व्यावहारिक जीवन में शालीनता, सज्जनता, सुव्यवस्था, संयमशीलता आदि सत्प्रवृत्तियों का प्रतिष्ठïापन और संवर्धन करने के उपरांत ही पूजा विधानों के सफल होने की आशा करनी चाहिए। गंदगी से सना बच्चा यदि माता की गोद में बैठने के लिए मचले, तो वह उसकी इच्छा पूरी नहीं करती, प्यारा लगते हुए भी उसके रोने की परवाह नहीं करती। पहला काम करती है- उसे धोना, नहलाना, गंदे कपड़े उतारकर नये स्वच्छ वस्त्र पहनाना। इतना कर चुकने के उपरांत वह उसे गोद में लेती, दुलार करती, खिलाती और दूध पिलाती है। बच्चों की उतावली सफल नहीं होती, माता की व्यवस्था बुद्धि ही कार्यान्वित होती है।
अध्यात्म क्षेत्र में इन दिनों एक भारी भ्रांति फैली हुई है कि पूजा परक कर्मकाण्डों के सहारे जादूगरों जैसे चमत्कारी प्रतिफल मिलने चाहिए। देवता को स्तवन पूजन के मनुहार, उपहार पर फुसलाया जाना चाहिए और उससे अपनी उचित-अनुचित मनोकामनाओं को पूरा कराया जाना चाहिए। यह स्थापना अनैतिक है, असंगत भी। यदि इतने सस्ते में मनोकामनाएँ पूरी होने लगे, तो सफलता के लिए कोई क्यों परिश्रम करेगा और क्यों पात्रता विकसित करेगा? फिर सभी उद्योग परायण व्यक्ति मूर्ख समझे जाएंगे और देवता की जेब काटकर उल्लू सीधा करने वाले चतुर। यह मान्यता यदि सही रही होती, तो देव पूजा में अधिकांश समय बिताने वाले पंडित, पुजारी, साधु, बाबाजी अब तक उच्चकोटि की उपलब्धियाँ प्राप्त कर सकने की स्थिति में पहुँच गये होते। जबकि उनमें से अधिकांश सामान्य जनों से भी गई गुजरी स्थिति में देखे जाते हैं। इसी प्रकार तंत्र-मंत्र के फेर में पड़े रहने वाले आतुर और भावुक व्यक्ति बड़ी-बड़ी आशा अभिलाषाएं संजोएँ रहते हैं। समय बीतता जाता है और सफलता के दर्शन नहीं होते, तो फिर वे निराश होने लगते हैं। प्रयास बंद कर देते हैं। अध्यात्म अवलम्बन का उलाहना देते हैं और लगभग नास्तिक स्तर के बन जाते हैं।
यह दु:खद परिस्थिति इसलिए उत्पन्न होती है कि उन्होंने आत्म-विज्ञान का तत्त्वदर्शन समझने से पूर्व आतुरता वश मात्र कर्मकाण्ड आरंभ कर दिये और बालू के महल बनाने लगे। जबकि होना यह चाहिए था कि बीज से वृक्ष उत्पन्न होने के सिद्धांत के साथ जुड़े हुए अन्य तथ्यों को भी समझते और उन पर समुचित ध्यान देते। बीज से वृक्ष बनने की बात सच है। साधना से सिद्धि मिलने की भी, परन्तु आदि और अंत को अपना लेना एवं बीच का विस्तार उपेक्षित कर देना सही नीति नहीं है। बीज को ऊर्वर भूमि, खाद और पानी तीनों का सुयोग मिलना चाहिए, वह अंकुरित होगा, बढ़ेगा और फूलेगा-फलेगा।
इतना किये बिना बीज से वृक्ष बना देने की जादूगरी कोई बाजीगर ही कर सकता है, यह उसी का काम है। हथेली पर सरसों जमाना। किसान वैसा नहीं करते। जादूगर रुपये बरसाकर दर्शकों को चकित कर सकते हैं, पर व्यवसायी जानते हैं कि यदि ऐसा संभव रहा होता, तो यह बाजीगर करोडग़ति हो गये होते और किसी को परिश्रम करके व्यवसाय संलग्ïन रहने की आवश्यकता न पड़ती। चलने पर ही रास्ता पूरा होता है। आत्मिक प्रगति, जिसे कोई चाहे तो देव अनुग्रह भी कह सकता है, जीवन को परिष्कृत करने की प्राथमिक आवश्यकता को पूरा किए बिना पकड़ में नहीं आ सकती।
✍🏻 पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
अध्यात्म क्षेत्र में इन दिनों एक भारी भ्रांति फैली हुई है कि पूजा परक कर्मकाण्डों के सहारे जादूगरों जैसे चमत्कारी प्रतिफल मिलने चाहिए। देवता को स्तवन पूजन के मनुहार, उपहार पर फुसलाया जाना चाहिए और उससे अपनी उचित-अनुचित मनोकामनाओं को पूरा कराया जाना चाहिए। यह स्थापना अनैतिक है, असंगत भी। यदि इतने सस्ते में मनोकामनाएँ पूरी होने लगे, तो सफलता के लिए कोई क्यों परिश्रम करेगा और क्यों पात्रता विकसित करेगा? फिर सभी उद्योग परायण व्यक्ति मूर्ख समझे जाएंगे और देवता की जेब काटकर उल्लू सीधा करने वाले चतुर। यह मान्यता यदि सही रही होती, तो देव पूजा में अधिकांश समय बिताने वाले पंडित, पुजारी, साधु, बाबाजी अब तक उच्चकोटि की उपलब्धियाँ प्राप्त कर सकने की स्थिति में पहुँच गये होते। जबकि उनमें से अधिकांश सामान्य जनों से भी गई गुजरी स्थिति में देखे जाते हैं। इसी प्रकार तंत्र-मंत्र के फेर में पड़े रहने वाले आतुर और भावुक व्यक्ति बड़ी-बड़ी आशा अभिलाषाएं संजोएँ रहते हैं। समय बीतता जाता है और सफलता के दर्शन नहीं होते, तो फिर वे निराश होने लगते हैं। प्रयास बंद कर देते हैं। अध्यात्म अवलम्बन का उलाहना देते हैं और लगभग नास्तिक स्तर के बन जाते हैं।
यह दु:खद परिस्थिति इसलिए उत्पन्न होती है कि उन्होंने आत्म-विज्ञान का तत्त्वदर्शन समझने से पूर्व आतुरता वश मात्र कर्मकाण्ड आरंभ कर दिये और बालू के महल बनाने लगे। जबकि होना यह चाहिए था कि बीज से वृक्ष उत्पन्न होने के सिद्धांत के साथ जुड़े हुए अन्य तथ्यों को भी समझते और उन पर समुचित ध्यान देते। बीज से वृक्ष बनने की बात सच है। साधना से सिद्धि मिलने की भी, परन्तु आदि और अंत को अपना लेना एवं बीच का विस्तार उपेक्षित कर देना सही नीति नहीं है। बीज को ऊर्वर भूमि, खाद और पानी तीनों का सुयोग मिलना चाहिए, वह अंकुरित होगा, बढ़ेगा और फूलेगा-फलेगा।
इतना किये बिना बीज से वृक्ष बना देने की जादूगरी कोई बाजीगर ही कर सकता है, यह उसी का काम है। हथेली पर सरसों जमाना। किसान वैसा नहीं करते। जादूगर रुपये बरसाकर दर्शकों को चकित कर सकते हैं, पर व्यवसायी जानते हैं कि यदि ऐसा संभव रहा होता, तो यह बाजीगर करोडग़ति हो गये होते और किसी को परिश्रम करके व्यवसाय संलग्ïन रहने की आवश्यकता न पड़ती। चलने पर ही रास्ता पूरा होता है। आत्मिक प्रगति, जिसे कोई चाहे तो देव अनुग्रह भी कह सकता है, जीवन को परिष्कृत करने की प्राथमिक आवश्यकता को पूरा किए बिना पकड़ में नहीं आ सकती।
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