शनिवार, 22 दिसंबर 2018

👉 हमारी सोच :-

बहुत समय पहले की बात है, किसी गाँव में एक किसान रहता था। उस किसान की एक बहुत ही सुन्दर बेटी थी। दुर्भाग्यवश, गाँव के जमींदार से उसने बहुत सारा धन उधार लिया हुआ था। जमीनदार बूढा और कुरूप था।

किसान की सुंदर बेटी को देखकर उसने सोचा क्यूँ न कर्जे के बदले किसान के सामने उसकी बेटी से विवाह का प्रस्ताव रखा जाये। जमींदार किसान के पास गया और उसने कहा – तुम अपनी बेटी का विवाह मेरे साथ कर दो, बदले में मैं तुम्हारा सारा कर्ज माफ़ कर दूंगा।

जमींदार की बात सुन कर किसान और किसान की बेटी के होश उड़ गए। वो कुछ उत्तर न दे पाये। तब जमींदार ने कहा – चलो गाँव की पंचायत के पास चलते हैं और जो निर्णय वे लेंगे उसे हम दोनों को ही मानना होगा।

वो सब मिल कर पंचायत के पास गए और उन्हें सब कह सुनाया। उनकी बात सुन कर पंचायत ने थोडा सोच विचार किया और कहा- ये मामला बड़ा उलझा हुआ है अतः हम इसका फैसला किस्मत पर छोड़ते हैं।

जमींदार सामने पड़े सफ़ेद और काले रोड़ों के ढेर से एक काला और एक सफ़ेद रोड़ा उठाकर एक थैले में रख देगा।  फिर लड़की बिना देखे उस थैले से एक रोड़ा उठाएगी, और उस आधार पर उसके पास तीन विकल्प होंगे:

1. अगर वो काला रोड़ा उठाती है तो उसे जमींदार से शादी करनी पड़ेगी और उसके पिता का कर्ज माफ़ कर दिया जायेगा।

2. अगर वो सफ़ेद पत्थर उठती है तो उसे जमींदार से शादी नहीं करनी पड़ेगी और उसके पिता का कर्फ़ भी माफ़ कर दिया जायेगा।

3. अगर लड़की पत्थर उठाने से मना करती है तो उसके पिता को जेल भेज दिया जायेगा। पंचायत के आदेशानुसार जमींदार झुका और उसने दो रोड़े उठा लिए। जब वो रोड़ा उठा रहा था तो तब किसान की बेटी ने देखा कि उस जमींदार ने दोनों काले रोड़े ही उठाये हैं और उन्हें थैले में डाल दिया है।

लड़की इस स्थिति से घबराये बिना सोचने लगी कि वो क्या कर सकती है, उसे तीन रास्ते नज़र आये:-

1. वह रोड़ा उठाने से मना कर दे और अपने पिता को जेल जाने दे।

2. सबको बता दे कि जमींदार दोनों काले पत्थर उठा कर सबको धोखा दे रहा हैं।

3. वह चुप रह कर काला पत्थर उठा ले और अपने पिता को कर्ज से बचाने के लिए जमींदार से शादी करके अपना जीवन बलिदान कर दे।

उसे लगा कि दूसरा तरीका सही है, पर तभी उसे एक और भी अच्छा उपाय सूझा।

उसने थैले में अपना हाथ डाला और एक रोड़ा अपने हाथ में ले लिया और बिना रोड़े की तरफ देखे उसके हाथ से फिसलने का नाटक किया, उसका रोड़ा अब हज़ारों रोड़ों के ढेर में गिर चुका था और उनमे ही कहीं खो चुका था।

लड़की ने कहा – हे भगवान! मैं कितनी बेवकूफ हूँ। लेकिन कोई बात नहीं आप लोग थैले के अन्दर देख लीजिये कि कौन से रंग का रोड़ा बचा है, तब आपको पता चल जायेगा कि मैंने कौन सा उठाया था जो मेरे हाथ से गिर गया।

थैले में बचा हुआ रोड़ा काला था, सब लोगों ने मान लिया कि लड़की ने सफ़ेद पत्थर ही उठाया था। जमींदार के अन्दर इतना साहस नहीं था कि वो अपनी चोरी मान ले।

लड़की ने अपनी सोच से असम्भव को संभव कर दिया ।

मित्रों, हमारे जीवन में भी कई बार ऐसी परिस्थितियां आ जाती हैं जहाँ सब कुछ धुंधला दीखता है, हर रास्ता नाकामयाबी की ओर जाता महसूस होता है पर ऐसे समय में यदि हम सोचने का प्रयास करें तो उस लड़की की तरह अपनी मुशिकलें दूर कर सकते हैं।

👉 कैसे मज़बूत बनें भाग 2

2 अपने रवैये पर गौर करें:

कभी कभी हम ऐसी परिस्थितियों में होते हैं, जिनको हम बदल नहीं सकते। हालाँकि ऐसी स्थितियां बहुत कष्टप्रद होती हैं, परंतु फिर भी जिंदगी के प्रति सकारात्मक रवैया रख कर आप इस स्थिति में भी अपने आप को संभाल सकते हैं। जैसा कि विक्टर फ्रैंक ने कहा है- "हम सब, जो बंदी शिविरों में रहे हैं, हमारी झोपड़ियों के बीच घूम-घूमकर सभी को सांत्वना और अपनी रोटी के आखिरी टुकड़े को दे देने वाले उन इंसानों को भूल नहीं सकते। भले ही वो संख्या में कम रहे हों, पर वो इस सच्चाई का पर्याप्त प्रमाण देते थे कि इंसान से उसका सब कुछ छीना जा सकता है, परंतु इंसान से उसके किसी भी परिस्थिति में अपने नियत को अपने तरह से निर्धारित करने की स्वतंत्रता कोई नहीं छीन सकता। ऐसा करने से उसको कोई नहीं रोक सकता।" आपके साथ चाहे जो कुछ भी हो रहा हो, सकारात्मक बने रहने में ही बुद्धिमानी है।

जो इंसान आपकी जिंदगी को दुखी बना रहा है, उसे भी आप अपने उत्साह को तोड़ने की इजाजत मत दीजिये। आश्वस्त रहिये, आशावान रहिये और हमेशा इस बात को याद रखिये कि कोई भी आपकी नियत और सोच को आपसे नहीं छीन सकता है। एलिनोर रूज़वेल्ट ने कहा है- "आप दोयम दर्जे के हैं, ऐसा आपके इजाजत के बगैर आपको कोई महसूस नहीं करा सकता।"

जीवन में चल रहे किसी एक कष्ट या परेशानी का असर अपने जिंदगी के दूसरे पहलुओं पर मत पड़ने दीजिये। उदाहरण के लिए, यदि आप अपने काम से भीषण परेशान है, तो उद्वेलित होकर अपने इर्द-गिर्द रहने वाले उन महत्वपूर्ण लोगों से ख़राब बर्ताव मत करिये जो और कुछ नहीं करते, सिर्फ आपकी मदद करने की कोशिश करते हैं। अपने सोचने-समझने के ढंग को नियंत्रित रख कर आप अपने कष्टों से उत्पन्न हो रहे दुष्प्रभावों को कम कर सकते हैं। दृढ़ निश्चयी लोग अपनी हर मुसीबत को तबाही में नहीं बदलने देते, न ही वो नकारात्मक घटनाओं के प्रभाव को जीवन पर्यन्त दिल में बिठाये रखते हैं।

अगर इससे आपको मदद मिलती हो, तो इस शांति-पाठ को याद करें और पढ़ें - मुझे ऐसी सोच और ऐसा शांतचित्त मिले जिससे मै उन बातों को स्वीकार कर पाऊँ जिन्हें मैं बदल नहीं सकता, वह शक्ति मिले जिससे मैं उन परिस्थितियों को बदल पाऊँ जिन्हें बदल सकता हूँ, और ऐसा विवेक मिले जिससे मैं अलग-अलग परिस्थितियों के बीच का फर्क समझ पाऊँ।

.... क्रमशः जारी

👉 आज का सद्चिंतन 23 Dec 2018


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 23 Dec 2018

👉 उदात्त वृत्तियों का अभिवर्द्धन

देखा गया है कि जो सचमुच आत्म-कल्याण एवं ईश्वर प्राप्ति के उद्देश्य से सुख सुविधाओं को त्याग कर घर से निकले थे, उन्हें रास्ता नहीं मिला और ऐसे जंजाल में भटक गये, जहाँ लोक और परलोक में से एक भी प्रयोजन पूरा न हो सका। परलोक इसलिए नहीं सधा कि उनने मात्र कार्य कष्ट सहा और उदात्त वृत्तियों का अभिवर्द्धन नहीं कर सके। उदात्त वृत्तियों का अभिवर्द्धन तो सेवा-साधना का जल सिंचन चाहता था, उसकी एक बूँद भी न मिल सकी।

पूजा-पाठ की प्रक्रिया दुहराई जाती रही, सो ठीक, पर न तो ईश्वर का स्वरूप समझा गया और न उसकी प्राप्ति का आधार जाना गया। ईश्वर मनुष्य के रोम-रोम में बसा है। स्वार्थपरता और संकीर्णता की दीवार के पीछे ही वह छिपा बैठा है। यह दीवार गिरा दी जाय तो पल भर में ईश्वर से लिपटने का आनन्द मिल सकता है। यह किसी ने उन्हें बताया होता तो निस्सन्देह इन तप, त्याग करने वाले लोगों में से हर एक को सचमुच ही ईश्वर मिल गया होता और वे सच्चे अर्थों में ऋषि बन गये होते।

✍🏻 पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 युग निर्माण योजना - दर्शन, स्वरूप व कार्यक्रम, वांग्मय 66 पृष्ठ 1.33

👉 Development of eminent nature and character

It is often observed that people who abandoned their comfortable family life and became monks to genuinely seek their own spiritual wellbeing and to realize the Divine didn’t just fail to fulfill their aims but got entrapped in such a tricky situation wherein they could accomplish neither the worldly nor the otherworldly aims. The reason why they couldn’t realize the otherworldly objective is that they only endured physical hardships but couldn’t actually manage to cultivate eminent thinking, practices and conduct which essentially require one to undertake the task of serving the humanity and mould their character accordingly to be able to fulfill it.

All they did was to keep performing rituals and reading scriptures. There is nothing wrong in doing so but they essentially failed to understand the profound manifestation of God and the ways to attain it. The Divine actually dwells within ourselves but remains unseen, being obscured by a wall of selfishness and lack of magnanimity. As soon as that wall is pulled down, one would be able to experience the bliss of the God within. Had someone reminded them about this truth, they would have certainly realized the God and become Rishis (sages) in real sense.

✍🏻 Pt. Shriram Sharma Aacharya
📖 Yug Nirman Yojana: Darsana, swarupa va karyakrama, Vangmay 66 Page 1.33

👉 आत्मचिंतन के क्षण 23 Dec 2018

◾ आध्यात्म्कि जीवन अपनाने का अर्थ है-असत् से सत् की ओर जाना। प्रेम और न्याय का आदर करना। निकृष्ट जीवन से उत्कृष्ट जीवन की ओर बढ़ना। इस प्रकार का आध्यात्मिक जीवन अपनाये बिना मनुष्य वास्तविक सुख-शान्ति नहीं पा सकता।

◾ काम को कल के लिए टालते रहना और आज का दिन आलस्य में बिताना एक बहुत बड़ी भूल है। कई बार तो वह कल कभी आती ही नहीं। रोज कल करने की आदत पड़ जाती है और कितने ही ऐसे महत्त्वपूर्ण कार्य उपेक्षा के गर्त में पड़े रह जाते हैं, जो यदि नियत समय पर आलस्य छोड़कर कर लिये जाते तो पूरे ही हो गये होते।

◾ सत्य की उपेक्षा और प्रेम की अवहेलना करके छल-कपट और दम्भ के बल पर कोई कितना ही बड़ा क्यों न बन जाये, किन्तु उसका वह बड़प्पन एक विडम्बना के अतिरिक्त और कुछ भी न होगा।

◾ भव बंधनों का अर्थ है- कुविचारों, कुसंस्कारों और कुकर्म से छुटकारा पाना। अपने दोषों की ओर से अनभिज्ञ रहने से बड़ा प्रमाद इस संसार में और कोई नहीं हो सकता। इसका मूल्य जीवन की असफलता का पश्चाताप करते हुए ही चुकाना पड़ता है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 आत्मोत्कर्ष के चार अनिवार्य चरण भाग 6

अपने समीपवर्ती लोग प्रायः स्वार्थपरता और निकृष्टता की दिशा में ही प्रेरणा देते ही दीख पड़ने, ग्रहण करने का प्रयत्न करें। उनके जीवन चरित्र पढ़ें ओर आदर्शवादी प्रेरणाप्रद प्रसंगों एवं व्यक्तियों को अपने सामने रखें। उस स्तर के लोग प्रायः सत्संग के लिए के लिए सदा उपलब्ध नहीं रहते। यदि होते भी हैं तो उनके प्रवचन और कर्म में अन्तर रहने से समुचित प्रभाव नहीं पड़ता। ऐसी दशा में सरल और निर्दोष तरीका यही है कि ऐसे सत्साहित्य का नित्य-नियमित रुपं से अध्ययन किया जाय जो जीवन की समस्याओं को सुलझाने, ऊँचा उठाने और आगे बढ़ाने में सहायक सिद्ध होता हो। ऐसा साहित्य न केवल पढ़ा ही जाय वरन् प्रस्तुत विचारधारा को व्यावहारिक जीवन में उतारने के लिए उत्साह भी उत्पन्न किया जाय और सोचा जाय कि इस प्रकार की आदर्शवादिता अपने में किस प्रकार उत्पन्न की जा सकती है। इसके लिए योजनाएँ बनाते रहा जाय और परिवर्तन काल में जो उलट-पुलट करनी पड़ेगी उसका मानसिक ढाँचा खड़ा करते रहा जाय।

यही है आन्तरिक महाभारत की पृष्ठभूमि प्रत्यक्ष संग्राम तब खड़ा होता है जब अभ्यस्त गन्दे विचारों को उभरने न देने के लिए कड़ी नजर रखी जात है और जब भी वे प्रबल हो रहे हों तभी उन्हें कुचलने के लिए प्रतिपक्षी सद्विचारों की सेना सामने ला खड़ी की जाती है। व्यभिचार की ओर जब मन चले तो इस मार्ग पर चलने की हानियों का फिल्म चित्र मस्तिष्क में घुमाया जाय और संयम से हो सकने वाले लाभों का- उदाहरणों का- सुविस्तृत दृश्य आँखों के सामने उपस्थित कर दिया जाय। यह कुविचारों और सद्विचारों की टक्कर हैं यदि मनोबल प्रखर है और न्यायाधीश जैसा विवेक जागृत हो तो कुविचारों का परास्त होना और पलायन करना सुनिश्चित है। सत्य में हजार हाथी के बराबर बल होता है। आसुरी तत्त्व देखने में तो बड़े आकर्षक और प्रबल प्रतीत होते हैं, पर जब सत्य की अग्नि के साथ उनका पाला पड़ता है तो फिर उनकी दुर्गति होते भी देर नहीं लगती। काठ की हाँड़ी की तरह जलते और कागज की नाव की तरह गलते हुए भी उन्हें देखा जा सकता है।

अभ्यस्त कुसंस्कार आदत बन जाते हैं और व्यवहार में अनायास ही उभर-उभर कर आते रहते हैं। इनके लिए भी विचार संघर्ष की तरह कर्म संघर्ष की नीति अपनानी पड़ती है। थल सेना से थल सेना लड़ती हैं और नभ सेना के मुकाबले नभ सेना भेजी जाती है। जिस प्रकार कैदियों को नई बदमाशी खड़ी न करने देने के लिए जेल के चौकीदार उन पर हर घड़ी कड़ी नजर रखते हैं वहीं नीति दुर्बुद्धि पर ही नहीं दुष्प्रवृत्तियों पर भी रखनी पड़ती है। जो भी उभरे उसी से संघर्ष खड़ा कर दिया। बुरी आदतें जब कार्यान्वित होने के लिए मचल रही हों तो उसके स्थान पर उचित सत्कर्म ही करने का आग्रह खड़ा कर देना चाहिए और मनोबल पूर्वक अनुचित को दबाने दुर्बल होगा तो ही हारना पड़ेगा अन्यथा सत्साहस जुटा लेने पर श्रेष्ठ स्थापना से सफलता ही मिलती है। घर में बच्चे जाग रहे हों बुड्ढे खाँस रहे हों तो भी मजबूत चोर के पाँव काँपने लगते हैं और वह उलटे पैरों लौट जाता है। ऐसा ही तब होता है जब दुष्प्रवृत्तियों की तुलना में सत्प्रवृत्तियों को साहसपूर्वक अड़ने और लड़ने के लिए खड़ा कर दिया जाता है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी पृष्ठ 10
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1977/January/v1.10

👉 सोया भाग्य

एक व्यक्ति जीवन से हर प्रकार से निराश था। लोग उसे मनहूस के नाम से बुलाते थे। एक ज्ञानी पंडित ने उसे बताया कि तेरा भाग्य फलां पर्वत पर सोया हुआ है, तू उसे जाकर जगा ले तो भाग्य तेरे साथ हो जाएगा। बस! फिर क्या था वो चल पड़ा अपना सोया भाग्य जगाने। रास्ते में जंगल पड़ा तो एक शेर उसे खाने को लपका, वो बोला भाई! मुझे मत खाओ, मैं अपना सोया भाग्य जगाने जा रहा हूँ।

शेर ने कहा कि तुम्हारा भाग्य जाग जाये तो मेरी एक समस्या है, उसका समाधान पूछते लाना। मेरी समस्या ये है कि मैं कितना भी खाऊं … मेरा पेट भरता ही नहीं है, हर समय पेट भूख की ज्वाला से जलता रहता है। मनहूस ने कहा– ठीक है। आगे जाने पर एक किसान के घर उसने रात बिताई। बातों बातों में पता चलने पर कि वो अपना सोया भाग्य जगाने जा रहा है, किसान ने कहा कि मेरा भी एक सवाल है.. अपने भाग्य से पूछकर उसका समाधान लेते आना … मेरे खेत में, मैं कितनी भी मेहनत कर लूँ पैदावार अच्छी होती ही नहीं। मेरी शादी योग्य एक कन्या है, उसका विवाह इन परिस्थितियों में मैं कैसे कर पाऊंगा?

मनहूस बोला — ठीक है। और आगे जाने पर वो एक राजा के घर मेहमान बना। रात्री भोज के उपरान्त राजा ने ये जानने पर कि वो अपने भाग्य को जगाने जा रहा है, उससे कहा कि मेरी परेशानी का हल भी अपने भाग्य से पूछते आना। मेरी परेशानी ये है कि कितनी भी समझदारी से राज्य चलाऊं… मेरे राज्य में अराजकता का बोलबाला ही बना रहता है।

मनहूस ने उससे भी कहा — ठीक है। अब वो पर्वत के पास पहुँच चुका था। वहां पर उसने अपने सोये भाग्य को झिंझोड़ कर जगाया— उठो! उठो! मैं तुम्हें जगाने आया हूँ। उसके भाग्य ने एक अंगडाई ली और उसके साथ चल दिया। उसका भाग्य बोला — अब मैं तुम्हारे साथ हरदम रहूँगा।

अब वो मनहूस न रह गया था बल्कि भाग्यशाली व्यक्ति बन गया था और अपने भाग्य की बदौलत वो सारे सवालों के जवाब जानता था। वापसी यात्रा में वो उसी राजा का मेहमान बना और राजा की परेशानी का हल बताते हुए वो बोला — चूँकि तुम एक स्त्री हो और पुरुष वेश में रहकर राज – काज संभालती हो, इसीलिए राज्य में अराजकता का बोलबाला है। तुम किसी योग्य पुरुष के साथ विवाह कर लो, दोनों मिलकर राज्य भार संभालो तो तुम्हारे राज्य में शांति स्थापित हो जाएगी।

रानी बोली — तुम्हीं मुझ से ब्याह कर लो और यहीं रह जाओ। भाग्यशाली बन चुका वो मनहूस इन्कार करते हुए बोला — नहीं नहीं! मेरा तो भाग्य जाग चुका है। तुम किसी और से विवाह कर लो। तब रानी ने अपने मंत्री से विवाह किया और सुखपूर्वक राज्य चलाने लगी। कुछ दिन राजकीय मेहमान बनने के बाद उसने वहां से विदा ली।

चलते चलते वो किसान के घर पहुंचा और उसके सवाल के जवाब में बताया कि तुम्हारे खेत में सात कलश हीरे जवाहरात के गड़े हैं, उस खजाने को निकाल लेने पर तुम्हारी जमीन उपजाऊ हो जाएगी और उस धन से तुम अपनी बेटी का ब्याह भी धूमधाम से कर सकोगे।

किसान ने अनुग्रहित होते हुए उससे कहा कि मैं तुम्हारा शुक्रगुजार हूँ, तुम ही मेरी बेटी के साथ ब्याह कर लो। पर भाग्यशाली बन चुका वह व्यक्ति बोला कि नहीं! नहीं! मेरा तो भाग्योदय हो चुका है, तुम कहीं और अपनी सुन्दर कन्या का विवाह करो। किसान ने उचित वर देखकर अपनी कन्या का विवाह किया और सुखपूर्वक रहने लगा। कुछ दिन किसान की मेहमाननवाजी भोगने के बाद वो जंगल में पहुंचा और शेर से उसकी समस्या के समाधानस्वरुप कहा कि यदि तुम किसी बड़े मूर्ख को खा लोगे तो तुम्हारी ये क्षुधा शांत हो जाएगी।

शेर ने उसकी बड़ी आवभगत की और यात्रा का पूरा हाल जाना। सारी बात पता चलने के बाद शेर ने कहा कि भाग्योदय होने के बाद इतने अच्छे और बड़े दो मौके गंवाने वाले ऐ इंसान! तुझसे बड़ा मूर्ख और कौन होगा? तुझे खाकर ही मेरी भूख शांत होगी और इस तरह वो इंसान शेर का शिकार बनकर मृत्यु को प्राप्त हुआ।

सच है — यदि आपके पास सही मौका परखने का विवेक और अवसर को पकड़ लेने का ज्ञान नहीं है तो भाग्य भी आपके साथ आकर आपका कुछ भला नहीं कर सकता।

👉 कैसे मज़बूत बनें

ऐसा क्यों होता है कि कठिन परिस्थितियों में कुछ लोग बिलकुल टूट जाते हैं, बिखर जाते हैं, जबकि इन्ही परिस्थितियों का कुछ लोग न सिर्फ दृढ़ता से सामना करते हैं, बल्कि विपरीत परिस्थितियों में वो और भी ज्यादा निखर जाते हैं। दुनिया में ऐसा कोई भी नहीं जिसके जीवन में प्रतिकूल परिस्थितियां नहीं आतीं, परंतु कुछ लोग बुरी से बुरी परिस्थिति से सफलतापूर्वक लड़कर कठिन से कठिन परिस्थिति से बाहर आ जाने की क्षमता रखते हैं। यदि आप भी अपनी मानसिक, शारीरिक और आध्यात्मिक क्षमताओं को कुछ इसी तरह से विकसित करना चाहते हैं तो आगे दिए जा रहे सुझावों पर अमल कर सकते हैं।

1: मानसिक शक्ति को बनाए रखें

हमेशा याद रखें, आपकी कर्म-प्रधान जिंदगी में होने वाली घटनाओं को आप स्वयं नियंत्रित करते हैं: जीवन में घट रही घटनाओं पर नियंत्रण की ताकत ही शक्ति है, जबकि ऐसी शक्ति के आभाव और लाचारी की स्थिति को कमजोरी कहते हैं। आप चाहे किसी भी परिस्थिति में हों, कुछ बातें ऐसी होती है जिन्हें आप नियंत्रित कर सकते हैं। हाँ, कुछ बातें अवश्य होती हैं जो आपके नियंत्रण के बाहर होती हैं। वो बातें, जिन्हें आप नियंत्रित कर सकते हैं, उनपर ध्यान देना मानसिक शक्ति के विकास की दिशा में उठा पहला कदम है। जो बातें आपको परेशान कर रही हैं, उनकी एक सूची बना लीजिये। फिर इन परेशानियों को हल करने के लिए जिन बातों की आवश्यकता है, उन्हें भी सूचीबद्ध कर लीजिये। पहले वाली सूची की सारी बातों को ह्रदय से स्वीकार करिये, क्योंकि यही सच्चाई है। फिर, अपनी सारी ऊर्जा को अपने द्वारा बनाई गयी दूसरी सूची पर केंद्रित करें।

मुश्किल परिस्थितियों से लड़ लेने की क्षमता रखने वाले लोगों पर किये गए अध्यन से स्पष्ट हुआ है कि धैर्यवान और जुझारू लोग हर परिस्थिति में सकारात्मक बने रहते हैं। हर स्थिति में उन बातों पर ध्यान देते हैं, जिन्हें वो नियंत्रित कर सकते हैं। चाहे उनकी परेशानी किसी और की दी हुई क्यों ना हो, वो उस परेशानी से बाहर आने को अपनी जिम्मेदारी समझते हैं। वहीँ, वैसे लोग जो थोड़ी सी परेशानी में ही बिखर जाते है, उनके लिए पाया गया है कि वो जिम्मेदारी से भागते हैं, समस्या से निकालने वाले क़दमों को नजरअंदाज करते हैं। ऐसे लोगों को यह लगता है कि उनकी बुरी स्थिति के लिए वो खुद तो जिम्मेदार हैं नहीं, फिर वो कैसे इस पर नियंत्रण प्राप्त कर सकते हैं।

.... क्रमशः जारी

👉 आज का सद्चिंतन 22 Dec 2018


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 22 Dec 2018




👉 Love is Supreme

Divine knowledge and selfless love enlighten every dimension of life, destroy all vices and worries; there remains no feeling of hatred, jealously, discrimination, or fear. And then, one is blessed by the divine sight to see the pure love, justice and equality indwelling everywhere.

If you want to experience the divine joy, make your mind a source of wisdom, firm determination and noble thoughts; let your heart be an auspicious ocean of compassion. Control your tongue, purity and discipline it to speak truth. This will help your self- refinement and inner strengthening and eventually inspire the divine impulse of eternal love.

If you have integrity of character, authenticity in what you talk and do, people will believe you. You will not have to attempt convincing them. The wise and sincere seekers will themselves reach you. If in addition, you are generous and have an altruistic attitude towards everyone, you will also naturally win people’s heart. The warmth, words and works of truth and love never go in the void. Their positive impact is an absolute certainty.

There should be no doubt in your minds that pure love is omnipresent and supreme. It contains the power to accomplish the eternal quest of life. It facilitates uprooting the vices and allaying the agility, apprehensions and
tensions of mind. Selfless love is a divine virtue, a preeminent source of auspicious peace and joy.

📖 Akhand Jyoti, Oct. 1943

👉 आत्मचिंतन के क्षण 22 Dec 2018

जो उन्नति की ओर बढ़ने का प्रयत्न नहीं करेगा, वह सपतन की ओर फिसलेगा। यह स्वाभाविक क्रम है। इस संसार में मनुष्य जीवन की दो ही गतिया हैं-उत्थान अथवा पतन।  तीसरी कोई भी माध्यमिक गति नहीं है। मनुष्य उन्नति की ओर न बढ़ेगा तो समय उसे पतन के गर्त में गिरा देगा।

हम अपने आपको प्यार करें, ताकि ईश्वर से प्यार कर सकने योग्य बन सकें। हम अपने कर्त्तव्यों का पालन करें, ताकि ईश्वर के निकट बैठ सकने की पात्रता प्राप्त कर सके। जिसने अपने अंतःकरण को प्यार से ओतप्रोत कर लिया, जिसके चिंतन और कर्तृत्व में प्यार बिखरा पड़ता है, ईश्वर का प्यार उसी को मिलेगा।

केवल राम-नाम लेने से आत्मिक उद्देश्य पूरे हो सकते हैं, इस भ्रान्त धारणा को मन में से हटा देना चाहिए। इतना सस्ता आत्म कल्याण का मार्ग नहीं हो सकता। पूजा उचित और आवश्यक है, पर उसकी सफलता एवं सार्थकता तभी संभव है, जब जीवनक्रम भी उत्कृष्ट स्तर का हो। अन्यथा तोता रटंत किसी का कुछ हित साधन नहीं कर सकती।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 आत्मोत्कर्ष के चार अनिवार्य चरण भाग 5

यों यह कार्य है अति कठिन। हर मनुष्य में अपने प्रति पक्षपात करने की दुर्बलता पाई जाती हैं। आँखें बाहर पक्षपात को देखती हैं, भीतर का कुछ पता नहीं। कान बाहर के शब्द सुनते हैं, अपने हृदय और फेफड़ों से कितना अनवरत ध्वनि प्रवाह गुँजित होता है, उसे सुन ही नहीं पाते इसी प्रकार दूसरों के गुणों-अवगुण देखने में रुचि भी रहती है और प्रवीणता भी, पर ऐसा अवसर कदाचित ही आता है जब अपने दोषों को निष्पक्ष रूप में देखा और स्वीकारा जा सके। आमतौर से अपने गुण ही गुण दीखते हैं दोष तो एक भी नजर नहीं आता। जिस कार्य को कभी भी न किया हो वह बन ही नहीं पड़ता। आत्मा-समीक्षा कोई कब करता हैं? अस्तु वह प्रक्रिया ही कुंठित हो जाती है। अपने दोष ढूँढ़ने में काफी कठोरता बरतने की क्षमता उत्पन्न हो जाय तो वस्तुस्थिति समझने और सुधार कि लिए प्रयत्न करने का अगला चरण उठाने में सुविधा होती है।

दोष दुर्गुणों के सुधार के लिए अपने आप से संघर्ष करने के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं। गीता में जिन महाभारत का उल्लेख और जिसमें भगवान ने हठपूर्वक जो कार्य नियोजित किया था वह अन्तः संघर्ष ही था भगवान के अवतरण में अधर्म के नाश और धर्म के संस्थापन की प्रतिज्ञा जुड़ी हुई है। अवतार इसी प्रयोजन के लिए होते हैं अन्तःकरण में जब भी भगवान अवतरित होते हैं तब विचार और व्यवहार के साथ लिपट कर सम्बन्धियों जैसी प्रिय लगने वाली असुरता से लड़ने के लिए कटिबद्ध होना पड़ता है। अवतार को असुरों को परास्त करने और देवत्व को जिताने का कार्य अनिवार्य रूप से करना पड़ा है। इस प्रक्रिया को व्यक्तियों का जीवन की दुष्प्रवृत्तियों का निराकरण और सत्प्रवृत्तियों का संबोधन कह सकते हैं। ईश्वर की दिव्य ज्योति जिस भी अन्तरात्मा में प्रकट होगी उसमें प्रथम स्फुरणा यही होगी कि जीवन के जिस भी क्षेत्र में दुष्ट-दुर्बुद्धि छिपी पड़ी है और दुष्टकर्मों के लिए ललचाती है उसे ताड़का, सूर्पणखा, पूतना की तरह निरस्त कर दिया जाय।

बुरे विचारों को अच्छे विचारों से काटा जाता है और बुरी आदतों के स्थान पर नई आदतों को अभ्यास में लाना पड़ता है। इस कार्य में एक प्रकार से अन्तःयुद्ध जैसी परिस्थिति उत्पन्न होती है। यह परिवर्तन अनायास ही- इच्छा मात्र से- हो सकना सम्भव नहीं। प्रचण्ड मनोबल और संकल्पशक्ति का उपयोग करने से ही यह हेर-फेर होता है। विष को विष से मारा जाता है- काँटे को काँटे से निकाला जाता है और चाटे का जवाब घूँसे से दिया जाता है। सेना के साथ सेना लड़ती है। टैंक तोड़ने के लिए तोप के गोले बरसाने पड़ते हैं। संघर्ष में समतुल्य बल का प्रयोग करना पड़ता है। मस्तिष्क में भरे हुए कुविचारों की सद्विचारों से काटना पड़ता है। निकृष्टता की और आकर्षित करने वाले वातावरण के प्रभाव को निरस्त करने के लिए उत्कृष्टता के लोक में अपने को पहुँचाना होता है। यह कार्य स्वाध्याय और सत्संग की सहायता से ही यह सम्भव हो सकता है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी पृष्ठ  9
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1977/January/v1. 9

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Sep 2024

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