शनिवार, 17 जुलाई 2021

👉 मैं तुम्हारे साथ हूँ ...

प्रतिवर्ष माता पिता अपने पुत्र को गर्मी की छुट्टियों में उसके दादा  दादी के घर ले जाते। 10-20 दिन सब वहीं रहते और फिर लौट आते। ऐसा प्रतिवर्ष चलता रहा। बालक थोड़ा बड़ा हो गया।

एक दिन उसने अपने माता पिता से कहा कि  अब मैं अकेला भी दादी के घर जा सकता हूं ।तो आप मुझे अकेले को दादी के घर जाने दो। माता पिता पहले  तो राजी नहीं हुए।  परंतु बालक ने जब जोर दिया तो उसको सारी सावधानी समझाते हुए अनुमति दे दी।

जाने का दिन आया। बालक को छोड़ने स्टेशन पर गए।
ट्रेन में उसको उसकी सीट पर बिठाया। फिर बाहर आकर खिड़की में से उससे बात की ।उसको सारी सावधानियां फिर से समझाई।

बालक ने कहा कि मुझे सब याद है। आप चिंता मत करो। ट्रेन को सिग्नल मिला। व्हीसिल लगी। तब  पिता ने एक लिफाफा पुत्र को दिया कि बेटा अगर रास्ते में तुझे डर लगे तो यह लिफाफा खोल कर इसमें जो लिखा उसको पढ़ना बालक ने पत्र जेब में रख लिया।

माता पिता ने हाथ हिलाकर विदा किया। ट्रैन चलती रही। हर स्टेशन पर लोग आते रहे पुराने उतरते रहे। सबके साथ कोई न कोई था। अब बालक को अकेलापन लगा। ट्रेन में अगले स्टेशन पर ऐसी शख्सियत आई जिसका चेहरा भयानक था।
           
पहली बार बिना माता-पिता के, बिना किसी सहयोगी के, यात्रा कर रहा था। उसने अपनी आंखें बंद कर सोने का प्रयास किया परंतु बार-बार वह चेहरा उसकी आंखों के सामने घूमने लगा। बालक भयभीत हो गया। रुंआसा हो गया। तब उसको पिता की चिट्ठी। याद आई।

उसने जेब में हाथ डाला। हाथ कांपरहा था। पत्र निकाला। लिफाफा खोला। पढा पिता ने लिखा था तू डर मत मैं पास वाले कंपार्टमेंट में ही इसी गाड़ी में बैठा हूं। बालक का चेहरा खिल उठा। सब डर दूर  हो गया।

मित्रों,
जीवन भी ऐसा ही है।
जब भगवान ने हमको इस दुनिया में भेजा उस समय उन्होंने हमको भी एक पत्र दिया है, जिसमें  लिखा है, "उदास मत होना, मैं हर पल, हर क्षण, हर जगह तुम्हारे साथ हूं। पूरी यात्रा तुम्हारे साथ करता हूँ। वह हमेशा हमारे साथ हैं।
अन्तिम श्वास तक।

👉 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति (भाग ४२)

सिद्ध न होने पर भी

सर ए.एस. एडिग्रन ने इसी तथ्य को यों प्रतिपादित किया है—‘‘भौतिक पदार्थों के भीतर एक चेतन शक्ति काम कर रही है जिसे अणु प्रक्रिया का प्राण कहा जा सकता है। हम उसका सही स्वरूप और क्रियाकलाप अभी नहीं जानते, पर यह अनुभव कर सकते हैं कि संसार में जो कुछ हो रहा है वह अनायास, आकस्मिक या अविचारपूर्ण नहीं है।

आधुनिक विज्ञान पदार्थ का अन्तिम विश्लेषण करने में भी अभी समर्थ नहीं हो सकता है। उदाहरण के लिए परमाणु का विखण्डन हो जाने के बाद पदार्थ का एक ऐसा सूक्ष्मतम रूप अस्तित्व में आया है जिसे वैज्ञानिक अभी तक पूरी तरह समझ नहीं पाये हैं। जैसे प्रकाश कोई वस्तु नहीं है। वस्तु अर्थ है जो स्थान घेरे, जिसमें कुछ भार हो और जिसका विभाजन किया जा सके। प्रकाश का न तो कोई भाव होता है, न वह स्थान घेरता है और न ही उसका विभाजन किया जा सकता है। पदार्थ का अन्तिम कण जो परमाणु से भी सूक्ष्म है ठीक प्रकाश की तरह है, परन्तु उसमें एक वैचित्र्य भी है कि वह तरंग होने के साथ-साथ स्थान भी घेरता है। वैज्ञानिकों ने परमाणु से भी सूक्ष्म इस स्वरूप को नाम दिया है—‘‘क्वाण्टा’’।

कहने का अर्थ यह है कि भौतिक विज्ञान अभी पदार्थ का विश्लेषण करने में भली-भांति समर्थ नहीं हो सका है फिर चेतना का विश्लेषण और प्रमाणीकरण करना तो बहुत दूर की बात है। शरीर संस्थान में चेतना का प्रधान कार्यक्षेत्र मस्तिष्क कहा जाता है। वहीं विचार उठते हैं, चिन्तन चलता है, भाव-सम्वेदनाओं की अनुभूति होती है। शरीर विज्ञान की अद्यतन शोध प्रगति भी मस्तिष्कीय केन्द्र का रहस्य समझ पाने में असमर्थ रही है। डा. मैकडूगल ने अपनी पुस्तक ‘‘फिजियौलाजिकल साइकोलाजी’’ में लिखा है—‘‘मस्तिष्क की संरचना को कितनी ही बारीकी से देखा समझा जाय यह उत्तर नहीं मिलता कि मानव प्राणी पाशविक स्तर से ऊंचा उठकर किस प्रकार ज्ञान विज्ञान की धारा में बहता रहता है और कैसे भावनाओं सम्वेदनाओं से ओत-प्रोत रहता है। भाव सम्वेदनाओं की गरिमा को समझाते हुए हमें यह भी स्वीकार करना पड़ेगा कि मनुष्य के भीतर कोई अमूर्त सत्ता भी विद्यमान है जिसे आत्मा अथवा भाव चेतना जैसा कोई नाम दिया जा सकता है।’’

जीवित और मृत्यु देह में मूलभूत रासायनिक तत्वों में कोई परिवर्तन होता है तो इतना भर कि उनकी गति, निरन्तर उनका होता रहने वाला रूपान्तरण विकास अवरुद्ध हो जाता है। इस अवरुद्ध क्रम को चालू करने के कितने ही प्रयास किये गये, परन्तु उनमें कोई सफलता नहीं मिल सकी। प्रयास अभी भी जारी हैं, परन्तु भिन्न ढंग के। अब यह सोचा जा रहा है कि मृत्यु के समय शरीर में विलुप्त हो जाने वाली चेतना को पुनः किसी प्रकार लौटाया जा सके तो पुनर्जीवन सम्भव है। इसी आधार पर ‘‘मिस्टिरियस यूनिवर्स’’ ग्रन्थ के रचयिता सरजेम्स जोन्स ने लिखा है विज्ञान जगत अब पदार्थ सत्ता का नियन्त्रण करने वाली चेतन सत्ता की ओर उन्मुख हो रहा है तथा यह खोजने में लगा है कि हर पदार्थ को गुण धर्म की रीति-नीति से नियन्त्रित करने वाली व्यापक चेतना का स्वरूप क्या है? पदार्थ को स्वसंचालिता इतनी अपूर्ण है कि उस आधार पर प्राणियों की चिन्तन क्षमता का कोई समाधान नहीं मिलता।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति पृष्ठ ६६
परम पूज्य गुरुदेव ने यह पुस्तक 1979 में लिखी थी

👉 भक्तिगाथा (भाग ४२)

अविनाशी चैतन्य के प्रति समर्पण है भक्ति
    
महर्षि शाण्डिल्य कहते हैं कि जब तुम्हारे सामने चुनाव का अवसर आये तो जड़ को मत चुनना। चुन लेना तुम चैतन्य को, क्योंकि वही तुम्हारा अविरोधी है। उससे अनुराग तुम्हें स्वाभाविक रूप से ही प्रकाशित कर देगा। यदि चुनाव इसके विपरीत हुआ तो चैतन्यता सुप्त हो जायेगी और प्रकाश लुप्त हो जायेगा।’’
    
‘‘इस प्रसंग में मुझे बड़ा ही मधुर कथाप्रसंग स्मरण हो रहा है।’’ परम भागवताचार्य शुकदेव के मधुर स्वर प्रस्फुटित हुए। मुनि शुकदेव कथा सुनाना चाहते हैं, यह सुनना ही सबके लिए सुखद था। सभी ने लगभग एक साथ उनसे कथा कहने का अनुरोध कर डाला। मुनि श्रेष्ठ शुकदेव ने हरि ॐ तत्सत् का मधुर उच्चारण करते हुए कहना शुरु किया-‘‘यह कथा विदर्भ देश के ब्राह्मण श्वेताक्ष की है। श्वेताक्ष वेद-शास्त्र आदि ज्ञान में पारंगत-यज्ञविद्या के परम आचार्य थे। उनकी शास्त्रनिष्ठा एवं ईश्वरनिष्ठा अपूर्व थी। उनकी विनयशीलता एवं मधुर वचनों की सभी सराहना करते थे। उनका प्रत्येक आचरण शुद्ध एवं निष्कपट था। निष्काम कर्मयोग की वे जीवन्त मूर्ति थे। गुरुकुलों में उनका दृष्टान्त दिया जाता था कि आचार्य हो तो श्वेताक्ष की भाँति। आरण्यकों के तपस्वी उनमें तपोनिष्ठा का प्रमाण पाते थे।
    
इसे दुर्देव कहें या दुर्भाग्य अथवा फिर काल का कोप, आचार्य श्वेताक्ष की युवा पत्नी अपने नवजात शिशु को छोड़कर परलोक सिधार गयी। श्वेताक्ष ने बड़ी प्रसन्नतापूर्वक उसके सभी अंतिम संस्कार पूर्ण किये और आनन्द पूर्वक अपने शिशु का पालन-पोषण करते हुए अपने नित्य, नैमित्तिक कर्त्तव्यों में लग गये। यह महाघात उन्हें तनिक भी विचलित न कर सका। उनके मुख की ्रसन्नता व कान्ति यथावत बनी रही। परन्तु क्रूर काल का कोप अभी थमा नहीं था। उनकी सम्पत्ति-समृद्धि का क्षय होने लगा। कुछ ही समय में ब्राह्मण श्रेष्ठ श्वेताक्ष कंगाल हो गये। उन्हें रोज का भोजन मिलना भी कठिन हो गया। लेकिन अभी भी उनके जीवन में विपत्तियों के विषादी स्वर थमे न थे।
    
एक दिन अनायास ही उनकी इकलौती संतान नागदंश से मृत्यु को प्राप्त हो गयी। रोग भी उन्हें घेरने लगे। परन्तु इन दारुण यातनाओं में भी वे अविचलित थे। दुःख के अनगिनत कारणों एवं घटनाक्रमों के बीच भी वे प्रसन्न थे।’’ ब्राह्मण श्वेताक्ष के इस कथा के करुण प्रसंग को सुनाते हुए शुकदेव ने कहा- ‘‘हे महर्षि गण! इन दिनों उन महाभाग से हमारी भेंट हुई। उनके बारे में मुझे बहुत कुछ सुनने को मिल चुका था। उन्हें प्रत्यक्ष देखकर उनकी प्रसन्नता, शान्ति एवं उनकी कान्ति देखकर मैंने मन ही मन उन्हें प्रणाम किया।
    
ब्राह्मणश्रेष्ठ श्वेताक्ष ने बड़े ही प्रसन्न मन से मेरा स्वागत किया। उनसे ईश्वर चर्चा करते हुए-वार्तालाप के प्रसंग में मैंने उनसे पूछा-हे विप्र! आप इन विपन्नताओं-विषमताओं के बीच किस तरह प्रसन्न रहते हैं। अपने उत्तर में वह पहले तो मुस्कराये, फिर कहने लगे-हे महामुनि! इस सबका रहस्य मेरी प्रभु भक्ति में है। मैं अपने आराध्य से-उन सर्वेश्वर से इतना प्रगाढ़ प्रेम करता हूँ कि किसी तरह की घटनाएँ मुझे विचलित कर ही नहीं पातीं।
    
इस प्रभु प्रेम ने ही मुझे इस सत्य का बोध कराया है कि परम चेतना की चैतन्यता ही एक मात्र सत्य एवं अविनाशी है। जड़ता सदैव ही नाशवान है। फिर वह कोई पदार्थ हो या लौकिक सम्बन्ध अथवा फिर यह नाशवान देह। जीवन में विपत्तियाँ एवं विषमताएँ कितनी भी और कैसी भी आएँ, पर वे नष्ट उन्हीं को कर पाती हैं जिनका कि स्वाभाविक नाश होना ही है। जो अविनाशी है उसे कोई भी व्यक्ति, वस्तु या घटना नहीं नष्ट करती। उन अविनाशी प्रभु की भक्ति ने मुझे इस जीवन सत्य का बोध दिया है। यही वजह है कि ज्यों-ज्यों विपत्तियाँ बढ़ती गयीं, त्यों-त्यों मेरी भक्ति भी प्रगाढ़ होती गयी।’’ मुनीश्वर शुकदेव द्वारा कहे गये इस कथाप्रसंग को सुनकर सभी भावाश्रुओं में डूब गये। सभी को बस इतना ही अनुभव हो सका कि सचमुच यही है भक्ति।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ ७९

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