🔸 शिखा रखते समय हर व्यक्ति को इसके मूल प्रयोजन का ध्यान रखना चाहिए। मस्तिष्क में उन्हीं विचारणाओं, मान्यताओं और आकांक्षाओं को स्थान मिले, जो विवेकशीलता, नैतिकता, मानवता, सामाजिकता की कसौटी पर खरे उतरते हों। दुर्बुद्धि, दुर्भावना और दुष्टता की जो दुष्प्रवृत्तियाँ चारों ओर फैली हैं, उनका उन्मूलन करने के लिए हमें शिखा रूपी धर्मध्वजा फहराते हुए एक ऐसा भावनात्मक महाभारत खड़ा करना चाहिए, जिसमें अनौचित्य की कौरवी सेना को परास्त कर औचित्य- अर्जुन के गले में विजय बैजयन्ती पहनाई जा सके।
🔹 विचारों की शक्ति और उपयोगिता समझ सकने वाले लोग इस विशाल भीड़ से तलाश किए जाएं। जो स्वयं प्रकाश पूर्ण,बौद्घिक प्रखरता के सुनने- समझने के लिए तैयार नहीं, वे भला और किसी को क्या कुछ कह- सुन सकेंगे और क्या अपने जीवन में प्रखरता ला सकेंगे।
🔸 हे भगवान् ! यह शरीर तेरा मन्दिर, है अतः इसे मैं हमेशा पवित्र रखूँगा। आपने मुझे यह हृदय दिया है, मैं इसे प्रेम से भर दूँगा, आपने मुझे यह बुद्धि दी है, मैं इस दीपक को हमेशा निर्मल और तेजस्वी बनाये रखूँगा।
🔹 गुरु- शिष्य संबंध बड़ा कोमल, किन्तु कल्याणकारी होता है। गुरु शिष्य को पुत्रवत् समझकर, उसे टेढे- मेढ़े मार्गों से निकाल ले जाते हैं, जिन्हें शिष्य के लिए समझ पाना कठिन होता है। इसलिए कई बार शिष्य अभिमान में आकर, गुरु की अवज्ञा कर जाता है, इच्छा तथा आदेश की अवहेलना करता है। यद्यपि गुरु उसे कुछ भी न कहें, किन्तु फिर भी वह संभावित लाभ से वंचित रह जाता है। इसके लिए शिष्य में गुरु के प्रति सम्पूर्ण समर्पण की आवश्यकता होती है।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🔹 विचारों की शक्ति और उपयोगिता समझ सकने वाले लोग इस विशाल भीड़ से तलाश किए जाएं। जो स्वयं प्रकाश पूर्ण,बौद्घिक प्रखरता के सुनने- समझने के लिए तैयार नहीं, वे भला और किसी को क्या कुछ कह- सुन सकेंगे और क्या अपने जीवन में प्रखरता ला सकेंगे।
🔸 हे भगवान् ! यह शरीर तेरा मन्दिर, है अतः इसे मैं हमेशा पवित्र रखूँगा। आपने मुझे यह हृदय दिया है, मैं इसे प्रेम से भर दूँगा, आपने मुझे यह बुद्धि दी है, मैं इस दीपक को हमेशा निर्मल और तेजस्वी बनाये रखूँगा।
🔹 गुरु- शिष्य संबंध बड़ा कोमल, किन्तु कल्याणकारी होता है। गुरु शिष्य को पुत्रवत् समझकर, उसे टेढे- मेढ़े मार्गों से निकाल ले जाते हैं, जिन्हें शिष्य के लिए समझ पाना कठिन होता है। इसलिए कई बार शिष्य अभिमान में आकर, गुरु की अवज्ञा कर जाता है, इच्छा तथा आदेश की अवहेलना करता है। यद्यपि गुरु उसे कुछ भी न कहें, किन्तु फिर भी वह संभावित लाभ से वंचित रह जाता है। इसके लिए शिष्य में गुरु के प्रति सम्पूर्ण समर्पण की आवश्यकता होती है।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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