शनिवार, 30 दिसंबर 2017

👉 मन पर संयम

🔶 एक बार एक साधक ने कन्फ्यूशियस से पूछा, मैं मन पर संयम कैसे रखूं? कन्फ्यूशियस ने उस व्यक्ति से पूछा, क्या तुम कानों से सुनते हो? साधक ने कहा, हां, मैं कानों से ही सुनता हूं।

🔷 तब कन्फ्यूशियस ने कहा, मैं नहीं मान सकता तुम मन से भी सुनते हो और उसे सुनकर अशांत हो जाते हो। इसलिए आज से केवल कानों से सुनो।

🔶 मन से सुनना बंद कर दो। तुम आंखों से देखते हो, यह भी मैं मान नहीं सकता आज से तुम केवल आंख से देखना और जीभ से चखना आरंभ करो। मन पर अपने आप संयम हो जाएगा।

🔷 संक्षेप में

🔶 यह प्रेरक प्रसंग एक सशक्त सूत्र की तरह है। केवल कान से सुनो, आंख से देखो और जीभ से चखो। उनसे मन को मत जोड़ो। मन पर संयम रखने की यह पहली सीढ़ी है।

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 31 Dec 2017



👉 आज का सद्चिंतन 31 Dec 2017


👉 विक्षुब्ध जीवन, शान्तिमय कैसे बने? (भाग 3)

🔷 मनुष्य अपनी इन परेशानियों से छूटने का उपाय भी कर रहा है। वस्तुतः उसका सारा उद्योग, परिश्रम और पुरुषार्थ है ही केवल परेशानियां कम करने और कष्टों से छूटने के लिये। किन्तु उसके कष्टों में कमी के कोई लक्षण दृष्टिगोचर नहीं होते। मनुष्य अन्धकार में हाथ-पांव मारता हुआ सुख की दिशा के बजाय भ्रम की वीथियों में भटकता फिर रहा है। सुख के प्रयास में दुःख ही पाता चला जा रहा है। निस्सन्देह मनुष्य की यह दुर्दशा दया की ही पात्र है।

🔶 संसार में अशक्य अथवा असाध्य कुछ भी नहीं है। उसके लिये प्रबल पुरुषार्थ, दृढ़ निष्ठा, उपयुक्त दृष्टिकोण, मानसिक सन्तुलन, आत्म विश्वास और सही दिशा की आवश्यकता है।

🔷 तृष्णा भयानक अजगर के समान है। जब यह किसी मनुष्य में अनियन्त्रित हो जाती है तो सम्पूर्ण संसार को निगल जाने की इच्छा किया करती है। अपनी इस अनुचित इच्छा से प्रेरित होकर जब वह अग्रसर होता है तब भयानक संघर्ष, विरोध एवं बैर में फंसकर चोट खाता और तड़पता है। स्वार्थ से ईर्ष्या, द्वेष, लोभ आदि मानसिक विकृतियों का जन्म होता है जो स्वयं ही किसी अन्य साधन के बिना मनुष्य को जलाकर भस्म कर डालने के लिये पर्याप्त होती हैं।

🔶 दृष्टिकोण की अव्यापकता भयानक बन्दीग्रह है, जिसमें बन्दी बना मनुष्य एकाकीपन और सूनेपन से घिरकर तड़पता कलपता रहता है। संकीर्ण दृष्टिकोण वाला व्यक्ति अपनी मान्यताओं, विश्वासों अथवा भावनाओं से भिन्न किसी भावना, विश्वास अथवा मान्यता को सहन नहीं कर पाता। किसी दूसरी सभ्यता अथवा संस्कृति को फूटी आंख भी फलते-फूलते नहीं देख सकता। जो उससे सम्बन्धित है वही सत्य है, शिव है और सुन्दर, अन्य सब कुछ अमंगल एवं अशुभ है। इस विविधताओं, विभिन्नताओं एवं अन्यताओं से भरे संसार में भला इस प्रकार के संकुचित दृष्टिकोण वाला व्यक्ति किस प्रकार सुखी रह सकता है? उससे भिन्न मान्यताएं उठेंगी, विविधताएं व्यग्र करेंगी और भ्रांतियां उत्पन्न होंगी।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 Wealth of Awareness (Part 1)

🔶 The characteristic making difference between a man and an animal is the awareness. Only due to its absence all the creatures other than human being are categorized on equal footing despite the fact that all creatures including human being are conscious. There is life in vegetables but no awareness. Others in this category are bees, insects,   mosquitoes etc which though have life like a human being but not the awareness. Fishes have life; frogs have life, tortoises have life; birds do have life then why we do not keep them on equal footing? We do so only because these creatures do not have any awareness.

🔷 The man has been conceived as the god of awareness/knowledge. Only his thoughtfulness, discreetness has led him to be positioned far above other creatures under the sun. Just imagine the man as a wild man of ancient times when he did not have any knowledge/awareness. Sociality as well as sense of responsibilities would have been unknown to him. When he would have been unknown about traits of his temperament, his pride, dignity, merits and actions then he too, as told by Darwin-monkey’s son, would have been really like a son of a monkey. But today the same man has become the owner of the universe, for what reason? In comparison to ancient times, today the awareness/knowledge of man has grown manifold.

.... to be continue
✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya

👉 धर्मतंत्र का दुरुपयोग रुके (भाग 7)

🔷 साथियो! आपने गिरजाघरों को देखा है। गिरजाघरों में भगवान के लिए कोई गुंजाइश नहीं है क्या ?? वहाँ कहीं-कहीं मरियम की मूर्ति लगी रहती है, तो कहीं-कहीं ईसा की प्रतिमा लगी रहती हैं। एक छोटा-सा प्रार्थनाकक्ष होता है। कहीं इसमें अस्पताल या दवाखाने वाला हिस्सा होता है। कहीं पादरियों के रहने का हिस्सा होता है। कहीं एक छोटा सा दफ्तर बना होता है। इस तरह भगवान का एक छोटा सा केंद्र बनाने के बाद में बाकी सारी-की इमारत, सारा स्थान लोकमंगल के लिए होता है। पहले भारतवर्ष में भी ऐसा ही किया जाता था और किया भी जाना चाहिए, लेकिन आज तो मंदिरों की दशा देखकर हँसी आती है और क्रोध भी। आज मंदिरों का सारा-का धन कुछ चंद लोगों के निहित स्वार्थ के लिए खरच हो जाता है। जो कुछ भी चढ़ावा या दान आया, कुछ निहित स्वार्थ के लिए मठाधीशों और मंदिरों के स्वामी और दूसरे महंतों के पेट में चला गया।

🔶 मित्रों ! वह अनावश्यक धन, हराम का धन जब उन लोगों के पास आया तो उन्होंने क्या-क्या किया? आप नहीं जानते, मैं जानता हूँ। पंडा-पुजारियों, महंतों और मठाधीशों की हकीकत मुझे मालूम है, आपको नहीं मालूम है। आप तो केवल उनकी बाहर की शकल जानते हैं। मुझे उनके पास रहने का मौका मिला है। मैं जानता हूँ कि समाज-से किस्म के तबके अगर हैं, तो उनमें से एक तबका इन लोगों का भी हैं, जो धर्म का कलेवर या धर्म का दुपट्टा ओढ़े हुए हैं। धर्म का झंडा गाड़े हुए हैं और धर्म का तिलक लगाए हुए हैं। धर्म की पोशाक और धर्म का बाना पहने हुए बैठे हैं। ये क्या-क्या अनाचार फैलाते हैं और क्या-क्या दुनिया में खुराफातें पैदा करते हैं, इनके निहित स्वार्थों को पूरा करने के लिए आज का धर्मतंत्र है-मंदिर।

🔷 तो क्या मंदिर सिर्फ इसी काम के लिए है? क्या इन परिस्थितियों को बदला नहीं जाना चाहिए? हाँ, अगर हमको समाज में ढोंग, अनाचार और अज्ञान फैलाना हो, तो मंदिरों का यही रूप बना रहने देना चाहिए। अगर हमको यह ख्याल है कि जनता का इतना धन, जनता की इतनी धन, जनता का इतना पैसा-इन सब चीजों का ठीक तरीके से उपयोग किया जाए, तो आज के जो मंदिर हैं, उनकी व्यवस्था पर नए ढंग से विचार करना पड़ेगा। जिन लोगों के हाथ में उनका नियंत्रण है, उनको समझाना पड़ेगा और कहना पड़ेगा कि लोक मंगल के लिए आप इनका इस्तेमाल क्यों नहीं करते? ट्रस्टियों को समझाया जाना चाहिए। अगर उनकी समझ में यह बात आ जाए कि मंदिर में जितना धन लगा हुआ है, इसमें से थोड़े पैसे से भगवान की पूजा आसानी से की जा सकती है। एक पुजारी ने आधा घंटे सुबह और आधा घंटे शाम को पूजा कर ली। एक घंटे के बाद तेईस घंटे बच जाते हैं। नहीं साहब तेईस घंटे पुजारी पंखा लिए खड़े रहेंगे। जब भगवान सो जाएँगे, तो वे वहाँ से हटेंगे और जब भगवान उठ जाएँगे, तो फिर पंखा डुलाते रहेंगे। यह कोई तरीका है?

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य (अमृत वाणी)

👉 गुरुगीता (भाग 6)

👉 सद्गुरु से मिलना जैसे रोशनी फैलाते दिये से एकाकार होना

🔷 चीन में एक सन्त हुए हैं। शिन-हुआ। इन्होंने काफी दिनों तक साधना की। देश-विदेश के अनेक स्थानों का भ्रमण किया। विभिन्न शास्त्र और विद्याएँ पढ़ी; परन्तु चित्त को शान्ति न मिली। सालों-साल के विद्याभ्यास के बावजूद अविद्या की भटकन एवं भ्रान्ति यथावत् बनी रही। उन दिनों शिन-हुआ को भारी बेचैनी थी। अपनी बेचैनी के इन्हीं दिनों में उनकी मुलाकात बोधि धर्म से हुई। बोधिधर्म उन दिनों भारत से चीन गए हुए थे। बोधिधर्म के सान्निध्य में, उनके सम्पर्क के एक पल में शिन-हुआ की सारी भ्रान्तियाँ, समूची भटकन समाप्त हो गयी। उनके मुख पर एक ज्ञान की अलौकिक दीप्ति छा गयी। बात अनोखी थी। जो सालों-साल अनेकानेक शास्त्रों एवं विद्याओं को पढ़कर न हुआ, वह एक पल में हो गया।

🔶 अपने जीवन की इस अनूठी घटना का उल्लेख शिन-हुआ ने अपने संस्मरणों में किया है। उन्होंने अपने गुरु बोधिधर्म के वचनों का उल्लेख करते हुए लिखा है- विद्याएँ और शास्त्र दीए के चित्र भर हैं। इनमें केवल दीए बनाने की विधि भर लिखी है। इन चित्रों को, विधियों को कितना ही पढ़ा जाय, रटा जाय, इन्हें अपनी छाती से लगाए रखा जाय, थोड़ा भी फायदा नहीं होता। दीए के चित्र से रोशनी नहीं होती। अंधेरा जब गहराता है, तो शास्त्र और विद्याओं में उल्लेखित दीए के चित्र थोड़ा भी काम नहीं आते। मन वैसा ही तड़पता रहता है।
  
🔷 लेकिन सद्गुरु से मिलना जैसे जलते हुए, रोशनी को चारों ओर फैलाते हुए दीए से मिलना है। शिन-हुआ ने लिखा है कि उनका अपने गुरु बोधीधर्म से मिलना ऐसे ही हुआ। वह कहते हैं कि प्रकाश स्रोत के सम्मुख हो, तो भला भ्रान्तियों एवं भटकनों का अंधेरा कितनी देर तक टिका रह सकेगा? यह कोई गणित का प्रश्नचिह्न है। इसका जवाब जोड़-घटाव, गुणा-भाग में नहीं, सद्गुरु कृपा की अनुभूति में है। जीवन में यह अनुभूति आए, तो सभी विद्याएँ, सारे शास्त्र अपने आप ही अपना रहस्य खोलने लगते हैं। शास्त्र और पुस्तकें न भी हों तो भी गुरुकृपा से तत्त्वबोध होने लगता है। गुरुकृपा की महिमा ही ऐसी है। इस महिमा की अभिव्यक्ति अगले मंत्रों में है।          

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ प्रणव पंड्या
📖 गुरुगीता पृष्ठ 15

शुक्रवार, 29 दिसंबर 2017

👉 जैसा करनी वैसा फल

🔶 एक गांव में एक वैद्य रहता था। दवा लेने के लिए कई लोग उसके पास आते रहते हैं। लेकिन उसकी दवा के खाने से दो-तीन लोगों की मौत हो गई। इसलिए अब कोई व्यक्ति उस वैद्य से इलाज करवाने नहीं आता था।

🔷 ऐसे में वैद्य को भूखे ही सोना पढ़ता था। एक दिन एक गांव में जाने के बाद भी वैद्य को कोई रोगी नहीं मिला तो घर लौटने से पहले वह आराम करने के लिए एक पेड़ की छांह में बैठ गया। उस वृक्ष के कोटर में एक विषैला नाग रहता था।

🔶 उसे देखकर वैद्य के मन में एक विचार आया कि यह नाग अगर किसी व्यक्ति को काट ले तो संभव है कि इलाज के लिए कोई न कोई रोगी तो मिल ही जाएगा। वैद्य ने देखा कि कुछ ही दूरी पर, कुछ बच्चे खेल रहे थे।

🔷 वैद्य ने उन बच्चों को बुलाया और कहा कि देखो इस पेड़ के उस कोटर में मैना रहती है। बच्चे खुश हो गए। उन्होंने मैना की चाह में, उस पेड़ पर चढ़कर उस कोटर में हाथ डाल दिया। जिस बच्चे ने उस कोटर में हाथ डाला उसके हाथ में नाग की गरदन आ गई। बच्चे ने तुरंत उसे नीचे की ओर फेंक दिया।

🔶 नीचे कुछ बच्चों के साथ वैद्य भी खड़ा था। नाग सीधे, उसी वैद्य के ऊपर गिर गया और उसे कई जगहों पर काट लिया। जिसके कारण उसकी तुरंत मृत्यु हो गई।

संक्षेप में

🔷 इस कहानी का सार ये है कि जो व्यक्ति दूसरों के लिए गड्डा खोदता है, वह खुद ही उसमें गिर जाता है।

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Dec 2017


👉 आज का सद्चिंतन 30 Dec 2017


👉 जीवन साधना के चार चरण (अन्तिम भाग)

🔷 अपने व्यक्तित्व का विकास उत्कृष्ठ चिन्तन और आदर्श कर्तव्य अपनाये रहने पर ही निर्भर है। उस साधना में चंचल मन और अस्थिर बुद्धि से काम नहीं चलता, इसमें तो संकल्पनिष्ठ, धैर्यवान और सतत प्रयत्नशील रहने वाले व्यक्ति ही सफल हो सकते है। अपना लक्ष्य यदि आदर्श मनुष्य बनना है तो इसके लिए व्यक्तित्व में आदर्श गुणों और उत्कृष्ट विशेषताओं का अभिवर्धन करना ही पड़ेगा।

🔶 आत्म-विकास अर्थात्‌ अपने आत्म-भाव की परिधि को अधिकाधिक विस्तृत क्षेत्र में विकसित करते रहना। यदि हम अपनी स्थिति को देखें तो प्रतीत होगा कि शरीर और परिवार का उचित निर्वाह करते हुए भी हमारे पास पर्याप्त समय और श्रम बचा रहता है कि उससे परमार्थ प्रयोजनों की भूमिका निबाही जाती रह सके। आत्मीयता का विस्तार किया जाय तो सभी कोई अपने शरीर और कुटुम्बियों की तरह अपनेपन की भाव श्रृंखला में बँध जाते हैं और सबका दुःख अपना दुःख तथा सबका सुख अपना सुख लगने लगता है। जो व्यवहार, सहयोग हम दूसरों से अपने लिए पाने की आकांक्षा करते हैं, फिर उसे दूसरों के लिए देने की भावना भी उमगने लगती है, लोक-मंगल और जन-कल्याण की, सेवा साधना की इच्छाएँ जगती हैं तथा उसकी योजनाएँ बनने लगती हैं। इस स्थिति में पहुँचा ,व्यक्ति सीमित न रहकर असीम बन जाता है और उसका कार्य क्षेत्र भी व्यापक परिधि में सत्प्रवृत्तियों का सम्वर्धक बन जाता है।

🔷 संसार के इतिहास में जिन महामानवों का उज्ज्वल चरित्र जगमगा रहा है, वे आत्म-विकास के इसी मार्ग का अवलम्बन लेते हुए महानता के उच्च शिखर तक पहुँच सके हैं। चारों दिशाओं की तरह आत्मिक उत्कर्ष के चार आधार यही हैं।

.... समाप्त
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 विक्षुब्ध जीवन, शान्तिमय कैसे बने? (भाग 2)

🔷 वस्तु एवं विषयों का बाहुल्य हो जाने के कारण मनुष्य की आवश्यकतायें एवं इच्छायें बहुत बढ़ गई हैं। समुपस्थित साधनों की अपेक्षा जनसंख्या की अपरिमित वृद्धि से मनुष्यों का स्वार्थ पराकाष्ठा पार कर गया है। वैज्ञानिक आविष्कारों के कारण संसार की शक्तियों का सन्तुलन बिगड़ गया है, जिससे मनुष्यों के बीच पारस्परिक विश्वास समाप्त हो गया है। आधिक्य तथा अभाव की विषमता के कारण रोग, दोष, शोक, मोह, ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध, लाभ आदि की प्रवृत्तियां बहुत बढ़ गई हैं। जीविका के लिये जीवन में अत्यधिक व्यस्तता बढ़ जाने के कारण मनुष्य एक निर्जीव यन्त्र बन गया है, उसके जीवन की सारी प्रसन्नता उल्लास, हर्ष एवं आशा आदिक विशेषतायें समाप्त हो गई हैं। मनुष्य निष्ठुर, नीरस, अनास्थावान एवं नास्तिक बन गया है। मन में कोई उत्साह न रहने के कारण धर्म उसके लिये ढोंग और संयमशीलता, रूढ़िवादिता के रूप में बदल गई है।

🔶 मनुष्य को परेशान करने वाली परिस्थितियों के विकटतम जाल चारों ओर फैल गये हैं। इन परेशानियों में फंसा-फंसा जब वह ऊब उठता है तो नवीनता तथा ताजगी लाने के लिये निकृष्ट मनोरंजनों तथा मद्यादिक व्यसनों की ओर भाग पड़ता है।

🔷 ईर्ष्या, द्वेष, छल, कपट, स्वार्थ एवं संघर्ष आज के समय का वास्तविक जीवन बन गया है। इतनी दुष्ट प्रवृत्तियों एवं परिस्थितियों के रहते हुये मनुष्य परेशान न हो यह कैसे हो सकता है? क्या अनपढ़ और क्या पढ़ा लिखा, क्या धनवान और क्या निर्धन, क्या मालिक और क्या मजदूर, बच्चा-बूढ़ा, स्त्री-पुरुष सब समान रूप से अपनी-अपनी तरह परेशान देखे जाते हैं।

🔶 ऐसा नहीं कि मनुष्य अपनी इन परेशानियों का इतना अभ्यस्त हो गया हो कि इनकी ओर से उदासीन रह रहा हो, बल्कि वह इन व्यग्रताओं से इतना दुःखी हो उठा है कि उसे जीवन में कोई विशेष दिलचस्पी नहीं रही, जिसके फलस्वरूप समाज में अपराधों, विकृतियों एवं कुरूपताओं की बाढ़ सी आ गई है। मानव-जीवन के लक्ष्य ‘‘सत्यं शिवम्, सुन्दरम्’’ का पूर्ण रूपेण तिरोधान हो गया है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://literature.awgp.org/book/sukh_shanti_ki_sadhana_/v1.6

👉 The Joy of Service is better than Heaven

🔶 The divine king Indra was very pleased with the devotion of saint Arishtnemi. He sent down an angel to invite him to heaven. The Angel approached the saint and said, "Sir, the king of heaven, Indra has sent me to you. It is his request that you accompany me to the heaven and stay there." But, the purpose of the saint's devotion was self-realization and social service, he had never wished for a place in heaven. So he replied, "Dear Angel! I have made a little heaven for myself right here on Earth. I have no need for the amenities in heaven. The gratification I will get in heaven is already available to me by serving the needy. The pleasures in your heaven are feeble as compared to the joy of service."

📖 From Pragya Puran

👉 धर्मतंत्र का दुरुपयोग रुके (भाग 6)

🔷 मित्रो ! मंदिर जन-जागरण के केंद्र बनाए जा सकते हैं। मंदिरों का उपयोग लोकमंगल के लिए किया जा सकता है, क्योंकि उसके पास इमारत होती है। इमारत तो हर सेवा केंद्र के पास होनी चाहिए, परंतु इसके अलावा वह व्यवस्था भी होनी चाहिए, जिससे कि उस क्षेत्र के कार्यकर्ताओं का, निवासियों का, गुजारे का प्रबंध किया जा सके। इस गुजारे का प्रबंध तभी हो सकता है, जब आजीविका के स्रोतों से जनता में इसके लिए त्यागवृत्ति पैदा की जा सके। मनुष्य में यह भावना पैदा की जा सके कि हमने भगवान को दिया है, तुमको नहीं। इससे आदमी का मन हलका होता है। त्याग और सेवा की वृत्ति पैदा होती है। उस धन के एक केंद्र पर इकट्ठा होने से समाज के लिए उससे उपयोगी काम किए जा सकते हैं।

🔶 प्राचीन काल में मंदिर इसी उद्देश्य से बनाए गए थे। समाज में सत्प्रवृत्तियों का विकास वास्तव में भगवान की सेवा का एक बहुत बड़ा काम है, लेकिन आज मैं क्या कहूँ, मंदिरों को देखकर रोना आता है। आज मंदिर पर मंदिर बनते चले जा रहे हैं। करोड़ों रुपया खरच होता है। क्या ऐसा संभव नहीं था कि करोड़ों रुपयों से बनने वाली इमारतों को इस ढंग से बनाया गया होता कि वहाँ लोकसेवा की प्रवृत्तियों के लिए गुंजाइश रहती और भगवान के निवास की भी एक छोटी -सी जगह बना दी गई होती। अब तो सारी-की-सारी इमारतें इस काम के लिए बनाई जाती है कि उसमें केवल भगवान ही बैठें। भगवान को इतनी जगह की क्या जरूरत है? भगवान को चाहो, तो एक कोने में बिठा दो, तो भी वे मौज करेंगे। भगवान को इतने बड़े भव्य निर्माण से क्या लेना-देना? उनके लिए तो इतना बड़ा आसमान विद्यमान है।

🔷 मित्रो! मंदिरों की इमारतों को अगर इस ढंग से बनाया गया होता कि जिनमें मदिर के साथ-साथ पाठशाला, प्रौढ़ पाठशाला, संगीत विद्यालय, वाचनालय और कथा-कीर्तन का कक्ष भी बना होता, उसके आस-पास व्यायामशाला भी होती और थोड़ी-सी जगह में चिकित्सालय का भी प्रबंध होता, बच्चों के खेलने की भी जगह होती। इस तरीके से लोकमंगल की, लोकसेवा की अनेक प्रवृत्तियों का एक केंद्र अगर वहाँ बना दिया गया होता और वहीं एक जगह भगवान की स्थापना होती, तो जो धन मंदिरों में चढ़ाया जाता है, उसका ठीक तरीके से उपयोग होता। ऐसी स्थिति में मंदिरों के द्वारा कितना बड़ा लाभ होता।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य (अमृत वाणी)

👉 गुरुगीता (भाग 5)

👉 सद्गुरु से मिलना जैसे रोशनी फैलाते दिये से एकाकार होना

🔷 महादेव शिव के कथन का अन्तिम सत्य यह है कि ‘गुरु ही ब्रह्म है।’ यह संक्षिप्त कथन बड़ा ही सारभूत है। इसे किसी बौद्धिक क्षमता से नहीं भावनाओं की गहराई से समझा जा सकता है। इसकी सार्थक अवधारणा के लिए शिष्य की छलकती भावनाएँ एवं समर्पित प्राण चाहिए। जिसमें यह पात्रता है, वह आसानी से भगवान् भोलेनाथ के कथन का अर्थ समझ सकेगा। ‘गुरु ही ब्रह्म है’ में अनेकों गूढ़ार्थ समाए हैं। जो गुरुतत्त्व को समझ सका, वही ब्रह्मतत्त्व का भी साक्षात्कार कर पाएगा। सद्गुरु कृपा से जिसे दिव्य दृष्टि मिल सकी, वही ब्रह्म का दर्शन करने में सक्षम हो सकेगा। इस अपूर्व दर्शन में द्रष्टा, दृष्टि, एवं दर्शन सब एकाकार हो जाएँगे अर्थात् शिष्य, सद्गुरु एवं ब्रह्मतत्त्व के बीच सभी भेद अपने आप ही मिट जाएँगे। यह सत्य सूर्य प्रभाव की तरह उजागर हो जाएगा कि सद्गुरु ही ब्रह्म है और ब्रह्म ही अपने सद्गुरु के रूप में साकार हुए हैं।

भगवान् शिव कहते हैं, सद्गुरु की कृपा दृष्टि के अभाव में-

वेदशास्त्रपुराणानि इतिहासादिकानि च।
मंत्रयंत्रादि विद्याश्च स्मृतिरुच्चाटनादिकम्॥ ६॥
शैवशाक्तागमादीनि अन्यानि विविधानि च।
अपभ्रंशकराणीह जीवानां भ्रान्तचेतसाम्॥ ७॥

🔶 वेद, शास्त्र, पुराण, इतिहास, स्मृति, मंत्र, यंत्र, उच्चाटन आदि विद्याएँ, शैव-शाक्त, आगम आदि विविध विद्याएँ केवल जीव के चित्त को भ्रमित करने वाली सिद्ध होती हैं।
  
🔷 विद्या कोई हो, लौकिक या आध्यात्मिक उसके सार तत्त्व को समझने के लिए गुरु की आवश्यकता होती है। विद्या के विशेषज्ञ गुरु ही उसका बोध कराने में सक्षम और समर्थ होते हैं। गुरु के अभाव में अर्थवान् विद्याएँ भी अर्थहीन हो जाती हैं। इन विद्याओं के सार और सत्य को न समझ सकने के कारण भटकन ही पल्ले पड़ती है। उच्चस्तरीय तत्त्वों के बारे में पढ़े गए पुस्तकीय कथन केवल मानसिक बोझ बनकर रह जाते हैं। भारभूत हो जाते हैं। जितना ज्यादा पढ़ो, उतनी ही ज्यादा भ्रान्तियाँ घेर लेती हैं। गुरु के अभाव में काले अक्षर जिन्दगी में कालिमा ही फैलाते हैं। हाँ, यदि गुरुकृपा साथ हो, तो ये काले अक्षर रोशनी के दीए बन जाते हैं।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ प्रणव पंड्या
📖 गुरुगीता पृष्ठ 14

👉 भाग्य बनाना अपने हाथ की बात है:-


🔶 प्रायः टालस्टाय कहा करते थे- “भाग्य बनाना तो हमारे हाथ की बात है। ईश्वर ने हमारे शरीर, हमारे मस्तिष्क और हमारी आत्मा में वे अद्भुत शक्तियाँ भर दी हैं जिनका हमें कुछ ज्ञान नहीं है। यदि हम इन अद्भुत शक्तियों के विकास में लग जायें, तो भाग्य की लकीरों को निश्चय ही बदल सकते हैं।” एक नहीं अनेकों व्यक्तियों ने भाग्य बदला है।

🔷 एक बार घोड़ा हाँकने वाले ने अपना भाग्य बदला था। क्या आपको उसकी कहानी मालूम है। यदि नहीं तो लीजिये उसे तरोताजा कर लीजिये-

🔶 उसका नाम लावेल था। फूटे नसीब को चुनौती देकर वह फ्राँस का प्रधान सचिव बन गया था।

🔷 गरीबी से उसके पाँव जकड़े थे। अभाव उसे चारों ओर से बाँधे हुये थे। रोटी- कपड़े और पढ़ने की समस्त असुविधाएँ उसके पास थी। उन्नति के कोई भी साधन उसके पास नहीं थे।

🔶 जब वह छोटा था, तो एक दिन पिता ने बाग में घूमते हुये एक सुन्दर फल को दिखा कर उससे कहा था,

🔷''देखो पुत्र ! उस सुन्दर पुष्प को देखो। पूरे उद्यान में उसका सौरभ और सौन्दर्य फैल रहा है। दिशाएँ सुगंध से जैसे भर गई हैं। मन उसकी ओर खिंचा जाता है। क्या तुम्हें मालूम है कि पूर्ण विकसित स्थिति में आने लिये इस पुष्प को कितने कष्ट उठाने पड़े, कितनी एक से एक बड़ी तकलीफें सहनी पड़ी ?? उसके चारों ओर काँटे ही काँटे हैं। तनिक सी हवा चलते ही इसका शरीर काँटों सेविंध जाता है। हिलने तक के लिये स्थान नहीं है। लेकिन फिर भी यह फूल अपना सौन्दर्य और सौरभ बिखेर रहा है। तुमको भी इसी प्रकार जीवन में एक दिन खिलना है, एक दिन गरीबी, अभावों, विषमताओं, विरोधों के नुकीले काँटों में बढ़ना है। सफलता प्राप्त करना है। इस सफलता के लिये हर प्रकार के काँटों का आलिंगन करना है। हमेशा याद रखना है कि जीवन क सफल निर्माण पुष्पों की शय्या पर नहीं होता, बल्कि काँटों की सेज पर होता है। भाग्य बदलने का एकमात्र उपाय उन्नति के लिये हर प्रकार का सच्चा और निरन्तर संघर्ष ही है।''

🔷 बालक लावेल पर इन शब्दों का जादू जैसा असर हुआ। उसने निरन्तर भाग्य के चक्र को बदल डालने के लिये सतत प्रत्यन किया। अब उसके जीवन का एक नया अध्याय खुला।

🔶 वह घोड़ा हाँकता, पर साथ ही पुस्तकें रखता। जो भी थोड़ा- सा अवकाश मिलता, उसी में पुस्तकें पढ़ने बैठ जाता। एक ओर घोड़ा की सेवा और जीविका उपार्जन का कुटिल वक्त, दूसरी ओर अध्ययन और भाग्य को बदल डालने का दृढ़ प्रयत्न, उसके लिये सतत उद्योग। उसकी रोजी कम होने लगी। पढ़ने लिखने में लगे रहने से ताँगे की कमाई में कमी आना अवश्यम्भावी था।

🔷 इधर उसे पढ़ाई में मजा आने लगा था। उसे फाके मस्ती करना मंजूर था, पर अध्ययन छोड़ना मंजूर न था। कभी- कभी वह तांगा हांकने की छुट्टीकर देता, पास के पैसे घोड़े पर व्यय कर देता। स्वयं पूरे दिन उपवास कर डालता। रात में पढ़ने के लिये रोशनी का प्रबन्ध न होता। विवश होकर उसे सड़क की लालटेन के नीचे पढ़ना पढ़ा। पुस्तक खरीदने के लिये उसके पास पैसा नहीं था। वह उन्हें उधार माँगता और पढ़ कर लौटा देता। जब तक एक पुस्तक याद न कर लेता, तब तक उसे न छोड़ता ।। कभी -कभी बारिश के पानी में भी पड़ता ही रहता ।। तूफान या ठन्ड से भी न डरता। वर्षों परिश्रम करते- करते वह विद्वान बन गया और अपनी विद्वत्ता के बल पर सफलता की उच्चतम मंजिल पर पहुँचा।

अखंड ज्योति जनवरी 1961 से

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 29 Dec 2017

👉 आज का सद्चिंतन 29 Dec 2017


👉 जीवन साधना के चार चरण (भाग 2)

🔷 आत्म-सुधार, अर्थात्‌ कुसंस्‍कारों को परास्त करना। अपने स्वभाव में सम्मिलित दुष्प्रवृत्तियाँ अभ्यास होने के कारण कुसंस्‍कार बन जाती हैं और व्यवहार में उभर-उभर कर आने लगती हैं। आत्म-सुधार प्रक्रिया के अन्तर्गत इसके लिए अभ्यास और विचार-संघर्ष के दो मोर्चे तैयार करने चाहिए। अभ्यस्त कुसंस्‍कारों की आदत तोड़ने के लिए बाह्य क्रिया-कलापों पर नियंत्रण और उनकी जड़ें उखाड़ने के लिए विचार-संघर्ष की पृष्ठभूमि बनानी चाहिए। बुरी आदतें भूतकाल में किया गया अभ्यास ही हैं इस अभ्यास को अभ्यास बना कर तोड़ा जाए और कुसंस्‍कार सुसंस्कार निर्माण द्वारा नष्ट किये जायें। जैसे थल सेना से थल सेना ही लड़ती है और नभ सेना से लड़ने के लिए नभ सेना ही भेजी जाती है।

🔶 जो भी बुरी आदतें जब उभरें उसी से संघर्ष किया जाए। बुरी आदतें जब उभरने के लिए मचल रहीं हों तो उनके स्थान पर उचित सत्कर्म ही करने का आग्रह खड़ा किया जाए और मनोबलपूर्वक अनुचित को दबाने तथा उचित को अपनाने का साहस किया जाय। मनोबल यदि दुर्बल होगा तो ही हारना पड़ेगा अन्यथा सत्साहस जुटा लेने पर तो श्रेष्ठ की स्थापना में सफलता ही मिलती है। इसके लिए छोटी बुरी आदतों से लड़ाई आरम्भ करनी चाहिए। उन्हें जब हरा दिया जायेगा तो अधिक पुरानी और अधिक बड़ी दुष्प्रवृत्तियों को परास्त करने योग्य मनोबल भी जुटने लगेगा।

🔷 आत्म-निर्माण अर्थात्‌ जो सत्प्रवृतियाँ अभी अपने स्वभाव में नहीं हैं उनका योजनाबद्ध विकास करना। दुर्गणों को निरस्त कर दिया गया, उचित ही है पर व्यक्तित्व को उज्ज्वल बनाने के लिए, आत्म-विकास की अगली सीढ़ी चढ़ने के लिये सद्‌गुणों की सम्पदा एकत्रित करना भी अत्यन्त आवश्यक है। बर्तन का छेद बन्द कर देना काफी नहीं है, जिस उद्देश्‍य के लिये बर्तन खरीदा गया है वह भी तो पूरा करना चाहिये। खेत में से कँटीली झाड़ियाँ, पुरानी फसल की सूखी जड़ें उखाड़ दी गई, पर इसी से तो खेती का उद्देश्‍य पूरा नहीं हो गया, यह कार्य तो अधूरा है। शेष आधी बात जब बनेगी तब उस भूमि पर सुरम्य उद्यान लगाया जाय और उसे पाल-पोसकर बड़ा किया जाए।

.... शेष कल
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 विक्षुब्ध जीवन, शान्तिमय कैसे बने? (भाग 1)

🔷 आज संसार पर दृष्टिपात करने से पता चलता है कि मनुष्य परेशानियों का भंडार बना हुआ है। आज परेशानियों की जितनी बहुतायत है उतनी कदाचित पूर्वकाल में नहीं होगी। इसका मुख्य कारण यही समझ में आता है कि ज्यों-ज्यों संसार की जन-संख्या बढ़ती जाती है त्यों-त्यों नये विचारों, नई भावनाओं, नई इच्छाओं की वृद्धि होती जाती है। विभिन्न प्रकार के रहन-सहन, वेश-भूषा और आहार-विहार विकसित होकर संसार में फैल गये हैं।

🔶 किसी एक समुदाय के विचार किसी दूसरे समुदाय के विरुद्ध हो सकते है। किसी एक वर्ग का आहार-विहार दूसरे वर्ग के विपरीत पड़ सकता है। एक की भावनायें, विभिन्नता और बहुलता के कारण कदम-कदम पर संघर्ष पैदा होने लगा है। एक विचारधारा के लोग दूसरे की विचारधारा की आलोचना करते हैं, निन्दा करते हैं। हर मनुष्य अपने ही विचारों, विश्वासों एवं मान्यताओं के प्रति भावुक होता है। उनके विरोध में कुछ सुनना पसंद नहीं करता। किन्तु उसे सुनना ही पड़ता है।

🔷 साथ ही जब मनुष्य का मन-मस्तिष्क किसी एक मान्यता में केन्द्रित रहता है तब उसे कोई विशेष परेशानी नहीं होती। उसकी मान्यता जैसी भी अच्छी-बुरी होती है वह उस पर विश्वास रखता हुआ सन्तुष्ट रहता है। उसके मस्तिष्क में कोई तर्क-वितर्क का आन्दोलन नहीं चलता। किन्तु आज के युग में बुद्धिवाद इतना बढ़ गया है कि किसी एक विश्वास को अखण्ड बनाये रखना कठिन हो गया है। संसार में हजारों प्रकार की विचारधारायें विकसित हो गई हैं, तर्क का इतना प्राधान्य हो गया है कि किसी भी मान्यता का आसन हिलते देर नहीं लगती। विश्वासों के बनने बिगड़ने की प्रक्रिया से भी कोई कम परेशानी नहीं होती।

🔶 विभिन्न सभ्यताओं का विकास भी संघर्ष एवं अशान्ति का कारण बना हुआ है। हर राष्ट्र, हर मानव समुदाय संसार में अपनी सभ्यता का ही प्रसार देखना चाहता और उसके प्रयत्न में अन्य सभ्यताओं को अपदस्थ तक करने की कोशिश करता है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य


http://literature.awgp.org/book/sukh_shanti_ki_sadhana_/v1.6

👉 Significance of donating the Time (Part 3)

🔶 The current time is just the same. At this time I request all of you to spare some span of time. How many times I have asked and published that please donate some time, donate some time. You all would have witnessed at the time of solar-eclipse and lunar-eclipse that a call is listened all round—donate something, donate something for the moon has been eclipsed, for the sun has been eclipsed. At this time also my only call is, time’s only call is and also MAHAKAAL’s only call is-donate some time, donate some time for the mass-mentality has been eclipsed. Donate time-donate time for the thoughts and minds of people have to be purified and de-eclipsed.

🔷 This world would have been a better place and more wellbeing, had the people living here been preferred thoughtfulness, far-sightedness and discreetness to money. The man would have become god by now and the atmosphere of the earth like that of heaven; but where is thoughtfulness? Where is discreetness? We should endeavor to induce discreetness in man’s mind. Only discreetness can lead to honesty. Honesty leads to dutifulness which ultimately leads to courageousness. All the four specifications of life are associated mutually. Therefore discreetness is the root while honesty, dutifulness and courageousness are its leaves, fruits, flowers and branches. That is why all our concentration should be on how to grow discreetness in ourselves leaving no stone unturned in doing so.

🔶 Very this is my request to all of you to spare as much time of your life as you can to employ the same in measures leading the discreetness in public-mind to grow. 
 
========= OM SHANTI =========

✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya

👉 धर्मतंत्र का दुरुपयोग रुके (भाग 5)

🔷 साथियो! समर्थ गुरु रामदास ने छत्रपति शिवाजी के सिर पर हाथ रखा और कहा कि भारतीय स्वाधीनता के लिए, भारतीय धर्म की रक्षा करने के लिए तुम्हें बढ़ चढ़कर काम करना चाहिए। शिवाजी ने कहा कि मेरे पास वैसी साधन सामग्री कहाँ है? मैं तो छोटे से गाँव का एक अकेला लड़का, इतने बड़े काम को कैसे कर सकता हूँ। समर्थ गुरु रामदास ने कहा, "मैंने पहले से ही उसकी व्यवस्था सात सौ गाँवों में महावीर मंदिर के रूप में बनाकर के रखी है। जहाँ जनता में काम करने वाले को प्रकाण्ड, समझदार एवं मनस्वी लोग काम करते हैं।" पुजारी पद का अर्थ मरा हुआ आदमी, बीमार, बुड्ढा, निकम्मा, बेकार और नशेबाज आदमी नहीं है। पुजारी का अर्थ-जिसे भगवान का नुमाइन्दा या भगवान का प्रतिनिधि कहा जा सके। जहाँ ऐसे समर्थ व्यक्ति हों, समझना चाहिए, वहाँ पुजारी की आवश्यकता पूरी हो गई।

🔶 मित्रों ! किसी आदमी को खाना दिया जाए और वह भी आधा-अधूरा, सड़ा-बुसा हुआ दिया जाए, तो उससे खाने वाले को भी नफरत होगी और उसके स्वास्थ्य की रक्षा भी नहीं होगी। इसी तरीके से भगवान की सेवा करने के लिए लँगड़ा-लूला, काना-कुबड़ा, मरा, अंधा, बिना पढा, जाहिल-जलील, गंदा आदमी रख दिया जाए, तो वह क्या कोई पुजारी है? पुजारी तो भगवान जैसा ही होना चाहिए। भगवान राम के पुजारी कौन थे? हनुमान जी थे। अतः कुछ इस तरह का पुजारी हो, तो कुछ बात भी बने। इसी तरह के पुजारी समर्थ गुरु रामदास ने सारे-के-सारे महाराष्ट्र में रखे थे। इन सात सौ समर्थ पुजारियों ने उस इलाके में जो फिजा, वो परिस्थितियाँ पैदा कीं कि छत्रपति शिवाजी के लिए जब सेना की आवश्यकता पड़ी, तो उन्हीं सात सौ इलाकों से बराबर उनकी सेना की आवश्यकता पूरी को जाती रही।

🔷 इसी प्रकार जब उनको पैसे की आवश्यकता पड़ी, तो उन छोटे से देहातों से, जिनमें कि महावीर मंदिर स्थापित किए गए थे, वहाँ से पैसे की आवश्यकता को पूरा किया गया। अनाज भी वहाँ से आया। उसी इलाके में जो लोहार रहते थे, उन्होंने हथियार बनाए। इस तरह जगह-जगह छिटपुट हथियार बनते रहे। अगर एक जगह पर हथियार बनाने की बड़ी फैक्ट्री होती, तो शायद विरोधियों को पता चल जाता और उन्होंने उस स्थान को रोका होता। वे सावधान हो गए होते। मिलिट्री एक ही जगह रखी गई होती, तो विरोधियों को पता चल जाता और उसे रोकने की कोशिश की गई होती, लेकिन सात सौ गाँवों में पुजारियों के रूप में एक अलग तरह की छावनियाँ पड़ी हुई थीं। हर जगह इन सैनिकों को ट्रेनिंग दी जाती थी। हर जगह इन छावनियों में १ ०-२ ० वालंटियर आते थे और वही से पैसा धन व अनाज आता था। इस तरीके से मंदिरों के माध्यम से समर्थ गुरु रामदास ने छत्रपति शिवाजी के आगे करके इतना बड़ा काम कर दिखाया।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य (अमृत वाणी)

👉 गुरुगीता (भाग 4)

👉 सद्गुरु से मिलना जैसे रोशनी फैलाते दिये से एकाकार होना

🔷 गुरुगीता साधक संजीवनी है। इस पुस्तक के प्रथम शीर्षक में गुरुतत्त्व की जिज्ञासा का प्रसंग आया है। साधकों की आदिमाता महादेवी पार्वती ने परमगुरु भगवान् शिव से यह जिज्ञासा की। आदिमाता की इस जिज्ञासा पर भगवान् शिव अति प्रसन्न हुए। उच्चतम तत्त्व के प्रति जिज्ञासा भी उच्चतम चेतना में अंकुरित होती है। उत्कृष्टता एवं पवित्रता की उर्वरता में ही यह अंकुरण सम्भव हो पाता है। जिज्ञासा- जिज्ञासु की भावदशा का प्रतीक है। इसमें उसकी अन्तर्चेतना प्रतिबिम्बित होती है। जिज्ञासा के स्वरूप में जिज्ञासु की तप-साधना, उसके स्वाध्याय, चिन्तन-मनन व निदिध्यासन की झलक मिलती है। माता पार्वती की जिज्ञासा भी हम सब गुरुभक्तों की कल्याण कामना के उद्देश्य से उपजी थी। सर्वज्ञानमयी माँ ने अपनी सन्तानों की आध्यात्मिक उन्नति के लिए देवेश्वर शिव से प्रश्न किया था।

उत्तर में भगवान् शिव बोले-ईश्वर उवाच

मम रूपासि देवित्वं त्वत्प्रीत्यर्थं वदाम्यहम्।
लोकोपकारकः प्रश्नो न केनाऽपि कृतः पुरा॥ ४॥
दुर्लभं त्रिषु लोकेषु तत्शृणुष्व वदाम्यहम्।
गुरुं विना ब्रह्म नान्यत् सत्यं सत्यं वरानने॥ ५॥

🔶 हे देवि! आप तो मेरा अपना स्वरूप हैं। आपका यह प्रश्न बड़ा ही लोकहितकारी है। ऐसा प्रश्न पहले कभी किसी ने नहीं पूछा। आपकी प्रीति के कारण इसके उत्तर को मैं अवश्य कहूँगा। हे महादेवि! यह उत्तर भी तीनों लोकों में अत्यन्त दुर्लभ है; परन्तु इसे मैं कहूँगा। आप सुने, सद्गुरु के सिवाय कोई ब्रह्म (कोई अन्य उच्चतम तत्त्व) नहीं है। हे सुमुखि! यह सत्य है, सत्य है।

🔷 भगवान् शिव के इस कथन के प्रथम चरण में गुरु और शिष्य की अनन्यता, एकात्मता और तादात्म्यता है। गुरु और शिष्य अलग-अलग नहीं होते। बस उनके शरीर अलग-अलग दिखते भर हैं। उनकी अन्तर्चेतना आपस में घुली मिली होती है। सच्चा शिष्य गुरु का अपना स्वरूप होता है। उसमें सद्गुरु की चेतना प्रकाशित होती है। शिष्य के प्राणों में गुरु का तप प्रवाहित होता है। शिष्य के हृदय में गुरु की भावनाओं का उद्रेक होता है। शिष्य के विचारों में गुरु का ज्ञान प्रस्फुटित होता है। ऐसे गुरुगत प्राण शिष्य के लिए कुछ भी अदेय नहीं होता। सद्गुरु उसे दुर्लभतम तत्त्व एवं सत्य बनाने के लिए सदा सर्वदा तैयार रहते हैं। शिष्य के भी समस्त क्रियाकलाप अपने सद्गुरु की अन्तर्चेतना की अभिव्यक्ति के लिए होते हैं।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ प्रणव पंड्या
📖 गुरुगीता पृष्ठ 13

बुधवार, 27 दिसंबर 2017

👉 समस्या का हल

🔶 पहाड़ी इलाकों में जहां अमूमन जबर्दस्त तूफान आया करते हैं। ऐसे ही एक तूफान में पानी के तेज बहाव से एक बड़ा पत्थर टूट कर सड़क के बीचों-बीच आ गिरा।

🔷 तभी एक व्यक्ति वहां आया, जहां पत्थर गिरा था, वहां वह रुक गया और किसी के आने की प्रतीक्षा करने लगा। थोड़ी देर बाद एक दूसरा व्यक्ति अपनी घोड़ागाड़ी से वहां आ पहुंचा।

🔶 उसने पहले व्यक्ति से पूछा कि तुम यहां सड़क के बीच में हट जाओ ताकि मैं यहां से गुजर सकूं। पहले व्यक्ति ने कहा- 'तुम्हें जल्दी है तो पहले वहां जाकर यह चट्टान हटाओ। पहले व्यक्ति ने कहा क्यों न किसी शक्तिशाली आदमी की प्रतीक्षा करें। वही हमारा रास्ता साफ करेगा।'

🔷 दोनों साथ-साथ बैठ गए। तभी एक और घोड़ागाड़ी वाला वहां आ पहुंचा। वह काफी बूढ़ा था। जब उसे पता चला कि दोनों यहां क्यों खड़े हैं तो वह पत्थर के इर्द-गिर्द चहलकदमी करने लगा। समय बीतता रहा। अब वहां एक

🔶 काफिला इकट्ठा हो गया। इतने में गेरुआ वस्त्र पहने एक संन्यासी वहां आ पहुंचे। वे स्वामी विवेकानंद के गुरुभाई एवं रामकृष्ण परमहंस के शिष्य स्वामी अखंडानंद थे।

🔷 वह इन दिनों अपनी एकांत साधना के लिए यहां आए हुए थे। वे सब को परेशान देख बोले- तुम लोग अपनी जवाबदेही दूसरों पर डालने की कोशिश मत करो। आओ हम सभी मिलकर प्रयास करते हैं।

🔶 स्वामी जी ने सबसे पहले पत्थर हटाना शुरू किया। उन्हें देख दूसरों ने भी कोशिश की। और इस तरह पत्थर हट गया।

🔷 स्वामी जी ने कहा-हम हर समय दूसरों का मुंह देखते रहते हैं।हमें लगता है कोई आकर हमारी समस्या हल करेगा। कोई आगे बढ़कर खुद पहल नहीं करता। अगर हम ऐसा करने लगें तो जीवन की समस्याएं अपने आप हल हो जाएंगी।

संक्षेप में

🔶 अगर एकता हो तो बड़े से बड़े काम भी आसान हो जाते हैं। समस्याएं वहीं रहतीं हैं जहां पर एकता नहीं रहती वहां छोटे से छोटे काम भी बमुश्किल हो पाते हैं।

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 28 Dec 2017


👉 आज का सद्चिंतन 28 Dec 2017


👉 जीवन साधना के चार चरण (भाग 1)

🔷 व्यक्तित्व निर्माण के कार्यक्रम की तुलना कृषक द्वारा किए जाने वाले कृषि कर्म से की जा सकती है। जैसे जुताई, बुआई, सिंचाई और विक्रय की चतुर्विधि प्रक्रिया सम्पन्न करने के बाद किसान को अपने परिश्रम का लाभ मिलता है, व्यक्तित्व निर्माण को भी इस प्रकार जीवन साधना की चतुर्विधी प्रक्रिया सम्पन्न करनी पड़ती है, यह है आत्म-चिंतन, आत्म-सुधार, आत्म-निर्माण और आत्म-विकास। मनन और चिंतन को इन चारों चरणों का अविच्छिन्न अंग माना गया है। इन चतुर्विधि साधनों को एक-एक करके नहीं, समन्वित रूप से ही अपनाया जाना चाहिए।

🔶 आत्म-चितंन अर्थात्‌ जीवन विकास में बाधक अवांछनीयताओं को ढूँढ़ निकालना। इसके लिए आत्म समीक्षा करनी पड़ती है। जिस प्रकार प्रयोगशालाओं मे पदार्थों का विश्लेषण, वर्गीकरण होता है और देखा जाता है कि इस संरचना में कौन-कौन से तत्व मिले हुए हैं। रोगी की स्थिति जानने के लिए उसके मल, मूत्र, ताप, रक्त, धड़कन आदि की जाँच-पड़ताल की जाती है और निदान करने के बाद ही सही उपचार बन पड़ता है। आत्म-चितंन, आत्म-समीक्षा का भी यह क्रम है।

🔷 इसके लिये अपने आप से प्रश्न पूछने और उनके सही उत्तर ढूँढ़ने की चेष्टा की जानी चाहिए। हम जिन दुष्प्रवृतियों के लिए दूसरों की निन्दा करते हैं उनमें से कोई अपने स्वभाव में तो सम्मिलित नहीं है। जिन बातों के कारण हम दूसरों से घृणा करते हैं, वे बातें अपने में तो नहीं हैं? जैसा व्यवहार हम दूसरों से अपने लिए नहीं चाहते है, वैसा व्यवहार हम ही दूसरों के साथ तो नहीं करते? जैसे उपदेश हम आये दिन दूसरों को करते हैं, उनके अनुरूप हमारा आचरण है भी अथवा नहीं? जैसी प्रशंसा और प्रतिष्ठा हम चाहते हैं, वैसी विशेषताएँ हममें हैं या नहीं? इस तरह का सूक्ष्म आत्म-निरीक्षण स्वयं व्यक्ति को करना चाहिए और अपनी कमियों को ढूँढ़ निकालना चाहिए।

.... शेष कल
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 दुःखी संसार में भी सुखी रहा जा सकता है (अन्तिम भाग)

🔷 अपने प्राकृतिक स्वत्व का विस्मरण कर महत्वाकांक्षाओं के पीछे पागल रहने वाले जीवन में कभी सुखी नहीं हो पाते। जीवन में सुख-शांति के लिए आवश्यक है कि अपनी सीमाओं के अनुरूप ही कामना की जाये, उसी में रहकर धीरे-धीरे विकास की ओर बढ़ा जाए। सहसा उछाल मार कर तारे तोड़ लेने का दुःसाहस करने का अर्थ है, असफलता जन्य दुःख को अपना साथी बनाना। मान-मर्यादाओं का उल्लंघन करने से भी मनुष्य को दुःखों का भागीदार बनना होता है। सुख के साधन पाकर यदि उनका भोग अनियन्त्रित रूप से किया जायेगा तो वे भी दुःख का कारण बन बैठेंगे।

🔶 धन मिल गया, पद मिल गया, प्रतिष्ठा प्राप्त हो गई, तब भी यदि सन्तोष नहीं होता, और-और की ही रट लगी हुई है तो अवश्य ही दुःखों के लिए तैयार रहना चाहिए। सुख-साधनों की अति तृष्णा भी दुःख का बड़ा कारण है। मान-मर्यादाओं का व्यतिक्रमण न कर जो बुद्धिमान लोग संसार में जो कुछ भोगने योग्य है, उसका भोग करते हैं, वे कभी दुःखी नहीं होते। गृहस्थ को सुख का आधार बताया गया है। वह है भी। गृहस्थी जैसा सुख कहीं भी नहीं मिलता। तथापि यदि इसका भोग मर्यादा का त्याग करके किया जायेगा तो यह भी अस्वास्थ्य, रोग, शोक और बहु-सन्तान के साथ दुःख का हेतु बन जायेगा।

🔷 मनुष्य को चाहिए कि वह, परमात्मा ने जो कुछ सुख-भोग बनाये हैं, मर्यादा में रहकर उनका आनन्द उठाये। जो कुछ हमारी उपलब्धियां और परिस्थितियां हैं उनमें संतोष करके आगे के लिए प्रयत्न किया जाये। अनुचित अथवा अयोग्य महत्वाकांक्षाओं से बचा जाये और फलासक्ति को छोड़कर अपना पावन कर्तव्य करते रहा जाये तो कोई कारण नहीं कि वह दुःख से निकल कर सुख की ओर न अग्रसर होने लगे। जो अपने जीवन पथ में इन नियमों का पालन करते हैं, वे सदा सुख रहते हैं और जो इनकी अपेक्षा करते हैं, उनका दुःखी रहना स्वाभाविक ही है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति- अप्रैल 1969 पृष्ठ 34
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1969/April/v1.34

👉 Significance of donating the Time (Part 2)

🔶 If you wish, you can save a lot of time. 8 hours are enough for a man to earn breads for him and his family for an easy life and 7 hours are enough for a man to rest and 5 hours are enough for different issues of the home.

🔷 This way you can manage your body and your family in 20 hours. You can very easily spare 4 hours. Now it depends on you whether you will spend these 4 hours in lethargy, laziness or as a loafer. Who stops you? But if you want, you can use this time for betterment of society, for a bright fate & future of man and for uplifting the society also. You must do that. It will be loss-making treaty for me? No, I guarantee for no disadvantage. Those persons who had employed their excess time in social works and servicing the society whether he be Gandhi, Nehru, Vinoba Bhave or anyone else, whether he be Vivekananda, have been in good position and at advantage.

🔶 The persons opting to employ their  spare time for society have never been in loss, rather have been successful in progressing and uplifting not only their life but that of thousands of others also. No, they have been in loss? Which loss, just tell me the name of a single such person. How much Gandhi would have earned, had he employed himself in practicing law, but when he decided to employ his time in public-service and started doing that then tell what was he devoid of? He was short of nothing. Gandhi ji was a very magnificent person and so he became only because he just used his time not in earning, food and children only like any animal but in serving society and that marked the fact that he is a human being also.

✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya

👉 धर्मतंत्र का दुरुपयोग रुके (भाग 4)

🔷 मदिर वस्तुतः जन-जागरण के केंद्र थे। इसकी पुनरावृत्ति एक बार फिर बढ़िया ढंग से की गई। सिक्खों के गुरुद्वारों को आप देखते हैं। किसी जमाने में जब मुगल शासकों का दबदबा बहुत प्यादा था, अत्याचार भी बहुत होते थे, तब सिक्खों के गुरुद्वारे में जहाँ एक और भगवान की भक्ति की बात होती थी, वहीं दूसरी ओर इस बात को भी स्थान दिया गया कि एक हाथ में माला और दूसरे हाथ में भाला लेकर के सिख धर्म के अनुयायी खड़े हों और समाज में जो अनीति फैली हुई है, उसका मुकाबला करें। मंदिर थे, गुरुद्वारे थे, पर तब उनमें लोकसेवा की, लोकमानस के परिष्कार की कितनी तीव्र प्रक्रिया विद्यमान थी।

🔶 मित्रो! समर्थ गुरु रामदास ने भी यही किया था। जब अपना देश बहुत दिनों तक पराधीन हो गया, तो उन्होंने देखा कि जनता को संघबद्ध करने के लिए, जनता को दिशा देने के लिए और जन-सहयोग का केन्द्रीकरण करने के लिए कोई बड़ा काम किया जाना चाहिए। समर्थ गुरु रामदास ने महाराष्ट्र भर में घूम-घूमकर सात सौ महावीर मंदिर बनाए। वे मंदिर केवल हनुमान जी को मिठाई या चूरमा-लड्डू खिलाने के लिए नहीं बनाए गए थे। हनुमान जी तो पेड़ पर चढ़कर भी अपना फल खाकर भी रह सकते हैं। उन्हें क्या गरज पड़ी है कि वे किसी का चूरमा और लड्डू खाएँ?

🔷 वे तो अपने हाथ-पाँव से मेहनत करके खुद खा सकते हैं और सैकड़ों बंदरों को भी खिला सकते हैं। वे किसी का लड्डू और चूरमा खाने के लिए भूखे कहाँ थे? लेकिन महावीर मदिर, जो जगह-जगह सारे महाराष्ट्र में समर्थ गुरु रामदास के द्वारा बनाए गए, उसका एक ही उद्देश्य था कि इनमें जो काम करने वाले व्यक्ति हैं, वे जनता से सीधा संपर्क बनाएँ। उन सात सौ महावीर मंदिरों में ऐसे तीखे और भावनाशील पुजारी रखे गए, जिन्होंने गाँव को ही नहीं, पूरे इलाके को जगा दिया। वह सात सौ इलाकों में बँटा हुआ महाराष्ट्र एक तरीके से संगठित होता हुआ चला गया।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य (अमृत वाणी)

👉 गुरुगीता (भाग 3)

👉 आदि जिज्ञासा, शिष्य का प्रथम प्रश्न

🔷 महर्षि सूत ने कहा- सूत उवाच

कैलाश शिखरे रम्ये भक्ति सन्धान नायकम्।
प्रणम्य पार्वती भक्त्या शंकरं पर्यपृच्छत॥ १॥

ऋषिगणों, यह बड़ी प्यारी कथा है। इस गुरुगीता के महाज्ञान का उद्गम तब हुआ, जब कैलाश पर्वत के अत्यन्त रमणीय वातावरण में भक्तितत्त्व के अनुसन्धान में अग्रणी माता पार्वती ने भक्तिपूर्वक भगवान् सदाशिव से प्रश्न पूछा।

🔶 श्री देव्युवाच-

ॐ नमो देवदेवेश परात्पर जगद्गुरो।
सदाशिव महादेव गुरुदीक्षां प्रदेहि मे॥ २॥
केन मार्गेण भो स्वामिन् देही ब्रह्ममयो भवेत्।
त्वं कृपां कुरु मे स्वामिन् नमामि चरणौ तव॥ ३॥

🔷 देवी बोलीं- हे देवाधिदेव! हे परात्पर जगद्गुरु! हे सदाशिव! हे महादेव! आप मुझे गुरुदीक्षा दें। हे स्वामी! आप मुझे बताएँ कि किस मार्ग से जीव ब्रह्मस्वरूप को प्राप्त करता है। हे स्वामी! आप मुझ पर कृपा करें। मैं आपके चरणों में प्रणाम करती हूँ।

🔶 यही है आदि जिज्ञासा। यही है प्रथम प्रश्न। यही वह बीज है, जिससे गुरुतत्त्व के बोध का बोधितरु अंकुरित हुआ, भगवान् शिव की कृपा से पुष्पित-पल्लवित होकर महावृक्ष बना। इस मधुर प्रसंग में आदिशक्ति, जगन्माता ने स्वयं शिष्य भाव से यह प्रश्न पूछा है। चित् शक्ति स्वयं आदि शिष्य बनी हैं। जगत् के स्वामी भगवान् महाकाल आदि गुरु हैं। इस प्रसंग का सुखद साम्य परम वन्दनीया माताजी एवं परम पूज्य गुरुदेव की कथा गाथा से भी है। इस परम विशाल, महाव्यापक गायत्री परिवार की जननी वन्दनीया माताजी आदि शिष्य भी थीं। उन्होंने हम सबके समक्ष शिष्यत्व का अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किया। वे हम सबके लिए माता पार्वती की भाँति हैं। जिनकी जिज्ञासा और तप से ज्ञान की युग सृष्टि हुई।

🔷 माता पार्वती ने अपनी भक्तिपूर्ण जिज्ञासा से भूत-वर्तमान और भविष्य के सभी शिष्यों व साधकों के समक्ष ‘विनयात् याति पात्रताम्’ का आदर्श सामने रखा। जो अपने सम्पूर्ण अन्तःकरण को गुरुचरणों में समर्पित करके गुरुदीक्षा प्राप्ति की प्रार्थना करता है। वही तत्त्वज्ञान का अधिकारी होता है। किसी भी तरह से अहंता का लेशमात्र भी रहने से ज्ञान व तप की साधना फलित नहीं होती है। जो जगन्माता आदि जननी की भाँति स्वयं को अपने गुरु के चरणों में अर्पित कर देते हैं। गुरु कृपा उन्हीं का वरण करती है। करुणा सागर कृपालु गुरुदेव उन्हीं को अपनी कृपा का वरदान देते हैं।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ प्रणव पंड्या
📖 गुरुगीता पृष्ठ 11

👉 मरने से डरना क्या?

🔶 राजा परीक्षित को भागवत सुनाते हुए जब शुकदेव जी को छै दिन बीत गये और सर्प के काटने से मृत्यु होने का एक दिन रह गया तब भी राजा का शोक और मृत्यु भय दूर न हुआ। कातर भाव से अपने मरने की घड़ी निकट आती देखकर वह क्षुब्ध हो रहा था।

🔷 शुकदेव जी ने परीक्षित को एक कथा सुनाई-राजन् बहुत समय पहले की बात है एक राजा किसी जंगल में शिकार खेलने गया। संयोगवश वह रास्ता भूलकर बड़े घने जंगल में जा निकला, रात्रि हो गई। वर्षा पड़ने लगी। सिंह व्याघ्र बोलने लगे। राजा बहुत डरा और किसी प्रकार रात्रि बिताने के लिए विश्राम का स्थान ढूँढ़ने लगा। कुछ दूर पर उसे दीपक दिखाई दिया। वहाँ पहुँचकर उसने एक गंदे बीमार बहेलिये की झोपड़ी देखी। वह चल फिर नहीं जा सकता था इसलिए झोपड़ी में ही एक ओर उसने मल मूत्र त्यागने का स्थान बना रखा था। अपने खाने के लिए जानवरों का माँस उसने झोपड़ी की छत पर लटका रखा था। बड़ी गंदी, छोटी, अँधेरी और दुर्गन्ध युक्त वह कोठरी थी। उसे देखकर राजा पहले तो ठिठका, पर पीछे उसने और कोई आश्रय न देखकर उस बहेलिये से अपनी कोठरी में रात भर ठहर जाने देने के लिए प्रार्थना की।

🔶 बहेलिये ने कहा- आश्रय के लोभी राहगीर कभी-कभी यहाँ आ भटकते है और मैं उन्हें ठहरा लेता हूँ तो दूसरे दिन जाते समय बहुत झंझट करते है। इस झोपड़ी की गन्ध उन्हें ऐसी भा जाती है कि फिर उसे छोड़ना ही नहीं चाहते, इसी में रहने की कोशिश करते है और अपना कब्जा जमाते है। ऐसे झंझट में मैं कई बार पड़ चुका हूँ। अब किसी को नहीं ठहरने देता। आपको भी इसमें नहीं ठहरने दूँगा। राजा ने प्रतिज्ञा की-कसम खाई कि वह दूसरे दिन इस झोपड़ी को अवश्य खाली कर देगा। उसका काम तो बहुत बड़ा है, यहाँ तो वह संयोगवश ही आया है। सिर्फ एक रात ही काटनी है।

🔷 बहेलिये ने अन्यमनस्क होकर राजा को झोपड़ी के कोने में ठहर जाने दिया, पर दूसरे दिन प्रातःकाल ही बिना झंझट किये झोपड़ी खाली कर देने की शर्त को फिर दुहरा दिया। रजा एक कोने में पड़ा रहा। रात भर सोया। सोने में झोपड़ी की दुर्गन्ध उसके मस्तिष्क में ऐसी बस गई कि सबेरे उठा तो उसे वही सब परमप्रिय लगने लगा। राज काज की बात भूल गया और वही निवास करने की बात सोचने लगा।

🔶 प्रातःकाल जब राजा और ठहरने के लिए आग्रह करने लगा तो बहेलिए ने लाल पीली आँखें निकाली और झंझट शुरू हो गया। झंझट बढ़ा उपद्रव और कलह कर रूप धारण कर लिया। राजा मरने मारने पर उतारू हो गया। उसे छोड़ने में भारी कष्ट और शोक अनुभव करने लगा।

🔷 शुकदेव जी ने पूछा- परीक्षित बताओ, उस राजा के लिए क्या यह झंझट उचित था? परीक्षित ने कहा- भगवान वह कौन राजा था, उसका नाम तो बताइए। वह तो बड़ा मूर्ख मालूम पड़ता है कि ऐसी गन्दी कोठरी में, अपनी प्रतिज्ञा तोड़कर राजकाज छोड़कर, नियत अवधि से भी अधिक रहना चाहता था। उसकी मूर्खता पर तो मुझे भी क्रोध आता है।
शुकदेव जी ने कहा- परीक्षित! वह मूर्ख तू ही है। इस मल मूत्र की गठरी देह में जितने समय तेरी आत्मा को रहना आवश्यक था वह अवधि पूरी हो गई। अब उस लोक को जाना है जहाँ से आया था। इस पर भी तू झंझट फैला रहा है। मरना नहीं चाहता, मरने का शोक कर रहा है। क्या यह तेरी मूर्खता नहीं है?

📖 अखण्ड ज्योति जून 1961 

मंगलवार, 26 दिसंबर 2017

👉 चिंता नहीं चिंतन कीजिए

🔷 भारतवर्ष में सम्राट समुद्रगुप्त प्रतापी सम्राट हुए थे। लेकिन चिंताओं से वे भी नहीं बच सके। और चिंताओं के कारण परेशान से रहने लगे। चिंताओं का चिंतन करने के लिए एक दिन वन की ओर निकल पड़े।

🔶 वह रथ पर थे, तभी उन्हें एक बांसुरी की आवाज सुनाई दी। वह मीठी आवाज सुनकर उन्होनें सारथी से रथ धीमा करने को कहा और बांसुरी के स्वर के पीछे जाने का इशारा किया। कुछ दूर जाने पर समुद्रगुप्त ने देखा कि झरने और उनके पास मौजूद वृक्षों की आढ़ से एक व्यक्ति बांसुरी बजा रहा था। पास ही उसकी भेडें घांस खा रही थीं।

🔷 राजा ने कहा, 'आप तो इस तरह प्रसन्न होकर बांसुरी बजा रहे हैं, जैसे कि आपको किसी देश का साम्राज्य मिल गया हो।' युवक बोला, 'श्रीमान आप दुआ करें। भगवान मुझे कोई साम्राज्य न दे। क्योंकि अभी ही सम्राट हूं। लेकिन साम्राज्य मिलने पर कोई सम्राट नहीं होता। बल्कि सेवक बन जाता है।'

🔶 युवक की बात सुनकर राजा हैरान रह गए। तब युवक ने कहा सच्चा सुख स्वतंत्रता में है। व्यक्ति संपत्ति से स्वतंत्र नहीं होता बल्कि भगवान का चिंतन करने से स्वतंत्र होता है। तब उसे किसी भी तरह की चिंता नहीं होती है। भगवान सूर्य किरणें सम्राट को देते हैं मुझे भी जो जल उन्हें देते हैं मुझे भी।

🔷 ऐसे में मुझमें और सम्राट में बस मात्र संपत्ति का ही फासला होता है। बाकी तो सब कुछ तो मेरे पास भी है। यह सुनकर युवक को राजा ने अपना परिचय दिया। युवक ये जान कर हैरान था। लेकिन राजा की चिंता का समाधान करने पर राजा ने उसे सम्मानित किया।

संक्षेप में

🔶 चिंता, मानव मस्तिष्क का ऐसा विकार है जो पूरे मन को झकझोर कर रख देता है। इसलिए चिंता नहीं चिंतन कीजिए, ये सोचिए आप ओरों से बेहतर क्यों हैं? इस सवाल का जबाव यदि आप स्वयं से पूछते हैं तो आपकी चिंताओं का निवारण स्वयं ही हो जाएगा।

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 27 Dec 2017


👉 आज का सद्चिंतन 27 Dec 2017


👉 दुःखी संसार में भी सुखी रहा जा सकता है (भाग 4)

🔷 अपनी परिस्थितियों की अपेक्षा करना अथवा उन्हें भुला देना भी दुःख का एक बड़ा कारण है। बहुत से लोग अपनी यथार्थ स्थिति से आंख मूंदकर कल्पना के स्वप्न संसार में विचरण करते रहते हैं। दूसरों के कहने अथवा अपने ही भ्रम से अपने को क्या से क्या मान बैठते हैं। इसका विचार किये बिना कि हमारी परिस्थितियां क्या हैं, हम किस धरातल पर खड़े हैं, बड़ी महत्त्वाकांक्षायें पाल लेते हैं और उनके पीछे पागल बने रहते हैं। अपनी सहज स्वाभाविक स्थिति से हटकर अस्वाभाविक मार्ग अपना लेने से अधिकांश लोग जीवन भर दुःखी बने रहते हैं। अपनी सीमा और अपनी शक्ति से परे की आकांक्षायें बना लेना बड़ी भारी भूल है। ऐसे लोगों की आकांक्षायें कभी पूरी नहीं होती, जिससे वे सदा व्यग्र, दीन और दुःखी बने रहते हैं।

🔶 बहुत से भावुक व्यक्ति जब किसी बड़े आदमी को देखते हैं अथवा किन्हीं महापुरुषों का जीवन-चरित्र पढ़ते हैं तो तत्काल ही अपने को वैसा देखने की कामना करने लगते हैं। किन्तु अपनी स्थिति, योग्यता और क्षमता पर जरा भी विचार नहीं करते। विशेष व्यक्ति बनने की कामना बुरी नहीं। किन्तु इसकी पूर्ति केवल कल्पना के बल पर नहीं हो सकती। इसके लिये स्थिति, योग्यता और क्षमताओं को होना बहुत आवश्यक है। इनका विकास किये बिना केवल महत्वाकांक्षा पाल लेना जीवन में दुःखों को आमन्त्रित करना होता है। जिन व्यक्तियों का सामंजस्य उनकी परिस्थितियों से नहीं होता वह बहुधा दुःखी ही रहा करते हैं।

🔷 मनुष्य यदि सामान्य रूप से सुखी रहना चाहता है तो उसे अपनी परिस्थिति से परे की महत्त्वाकांक्षाओं का त्याग करना होगा। उसे अपनी सीमा में रहकर आगे के लिये प्रयास करना होगा। उन्हें प्रकृति के इस नियम में आस्था करनी ही होगी कि मनुष्य-विकास क्रम-पूर्वक होता है। सहसा ही कोई कामनाओं के बल पर ऊंचा नहीं उठ जाता। प्रत्येक व्यक्ति की अपनी एक बनावट होती है। उसी की सीमा में धीरे-धीरे बढ़ते रहने पर ही वह बहुत कुछ कर सकता है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति- अप्रैल 1969 पृष्ठ 3
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1969/April/v1.33

👉 Significance of donating the Time (Part 1)

🔶 This is such a critical phase of time that no man believes other man. The clouds of terrorism are seen dispersed all around. You go out on the road but not sure of who walking with you or beside you would snatch your chain on knife-point, whom to believe? The character, the thought and the general behavior of man has so worsened that none would believe other if atmosphere is not changed. A bother will not believe his brother; a wife will not believe husband and vice versa; father will not believe son and son will not believe father; so valueless, so inferior and so mean time has come now because the nature is displeased with us.

🔷 The faith overall is seen being broken down all around. If  found easy, it rains somewhere heavily and when found easy, it allows droughts for long somewhere other ignoring the actual cyclic nature of environment. The weather has turned irregular. No one can say now for sure whether the there will be rain in usual season of rain or not. Also now nothing can be said whether cold will be there in usual winter season and so is about summer also. When the earthquake will come? No one can say when; when a volcano will break out? No one can say; when there will be a flood? No one can say. There is no regulation at all. The nature has gone wild, irregular and disordered on account of its annoyance with us.

🔶 It is such a dangerous time. Whether you feel you do not have any responsibility in such a crucial time? Whether you have no duty in this regard? Whether you have no sentiments? Have you have turned senseless? Has your heart become irony and stony? No, I feel so is not the position with all. However it is the case with majority of people that they have become valueless and wicked like an animal. I expect at least you not to concentrate yourself only on food and giving birth to a child all the time.

✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya

👉 धर्मतंत्र का दुरुपयोग रुके (भाग 3)

🔷 साथियों ! लोकसेवी तो हर जगह होने ही चाहिए। लोकसेवियों के बिना सत्प्रवृत्ति का विकास कैसे हो सकता है? इसलिए पहले हर गाँव में कितने ही लोकसेवी रहते थे और एक−दूसरे के गाँव में परिभ्रमण करते रहते थे। परिभ्रमण करने वाले ऐसे लोकसेवियों को संत-महात्मा भी कहा जा सकता है, विद्वान भी कहा जा सकता है, वे जब कभी भी आते थे, तो उनके ठहरने के लिए डाक बंगला चाहिए, धर्मशाला चाहिए। यह कहाँ से आए? इसलिए मंदिरों में इतनी गुंजाइश रखी जाती थी कि कभी दस पाँच आदमी बाहर से आ जाएँ, तो उनके भी ठहराने और खाने पीने का प्रबंध कर दिया जाए। इस तरीके से किसी जमाने में सत्प्रवृत्तियों के केंद्र मंदिर थे। मंदिरों को इसीलिए बनाया गया था। भगवान की पूजा अर्चना भी हो जाती थी, साथ ही भगवान को याद करने के बहाने मे आस्तिकता का प्रचार भी होता था।

🔶 मित्रो ! ये सब बातें ठीक हैं, परंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि भगवान को उन सब चीजों की आवश्यकता थी, उनके बिना भगवान का कोई काम रुका पड़ा था। आरती अगर न उतारी जाए, तो भगवान नाखुश हो जाएँ, या उनका काम हर्ज हो जाए, ये कैसे हो सकता है? सूर्यनारायण और चंद्रमा भगवान की हर वक्त आरती उतारते रहते हैं। नवग्रहों से लेकर के तारामंडलों द्वारा हर क्षण उनकी आरती होती रहती है। फिर हमारे छोटे से दीपक की क्या कीमत हो सकती है? फूल सारे विश्व में उन्हीं के उगाए हुए हैं, चंदन के पेड़ उन्हीं ने उगाए हैं। फूल और चंदन अगर भगवान को नहीं मिलते, तो भगवान का क्या हर्ज था ?? मिठाई या भोजन भगवान को नहीं मिलता, तो क्या हर्ज था? राई के बराबर भी कुछ हर्ज नहीं था। भगवान को खाने-पीने की और पहनने-ओढ़ने की वास्तव में कतई जरूरत नहीं है।

🔷 ये सब चीजें भगवान को मंदिरों के माध्यम से जो भगवान के निमित्त चढ़ाई जाती हैं, उनके पीछे सिर्फ एक ही उद्देश्य छिपा था कि लोकसेवी को, जो एक तरीके से भगवान के प्रतिनिधि कहे जा सकते हैं। जिन्होंने अपने व्यक्तिगत स्वार्थों की तिलाञ्जलि दी और अपनी व्यक्तिगत सुविधाओं को ताक पर रख दिया। जिन्होंने केवल लोकमंगल का ही ध्यान रखा, केवल भगवान के संदेशों का ही ध्यान रखा, भगवान का प्रतिनिधि न कहें तो क्या कहें? भगवान के प्रतिनिधियों को जीवनयापन करने के लिए निवास से लेकर भोजन, वस्त्र तक और दूसरी चीजों के खरच की आवश्यकता के लिए मंदिरों को बनाया गया। यह एक मुनासिब क्रम था।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य (अमृत वाणी)

👉 गुरुगीता (भाग 2)

👉 आदि जिज्ञासा, शिष्य का प्रथम प्रश्न

🔷 विनियोग मंत्र पढ़ने के बाद हाथ के जल को पास रखे किसी पात्र में डाल दें। दरअसल यह विनियोग साधक को मंत्र की पवित्रता, महत्ता का स्मरण कराता है। मंत्र के ऋषि, देवता, बीज, शक्ति व कीलक की याद कराता है। साथ ही साधक के मन को एकाग्र करते हुए पाठ किए जाने वाले स्तोत्र मंत्र की शक्तियों को जाग्रत् करता है। ऊपर बताए गए विनियोग मंत्र का अर्थ है- ॐ (परब्रह्म का स्मरण) इस गुरुगीता स्तोत्र मंत्र के भगवान् सदाशिव द्रष्टा ऋषि हैं। इसमें कई तरह के छन्द हैं। इस मंत्र के देवता या इष्ट परमात्म स्वरूप सद्गुरुदेव हैं। इस महामंत्र का बीज ‘हं’ है, शक्ति ‘सः’ है, जो जगज्जननी माता भगवती का प्रतीक है। ‘क्रों’ बीज से इसे कीलित किया गया है। इस मंत्र का पाठ या जप सद्गुरुदेव की कृपा पाने के लिए किया जा रहा है।

🔶 इस विनियोग के बाद गुरुदेव का ध्यान किया जाना चाहिए।

🔷 ध्यान मंत्र निम्न है-
योगपूर्णं तपोनिष्ठं वेदमूर्तिं यशस्विनम्।
गौरवर्णं गुरुं श्रेष्ठं भगवत्या सुशोभितम्॥
कारुण्यामृतसागरं शिष्यभक्तादिसेवितम्।
श्रीरामं सद्गुरुं ध्यायेत् तमाचार्यवरं प्रभुम्॥

🔷 इस ध्यान मंत्र का भाव है, गौरवर्णीय, प्रेम की साकार मूर्ति गुरुदेव वन्दनीया माताजी (माता भगवती देवी) के साथ सुशोभित हैं। गुरुदेव योग की सभी साधनाओं में पूर्ण, वेद की साकार मूर्ति, तपोनिष्ठ व तेजस्वी हैं। शिष्य और भक्तों से सेवित गुरुदेव करुणा के अमृत सागर हैं। उन आचार्य श्रेष्ठ श्रीराम का, अपने गुरुदेव का साधक ध्यान करें।

🔶 ध्यान की प्रगाढ़ता में परम पूज्य गुरुदेव को अपना आत्मनिवेदन करने के बाद साधक को गुरुगीता का पाठ करना चाहिए। जिससे साधकगण उनके गहन चिन्तन से गुरुतत्त्व का बोध प्राप्त कर सकें। इसके पठन, अर्थ चिन्तन को अपनी नित्य प्रति की जाने वाली साधना का अविभाज्य अंग मानें।

🔷 गुरुगीता का प्रारम्भ ऋषियों की जिज्ञासा से होता है-

ऋषयः ऊचुः
गुह्यात् गुह्यतरा विद्या गुरुगीता विशेषतः।
ब्रूहि नः सूत कृपया शृणुमस्त्वत्प्रसादतः॥

🔶 नैमिषारण्य के तीर्थ स्थल में एक विशेष सत्र के समय ऋषिगण महर्षि सूत से कहते हैं- हे सूत जी! गुरुगीता को गुह्य से भी गुह्यतर विशेष विद्या कहा गया है। आप हम सभी को उसका उपदेश दें। आपकी कृपा से हम सब भी उसे सुनने का लाभ प्राप्त करना चाहते हैं।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ प्रणव पंड्या
📖 गुरुगीता पृष्ठ 10

👉 पत्नी त्याग - महापाप

🔷 उत्तानपाद के पुत्र और तपस्वी ध्रुव के छोटे भाई का नाम उत्तम था। यद्यपि वह धर्मात्मा राजा था फिर भी उसने एक बार अपनी पत्नी से अप्रसन्न होकर उसे घर से निकाल दिया और अकेला ही घर में रहने लगा।

🔶 एक दिन एक ब्राह्मण राजा उत्तम के पास आया और कहा- मेरी पत्नी को कोई चुरा ले गया है। यद्यपि वह स्वभाव की बड़ी क्रूर वाणी से कठोर, कुरूप और अनेक कुलक्षणों से भरी हुई थी, पर मुझे अपनी पत्नी की रक्षा, सेवा और सहायता करनी ही उचित है। राजा ने ब्राह्मण को दूसरी पत्नी दिला देने की बात कही पर उसने कहा- पत्नी के प्रति पति को वैसा ही सहृदय और धर्म परायण होना चाहिए जैसा कि पतिव्रता स्त्रियाँ होती है।

🔷 राजा ब्राह्मण की पत्नी को ढूँढ़ने के लिए चल दिया। चलते -चलते वह एक वन में पहुँचा जहाँ एक तपस्वी महात्मा तप कर रहे थे। राजा का अपना अतिथि ज्ञान ऋषि ने अपने शिष्य को अर्घ्य, मधुपर्क आदि स्वागत का समान लाने को कहा। पर शिष्य ने उनके कान में एक गुप्त बात कही तो ऋषि चुप हो गये और उनने बिना स्वागत उपचार किये साधारण रीति से ही राजा से वार्ता की।

🔶 राजा का इस पर आश्चर्य हुआ। उनने स्वागत का कार्य स्थगित कर देने का कारण बड़े दुःख, विनय और संकोच के साथ पूछा। ऋषि ने उत्तर दिया-राजन् आप ने पत्नी का त्याग कर वही पाप किया है। जो स्त्रियाँ किसी कारण से अपने पति का त्याग कर करती हैं। चाहे स्त्री दुष्ट स्वभाव की ही क्यों न हो पर उसका पालन और संरक्षण करना ही धर्म तथा कर्तव्य है। आप इस कर्तव्य से विमुख होने के कारण निन्दा और तिरस्कार के पात्र हैं। आपके पत्नी त्याग का पाप मालूम होने पर आपका स्वागत स्थगित करना पड़ा।

🔷 राजा को अपने कृत्य पर बड़ा पश्चाताप हुआ। उसने ब्राह्मण की स्त्री के साथ ही अपनी स्त्री को भी ढूँढ़ा और उनको सत्कार पूर्वक राजा तथा ब्राह्मण ने अपने अपने घर में रखा।

🔶 देवताओं की साक्षी में पाणिग्रहण की हुई पत्नी में अनेक दोष होने पर भी उसका परित्याग नहीं करना चाहिए। जैसे पतिव्रता स्त्री अपने सद् व्यवहार से दुर्गुणी पति को सुधारती है वैसे ही हर पुरुष को पत्नीव्रती होना चाहिए और प्रेम तथा सद् व्यवहार से उसे सुधारता चाहिए। त्याग करना तो कर्तव्यघात है।

📖 अखण्ड ज्योति जून 1961

👉 शत्रु से भी मनुष्यता का व्यवहार

🔷 बाजीराव पेशवा और हैदराबाद के नवाब में लड़ाई हो रही थी। मराठे जीत रहे थे। हारते हुए निजाम की फौज किले में अपनी प्राण रक्षा करने घुसी बैठी थी। धीरे धीरे उसकी रसद खत्म होने लगी। यहाँ तक कि एक दिन अन्न का स्टॉक बिल्कुल समाप्त हो गया।

🔶 निजाम ने अन्न की याचना पेशवा से की मंत्रियों ने सलाह दी कि यही मौका दुश्मन पर चढ़ाई करने का है। भूखी फौज को आसानी से जीता जा सकता है। पर पेशवा को यह बात नहीं रुची। उनने कहा- भूखों को मारना कायरता है। उनने तुरन्त बहुत सा अन्न निजाम के किले में पहुँचवा दिया। निजाम इस महानता के आगे नतमस्तक हो गये। उनने पेशवा से संधि कर ली।

🔷 युद्ध और शत्रुता में साधारणतः नैतिक नियमों की परवा नहीं की जाती पर भारतीय आदर्श इन विषम परिस्थितियों में भी अपनी अग्नि परीक्षा देकर विश्व भर में अपनी महानता सिद्ध करते रहे है।

📖 अखण्ड ज्योति जून 1961

👉 गुरुगीता (भाग 1)

👉 आदि जिज्ञासा, शिष्य का प्रथम प्रश्न

🔷 गुरुपूर्णिमा के पुण्य पर्व पर प्रत्येक शिष्य सद्गुरु कृपा के लिए प्रार्थनालीन है। वह उस साधना विधि को पाना-अपनाना चाहता है, जिससे उसे अपने सद्गुरु की चेतना का संस्पर्श मिले। गुरुतत्त्व का बोध हो। जीवन के सभी लौकिक दायित्वों का पालन-निर्वहन करते हुए उसे गुरुदेव की कृपानुभूतियों का लाभ मिल पाए। शिष्यों-गुरुभक्तों की इन सभी चाहतों को पूरा करने के लिए प्राचीन ऋषियों ने गुरुगीता के पाठ, अर्थ चिन्तन, मनन व निदिध्यासन को समर्थ साधना विधि के रूप में बताया था। इस गुरुगीता का उपदेश कैलाश शिखर पर भगवान सदाशिव ने माता पार्वती को दिया था। बाद में यह गुरुगीता नैमिषारण्य के तीर्थ स्थल में सूत जी ने ऋषिगणों को सुनायी। भगवान व्यास ने स्कन्द पुराण के उत्तरखण्ड में इस प्रसंग का बड़ी भावपूर्ण रीति से वर्णन किया है।

🔶 शिष्य-साधक हजारों वर्षों से इससे लाभान्वित होते रहे हैं। गुरुतत्त्व का बोध कराने के साथ यह एक गोपनीय साधना विधि भी है। अनुभवी साधकों का कहना है कि गुरुवार का व्रत रखते हुए विनियोग और ध्यान के साथ सम्यक् विधि से इसका पाठ किया जाय, तो शिष्य को अवश्य ही अपने गुरुदेव का दिव्य सन्देश मिलता है। स्वप्न में, ध्यान में या फिर साक्षात् उसे सद्गुरु कृपा की अनुभूति होती है। शिष्य के अनुराग व प्रगाढ़ भक्ति से प्रसन्न होकर गुरुदेव उसकी आध्यात्मिक व लौकिक इच्छाओं को पूरा करते हैं। यह कथन केवल काल्पनिक विचार नहीं, बल्कि अनेकों साधकों की साधनानुभूति है। हम सब भी इसके पाठ, अर्थ चिन्तन, मनन व निदिध्यासन से गुरुतत्त्व का बोध पा सकें, परम पूज्य गुरुदेव की कृपा से लाभान्वित हो सके, इसलिए इस ज्ञान को धारावाहिक रीति से क्रमिक ढंग से प्रकट किया जा रहा है। अब से प्रत्येक महीने की अखण्ड ज्योति में मंत्र क्षमता वाले गुरुगीता के श्लोकों की भावपूर्ण व्याख्या की जाएगी।

🔷 लेकिन सबसे पहले साधकों को इसकी पाठविधि बतायी जा रही है। ताकि जो साधक इसके नियमित पाठ से लाभान्वित होना चाहें, हो सकें। गुरुगीता के पाठ को शास्त्रकारों ने मंत्रजप के समतुल्य माना है। उनका मत है कि इसके पाठ को महीने के किसी भी गुरुवार को प्रारम्भ किया जा सकता है। अच्छा हो कि साधक उस दिन एक समय अस्वाद भोजन करें। यह उपवास मनोभावों को शुद्ध व भक्तिपूर्ण बनाने में समर्थ सहायक  की भूमिका निभाता है। इसके बाद पवित्रीकरण आदि षट्कर्म करने के पश्चात् पूजा वेदी पर रखे गए गुरुदेव के चित्र का पंचोपचार पूजन करें। तत्पश्चात् दाँए हाथ में जल लेकर विनियोग का मंत्र पढ़ें-

ॐ अस्य श्री गुरुगीता स्तोत्रमंत्रस्य भगवान सदाशिव ऋषिः। नानाविधानि छंदासि। श्री सद्गुरुदेव परमात्मा देवता। हं बीजं। सः शक्तिः। क्रों कीलकं। श्री सद्गुरुदेव कृपाप्राप्यर्थे जपे विनियोगः॥

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ प्रणव पंड्या
📖 गुरुगीता पृष्ठ 9

सोमवार, 25 दिसंबर 2017

👉 देखने का नजरिया

🔷 एक बार एक संत अपने शिष्यों के साथ नदी में स्नान कर रहे थे। तभी एक राहगीर वहाँ से गुजरा तो संत को नदी में नहाते देख वो उनसे कुछ पूछने के लिए रुक गया। वो संत से पूछने लगा ” महात्मन मैं अभी अभी इस जगह पर आया हूँ और नया होने के कारण मुझे इस जगह के बारे कोई विशेष जानकारी नहीं है। कृपा करके आप मुझे एक बात बताईये कि यहाँ रहने वाले लोग कैसे है?

🔶 इस पर महात्मा ने उस व्यक्ति से कहा कि ” भाई में तुम्हारे सवाल का जवाब बाद में दूँगा। पहले तुम मुझे ये बताओ कि तुम जिस जगह से आये वो वहाँ के लोग कैसे है?”

🔷 इस पर उस आदमी ने कहा “उनके बारे में क्या कहूँ महाराज वहाँ तो एक से एक कपटी और दुष्ट लोग रहते है इसलिए तो उन्हें छोड़कर यहाँ बसेरा करने के लिए आया हूँ।” महात्मा ने जवाब दिया बंधू ” तुम्हे इस गाँव में भी वैसे ही लोग मिलेंगे कपटी, दुष्ट और बुरे।” उनका जवाब सुनकर वह आदमी आगे बढ़ गया।

🔶 थोड़ी देर बाद एक और राहगीर उसी मार्ग से गुजरता है और महात्मा से प्रणाम करने के बाद कहता है ” महात्मा जी मैं इस गाँव में नया हूँ और परदेश से आया हूँ और इस गाँव में बसने की इच्छा रखता हूँ लेकिन मुझे यहाँ की कोई खास जानकारी नहीं है इसलिए आप मुझे बता सकते है ये जगह कैसी है और यहाँ रहने वाले लोग कैसे है?”

🔷 महात्मा ने इससे भी वही प्रश्न किया और कहा कि ” मैं तुम्हारे सवाल का जवाब बाद में दूँगा। पहले तुम मुझे ये बताओ कि तुम जिस देश से भी आये हो वहाँ रहने वाले लोग कैसे है?”

🔶 उस व्यक्ति ने महात्मा से कहा ” गुरूजी जहाँ से मैं आया हूँ वहाँ सभी सभ्य, सुलझे हुए और नेकदिल इन्सान रहते है। मेरा वहाँ से कही और जाने का कोई मन नहीं था लेकिन व्यापार के सिलसिले में इस और आया हूँ और यहाँ की आबोहवा भी मुझे भा गयी है इसलिए मैंने आपसे ये सवाल पूछा था।”
इस पर महात्मा ने उससे कहा बंधू ” तुम्हे यहाँ भी नेकदिल और भले इन्सान मिलेंगे।” वह राहगीर भी उन्हें प्रणाम करके आगे बढ़ गया।

🔷 शिष्य ये सब देख रहे थे तो उन्होंने ने उस राहगीर के जाते ही पूछा – गुरूजी! ये क्या अपने दोनों राहगीरों को अलग अलग जवाब दिए। हमे कुछ भी समझ नहीं आया।

🔶 तब महात्मा मुस्कुराकर बोले – वत्स आमतौर पर हम आपने आस पास की चीजों को जैसे देखते है वो वैसी होती नहीं है। हम अपने अनुसार अपनी दृष्टि (point of view) से चीजों को जिस तरह से देखते है हमें सभी चीजे उसी तरह से दिखती हैं। अगर हम अच्छाई देखना चाहें तो हमे अच्छे लोग मिल जायेंगे और अगर हम बुराई देखना चाहें तो हमे बुरे लोग ही मिलेंगे। सब देखने के नजरिये पर निर्भर करता है।

🔷 मित्रों, ये बात वास्तव में सही है। हम खुद जैसे हैं या जिस नज़रिये से हम दूसरों को देखते है दूसरे लोग भी हमें वैसे ही दिखाई देते है। नकारात्मक सोच वाले हमेशा नकारात्मकता की ही बाते करेंगे क्योंकि वो हर एक चीज में नकारात्मकता ही देखते है। सकारात्मक सोच वाले हमेशा सकारात्मकता की ही बाते करेंगे क्योंकि वो हर एक चीज में सकारात्मकता ही देखते है। इसलिए आप अपने आप को बदलिये और अच्छे बन जाइये। आपको हर एक चीज अच्छी दिखाई देगी।

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 26 Dec 2017


👉 आज का सद्चिंतन 26 Dec 2017


👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...