बुधवार, 4 जनवरी 2023

👉 साधना ऐसी जो प्रत्यक्ष सिद्धि दात्री हो

व्यावहारिक जीवन में शालीनता, सज्जनता, सुव्यवस्था, संयमशीलता आदि सत्प्रवृत्तियों का प्रतिष्ठïापन और संवर्धन करने के उपरांत ही पूजा विधानों के सफल होने की आशा करनी चाहिए। गंदगी से सना बच्चा यदि माता की गोद में बैठने के लिए मचले, तो वह उसकी इच्छा पूरी नहीं करती, प्यारा लगते हुए भी उसके रोने की परवाह नहीं करती। पहला काम करती है- उसे धोना, नहलाना, गंदे कपड़े उतारकर नये स्वच्छ वस्त्र पहनाना। इतना कर चुकने के उपरांत वह उसे गोद में लेती, दुलार करती, खिलाती और दूध पिलाती है। बच्चों की उतावली सफल नहीं होती, माता की व्यवस्था बुद्धि ही कार्यान्वित होती है।
  
अध्यात्म क्षेत्र में इन दिनों एक भारी भ्रांति फैली हुई है कि पूजा परक कर्मकाण्डों के सहारे जादूगरों जैसे चमत्कारी प्रतिफल मिलने चाहिए। देवता को स्तवन पूजन के मनुहार, उपहार पर फुसलाया जाना चाहिए और उससे अपनी उचित-अनुचित मनोकामनाओं को पूरा कराया जाना चाहिए। यह स्थापना अनैतिक है, असंगत भी। यदि इतने सस्ते में मनोकामनाएँ पूरी होने लगे, तो सफलता के लिए कोई क्यों परिश्रम करेगा और क्यों पात्रता विकसित करेगा? फिर सभी उद्योग परायण व्यक्ति मूर्ख समझे जाएंगे और देवता की जेब काटकर उल्लू सीधा करने वाले चतुर। यह मान्यता यदि सही रही होती, तो देव पूजा में अधिकांश समय बिताने वाले पंडित, पुजारी, साधु, बाबाजी अब तक उच्चकोटि की उपलब्धियाँ प्राप्त कर सकने की स्थिति में पहुँच गये होते। जबकि उनमें से अधिकांश सामान्य जनों से भी गई गुजरी स्थिति में देखे जाते हैं। इसी प्रकार तंत्र-मंत्र के फेर में पड़े रहने वाले आतुर और भावुक व्यक्ति बड़ी-बड़ी आशा अभिलाषाएं संजोएँ रहते हैं। समय बीतता जाता है और सफलता के दर्शन नहीं होते, तो फिर वे निराश होने लगते हैं। प्रयास बंद कर देते हैं। अध्यात्म अवलम्बन का उलाहना देते हैं और लगभग नास्तिक स्तर के बन जाते हैं।
  
यह दु:खद परिस्थिति इसलिए उत्पन्न होती है कि उन्होंने आत्म-विज्ञान का तत्त्वदर्शन समझने से पूर्व आतुरता वश मात्र कर्मकाण्ड आरंभ कर दिये और बालू के महल बनाने लगे। जबकि होना यह चाहिए था कि बीज से वृक्ष उत्पन्न होने के सिद्धांत के साथ जुड़े हुए अन्य तथ्यों को भी समझते और उन पर समुचित ध्यान देते। बीज से वृक्ष बनने की बात सच है। साधना से सिद्धि मिलने की भी, परन्तु आदि और अंत को अपना लेना एवं बीच का विस्तार उपेक्षित कर देना सही नीति नहीं है। बीज को ऊर्वर भूमि, खाद और पानी तीनों का सुयोग मिलना चाहिए, वह अंकुरित होगा, बढ़ेगा और फूलेगा-फलेगा।

इतना किये बिना बीज से वृक्ष बना देने की जादूगरी कोई बाजीगर ही कर सकता है, यह उसी का काम है। हथेली पर सरसों जमाना। किसान वैसा नहीं करते। जादूगर रुपये बरसाकर दर्शकों को चकित कर सकते हैं, पर व्यवसायी जानते हैं कि यदि ऐसा संभव रहा होता, तो यह बाजीगर करोडग़ति हो गये होते और किसी को परिश्रम करके व्यवसाय संलग्ïन रहने की आवश्यकता न पड़ती। चलने पर ही रास्ता पूरा होता है। आत्मिक प्रगति, जिसे कोई चाहे तो देव अनुग्रह भी कह सकता है, जीवन को परिष्कृत करने की प्राथमिक आवश्यकता को पूरा किए बिना पकड़ में नहीं आ सकती।

✍🏻 पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 जीवन के गरिमामय बोध तो हो

एक मजदूर बड़े परिश्रम से कुछ चावल कमाकर लाया था। उन्हें खुशी-खुशी सिर पर रखकर घर लिये जा रहा था। अचानक उस बोरी में छेद  हो गया और धीरे-धीरे उसकी गैर जानकारी में वे चावल पीछे की ओर गिरते गये । यहाँ तक कि कुछ आगे जाने पर उसकी बोरी  ही खाली हो गई। जब पीछे देखा तो उसे होश आया।   फर्लांगों से धीरे-धीरे वह चावल फैल रहे थे और धूल में मिलकर दृष्टिï से ओझल हो गए थे। उसने एक हसरतभरी निगाह उन दानों पर डाली और कहा- काश! मैं इन दानों को फिर  से पा सका होता। पर  वे तो पूरी तरह धूल में गढ़ चुके थे, वे मिल नहीं सकते थे। बेचारा खाली हाथ घर लौटा, दिन भर का परिश्रम, चावलों का बिखर जाना, पेट की जलती हुई ज्वाला इन तीनों की स्मृति उसे बेचैन बनाये दे रही थी।
    
हमारे जीवन का अमूल्य हार कितना सुन्दर है; हम इसे कितना प्यार करते हैं। माता खुद भूखी रहकर अपने नन्हे से बालक को मिठाई खरीदकर खिलाती है, बालक के मल मूत्रों में खुद पड़ी रहकर उसे सूखे बिछौने पर सुलाती है। वह बड़े से बड़ा नुकसान कर दे, एक कहुआ शब्द तक नहीं कहती।
  
हमारी आत्मा हमारे जीवन से इतना ही नहीं, बल्कि इससे भी अधिक प्यार करती है। जीवन सुखी बीते, उसे आनन्द और प्रसन्नता प्राप्त हो, इसके लिए आत्मा पाप भी करती है। खुद नरकों की यातना सहती है- खुद मलमूत्रों में पड़ी रहकर उसे सूखे बिछौन पर सुलाती है। यह प्यार माता के प्यार से किसी प्रकार कम नहीं है। जीवन को वह जितना प्यार करती हैं, उतना क्या कोई किसी को कर सकता है?
  
पर हाय! इसकी एक-एक मणि चुपके-चुपके मजदूर के चावलों की तरह बिखरती जा रही है। और हम मदहोश होकर मस्ती के गीत गाते हुए झूम-झूमकर आगे बढ़ते जा रहे हैं। जीवन-लड़ी के अनमोल मोती घड़ी, घंटे, दिन, सप्ताह, पक्ष, मास और वर्षों के रूप में धीरे-धीरे व्यतीत होते जा रहे हैं। एक ओर माता कहती है कि मेरा पूत बड़ा हो रहा है, दूसरी ओर मौत कहती है कि मेरा ग्रास निकट आ रहा है। बूँद-बूँद करके जीवन रस टपक रहा है और घड़ा खाली होता जा रहा है। कौन जानता है कि हमारी थैली में थोड़ा-बहुत कुछ बचा भी है! फिर भी क्या हम इस समस्या पर विचार करते हैं? कभी सोचते हैं कि समय क्या वस्तु है? उसका क्या मूल्य है?  यदि हम नहीं सोचते और अपनी पीनक को ही स्वर्ग-सुख मानते हैं तो सचमुच बीते वर्ष को गँवाना और नवीन वर्ष का आना कोई विशेष महत्व नहीं रखता।
  
क्या आप कभी इस पर भी विचार करते हैं कि आपके जीवन का इतना बड़ा भाग, सर्वोत्तम अंश किस प्रकार बर्बाद हो गया? क्या इसे इसी प्रकार नष्टï करना चाहिए था? क्या आत्मा को इन्हीं कर्मों की पूर्ति के लिये ईश्वर ने भेजा था, जिन को अब तक तुमने पूरा किया है? याद रखना, वह दिन दूर नहीं है जब तुम्हें यही प्रश्र शूल की तरह दुख देंगे। जब जीवन रस की अन्तिम बूँद टपक जायेगी और तुम मृत्यु के कंधे पर लटक रहे होगे, तब तुम्हारी तेज निगाह बुढ़ापा, अधेड़ावस्था, यौवन, किशोरावस्था, बचपन और गर्भावस्था तक दौड़ेगी। अपने अमूल्य हार की एक-एक मणि धूलि में लोटती हुई दिखाई देगी। तब अपनी मदहोशी पर तिलमिला उठोगे।।  आज तो समय काटने के लिये ताश या फलाश खेलने की तरकीब सोचनी पड़ती है। पर परसों पछतायेगा इन अमूल्य क्षणों के लिए! और शिर धुन-धुनकर रोयेगा अपने इस पाजीपन पर।

✍🏻 पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 साधक की दो विपत्तियाँ

तमोगुण की प्रधानता रखने वाला व्यक्ति दो प्रकार की विपत्तियों में फँस सकता है। पहली विपत्ति है अपने को हीन समझना- मैं दुर्बल हूँ, घृणित हूँ, अकर्मण्य हूँ, आदि भावनायें उठने से वह समझने लगता है कि मैं सबसे नीच हूँ भगवान मुझ जैसे नीच का कैसे उद्धार कर सकते हैं। ऐसा मालूम होता है कि सोचने वाला भगवान की शक्ति का सीमित मानता है और भगवान गूँगे को बोलने की शक्ति तथा लंगड़े को चलने की शक्ति दे देते हैं यह बात असत्य समझता है। दूसरी विपत्ति है जरा सी सिद्धि पा जाने पर साधना से मुँह मोड़ लेना और प्राप्त सिद्धि को सब कुछ समझ कर उसी के भोग में लग जाना। साधना की ये दोनों ही विपत्तियाँ विघ्न हैं।

इसलिए साधक को सदा इस बात का ध्यान रखने की आवश्यकता है कि वह भी भगवान का अंश है और भगवती महा माया आदि शक्ति उसके अन्तराल में बैठी हुई उसका संचालन कर रहीं हैं। सर्व शक्तिमान भगवान की लीला के अधीन होकर चुपचाप बैठे रहना साधक के लिए उचित नहीं है। यह तो उसके अहंकार की विद्यमानता का फल है जब तक अहंकार रहता है तब तक वास्तविक धारणा का उत्पन्न होना ही सम्भव नहीं है इस लिए अहंकार को निर्मूल कर देने पर ही साधक उन विपत्तियों से बच सकता है।

श्री अरविन्द
अखण्ड ज्योति 1948  नवम्बर पृष्ठ 5

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👉 गायत्री की अमोघ शक्ति

गायत्री सद्बुद्धि का मंत्र है। इस महामंत्र में कुछ ऐसी विलक्षण शक्ति है कि उपासना करने वाले के मस्तिष्क और हृदय पर बहुत जल्दी आश्चर्यजनक  प्रभाव परिलक्षित होता है। मनुष्य के मन:क्षेत्र में समाए हुए काम, क्रोध, लोभ, मोह, चिंता, ईर्ष्या, कुविचार आदि चाहे कितनी ही गहरी जड़ जमाए बैठे हों, मन में तुरंत ही हलचल आरंभ होती है और उनका उखडऩा, घटना तथा मिटना प्रत्यक्ष दिखाई  पडऩे लगता है।
  
संसार में समस्त दु:खों की जननी कुबुद्धि ही है। जितने भी दु:खी मनुष्य इस विश्व में दीख पड़ते हैं, उनके दु:खों का एकमात्र कारण उनके कुविचार ही हैं। परमात्मा का युवराज मनुष्य दु:ख के निमित्त नहीं, अपने पिता के इस पुण्य उपवन-संसार में आनंद की क्रीड़ा करने के लिए आता है। इस स्वर्गादपि गरीयसी धरती माता पर वस्तुत: दु:ख का अस्तित्व ही नहीं है।
  
संसार में जितने दु:ख हैं, सब कुबुद्धि के कारण हैं। लड़ाई, झगड़ा, आलस्य, अत्याचार आदि के पीछे मनुष्य की दुर्बुद्धि ही काम करती है। इन्हीं कारणों से रोग, अभाव, चिन्ता आदि का प्रादुर्भाव होता है और नाना प्रकार की पीड़ाएँ सहनी पड़ती हैं। कुबुद्धि से बुरे विचार बनते हैं। इसीलिए कुबुद्धि को पापों की जननी कहा गया है। गायत्री मंत्र का प्रधान कार्य इस कुबुद्धि को हटाना है। गायत्री उपासना से मस्तिष्क में सद्ïविचार और हृदय में सद्ïभाव उत्पन्न होते हैं।
  
जिनकी स्मरण शक्ति मंद है, मस्तिष्क जल्दी थक जाता है, उन्हें गायत्री उपासना करके थोड़े ही समय में इस महान्ï शक्ति के चमत्कार देखने को मिलते हैं। सिर में दर्द, चक्कर आना आदि रोगों की शिकायतें जिन्हें बनी रहती हैं, उन्हें गायत्री उपासना करनी चाहिए। इससे मस्तिष्क के सभी कल पुर्जे बलवान्ï और निरोग बनते हैं। जिनके घर में कुबुद्धि का साम्राज्य छाया रहता है, आपस में द्वेष, असहयोग, मनमुटाव, कलह, दुराव एवं दुर्भाव रहता है, आये दिन झगड़े होते रहते हैं, आपाधापी और स्वार्थपरता में प्रवृत्ति रहती है, गृह-व्यवस्था को ठीक रखने, समय का सदुपयोग करने, योग्यताएँ बढ़ाने, कुसंग से बचने, श्रमपूर्वक आजीविका कमाने, मन लगाकर विद्या-अध्ययन करने में प्रवृत्ति न होना आदि दुर्गुण कुबुद्धि के प्रतीक हैं। जहाँ यह बुराइयाँ भरी रहती हैं, वे परिवार कभी भी उन्नति नहीं कर सकते, अपनी  को कायम नहीं रख सकते। इसके विपरीत, उनका पतन होना आरंभ हो जाता है। बिखरी हुई बुहारी की सीकों की तरह छिन्न-भिन्न होने पर वर्तमान स्थिति भी स्थिर नहीं रहती। दरिद्रता, हानि, घाटा, शत्रुओं का प्रकोप, मानसिक अशांति की अभिवृद्धि आदि बातें दिन-दिन बढ़ती हैं और वे घर कुछ ही समय में अपना सब कुछ खो बैठते हैं। कुबुद्धि ऐसी अग्रि है, जहाँ भी वह रहती है, वहीं की वस्तुओं को जलाने और नष्ट करने का कार्य निरन्तर करती रहती है।
  
जहाँ उपरोक्त प्रकार की स्थिति हो, वहाँ गायत्री उपासना का आरम्भ होना एक अमोघ अस्त्र है। अँगीठी जलाकर रख देने से जिस प्रकार कमरे की सारी हवा गरम हो जाती है और उसमें बैठे हुए सभी मनुष्य सर्दी से छूट जाते हैं, उसी प्रकार घर के थोड़े से व्यक्ति भी यदि सच्चे मन से माता की शरण लेते हैं, तो उन्हें स्वयं तो शान्ति मिलती ही है, साथ ही उनकी साधना का सूक्ष्म प्रभाव घर भर पर पड़ता है और चिन्ता-जनक मनोविकारों का शमन होने तथा सुमति, एकता, प्रेम, अनुशासन तथा सद्भाव की परिवार में बढ़ोत्तरी होती हुई, स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होती है। साधना निर्बल हो, तो प्रगति धीरे-धीरे होती है, पर होती अवश्य है। सद्बुद्धि एक शक्ति है, जो जीवन-क्रम को बदलती है। उस परिवर्तन के साथ-साथ मनुष्य की परिस्थितियाँ भी बदलती हैं। गायत्री माता की ओर उन्मुख होने वाला व्यक्ति सद्बुद्धि तथा सुख-शान्ति का वरदान प्राप्त करता है।

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👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...