मंगलवार, 17 अक्टूबर 2023

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 17 Oct 2023

साधना का उद्देश्य किसी के सामने गिड़गिड़ाना, झोली पसारना या नाक रगड़ना नहीं है। दीनता न आत्मा को शोभनीय है न परमात्मा को प्रिय। परमात्मा न खुशामद का भूखा है और न है उसे प्रशंसा की आवश्यकता। उसकी महानता अपने आप में अपनी प्रशंसा है। मनुष्यों की वाणी न उसमें कुछ वृद्धि कर सकती है और न कमी। अपने ही बालक के मुख से प्रशंसा कराना किसी मनुष्य को भी अच्छा नहीं लगता फिर परमात्मा जैसे महान के लिए तो उसमें क्या आकर्षण हो सकता है। प्रशंसा करके किसी से कुछ प्राप्त करने का प्रयत्न ओछे दर्जे का कृत्य माना जाता है। 

माँगना बुरा व्यवसाय है। चोरी से भी बुरा। चोर दुस्साहस करता है और खतरा मोल लेता है तब कहीं कुछ पाता है। पर भिखारी उतना भी तो नहीं करता। वह बिना कुछ किये ही पाना चाहता है। कर्म विज्ञान को एक प्रकार से वह झुठलाना ही चाहता है। संसार के स्वाभिमानी अपंग और असमर्थ भी स्वाभिमानी होते हैं। कोढ़ी और अन्धे भी कुछ कर लेते हैं। समाज उन्हें कर्तृत्व के साधन तो देता है, पर मुफ्त में बिठा कर नहीं खिलाता। इसमें देने वाले की उदारता भले ही हो पर लेने वाले को ऋण के भार से दबना पड़ता है और दीन बनकर स्वयं स्वाभिमान का हनन करना पड़ता है। यह हानि उस लाभ से बुरी है जो किसी दान से कुछ प्राप्त करके उपलब्ध किया जाता है।

उपासना से पाप नष्ट होने का वास्तविक अर्थ यह है कि ऐसा व्यक्ति जीवन साधना के प्रथम चरण का परिपालन करते हुए दुर्भावनाओं, दुष्प्रवृत्तियों के दुष्परिणाम समझेगा और उनमें सतर्कतापूर्वक वितरण हो जायेगा, पाप नष्ट होने का अर्थ है पाप कर्म करने की प्रवृत्ति का नाश, पर उल्टा अर्थ कर दिया गया पाप कर्मों के प्रतिफल का नाश। कदाचित ऐसी उलटवांसी सही होती तो फिर इस संसार में पाप को ही पुण्य और कर्त्तव्य माना जाने लगता। फिर कोई भी पाप से न डरता। पाप कर्मों के दण्ड से मुक्ति दिलाने का आश्वासन पूजा−पाठ की कीमत पर जिनने भी दिया है उनने मानवीय आदर्शों और अध्यात्म के मूलभूत आधारों के साथ व्यभिचार किया है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 क्या मैं शरीर ही हूँ-उससे भिन्न नहीं? (भाग 2)

आत्म चिन्तन कहेगा- नहीं-नहीं-नहीं। आत्मा इतना हेय और हीन नहीं हो सकता। वह इतना अपंग और असमर्थ-पराश्रित और दुर्बल कैसे होगा? यह तो प्रकृति के पराधीन पेड़-पौधों जैसा-मक्खी, मच्छरों जैसा जीवन हुआ। क्या इसी को लेकर-मात्र जीने के लिए मैं जन्मा। सो भी जीना ऐसा जिसमें न चैन, न खुशी, न शान्ति, न आनन्द, न सन्तोष। यदि आत्मा-सचमुच परमात्मा का अंश है तो वह ऐसी हेय स्थिति में पड़ा रहने वाला हो ही नहीं सकता। या तो मैं हूँ ही नहीं।

नास्तिकों के प्रतिपादन के अनुसार या तो पाँच तत्वों के प्रवाह में एक ‘भंवर जैसी बबूले जैसी क्षणिक काया लेकर उपज पड़ा हूँ और अगले ही क्षण अभाव के विस्मृति गर्त में समा जाने वाला हूँ। या फिर कुछ हूँ तो इतना तुच्छ और अपंग हूँ जिसमें उल्लास और सन्तोष जैसा-गर्व और गौरव जैसा-कोई तत्व नहीं है। यदि मैं शरीर हूँ तो-हेय हूँ। अपने लिए और इस धरती के लिए भारभूत। पवित्र अन्न को खाकर घृणित मल में परिवर्तन करते रहने वाले-कोटि-कोटि छिद्रों वाले इस कलेवर से दुर्गन्ध और मलीनता निसृत करते रहने वाला-अस्पर्श्य-घिनौना हूँ ‘मैं’। यदि शरीर हूँ तो इससे अधिक मेरी सत्ता होगी भी क्या?

मैं यदि शरीर हूँ तो उसका अन्त क्या है? लक्ष्य क्या है? परिणाम क्या है? मृत्यु-मृत्यु-मृत्यु। कल नहीं तो परसों वह दिन तेजी से आँधी तूफान की तरह उड़ता उमड़ता चला आ रहा है, जिसमें आज की मेरी यह सुन्दर सी काया-जिसे मैंने अत्यधिक प्यार किया-प्यार क्या जिसमें पूरी तरह समर्पित हो गया-घुल गया। अब वह मुझसे विलग हो जायगी। विलग ही नहीं अस्तित्व भी गँवा बैठेगी। काया में घुला हुआ ‘मैं’-मौत के एक ही थपेड़े में कितना कुरूप-कितना विकृत-कितना निरर्थक-कितना घृणित हो जायगा कि उसे प्रिय परिजन तक-कुछ समय और उसी घर में रहने देने के लिए सहमत न होंगे जिसे मैंने ही कितने अरमानों के साथ-कितने कष्ट सहकर बनाया था। क्या यही मेरे परिजन हैं? जिन्हें लाड़-चाव से पाला था। अब ये मेरी इस काया को-घर में से हटा देने के लिए-उसका अस्तित्व सदा के लिए मिटा देने के लिए क्यों आतुर हैं? कल वाला ही तो मैं हूँ।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति मार्च 1972 पृष्ठ 4


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