बन्धन क्या? मुक्ति कैसे?
इस दुर्गति में पड़े रहने से आज का समय किसी प्रकार कट भी सकता है, पर भविष्य तो अन्धकार से ही भरा रहेगा। विवेक की एक किरण भी कभी चमक सके तो उसकी प्रतिक्रिया परिवर्तन के लिये तड़पन उठने के रूप में ही होगी। प्रस्तुत दुर्दशा की विडम्बना और उज्ज्वल भविष्य की सम्भावना का तुलनात्मक विवेचन करने पर निश्चित रूप से यही उमंग उभरेगी कि परिवर्तन के लिये साहस जुटाया जाय। इसी उभार के द्वारा अध्यात्म जीवन में प्रवेश और साधना प्रयोजनों का अवलम्बन आरम्भ होता है।
परिवर्तन का प्रथम चरण है, बन्धनों का शिथिल करना। आकर्षणों के अवरोधों से विमुख होना। आसक्ति को वैराग्य की मनःस्थिति में बदलना। इसके लिये कई तरह के संयम परक उपायों का अवलम्बन करना पड़ता है। साधना रुचि परिवर्तन की प्रवृत्ति को उकसाने से आरम्भ होती है। इस संदर्भ में महर्षि पातंजलि का कथन है।
बन्धकारण शैथिल्यात्प्राचार सम्वेदनस्य ।
चित्तस्य पर शरीरावेशः ।।
—योग दर्शन 3-38
बन्धनों के कारण डीले हो जाने पर चित्त की सीमा, परिधि और सम्वेदना व्यापक हो जाती है।
मोक्षस्य नहि वासोऽस्ति न ग्रामान्तरमेव वा ।
अज्ञानहृदयग्रन्थिनाशो मोक्ष इति स्मृतः ।।
—शिव गीता 13।32
अर्थात्—मोक्ष किसी स्थान विशेष में निवास करने की स्थिति नहीं है। न उसके लिये किसी अन्य नगर या लोक में जाना पड़ता है। हृदय के अज्ञानांधकार का समाप्त हो जाना ही मोक्ष है।
मोक्ष में परमात्मा की प्राप्ति होती है। अथवा परमात्मा की प्राप्ति ही मोक्ष है। यह मोक्ष क्या है? भव बन्धनों से मुक्ति। भव-बन्धन क्या हैं? वासना, तृष्णा और अहंता के—काम, लोभ और क्रोध के नागपाश। इनसे बंध हुआ प्राणी ही माया ग्रसित कहलाता है। यही नारकीय दुर्दशा का दल-दल है। इससे उबरते ही आत्मज्ञान का आलोक और आत्म-दर्शन का आनन्द मिलता है। इस स्थिति में पहुंचा हुआ व्यक्ति परमात्मा का सच्चा सान्निध्य प्राप्त करता है और ज्ञान तथा सामर्थ्य में उसी के समतुल्य बन जाता है।
अथर्ववेद में कहा गया है—
ये पुरुषे ब्रह्मविदुः तेविदुः परमेष्ठितम् ।
अर्थात्—जो आत्मा को जान लेता है, उसी के लिये परमात्मा का जान लेना भी सम्भव है। ऋग्वेद में आत्मज्ञान को ही वास्तविक ज्ञान कहा गया है। ग्रन्थों के पढ़ने से जानकारियां बढ़ती हैं, आत्मानुभूति से अपने आपे को और परमतत्व को जाना जाता है। श्रद्धा-विहीन शब्दचर्चा का ऊहापोह करते रहने से तो आत्मा की उपलब्धि नहीं होती। एक ऋचा है—यः तद् न वेदकिम् ऋचा करिष्यति।’’
जो उस आत्मा तत्व को नहीं जान पाया वह मन्त्र, बात या विवेचन करते रहने भर से क्या पा सकेगा? उपनिषद् का कथन है—‘‘ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति’’ अर्थात् ब्रह्मवेत्ता ब्रह्म ही बन जाता है।
यह स्थिति जीवन और जगत के पीछे छिपी हुई कारण सत्ता को देखने तथा उसे समझने, बोध प्राप्त करने के लिये साधना स्तर के प्रयासों से ही सम्भव है। भारतीय मनीषियों ने इसीलिये तत्व दर्शन को ही बन्धन मुक्ति का उपाय बताया है यह दृष्टि अपने मन, बुद्धि चित्त और अहंकार के परिष्कार पूर्वक ही विकसित की जा सकती है। योग तप, ब्रह्मविद्या, साधना, उपासना, अभ्यास, मनन, चिन्तन और ध्यान निदिध्यासन द्वारा चित्त वृत्ति को इतना निर्मल परिष्कृत बनाया जाता है कि यह तत्व दृष्टि विकसित की जा सके।
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✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति पृष्ठ ११०
परम पूज्य गुरुदेव ने यह पुस्तक 1979 में लिखी थी