मंगलवार, 4 अप्रैल 2023

👉 शत्रु बनाने का परीक्षित मार्ग (अन्तिम भाग)

अधिकतर व्यक्ति शिकायत करते हैं कि अमुक मित्र ऐसा है, अमुक सम्बन्धी ऐसा है। उनकी यह कमी है, आदि आदि। पर उस व्यक्ति के उन गुणों पर विचार ही नहीं करते जोकि अन्य व्यक्ति यों में उपलब्ध नहीं हैं और जिनके कारण उन अनेक उलझनों से बचे हुए हैं जिनमें अन्य व्यक्ति परेशान हैं। महर्षि बाल्मीकि ने भगवान राम की प्रशंसा करते हुए बार बार उन्हें ‘अनुसूय’ कह कर स्मरण किया है। अनुसूय अर्थात्—किसी के गुणों में दोष न देखने वाले।

पर दोष−दर्शन के पाप से मुक्ति पाने के लिये, गुण−चिन्तन का अभ्यास डालना चाहिए। प्रतिपक्षी के गुणों का विचार करना चाहिये। चीनी कवि यू−उन−चान की कविता की कुछ पंक्ति यों का अनुवाद हमारे इस कथन का समर्थक है:—

‘हे प्रभु! मुझे शत्रु नहीं—मित्र चाहिये
तदर्थ मुझे कुछ ऐसी शक्ति दे।
कि मैं किसी की आलोचना न करूं—गुणगान करूं”।

बैंजामिन फ्रैंकलिन अपनी युवावस्था में बहुत नटखट थे। दूसरों की आलोचना करना, खिल्ली उड़ाना उनकी आदत बन चुकी थी। क्या पादरी, क्या राजनीतिज्ञ सभी उनके गाने हुए शत्रु बन चुके थे। बाद में इस व्यक्ति ने अपनी भूल सँभाली और अन्त में जब वह उन्नति करते करते अमेरिकन राजदूत होकर फ्रांस में भेजे गये तो उनसे पूछा—“आपने अपने शत्रुओं की संख्या कम करके मित्र कहाँ से बना लिये?” उन्होंने उत्तर दिया—“अब मैं किसी की आलोचना नहीं करता और न किसी के दोष उभार कर रखता हूँ। हाँ—अलबत्ता—किसी का गुण मेरी दृष्टि में आ जाता है तो उसे अवश्य प्रकट कर देता हूँ। यही मेरी सफलता का रहस्य है”।

.... समाप्त
📖 अखण्ड ज्योति, अप्रैल 1955 पृष्ठ 25


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👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 4 April 2023

◆  उच्च स्तरीय आदर्शों को प्राप्त करने के लिए मन को नियोजित कर सकना और उसे बलपूर्वक अभीष्ट लक्ष्य में प्रवृत्त किये रहना प्रौढ़ चेतना का ही काम है। उसी में यह सामर्थ्य है कि इन्द्रियों को विलासी लिप्सा से विरत रहने को फौजी आदेश देने और उनका पालन कराने में सफल हो सके। आलस्य शरीर की जड़ता और प्रमाद मन की जड़ता है। इसे उलटकर चित्त शक्ति का अनुशासन स्थापित करना आंतरिक प्रगल्भता के अतिरिक्त और किसी आधार पर संभव नहीं हो सकता।

◆  प्रोत्साहन अपने आप में एक चमत्कार होता है। प्रशंसा और प्रोत्साहन से मनुष्य अपनी शक्ति और सामर्थ्य से कई गुना काम कर जाता है। प्रोत्साहन और प्रशंसा वह जादू की छड़ी है जिसको छूकर साधारण बंदर महावीर बन जाता है। नास्तिक छात्र नरेन्द्र, स्वामी विवेकानंद हो जाता है। कृष्ण के प्रोत्साहन से साधारण ग्वाल-बालों ने गिरि-गोवर्धन उठाने में सहयोग दिया। हम भी बिना एक पैसा खर्च किए दूसरों का भारी उपकार करने का यह गुण अपने में विकसित करके परमार्थ का पुण्य प्राप्त करते रह सकते हैं।

◆  आज सभ्यता के प्रति अनास्था उत्पन्न हो रही है। अवज्ञा और उच्छृंखलता को शौर्य, साहस एवं प्रगतिशीलता का चिह्न माना जाने लगा है। नैतिक मर्यादाएँ उपहासास्पद और सामाजिक मर्यादाएँ अव्यावहारिक कही जाने लगी ंहंै। फलतः उद्धत आचरण और विकृत चिंतन के प्रति रोष प्रकट करने के स्थान पर उन्हें सहन करने तथा कभी-कभी तो प्रोत्साहन करने तक की प्रवृत्ति देखी जाती है। यह सब थोड़ी ही मात्रा में क्यों न हो, है भयंकर।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Sep 2024

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