शनिवार, 2 अक्टूबर 2021

👉 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति (अन्तिम भाग)

बन्धन क्या? मुक्ति कैसे?

इस दुर्गति में पड़े रहने से आज का समय किसी प्रकार कट भी सकता है, पर भविष्य तो अन्धकार से ही भरा रहेगा। विवेक की एक किरण भी कभी चमक सके तो उसकी प्रतिक्रिया परिवर्तन के लिये तड़पन उठने के रूप में ही होगी। प्रस्तुत दुर्दशा की विडम्बना और उज्ज्वल भविष्य की सम्भावना का तुलनात्मक विवेचन करने पर निश्चित रूप से यही उमंग उभरेगी कि परिवर्तन के लिये साहस जुटाया जाय। इसी उभार के द्वारा अध्यात्म जीवन में प्रवेश और साधना प्रयोजनों का अवलम्बन आरम्भ होता है।

परिवर्तन का प्रथम चरण है, बन्धनों का शिथिल करना। आकर्षणों के अवरोधों से विमुख होना। आसक्ति को वैराग्य की मनःस्थिति में बदलना। इसके लिये कई तरह के संयम परक उपायों का अवलम्बन करना पड़ता है। साधना रुचि परिवर्तन की प्रवृत्ति को उकसाने से आरम्भ होती है। इस संदर्भ में महर्षि पातंजलि का कथन है।
बन्धकारण शैथिल्यात्प्राचार सम्वेदनस्य ।

चित्तस्य पर शरीरावेशः ।।
—योग दर्शन 3-38
बन्धनों के कारण डीले हो जाने पर चित्त की सीमा, परिधि और सम्वेदना व्यापक हो जाती है।
मोक्षस्य नहि वासोऽस्ति न ग्रामान्तरमेव वा ।
अज्ञानहृदयग्रन्थिनाशो मोक्ष इति स्मृतः ।।
—शिव गीता 13।32
अर्थात्—मोक्ष किसी स्थान विशेष में निवास करने की स्थिति नहीं है। न उसके लिये किसी अन्य नगर या लोक में जाना पड़ता है। हृदय के अज्ञानांधकार का समाप्त हो जाना ही मोक्ष है।

मोक्ष में परमात्मा की प्राप्ति होती है। अथवा परमात्मा की प्राप्ति ही मोक्ष है। यह मोक्ष क्या है? भव बन्धनों से मुक्ति। भव-बन्धन क्या हैं? वासना, तृष्णा और अहंता के—काम, लोभ और क्रोध के नागपाश। इनसे बंध हुआ प्राणी ही माया ग्रसित कहलाता है। यही नारकीय दुर्दशा का दल-दल है। इससे उबरते ही आत्मज्ञान का आलोक और आत्म-दर्शन का आनन्द मिलता है। इस स्थिति में पहुंचा हुआ व्यक्ति परमात्मा का सच्चा सान्निध्य प्राप्त करता है और ज्ञान तथा सामर्थ्य में उसी के समतुल्य बन जाता है।
अथर्ववेद में कहा गया है—

ये पुरुषे ब्रह्मविदुः तेविदुः परमेष्ठितम् ।
अर्थात्—जो आत्मा को जान लेता है, उसी के लिये परमात्मा का जान लेना भी सम्भव है। ऋग्वेद में आत्मज्ञान को ही वास्तविक ज्ञान कहा गया है। ग्रन्थों के पढ़ने से जानकारियां बढ़ती हैं, आत्मानुभूति से अपने आपे को और परमतत्व को जाना जाता है। श्रद्धा-विहीन शब्दचर्चा का ऊहापोह करते रहने से तो आत्मा की उपलब्धि नहीं होती। एक ऋचा है—यः तद् न वेदकिम् ऋचा करिष्यति।’’

जो उस आत्मा तत्व को नहीं जान पाया वह मन्त्र, बात या विवेचन करते रहने भर से क्या पा सकेगा? उपनिषद् का कथन है—‘‘ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति’’ अर्थात् ब्रह्मवेत्ता ब्रह्म ही बन जाता है।

यह स्थिति जीवन और जगत के पीछे छिपी हुई कारण सत्ता को देखने तथा उसे समझने, बोध प्राप्त करने के लिये साधना स्तर के प्रयासों से ही सम्भव है। भारतीय मनीषियों ने इसीलिये तत्व दर्शन को ही बन्धन मुक्ति का उपाय बताया है यह दृष्टि अपने मन, बुद्धि चित्त और अहंकार के परिष्कार पूर्वक ही विकसित की जा सकती है। योग तप, ब्रह्मविद्या, साधना, उपासना, अभ्यास, मनन, चिन्तन और ध्यान निदिध्यासन द्वारा चित्त वृत्ति को इतना निर्मल परिष्कृत बनाया जाता है कि यह तत्व दृष्टि विकसित की जा सके।

.... समाप्त
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति पृष्ठ ११०
परम पूज्य गुरुदेव ने यह पुस्तक 1979 में लिखी थी

👉 भक्तिगाथा (भाग ६९)

भक्तश्रेष्ठ अम्बरीश की गाथा

ब्रह्मर्षि क्रतु के मुख से भीलकुमार कणप्प की भक्तिगाथा सुनकर सभी के अन्तःकरण भावों से भीग गए। भक्ति स्वयं ही साधना और सिद्धि को अपने में समाविष्ट कर लेती है। यहाँ तक कि इसमें भक्ति की साधना करने वाले साधक का अस्तित्त्व भी समा जाता है। अन्य साधना विधियों को अपनाकर इनकी साधना करते हुए साधक यदा-कदा थकान, बेचैनी की अनुभूति करने लगता है। यदि इनके प्रयोग सुदीर्घकाल तक करने पडें़ तो साधना के फल की आकांक्षा भी साधक को विचलित करती है। परन्तु भक्ति की साधना में ऐसा कुछ भी नहीं है। यहाँ तो अपने ईष्ट-आराध्य की भक्ति करते हुए भक्त का मन पल-पल पुलकित और हर्षित होता रहता है। उसे तो बस हर क्षण यही लगता रहता है और क्या, और कितना, और कैसे, अपने प्रभु को दे डालूँ? कुछ पाना है, ऐसी चाहत तो कभी भी भक्त के मन-अन्तःकरण में अंकुरित ही नहीं होती। इन विचार कणों में सभी के मन देर तक सिक्त होते रहे।

समय का तो किसी को होश ही न रहा। चेत तो तब आया जब देवर्षि नारद ने अपनी वीणा की मधुर झंकृति की ही भांति एक सूत्र सत्य का उच्चारण करते हुए कहा-
‘राजगृैहभोजनादिषु तथैव दृष्टत्वात्’॥ ३१॥

राजगृह और भोजनादि में ऐसा ही देखा जाता है। भक्ति को स्वयं ही फलरूपा कहने के बाद देवर्षि के मुख से भक्ति की तुलना राजगृह एवं भोजन आदि से करने पर महर्षि वसिष्ठ के अधरों पर हलका सा स्मित झलक आया। ऐसा लगा वह कुछ पलों के लिए अपनी ही किन्हीं स्मृतियों में खो गए। ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ वसिष्ठ की यह भावभंगिमा वहाँ किसी से छिपी न रही। इसे औरों के साथ स्वयं देवर्षि ने भी देखा और उन्होंने ब्रह्मर्षि वसिष्ठ से भावपूर्ण निवेदन करते हुए कहा- ‘‘इस सूत्र की तत्त्वकथा आप ही कहें भगवन्!’’ उत्तर में एक मधुर हास्य के साथ वसिष्ठ बोले- ‘‘देवर्षि! आपके मुख से राजगृह एवं भोजन की बात सुनकर मेरे मन मे कुछ पुरानी स्मृतियाँ उभर आयीं।’’

ऋषिश्रेष्ठ वसिष्ठ के इस कथन ने सभी की जिज्ञासा व उत्सुकता को शतगुणित कर दिया। अब तो देवर्षि के साथ अन्य सबने भी अनुरोध किया, ‘‘अपनी पावन स्मृतियों से हम सबको भी पवित्र करें महर्षि!’’ उत्तर में महर्षि कुछ और कहते तभी हिमप्रपात एवं हिम पक्षियों की ध्वनियों ने वातावरण में एक अद्भुत संगीत घोल दिया। ऐसा लगा कि इस नयी भक्तिगाथा के श्रवण के पूर्व स्वयं प्रकृति ने मंगलाचरण पढ़ा हो। इस शुभ मंगल ध्वनि के साथ मौन हो रहे महर्षि मुखरित हुए और बोले- ‘‘मेरी यह स्मृतियाँ उन दिनों की हैं, जब भक्त प्रवर अम्बरीश अयोध्या के अधिपति थे। महाराज अम्बरीश की भक्ति एवं उनके व्यक्तित्व के विविध शीलगुणों की अनेकों अनोखी कथाएँ पुराणकारों ने कही हैं, इन सभी कथा प्रसंगों में महाराज अम्बरीश की भावपूर्ण भक्ति झलकती है। परन्तु जिस स्मृति कथा को मैं सुना रहा हूँ, उसे किसी भी पुराण ने नहीं कहा। यह सर्वथा अछूता कथा प्रसंग है।

हिमवान के आंगन में बैठे सभी महर्षिगण, देवता, सिद्ध, चारण एवं गन्धर्वों को यह तथ्य सुविदित था कि ब्रह्मर्षि वसिष्ठ सुदीर्घ काल तक अयोध्या के राजपुरोहित रहे हैं। उन्होंने युगों तक अयोध्या के राजघराने का पौरोहित्य कार्य किया है। ऋषियों के मध्य इसकी भी सदा चर्चा रही है- यह कार्य उन्हें स्वयं ब्रह्मा जी ने सौंपा था। इस चर्चा में यह तथ्य भी सुविदित रहा है कि परम वीतरागी महर्षि वसिष्ठ जब अयोध्या के राजपुरोहित नहीं बनना चाहते थे, तब ब्रह्माजी ने उनसे कहा था- पुत्र! यह सामान्य राजकुल नहीं है। इस कुल में अनेकों श्रेष्ठ महामानव जन्म लेंगे। अनेक भगवद्भक्तों को इस कुल में जन्म मिलेगा। उनकी भक्ति की शक्ति से अन्ततः स्वयं भगवान मर्यादापुरुषोत्तम के रूप में इस कुल में अवतरित होंगे। तुम्हें इन सभी के पुरोहित होने का, इन्हें मार्गदर्शन देने का सुअवसर मिलेगा।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ १२७

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