सोमवार, 25 दिसंबर 2017

👉 देखने का नजरिया

🔷 एक बार एक संत अपने शिष्यों के साथ नदी में स्नान कर रहे थे। तभी एक राहगीर वहाँ से गुजरा तो संत को नदी में नहाते देख वो उनसे कुछ पूछने के लिए रुक गया। वो संत से पूछने लगा ” महात्मन मैं अभी अभी इस जगह पर आया हूँ और नया होने के कारण मुझे इस जगह के बारे कोई विशेष जानकारी नहीं है। कृपा करके आप मुझे एक बात बताईये कि यहाँ रहने वाले लोग कैसे है?

🔶 इस पर महात्मा ने उस व्यक्ति से कहा कि ” भाई में तुम्हारे सवाल का जवाब बाद में दूँगा। पहले तुम मुझे ये बताओ कि तुम जिस जगह से आये वो वहाँ के लोग कैसे है?”

🔷 इस पर उस आदमी ने कहा “उनके बारे में क्या कहूँ महाराज वहाँ तो एक से एक कपटी और दुष्ट लोग रहते है इसलिए तो उन्हें छोड़कर यहाँ बसेरा करने के लिए आया हूँ।” महात्मा ने जवाब दिया बंधू ” तुम्हे इस गाँव में भी वैसे ही लोग मिलेंगे कपटी, दुष्ट और बुरे।” उनका जवाब सुनकर वह आदमी आगे बढ़ गया।

🔶 थोड़ी देर बाद एक और राहगीर उसी मार्ग से गुजरता है और महात्मा से प्रणाम करने के बाद कहता है ” महात्मा जी मैं इस गाँव में नया हूँ और परदेश से आया हूँ और इस गाँव में बसने की इच्छा रखता हूँ लेकिन मुझे यहाँ की कोई खास जानकारी नहीं है इसलिए आप मुझे बता सकते है ये जगह कैसी है और यहाँ रहने वाले लोग कैसे है?”

🔷 महात्मा ने इससे भी वही प्रश्न किया और कहा कि ” मैं तुम्हारे सवाल का जवाब बाद में दूँगा। पहले तुम मुझे ये बताओ कि तुम जिस देश से भी आये हो वहाँ रहने वाले लोग कैसे है?”

🔶 उस व्यक्ति ने महात्मा से कहा ” गुरूजी जहाँ से मैं आया हूँ वहाँ सभी सभ्य, सुलझे हुए और नेकदिल इन्सान रहते है। मेरा वहाँ से कही और जाने का कोई मन नहीं था लेकिन व्यापार के सिलसिले में इस और आया हूँ और यहाँ की आबोहवा भी मुझे भा गयी है इसलिए मैंने आपसे ये सवाल पूछा था।”
इस पर महात्मा ने उससे कहा बंधू ” तुम्हे यहाँ भी नेकदिल और भले इन्सान मिलेंगे।” वह राहगीर भी उन्हें प्रणाम करके आगे बढ़ गया।

🔷 शिष्य ये सब देख रहे थे तो उन्होंने ने उस राहगीर के जाते ही पूछा – गुरूजी! ये क्या अपने दोनों राहगीरों को अलग अलग जवाब दिए। हमे कुछ भी समझ नहीं आया।

🔶 तब महात्मा मुस्कुराकर बोले – वत्स आमतौर पर हम आपने आस पास की चीजों को जैसे देखते है वो वैसी होती नहीं है। हम अपने अनुसार अपनी दृष्टि (point of view) से चीजों को जिस तरह से देखते है हमें सभी चीजे उसी तरह से दिखती हैं। अगर हम अच्छाई देखना चाहें तो हमे अच्छे लोग मिल जायेंगे और अगर हम बुराई देखना चाहें तो हमे बुरे लोग ही मिलेंगे। सब देखने के नजरिये पर निर्भर करता है।

🔷 मित्रों, ये बात वास्तव में सही है। हम खुद जैसे हैं या जिस नज़रिये से हम दूसरों को देखते है दूसरे लोग भी हमें वैसे ही दिखाई देते है। नकारात्मक सोच वाले हमेशा नकारात्मकता की ही बाते करेंगे क्योंकि वो हर एक चीज में नकारात्मकता ही देखते है। सकारात्मक सोच वाले हमेशा सकारात्मकता की ही बाते करेंगे क्योंकि वो हर एक चीज में सकारात्मकता ही देखते है। इसलिए आप अपने आप को बदलिये और अच्छे बन जाइये। आपको हर एक चीज अच्छी दिखाई देगी।

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 26 Dec 2017


👉 आज का सद्चिंतन 26 Dec 2017


👉 दुःखी संसार में भी सुखी रहा जा सकता है (भाग 3)

🔷 लालसायें जीवन में दुःख का बहुत बड़ा कारण बनती हैं। लालसाओं की पूर्ति सम्भव नहीं और न उनका कोई अन्त ही होता है। एक के बाद एक नित्य नई लालसायें बढ़ती ही जाती हैं। जिन लालसाओं की पूर्ति मनुष्य अपने जीवन में नहीं कर पाता उनकी पूर्ति वह अपनी सन्तान के जीवन में देखना चाहता है। इसके कारण वह सन्तान की कामना से व्यग्र हो उठता है। जिनके सन्तान नहीं होती, वे बड़े ही दुःखी और मलिन रहा करते हैं। एक इसी एषणा के कारण उनके अन्य सारे सुख, सारे साधन, यहां तक कि सारा जीवन ही निस्सार हो जाता है। ऐसे एषणातप्य व्यक्ति का सारा जीवन शोक-संताप से भरा रहता है। अस्तु, सुखी जीवन जीने के लिए लालसाओं और तत्जन्य एषणाओं को त्याग ही देना चाहिए।

🔶 निष्कामना सुखी जीवन का एक उत्तम उपाय है। जितना-जितना मनुष्य लालसाओं के चक्र से बचता जायेगा उतना-उतना ही उसका सुख बढ़ता जायेगा। निःसन्तान व्यक्ति को इस सत्य पर विचार करना ही चाहिए कि कुल का नाम सन्तान से चलेगा ही यह निश्चय नहीं। सन्तान कुल का नाम डुबोने वाली भी होती है। मनुष्य का अपना नाम सन्तान से नहीं अपने सत्कर्मों से चलता है। सन्तान गृहस्थियों के लिये अनेक चिन्ताओं का कारण बनती है। बच्चों के पालन-पोषण और उनके जीवन विकास के लिए न जाने कितने प्रलोभनों और दुर्बलताओं के जाल में फंसना पड़ता है। इतना ही क्यों उद्दण्ड, दुष्ट और धृष्ट सन्तान माता-पिता का जीवन बरबाद कर देते हैं। तब उनसे अपनी लालसाओं की पूर्ति की आशा कैसी की जा सकती।

🔷 निःसन्तान गृहस्थों को चाहिए कि वे अपनी इस एषणा को परास्त करने के लिए किन्हीं दूसरों के बच्चे पाला करें, पढ़ाया-लिखाया करें, उन्हें लाड़-दुलार देकर अपना सन्तोष प्राप्त करें। अपने-पराये का भाव वास्तविक भाव नहीं है। यह मनुष्य का अहंकार जन्य भ्रम मात्र ही है। जिसे प्यार दिया जायेगा, जिसको अपना समझकर पालन किया जायेगा, वह निश्चय ही अपना बन जायेगा। किसी गरीब का प्यारा सा बच्चा पाल लेने से जीवन का एक अभाव तो दूर हो ही जायेगा, साथ ही पुण्य-परमार्थ का भी फल मिलेगा।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति- अप्रैल 1969 पृष्ठ 33
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1969/April/v1.33

http://literature.awgp.org/book/sukh_shanti_ki_sadhana_/v1.5

👉 Amrit Chintan 26 Dec

🔶 Happiness and pleasure of any type is never in materialize but it is in your love and feeling of one with him when we put our love or liking for anyone or any material, we stare to love that. So if we want to enjoy this world fully we will have to extend our love for others ignoring any selfishness or greed for any thing.

🔷 Twenty first century a era of bright future for all can only bring that heavenly atmosphere if people put on enough courage to face the evil and adversities we are facing in the society of today.

🔶 The human bio-electricity is miniature sample form austerity of the power of mind and some known is ojus. Brahmvarchas and Atm-Bal. If man has that internal force then all physical strength or material possession will fall short in comparison of that.

✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya

👉 धर्मतंत्र का दुरुपयोग रुके (भाग 2)

🔷 मित्रो। उससे भी एक और बड़ा सामाजिक कारण यह था कि प्रत्येक गाँव और गली मोहल्ले के लिए ऐसी आवश्यकता अनुभव की गई कि इन स्थानों पर सत्प्रवृत्तियाँ एव सद्भावनाएँ फैलाने के लिए, रचनात्मक कार्यों को दिशा देने के लिए ऐसे स्थान होने ही चाहिए, जहाँ अनेकानेक प्रकार की प्रवृत्तियों का संचालन किया जा सके। उदाहरण के लिए कथा के द्वारा लोक शिक्षण जितनी अच्छी तरह किया जा सकता है, उतना और किसी तरीके से नहीं। इसमें मनोरंजन भी है, इतिहास भी है और आनंद भी है। साथ-ही-साथ इसमें ऊँचे विचार एवं शिक्षाएँ भी जुड़ी हुई है। इस तरह से कथाएँ कहकर के जनता को उत्साह और मनोरंजन के साथ सन्मार्गगामी बनाया जा सकता है।

🔶 प्राचीनकाल में मंदिरों में कथाएँ होती थीं, संगीत का शिक्षण होता था और वह कीर्तन के माध्यमों से लोकगायन और लोकमंगल की शिक्षाओं के केंद्र बने रहते थे। मंदिरों के साथ पाठशालाएँ जुड़ी रहती थीं, पुस्तकालय जुड़े रहते थे। मंदिरों में सत्संग की व्यवस्था होती थी। मंदिरों के आस-पास व्यायामशालाओं की भी व्यवस्था थी। कहने का अर्थ यह है कि असंख्य रचनात्मक प्रवृत्तियों का एक ही केंद्र उस जमाने में था, जिसको हम कहते हैं-मंदिर। उन दिनों मंदिरों में जो कार्यकर्ता काम करते थे, वे बड़े प्रभावी, लोकसेवी होते थे। लोकसेवियों को जीविका की भी आवश्यकता है। लोकसेवी काम करे और खाने का प्रबंध न हो सके, तो काम कैसे चलेगा? इसी तरह यदि खाने का प्रबंध और गुजारे की व्यवस्था किसी को वेतन के रूप में लोग दें, तो लेने वाले का भी असम्मान होता है और देने वाले को अहंकार पैदा होता है।

🔷 इसलिए मित्रो ! विचार ये किया गया कि उस गाँव में काम करने वाले लोकसेवियों को गुजारा निर्वाह करने की व्यवस्था के लिए भगवान का भोग लगाया जाए। थाली भरकर सवेरे का भोग लगा दिया और थाली भरकर शाम को भोग लगा दिया। एक आदमी के गुजारे का प्रबंध हो गया। दोनों वक्त का भोजन मिल गया। लोगों ने यह समझा कि हमने भगवान को खाना खिलाया और सेवा करने वाले व्यक्ति ने समझा कि हमारे गुजारे का प्रबंध हो गया। असम्मान भी नहीं हुआ और किसी के ऊपर प्रत्यक्ष रूप से दबाव भी नहीं पड़ा। इस तरीके से मंदिरों में भगवान के जो खाने-पीने की व्यवस्था थी, वास्तव में वह वहाँ के कार्यकर्ता के लिए भोजन की व्यवस्था थी। लोग भगवान के पास दक्षिणा चढ़ाया करते थे, पैसा चढ़ाया करते थे। वे चढ़ावे की चीजें सिर्फ एक ही काम आती थीं कि उस क्षेत्र में सेवाकार्य करने वाले लोगों के गुजारे तथा मंदिर की देख−भाल का प्रबंध इस तरीके से हो जाता था।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य (अमृत वाणी)

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Sep 2024

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