जीवन का महत्व समझा जाना चाहिए। भगवान के इस धरोहर का उन्हीं प्रयोजनों में उपयोग करना चाहिए जिसके लिए वह मिली है। जीवात्मा की दूरदर्शिता एवं प्रामाणिकता इस आधार पर परखी गई है कि वह इस अनुदान का कितनी जिम्मेदारी ईमानदारी के साथ उपयोग कर सका। परीक्षा में उत्तीर्ण होने वालों की पदोन्नति होती है। जीवन सम्पदा के सदुपयोग की कसौटी पर खरे उतरने वालों को महामानव, सिद्ध पुरुष, ऋषि, जीवन मुक्त देवदूत जैसे उच्च बनने का श्रेय सौभाग्य मिलता है।।
जीवन अनगढ़ रूप में सौंपा गया है। उसे परिष्कृत, सुसंस्कृत बनाने का उत्तरदायित्व मनुष्य का है। उसी के निर्वाह को जीवन साधना कहते हैं। जीवन भी अनगढ़ मिला है। उसके साथ जन्म जन्माँतरों के सुसंस्कार चिपके हैं, इन्हें छुड़ाया जाना आवश्यक है। उठने बैठने के लिए बहुत कुछ सीखना पड़ता है। सामान्य योग्यता से शरीर यात्रा भर निभती है। आत्मशोधन और आत्म परिष्कार की दो प्रक्रियाएँ अपनाने का नाम जीवन साधना है। आकर्षक आभूषण और महत्वपूर्ण उपकरण बनाने वाली भट्टियों में अनगढ़ को गलाने और उपयोगी ढालने का क्रम चलता है। ऐसा ही आँतरिक कायाकल्प करने का प्रचण्ड पुरुषार्थ मनुष्य को भी करना पड़ता है। इसी को जीवन साधना कहते हैं।
दैवी अनुदान प्राप्त करने के लिए पात्रता प्रामाणिकता, पवित्रता एवं प्रखरता अनिवार्य रूप से आवश्यक है। नेत्र न हो तो इस प्रासाद, वैभव को देखा कैसे जाय ? कान बहरे हों तो मधुर संगीत एवं परामर्श कैसे सुने जायँ ? खिड़कियां बन्द हों तो घर में सूर्य की रोशनी और हवा की ताजगी को प्रवेश कैसे मिले ? उच्चस्तरीय प्रगति के लिए चिन्तन और चरित्र की, गुण कर्म स्वभाव की, विशिष्टता चाहिये ही यह विभूतियाँ अनायास ही किसी को नहीं मिलतीं इसके लिये प्रबल पुरुषार्थ करना पड़ता है। जीवन साधना का यही स्वरूप है।
जीवन अनगढ़ रूप में सौंपा गया है। उसे परिष्कृत, सुसंस्कृत बनाने का उत्तरदायित्व मनुष्य का है। उसी के निर्वाह को जीवन साधना कहते हैं। जीवन भी अनगढ़ मिला है। उसके साथ जन्म जन्माँतरों के सुसंस्कार चिपके हैं, इन्हें छुड़ाया जाना आवश्यक है। उठने बैठने के लिए बहुत कुछ सीखना पड़ता है। सामान्य योग्यता से शरीर यात्रा भर निभती है। आत्मशोधन और आत्म परिष्कार की दो प्रक्रियाएँ अपनाने का नाम जीवन साधना है। आकर्षक आभूषण और महत्वपूर्ण उपकरण बनाने वाली भट्टियों में अनगढ़ को गलाने और उपयोगी ढालने का क्रम चलता है। ऐसा ही आँतरिक कायाकल्प करने का प्रचण्ड पुरुषार्थ मनुष्य को भी करना पड़ता है। इसी को जीवन साधना कहते हैं।
दैवी अनुदान प्राप्त करने के लिए पात्रता प्रामाणिकता, पवित्रता एवं प्रखरता अनिवार्य रूप से आवश्यक है। नेत्र न हो तो इस प्रासाद, वैभव को देखा कैसे जाय ? कान बहरे हों तो मधुर संगीत एवं परामर्श कैसे सुने जायँ ? खिड़कियां बन्द हों तो घर में सूर्य की रोशनी और हवा की ताजगी को प्रवेश कैसे मिले ? उच्चस्तरीय प्रगति के लिए चिन्तन और चरित्र की, गुण कर्म स्वभाव की, विशिष्टता चाहिये ही यह विभूतियाँ अनायास ही किसी को नहीं मिलतीं इसके लिये प्रबल पुरुषार्थ करना पड़ता है। जीवन साधना का यही स्वरूप है।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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