन्न मन से मेरा स्वागत किया। उनसे ईश्वर चर्चा करते हुए-वार्तालाप के प्रसंग में मैंने उनसे पूछा-हे विप्र! आप इन विपन्नताओं-विषमताओं के बीच किस तरह प्रसन्न रहते हैं। अपने उत्तर में वह पहले तो मुस्कराये, फिर कहने लगे-हे महामुनि! इस सबका रहस्य मेरी प्रभु भक्ति में है। मैं अपने आराध्य से-उन सर्वेश्वर से इतना प्रगाढ़ प्रेम करता हूँ कि किसी तरह की घटनाएँ मुझे विचलित कर ही नहीं पातीं।
इस प्रभु प्रेम ने ही मुझे इस सत्य का बोध कराया है कि परम चेतना की चैतन्यता ही एक मात्र सत्य एवं अविनाशी है। जड़ता सदैव ही नाशवान है। फिर वह कोई पदार्थ हो या लौकिक सम्बन्ध अथवा फिर यह नाशवान देह। जीवन में विपत्तियाँ एवं विषमताएँ कितनी भी और कैसी भी आएँ, पर वे नष्ट उन्हीं को कर पाती हैं जिनका कि स्वाभाविक नाश होना ही है। जो अविनाशी है उसे कोई भी व्यक्ति, वस्तु या घटना नहीं नष्ट करती। उन अविनाशी प्रभु की भक्ति ने मुझे इस जीवन सत्य का बोध दिया है। यही वजह है कि ज्यों-ज्यों विपत्तियाँ बढ़ती गयीं, त्यों-त्यों मेरी भक्ति भी प्रगाढ़ होती गयी।’’ मुनीश्वर शुकदेव द्वारा कहे गये इस कथाप्रसंग को सुनकर सभी भावाश्रुओं में डूब गये। सभी को बस इतना ही अनुभव हो सका कि सचमुच यही है भक्ति।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ ७९