रविवार, 21 फ़रवरी 2016

👉 शिष्य संजीवनी (भाग 8)

गुरु चेतना के प्रकाश में स्वयं को परखें

यह अनुभव सभी महान् शिष्यों का है। शिष्य के जीवन में तृष्णा और सुख की लालसा की कोई जगह नहीं है। मजे की बात है कि तृष्णा और सुख की लालसा किसी को भी सुखी नहीं कर पाती, हालांकि प्रायः सभी इसमें फँसे- उलझे रहते हैं। ऐसे लोगों के लिए जीवन आज में नहीं है, आने वाले कल में है। भविष्य में जीवन को खोजने वाले अपने वर्तमान से हमेशा असन्तुष्ट, असंतृप्त बने रहते हैं। इस सच्चाई का एक पहलू और भी है, जो तृष्णा और सुख की लालसा से अपने आप को जितना भरता जाता है- वह उतना ही अपने अहंकार को तुष्ट और पुष्ट करता रहता है। जबकि अहंकार का शिष्यत्व की साधना से कोई मेल नहीं है।

शिष्यत्व तो समर्पण की साधना है- जिसका एक ही अर्थ है- अहंकार का अपने सद्गुरु के चरणों में विसर्जन। हालांकि इस समर्पण- विसर्जन के साथ भी कई तरह के भ्रम जनमानस में व्याप्त हैं। कई लोगों का सोचना है कि जब हमने समर्पण कर दिया- तब हम फिर कुछ काम क्यों करें? जब तृष्णा नहीं सुख की लालसा नहीं तब फिर मेहनत किसलिए? ये सवाल दरअसल भ्रमित मन की उपज है। जो जानकार हैं, समझदार हैं वे जानते हैं कि समर्पण और श्रद्धा का मतलब- निकम्मापन या निठल्ले बैठे रहना नहीं है। बल्कि इसका अर्थ है- सत्य के लिए, अपने गुरुदेव के लिए स्वयं को सम्पूर्ण रूप से झोंक देना।

इस सम्बन्ध में रमण महर्षी कहा करते थे- यह कैसी उलटबांसी है कि मिट्टी की खोज में आदमी सब कुछ लगा देता है- पर अमृत की खोज में कुछ भी नहीं लगाना चाहता। जबकि शिष्य तो वही है- जो गुरु के एक इशारे पर जीवन पर्यन्त अटूट और अथक श्रम करता रहे। 

क्रमशः जारी
- डॉ. प्रणव पण्डया
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