गुरुवार, 3 मार्च 2022

👉 आंतरिक उल्लास का विकास भाग १०

त्याग और सेवा द्वारा सच्चे प्रेम का प्रमाण दीजिए।
 
आज नहीं तो कल, हँसकर नहीं तो रोकर आपको किसी दिन त्याग करना ही पडेगा। आप इकट्ठा करते हैं संसार की संपदाएँ अपनी मुट्ठी मैं बाँध लेते हैं' परंतु प्रकृति यह पसंद नहीं करती कि उसकी चलती-फिरती चीजों पर एक व्यक्ति कब्जा करके बैठ जाए वह आपका गला दबा कर मुट्ठी खुलवा लेती है। जब आप कहते हैं कि' ' नहीं मैं न दूँगा। ' उसी क्षण जोर की चपत पडती है और अाप घायल हो जाते है। संसार में कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं है जो प्रत्येक वस्तु  को देने, परित्याग करने के लिए बाध्य न हो। इस अखंड नियम प्रतिकूल आचरण करने के लिए जो जितना ही प्रयत्न करेगा वह अपने को उतना ही दुःखी अनुभव करेगा।

शास्त्र कहते हैं कि मनुष्य जीवन में परोपकार ही सार है, हमें सदैव परोपकार में रत रहना चाहिए। किंतु यह अभिमान, दंभ या कीर्ति के लिए नहीं, आत्म कल्याण के लिए होना चाहिए। मेरे कारण दूसरों का भला हुआ यह सोचना मूर्खता है। हमारे बिना संसार का कोई कार्य अटका न रहेगा। पैदा होने से पहले संसार का सब काम ठीक-ठीक चल रहा था और हमारे बाद भी वैसा ही चलता रहेगा। परमात्मा इतना गरीब नहीं है कि हमारी मदद के बिना उसका काम न चला सके। किसी भिखारी को हमारे ही देने की बड़ी भारी आवश्यकता नहीं है, वह हमारी एक रोटी के बिना भूखा न मर जाएगा।

सच पूछे तो जिसने हमें उपकार करने का अवसर दिया है उसका कृतज्ञ होना चाहिए। हमारी उपकार बुद्धि जाग्रत करके वह हमें ऋणी कर देता है। इससे जो मानसिक उन्नति होती है और आत्मा को जो शक्ति प्राप्ति होती है वह दान लेने वाले को नहीं वरन देने वाले को प्राप्त होती है। दूसरों का उपकार करना मानो एक प्रकार से अपना ही कल्याण करना है। किसी को एक पैसा देकर हम भला उसका कितना भला कर सकते हैं? किंतु उसकी अपेक्षा अपना भला हजारों गुना कर लेते हैं। हमारी उदारता का विकास न होने से संसार को रत्ती भर भी हर्ज न होगा किंतु हमारा ही आनंद स्रोत नष्ट हो जाएगा इसलिए आप परोपकार को अपना जीवन लक्ष्य बनाइए। जितना हो सके दूसरों की भलाई कीजिए इसमें आपका ही भला है, आपका ही लाभ है, आपका ही कल्याण है।
 
त्याग करना, किसी की कुछ सहायता करना, उधार देने की एक वैज्ञानिक पद्धति है। जो हम दूसरों को देते हैं हमारी रक्षित पूँजी की तरह जमा हो जाता है । जो अपनी रोटी दूसरों को बाँट कर खाता है उसको किसी बात की कमी न रहेगी। जो अपनी संपदा को जोड़-जोड़ कर जमा करता जाता है उस पाषाण हृदय को क्या मालुम होगी कि दान में कितनी मिठास है?

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 आंतरिक उल्लास का विकास पृष्ठ १५

👉 भक्तिगाथा (भाग ११२)

प्रेम से होती है प्रभु की पहचान

ऐसे परमात्मा से प्रेम भी उसी के अनुरूप ही होता है। न उसमें गुण होते हैं और न कामना। वह सतत व्यापक होता जाता है, उसमें कभी किसी तरह का विघटन या विच्छेद नहीं होता है। वह स्थूल की सीमा में बंधकर सूक्ष्म से सूक्ष्म होता जाता है। सबसे बड़ी बात कि अनुभव ही उसकी व्याख्या है।’’ भक्त चोखामेला के इस कथन को महाराज सत्यधृति के मुख से सुनकर सभी चकित हो गए। हाँ! ब्रह्मर्षि वशिष्ठ अवश्य शान्त रहे। काफी देर बाद तक चुप रहने पर वे केवल इतना कह सके कि- ‘‘जहाँ से सारे ज्ञान का उदय होता है, उस तत्व को, सत्य को जो जान गया हो, वह किसी भी तरह अनपढ़ नहीं, वह तो ज्ञानियों का सिरमौर व ज्ञानशिरोमणि है।’’

इतना कहते हुए ब्रह्मर्षि वशिष्ठ ने देवर्षि नारद की ओर देखा। उनकी इस दृष्टि में सभी की समवेत दृष्टियाँ समायी थीं। सम्भवतः सभी को नए सूत्र की प्रतीक्षा थी। देवर्षि ने भी पल की देर लगाये बिना अपना नया सूत्र उच्चारित किया -
‘तत्प्राप्य तदेवावलोकयति तदेव श्रृणोति,
तदेव भाषयति, तदेव चिन्तयति’ ॥ ५५॥
    
अर्थात् इस प्रेम को पाकर प्रेमी भक्त इस प्रेम को ही देखता है, इस प्रेम को ही सुनता है, इस प्रेम का ही वर्णन करता है और इस प्रेम का ही चिन्तन करता है।
    
इस सूत्र को कहने के बाद देवर्षि नारद ने पुनः महात्मा सत्यधृति की ओर देखा, सम्भवतः वह इस सूत्र की व्याख्या में भक्त चोखामेला की अनुभूति सुनना चाहते थे। महाराज सत्यधृति ने देवर्षि की दृष्टि का आशय पहचान लिया। उन्होंने देवर्षि की ओर देखने के बाद अन्यों की ओर देखा। सभी की मुखमुद्रा देवर्षि के साथ सहमति जता रही थी। वे तनिक मुस्कराए और फिर बोले - ‘‘यह भक्ति का चरम अनुभव है। मैंने भक्त चोखामेला को भक्ति के इस अनुभव में विचरण करते हुए देखा है। उन्होंने मुझसे एक अवसर पर कहा था- महाराज! भक्त तो बस अपनी भक्ति की शुरूआत करता है, उसे पूर्णता तो स्वयं परमात्मा देते हैं।
    
जब भक्त शुरू करता है, तब भक्ति साकार होती है, फिर जैसे-जैसे भगवान भक्त में उतरने लगता है, भक्ति सर्वव्यापी एवं निराकार होने लगती है। जब भक्त पूरा मिट जाता है, भक्ति शून्य हो जाती है, निराकार हो जाती है, तब केवल अनन्त असीम भगवत्प्रेम ही बचता है। उसी की चर्चा, उसी का चिन्तन, उसी का दर्शन। उसके सिवा अन्य कुछ भी नहीं। ऐसे में भक्त को मन्दिर में घण्टी बजाते हुए नहीं देखा जा सकता क्योंकि तब उसके प्राणों की धक-धक ही उसकी घण्टी बन जाती है। ऐसा भक्त राम-राम नहीं चिल्लाया करता क्योंकि तब राम तो उसकी हर श्वास में बसे रहते हैं।
    
ऐसे भक्त को तिलक-टीका से कोई काम नहीं रह जाता क्योंकि अब तो वह स्वयं ही तिलक-टीका हो गया। उसका अब अपना कुछ बचा ही नहीं। ऐसा भक्त मन्दिर न जा रहा हो तो कोई अचरज नहीं, क्योंकि ऐसे भक्त के पास स्वयं मन्दिर में बसने वाले भगवान ही चलकर आते हैं। अब भक्त को नहीं पुकारना पड़ता भगवान को, क्योंकि अब तो भगवान ही भक्त का नाम सतत रटते रहते हैं। भक्त तो बस अपने भगवान के प्रेम में डूबा रहता है। प्रेम में ऐसी निमग्नता होती है कि इसके सिवा उसके जीवन में कुछ और बचा ही नहीं रह जाता। भगवान के प्रेम में भक्त डूबता है और भक्त के प्रेम में भगवान डूब जाते हैं। यह प्रेम अन्दर-बाहर सर्वत्र छा जाता है।’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ २२१

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