मंगलवार, 31 मार्च 2020
👉 उपयोग और सदुपयोग:-
शीमक कठिन शीत ज्वर से पीड़ित है उनके पुत्र पात्रों ने उपचार की अच्छी व्यवस्था की है तो भी वे औषधि नाम मात्र को ही ले रहे है। उनका कथन है कि औषधि का काम विष के प्रभाव को रोकना भर है, रोग को नष्ट करना नहीं, वह काम तो प्रकृति स्वयं ही करती है। तब हम उसमें हस्तक्षेप क्यों करें!
पर उनके इस कथन का भी वही अर्थ लगाया गया जो अब तक लगाया जा रहा था। अर्थात् शीमक बड़ा कृपण है। घर में अथाह धनराशि होते हुये भी वह न तो अच्छा खा सकता है, न पहन सकता है, बाल-बच्चों को देना तो दूर, अब जब उसका अपना ही जीवन संकट में पड़ गया तब भी पैसे का इतना मोह-छिः शीमक की कृपणता- कलंक नहीं तो और क्या है।
बहुत बार तो शीमक को कई ऐसे व्यक्ति भी मिले थे जो उसे मुख पर ही कह गये थे- ”शीमक इतनी कृपणता तो न किया करो, कभी कुछ दान, कभी कुछ पुण्य, तीर्थ यात्रा, ब्राह्मण भोज, नगर भोज कुछ तो ऐसा कर डालो, जिससे यह धन ठिकाने लग जाये! मर गये तब वह धन किसी और के हाथ लग गया तो तुम्हारी इस कमाई का क्या लाभ।”
शीमक हंस पड़ते और 'अच्छा! अच्छा!! कहकर उस प्रसंग को टाल देते।
ऐसे अवसर आते तो दूर दृष्टि डालते हुये शीमक की मुख मुद्रा देखने से प्रतीत होता था मानो वे सुन्दर भविष्य में कुछ खोजना चाहते हैं, वे क्या चाहते हैं, यह आज तक उसके पुत्र परिजन भी नहीं समझ सके थे।
आज जितने चिन्तित शीमक बैठे थे, उससे अधिक विकल आचार्य महीधर दिखाई दे रहे थे। उन्होंने बड़े परिश्रम के साथ वेदों का भाष्य किया था। भाष्य भी ऐसा जो भी विद्वान उसे पढ़ता धन्य हो जाता। किन्तु धन के अभाव के कारण आज स्वयं महीधर इतने निराश हो गये थे कि उन्हें अपना सारा तप ही निरर्थक लगने लगा था। वे चाहते थे कि वेदों का यह भाष्य घर-घर पहुँचे ताकि बौद्धों के प्रभाव को रोका जा सके। उनकी आकांक्षा, आकांक्षा ही रही। कोई उपाय बन नहीं सका।
शीमक ने समाचार सुना तो चुपचाप घर से निकल पडे। कहा गए शीमक की कई दिन तक खोज की गयी। पर कुछ भी पता न चला!
बहुत दिन बाद जब महीधर के वेदभाष्य घर-घर पहुँचने लगे तब लोगों ने इतना भर सुना कि कोई एक देव पुरुष उनके पास आया था और उसने अपनी सारी सम्पत्ति उन्हें देकर कहा था- “आचार्य प्रवर! सद्इच्छाएं धन के अभाव में रुकती नहीं। यह मेरे जीवन भर की कमाई इसे काम में लेकर मेरा जीवन धन्य करें।“
उसके बाद फिर उस महापुरुष के कभी दर्शन नहीं हुए। कहते हैं, वह वानप्रस्थ ग्रहण कर अंतिम साधना के लिये अन्त:वासी हो गया था।
‘अखण्ड ज्योति, अप्रैल-1970’
पर उनके इस कथन का भी वही अर्थ लगाया गया जो अब तक लगाया जा रहा था। अर्थात् शीमक बड़ा कृपण है। घर में अथाह धनराशि होते हुये भी वह न तो अच्छा खा सकता है, न पहन सकता है, बाल-बच्चों को देना तो दूर, अब जब उसका अपना ही जीवन संकट में पड़ गया तब भी पैसे का इतना मोह-छिः शीमक की कृपणता- कलंक नहीं तो और क्या है।
बहुत बार तो शीमक को कई ऐसे व्यक्ति भी मिले थे जो उसे मुख पर ही कह गये थे- ”शीमक इतनी कृपणता तो न किया करो, कभी कुछ दान, कभी कुछ पुण्य, तीर्थ यात्रा, ब्राह्मण भोज, नगर भोज कुछ तो ऐसा कर डालो, जिससे यह धन ठिकाने लग जाये! मर गये तब वह धन किसी और के हाथ लग गया तो तुम्हारी इस कमाई का क्या लाभ।”
शीमक हंस पड़ते और 'अच्छा! अच्छा!! कहकर उस प्रसंग को टाल देते।
ऐसे अवसर आते तो दूर दृष्टि डालते हुये शीमक की मुख मुद्रा देखने से प्रतीत होता था मानो वे सुन्दर भविष्य में कुछ खोजना चाहते हैं, वे क्या चाहते हैं, यह आज तक उसके पुत्र परिजन भी नहीं समझ सके थे।
आज जितने चिन्तित शीमक बैठे थे, उससे अधिक विकल आचार्य महीधर दिखाई दे रहे थे। उन्होंने बड़े परिश्रम के साथ वेदों का भाष्य किया था। भाष्य भी ऐसा जो भी विद्वान उसे पढ़ता धन्य हो जाता। किन्तु धन के अभाव के कारण आज स्वयं महीधर इतने निराश हो गये थे कि उन्हें अपना सारा तप ही निरर्थक लगने लगा था। वे चाहते थे कि वेदों का यह भाष्य घर-घर पहुँचे ताकि बौद्धों के प्रभाव को रोका जा सके। उनकी आकांक्षा, आकांक्षा ही रही। कोई उपाय बन नहीं सका।
शीमक ने समाचार सुना तो चुपचाप घर से निकल पडे। कहा गए शीमक की कई दिन तक खोज की गयी। पर कुछ भी पता न चला!
बहुत दिन बाद जब महीधर के वेदभाष्य घर-घर पहुँचने लगे तब लोगों ने इतना भर सुना कि कोई एक देव पुरुष उनके पास आया था और उसने अपनी सारी सम्पत्ति उन्हें देकर कहा था- “आचार्य प्रवर! सद्इच्छाएं धन के अभाव में रुकती नहीं। यह मेरे जीवन भर की कमाई इसे काम में लेकर मेरा जीवन धन्य करें।“
उसके बाद फिर उस महापुरुष के कभी दर्शन नहीं हुए। कहते हैं, वह वानप्रस्थ ग्रहण कर अंतिम साधना के लिये अन्त:वासी हो गया था।
‘अखण्ड ज्योति, अप्रैल-1970’
👉 पारिवारिक कलह और मनमुटाव कारण तथा निवारण (भाग ८)
कुसंग का भयानक अभाव-
कुसंग में रह कर युवक परिवार से छूट जाता है। ये कुसंग बढ़े आकर्षण रूप में उसके सम्मुख आते हैं-मित्रों, सिनेमा, थियेटर, वैश्या, गन्दा साहित्य, गर्हित चित्र, मद्यपान, सिगरेट तथा अन्य उत्तेजित पदार्थ। वे सभी प्रत्यक्ष विष के समान है, जिनके स्पर्श मात्र से मनुष्य पाप कर्म में प्रवृत्त हो जाता है। उनकी कल्पना सर्वथा विनाशकारी है। बड़े सावधान रहें।
इस सम्बन्ध में हम पं. रामचन्द्र शुक्ल की बहुमूल्य वाणी उद्धृत करना चाहते हैं। इसमें गहरी सत्यता है :-
कोई भी युवा पुरुष ऐसे अनेक युवा पुरुषों को पा सकता है जो उसके साथ थियेटर देखने जायेंगे, नाच रंग में जायेंगे, सैर-सपाटे में जायेंगे, भोजन का निमंत्रण स्वीकार करेंगे। ऐसे लोगों से हानि होगी तो बड़ी होगी।
सोचो तो, तुम्हारा जीवन कितना नष्ट होगा, यदि ये जान पहिचान के लोग उन मनचले युवकों में से निकले जिनकी संख्या दुर्भाग्यवश आजकल बहुत बढ़ रही है, यदि उन शोहदों में से निकले जो अमीरों की बुराइयों और मूर्खताओं का अनुकरण किया करते हैं, दिन रात बनाव श्रृंगार में रहा करते हैं, कुलटा स्त्रियों के फोटो मोल लिया करते हैं, महफिलों में अहाँ -हा, वाह किया करते हैं, गलियों में ठट्ठा मारते और सिगरेट का धुआँ उड़ाते चलते हैं। ऐसे नवयुवकों से बढ़कर शून्य, निःसार और शोचनीय जीवन और किसका है ?
वे अच्छी बातों से कोसों दूर हैं। उनके लिए न तो संसार में सुन्दर और पवित्र उक्ति वाले कवि हुए, और न उत्तम चरित्र वाले महात्मा हुए हैं।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1951 पृष्ठ 26
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1951/January/v1.26
कुसंग में रह कर युवक परिवार से छूट जाता है। ये कुसंग बढ़े आकर्षण रूप में उसके सम्मुख आते हैं-मित्रों, सिनेमा, थियेटर, वैश्या, गन्दा साहित्य, गर्हित चित्र, मद्यपान, सिगरेट तथा अन्य उत्तेजित पदार्थ। वे सभी प्रत्यक्ष विष के समान है, जिनके स्पर्श मात्र से मनुष्य पाप कर्म में प्रवृत्त हो जाता है। उनकी कल्पना सर्वथा विनाशकारी है। बड़े सावधान रहें।
इस सम्बन्ध में हम पं. रामचन्द्र शुक्ल की बहुमूल्य वाणी उद्धृत करना चाहते हैं। इसमें गहरी सत्यता है :-
कोई भी युवा पुरुष ऐसे अनेक युवा पुरुषों को पा सकता है जो उसके साथ थियेटर देखने जायेंगे, नाच रंग में जायेंगे, सैर-सपाटे में जायेंगे, भोजन का निमंत्रण स्वीकार करेंगे। ऐसे लोगों से हानि होगी तो बड़ी होगी।
सोचो तो, तुम्हारा जीवन कितना नष्ट होगा, यदि ये जान पहिचान के लोग उन मनचले युवकों में से निकले जिनकी संख्या दुर्भाग्यवश आजकल बहुत बढ़ रही है, यदि उन शोहदों में से निकले जो अमीरों की बुराइयों और मूर्खताओं का अनुकरण किया करते हैं, दिन रात बनाव श्रृंगार में रहा करते हैं, कुलटा स्त्रियों के फोटो मोल लिया करते हैं, महफिलों में अहाँ -हा, वाह किया करते हैं, गलियों में ठट्ठा मारते और सिगरेट का धुआँ उड़ाते चलते हैं। ऐसे नवयुवकों से बढ़कर शून्य, निःसार और शोचनीय जीवन और किसका है ?
वे अच्छी बातों से कोसों दूर हैं। उनके लिए न तो संसार में सुन्दर और पवित्र उक्ति वाले कवि हुए, और न उत्तम चरित्र वाले महात्मा हुए हैं।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1951 पृष्ठ 26
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1951/January/v1.26
👉 The Illusive Reality
One who knows that he knows not, but claims he knows – is a liar. One who knows little bit but thinks he knows – is ignorant. One who knows not and knows and accepts that he knows not – is sincere. One who knows partially and knows that he knows not – is a learner. But none can know it because it is impossible to know it. This is what, is the maya – the ‘grand illusion’ of our perception of the gigantic creation of God.
One who knows that he knows and also knows that he does not – is wise. He does not say it despite knowing a lot. Because he knows a lot and therefore knows that nothing could be said or discussed about it. One who knows that it is undecipherable infinity and immerses and ‘illusion’ of self-identity into devotion of the Omniscient – is enlightened…
His existence is unified with the devotion and love of god. He has realized the absolute void in the infinity (of maya – the illusive creation) and the infinity (of God) in the void (sublime). What doubts or queries he would have? Nothing! What he would know and about what? Nothing! He says nothing. What he would say and to whom? He knows God and knows that God alone knows his maya.
📖 Akhand Jyoti, Jan. 1941
One who knows that he knows and also knows that he does not – is wise. He does not say it despite knowing a lot. Because he knows a lot and therefore knows that nothing could be said or discussed about it. One who knows that it is undecipherable infinity and immerses and ‘illusion’ of self-identity into devotion of the Omniscient – is enlightened…
His existence is unified with the devotion and love of god. He has realized the absolute void in the infinity (of maya – the illusive creation) and the infinity (of God) in the void (sublime). What doubts or queries he would have? Nothing! What he would know and about what? Nothing! He says nothing. What he would say and to whom? He knows God and knows that God alone knows his maya.
📖 Akhand Jyoti, Jan. 1941
👉 दरिद्रता
दरिद्रता इच्छाओं की कोख से पैदा होती है। जिसकी इच्छाएँ जितनी अधिक हैं उसे उतना ही दरिद्र होना पड़ेगा। उसे उतना ही याचना और दासता के चक्रव्यूह में फँसना पड़ेगा। इसी के साथ उसका दुःख भी उतना ही बढ़ेगा। इसलिए जिसे दरिद्रता निवारण के लिए कदम आगे बढ़ाने हैं, उसे इच्छाओं की ओर से अपने पाँव उतना ही पीछे हटाने होंगे। क्योंकि जो जितना अपनी इच्छाओं को छोड़ पाता है, वह उतना ही स्वतन्त्र, सुखी और समृद्ध होता है। जिसकी चाहत कुछ भी नहीं है, उसकी निश्चिंतता एवं स्वतंत्रता अनन्त हो जाती है।
इस सम्बन्ध में सूफियों में एक कथा कही जाती है। फकीर बालशेम ने एक बार अपने एक शिष्य को कुछ धन देते हुए कहा- इसे किसी दरिद्र व्यक्ति को दान कर देना। शिष्य अपने गुरु के पास से चल कर थोड़ा आगे बढ़ा और सोचने लगा कि उसके गुरु ने गरीब के स्थान पर दरिद्र व्यक्ति को यह धन देने के लिए कहा है। और जैसा कि उसने बालशेम के सत्संग में जाना था कि गरीब व गरीबी परिस्थितियों वश होता है। लेकिन दरिद्र व दरद्रिता मनःस्थिति जन्य है। सो उसने किसी दरिद्र व्यक्ति की तलाश करनी शुरू की।
अपनी इस तलाश में वह एक राजमहल के पास जाकर रुक गया। वहाँ कुछ लोग आपस में चर्चा कर रहे थे कि राजा ने अपनी इच्छाओं को पूरा करने के लिए प्रजा पर कितने कर लगाए हैं, कितने लोगों को लूटा है। इन बातों को सुनकर उसे लगा कि उसकी तलाश पूरी हुई। बस उसने राजा के दरबार में हाजिर होकर उस राजा को अपने सारे रूपये सौंप दिए। एक फकीर के द्वारा इस तरह अचानक रूपये दिये जाने से वह राजा हैरान हुआ। इस पर बालशेम के शिष्य ने उसे अपने गुरु की बात कह सुनायी। और कहा- राजन्! इच्छाएँ हो तो दरिद्रता व दुःख बने ही रहेंगे। इसलिए जो इन इच्छाओं के सच को जान लेता है वह दुःख से नहीं अपनी चाहतों से मुक्ति खोजता है। क्योंकि जो अपनी इच्छाओं व चाहतों से छुटकारा पा लेता है, उसके जीवन से दरिद्रता, दुःख, याचना व दासता स्वतः ही हट एवं मिट जाते हैं।
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 जीवन पथ के प्रदीप से पृष्ठ २११
इस सम्बन्ध में सूफियों में एक कथा कही जाती है। फकीर बालशेम ने एक बार अपने एक शिष्य को कुछ धन देते हुए कहा- इसे किसी दरिद्र व्यक्ति को दान कर देना। शिष्य अपने गुरु के पास से चल कर थोड़ा आगे बढ़ा और सोचने लगा कि उसके गुरु ने गरीब के स्थान पर दरिद्र व्यक्ति को यह धन देने के लिए कहा है। और जैसा कि उसने बालशेम के सत्संग में जाना था कि गरीब व गरीबी परिस्थितियों वश होता है। लेकिन दरिद्र व दरद्रिता मनःस्थिति जन्य है। सो उसने किसी दरिद्र व्यक्ति की तलाश करनी शुरू की।
अपनी इस तलाश में वह एक राजमहल के पास जाकर रुक गया। वहाँ कुछ लोग आपस में चर्चा कर रहे थे कि राजा ने अपनी इच्छाओं को पूरा करने के लिए प्रजा पर कितने कर लगाए हैं, कितने लोगों को लूटा है। इन बातों को सुनकर उसे लगा कि उसकी तलाश पूरी हुई। बस उसने राजा के दरबार में हाजिर होकर उस राजा को अपने सारे रूपये सौंप दिए। एक फकीर के द्वारा इस तरह अचानक रूपये दिये जाने से वह राजा हैरान हुआ। इस पर बालशेम के शिष्य ने उसे अपने गुरु की बात कह सुनायी। और कहा- राजन्! इच्छाएँ हो तो दरिद्रता व दुःख बने ही रहेंगे। इसलिए जो इन इच्छाओं के सच को जान लेता है वह दुःख से नहीं अपनी चाहतों से मुक्ति खोजता है। क्योंकि जो अपनी इच्छाओं व चाहतों से छुटकारा पा लेता है, उसके जीवन से दरिद्रता, दुःख, याचना व दासता स्वतः ही हट एवं मिट जाते हैं।
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 जीवन पथ के प्रदीप से पृष्ठ २११
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