संसार के अन्य समाजों की बात तो नहीं कही जा सकती, पर अपने भारतीय समाज की यह पद्धति कभी नहीं रही कि दूसरों के कष्ट-क्लेशों की उपेक्षा करके आनंद मनाया जाये। आनंद जीव की सहज प्रवृत्ति है। यह सुर दुर्लभ मानव शरीर मिला ही अनंत आनंद को पाने और मनाने के लिए है, फिर भी एकाकी आनंद मनाने का निषेध भी है। दूसरों के साथ मिलकर ही आनंद का उपभोग वास्तविक उपभोग है। अन्यथा वह एक अन्याय है, अनुचित है और चोरी है।
संसार के इतिहास में ऐसे असंख्य व्यक्ति भरे पड़े हैं, जिनको जीवन में विद्यालय के दर्शन न हो सके, किन्तु स्वाध्याय के बल पर विश्व के विशेष विद्वान् व्यक्ति बने हैं। साथ ही ऐसे व्यक्तियों की भी कमी नहीं है, जिनकी जिंदगी का अच्छा खासा भाग विद्यालयों एवं विश्व-विद्यालयों में बीता, किन्तु आलस्य और प्रमाद के कारण उनकी एकत्रित योग्यता भी उन्हें छोड़कर चली गई और वे अपनी तपस्या का कोई लाभ नहीं उठा पाये।
सफलता की अपेक्षा नीति श्रेष्ठ है। अपने आपको नीति पर चलाते हुए यदि असफलता भी मिलती है तो वह गौरव की बात है और यदि अनीतिपूर्वक इन्द्रासन भी प्राप्त होता है तो वह गर्हित ही है। सफलता न मिलने से भौतिक जीवन के उत्कर्ष में कुछ बाधा पड़ सकती है, किन्तु उससे समाज का जो हित होगा, उससे जो आत्म गौरव तथा आत्म संतोष मिलेगा, वह कुछ कम मूल्यवान नहीं है।
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य