बुधवार, 17 अप्रैल 2019

👉 सकारात्मक सोच:--

पुराने समय की बात है, एक गाँव में दो किसान रहते थे। दोनों ही बहुत गरीब थे, दोनों के पास थोड़ी थोड़ी ज़मीन थी, दोनों उसमें ही मेहनत करके अपना और अपने परिवार का गुजारा चलाते थे।

अकस्मात कुछ समय पश्चात दोनों की एक ही दिन एक ही समय पे मृत्यु हो गयी। यमराज दोनों को एक साथ भगवान के पास ले गए। उन दोनों को भगवान के पास लाया गया। भगवान ने उन्हें देख के उनसे पूछा, ” अब तुम्हे क्या चाहिये, तुम्हारे इस जीवन में क्या कमी थी, अब तुम्हें क्या बना के मैं पुनः संसार में भेजूं।”

भगवान की बात सुनकर उनमे से एक किसान बड़े गुस्से से बोला, ” हे भगवान! आपने इस जन्म में मुझे बहुत घटिया ज़िन्दगी दी थी। आपने कुछ भी नहीं दिया था मुझे। पूरी ज़िन्दगी मैंने बैल की तरह खेतो में काम किया है, जो कुछ भी कमाया वह बस पेट भरने में लगा दिया, ना ही मैं कभी अच्छे कपड़े पहन पाया और ना ही कभी अपने परिवार को अच्छा खाना खिला पाया। जो भी पैसे कमाता था, कोई आकर के मुझसे लेकर चला जाता था और मेरे हाथ में कुछ भी नहीं आया। देखो कैसी जानवरों जैसी ज़िन्दगी जी है मैंने।”

उसकी बात सुनकर भगवान कुछ समय मौन रहे और पुनः उस किसान से पूछा, ” तो अब क्या चाहते हो तुम, इस जन्म में मैं तुम्हे क्या बनाऊँ।”

भगवान का प्रश्न सुनकर वह किसान पुनः बोला, ” भगवन आप कुछ ऐसा कर दीजिये, कि मुझे कभी किसी को कुछ भी देना ना पड़े। मुझे तो केवल चारो तरफ से पैसा ही पैसा मिले।”

अपनी बात कहकर वह किसान चुप हो गया। भगवान से उसकी बात सुनी और कहा, ” तथास्तु, तुम अब जा सकते हो मैं तुम्हे ऐसा ही जीवन दूँगा जैसा तुमने मुझसे माँगा है।”

उसके जाने पर भगवान ने पुनः दूसरे किसान से पूछा, ” तुम बताओ तुम्हे क्या बनना है, तुम्हारे जीवन में क्या कमी थी, तुम क्या चाहते हो?”

उस किसान ने भगवान के सामने हाथ जोड़ते हुए कहा, ” हे भगवन। आपने मुझे सबकुछ दिया, मैं आपसे क्या मांगू। आपने मुझे एक अच्छा परिवार दिया, मुझे कुछ जमीन दी जिसपे मेहनत से काम करके मैंने अपना परिवार को एक अच्छा जीवन दिया। खाने के लिए आपने मुझे और मेरे परिवार को भरपेट खाना दिया। मैं और मेरा परिवार कभी भूखे पेट नहीं सोया। बस एक ही कमी थी मेरे जीवन में, जिसका मुझे अपनी पूरी ज़िन्दगी अफ़सोस रहा और आज भी हैं। मेरे दरवाजे पे कभी कुछ भूखे और प्यासे लोग आते थे। भोजन माँगने के लिए, परन्तु कभी कभी मैं भोजन न होने के कारण उन्हें खाना नहीं दे पाता था, और वो मेरे द्वार से भूखे ही लौट जाते थे। ऐसा कहकर वह चुप हो गया।”

भगवान ने उसकी बात सुनकर उससे पूछा, ” तो अब क्या चाहते हो तुम, इस जन्म में मैं तुम्हें क्या बनाऊँ।” किसान भगवान से हाथ जोड़ते हुए विनती की, ” हे प्रभु! आप कुछ ऐसा कर दो कि मेरे द्वार से कभी कोई भूखा प्यासा ना जाये।” भगवान ने कहा, “तथास्तु, तुम जाओ तुम्हारे द्वार से कभी कोई भूखा प्यासा नहीं जायेगा।”

अब दोनों का पुनः उसी गाँव में एक साथ जन्म हुआ। दोनों बड़े हुए।
पहला व्यक्ति जिसने भगवान से कहा था, कि उसे चारो तरफ से केवल धन मिले और मुझे कभी किसी को कुछ देना ना पड़े, वह व्यक्ति उस गाँव का सबसे बड़ा भिखारी बना। अब उसे किसी को कुछ देना नहीं पड़ता था, और जो कोई भी आता उसकी झोली में पैसे डालके ही जाता था।

और दूसरा व्यक्ति जिसने भगवान से कहा था कि उसे कुछ नहीं चाहिए, केवल इतना हो जाये की उसके द्वार से कभी कोई भूखा प्यासा ना जाये, वह उस गाँव का सबसे अमीर आदमी बना।

दोस्तों ईश्वर ने जो दिया है उसी में संतुष्ट होना बहुत जरुरी है। अक्सर देखा जाता है कि सभी लोगों को हमेशा दूसरे की चीज़ें ज्यादा पसंद आती हैं और इसके चक्कर में वो अपना जीवन भी अच्छे से नहीं जी पाते। मित्रों हर बात के दो पहलू होते हैं –

सकारात्मक और नकारात्मक, अब ये आपकी सोच पर निर्भर करता है कि आप चीज़ों को नकारत्मक रूप से देखते हैं या सकारात्मक रूप से। अच्छा जीवन जीना है तो अपनी सोच को अच्छा बनाइये, चीज़ों में कमियाँ मत निकालिये बल्कि जो भगवान ने दिया है उसका आनंद लीजिये और हमेशा दूसरों के प्रति सेवा भाव रखिये!!!

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 17 April 2019


👉 आज का सद्चिंतन 17 April 2019


👉 विद्या से विनय- Vidhya Se Vinay

महर्षि आरुणि के पुत्र श्वेतकेतु ने गुरुकुल में रहकर लगन के साथ विद्याध्ययन किया। साथ ही गुरु-सेवा से उनके कृपा पात्र भी बन गये। यद्यपि गुरु को अपने सभी शिष्य प्रिय थे तथापि अपने सेवा बल से श्वेतकेतु ने विशेषता प्राप्त करली थी। गुरु सेवा की कृपा से जहाँ उन्होंने शीघ्र ही चारों वेदों का अखण्ड ज्ञान प्राप्त कर लिया था। वहाँ गुरु की प्रशंसा और प्रियता के कारण उनमें कुछ अहंकार भी आ गया था। अपने पाण्डित्य के अभिमान में गुरु के सिवाय अन्य किसी का आदर करना ही भूल गये।

निदान श्वेतकेतु जब गुरु का आशीर्वाद और चारों वेदों का सम्पूर्ण ज्ञान लेकर घर आये तो अहंकारवश पिता को भी प्रणाम नहीं किया। उनके पिता महर्षि आरुणि को इसका बड़ा दुःख हुआ। दुःख इसलिये नहीं कि वे पुत्र के प्रणाम के भूखे थे और श्वेतुकेतु ने उन्हें प्रणाम नहीं किया। वरन् दुःख इसलिये हुआ कि पुत्र एक लम्बी अवधि के बाद जहाँ ज्ञानी वहाँ अभिमानी भी होकर आया है।

महर्षि आरुणि पुत्र की इस वृत्ति से चिन्तित हो उठे। क्योंकि वे जानते थे कि जिस विद्या के साथ विनय नहीं रहती वह न तो फलीभूत होती है और न आगे विकसित! उन्होंने पुत्र के हित में उसका यह विकार दूर करने के मन्तव्य से व्यंगपूर्वक कहा— “ऋषिवर ! आपने ऐसी कौन ज्ञान की गूढ़ पुस्तक पढ़ ली है जो गुरुजनों का आदर तक करना भूल गये। मानता हूँ आप बहुत बड़े विद्वान हो गये। चारों वेदों का ज्ञान आपने प्राप्त कर लिया है। किन्तु इसके साथ यह भी जानते होंगे कि विद्या का सच्चा स्वरूप विनय है। जब आप वही न सीख पाये विद्वान कैसे?

पिता की बात सुन कर श्वेतकेतु ने अपनी भूल अनुभव की और लज्जित होकर पिता के चरणों में गिर गये। महर्षि आरुणि ने श्वेतकेतु को उठाकर छाती से लगा लिया और कहा— ”अभिमान तुम्हें नहीं, अपने पुत्र की विद्वता पर अभिमान तो मुझे होना चाहिये था।”

👉 The Absolute Law Of Karma (Part 7)

HOW DOES CHITRAGUPTA MAINTAIN THE RECORD?

In the realm of God of Divine Law (Dharmaraj), the decorations of the exterior world have no values. There only the interior worth is evaluated. It hardly matters whether externally an action of a person appears good or bad. The determining factor is the interior or emotional input. The roots of vice and virtue unquestionably lie in the motives and intensity of emotions and not in the external deeds. In the foregoing paragraphs we have discussed how the deity Chitragupta living intimately associated with our inner lives (Pranas), impartially records our good and bad deeds on the sub-microscopic elements of our inner conscience and that this subtle recording is popularly known as the “Lines of Fate” (Karma Rekha). We have also understood that the process of divine justice does not regard an act as sinful or virtuous by the external appearance of the activity but on the basis of the quality of the motive of the doer. The intensity of motive is directly proportional to the gravity or greatness of the sin or virtue respectively.

Take the case of two individuals nursing a sick person. Apparently both are engaged in the same service, but whereas one is doing it indifferently, the other serves with tenderness, sympathy, large-heartedness and love. Here, in spite of apparently identical service, the measure of virtue will depend on the quality of emotional involvement and love. Similarly, amongst two thieves, one of which is compelled to steal because of starvation and the other steals for acquiring drugs, the sin will undoubtedly be considered greater in the latter case.

deeds on the sub-microscopic elements of our inner conscience and that this subtle recording is popularly known as the “Lines of Fate” (Karma Rekha). We have also understood that the process of divine justice does not regard an act as sinful or virtuous by the external appearance of the activity but on the basis of the quality of the motive of the doer. The intensity of motive is directly proportional to the gravity or greatness of the sin or virtue respectively. Take the case of two individuals nursing a sick person. Apparently both are engaged in the same service, but whereas one is doing it indifferently, the other serves with tenderness, sympathy, large-heartedness and love. Here, in spite of apparently identical service, the measure of virtue will depend on the quality of emotional involvement and love.

Similarly, amongst two thieves, one of which is compelled to steal because of starvation and the other steals for acquiring drugs, the sin will undoubtedly be considered greater in the latter case. hell depend on the state of consciousness i.e. wisdom of the being. If accused of bribery, a peon, a clerk and a juror will receive three different types of punishment. The peon may be acquitted after a serious reprimand, the clerk may be temporarily suspended from the service; but having been entrusted with a great responsibility, the juror cannot escape dismissal. Take one more example. A primitive tribesman hunts and kills animals for his daily meal. On the other hand, a priest preaching virtues of non-violence secretly consumes non-vegetarian food. In Divine Jurisprudence, the priest will add greater sin to his account than the tribesman. Here the states of awareness and morality are being considered for evaluation of the merit or demerit of the deed. As the soul becomes more evolved with acquisition of greater wisdom and morality, the inner conscience (Antaha Chetna) becomes more and more awakened and refined.

.... to be continue
✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya
📖 The Absolute Law Of Karma Page 14

👉 याज्ञवल्क्य- मैत्रेयी संवाद

महर्षि याज्ञवल्क्य अपनी सम्पत्ति दोनों पत्नियों में बराबर- बराबर बांटकर गृहत्याग के लिए उद्यत मैत्रेयी' को '' संतोष नहीं हुआ।वह पूछ ही बैठी-। ' '' भगवन्। क्या मै इस सबको ले जीव इस सबको ले जीव मुक्ति का लाभ प्राप्त कर सकूँगी' महर्षि ने कहा- ' '' साधन- सुविधा सम्पन्न सुखी जीवन जैसा अब तक चला है आगे भी चलता रहेगा और अन्य सांसारिक लोगों की तरह तुम भी जीवन सुखमय बिता सकोगी।

मैत्रेयी का अन्तर्द्वन्द्व शान्त नहीं हुआ, वे बोली-

येनाहंनामृता स्याम् किमहं तेन कुर्याम्।

''जिससे मुझे अमरत्व प्राप्त न उसे लेकर मैं क्या करूंगी? यह पूछा जाने पर कि वे क्या चाहती हैं- मैत्रेयी ने महर्षि के चरणों में शीश झुकाते हुए कहा-

'' 'असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, '' मृत्योर्माऽमृतं गमय।' ''

''हे प्रभो! रुद्र बनकर मेरे अन्त : के अन्धकार को नष्ट कर''। मुझे भी आप अपने आत्मिक पुरुषार्थ का सहभागी बनायें।''

कात्यायनी ने भौतिक सुख सम्पत्ति- ऐश्वर्य को वरीयता दी और उसे पाया। मैत्रेयी चाहती थी उस परम- तत्व का साक्षात्कार, एकानुभूति, नित्य- दर्शन जो सत्य, ज्योतिर्मय स्वरूप है, जो उसके जीवन का चिर प्रकाश बन सके। याज्ञवल्क्य ने प्रसन्नचित्त हो मैत्रेयी को ब्रह्मज्ञान की शिक्षा दी। उसे पति के साथ श्रेष्ठ ऋषि पद मिला।

हम भी जीवन भर नाना प्रकार के ऐश्वर्य एकत्र करते हैं व अन्त : में स्थित '' मैत्रेयी कात्यायनी '' को सौंपते हुए कहते हैं- लो। इससे तुम्हें प्रसन्नता होगी, आनन्द मिलेगा, किन्तु अन्त : में बैठी यह मैत्रेयी आत्मिक प्रगति की ओर अग्रसर व्यक्ति से पूछती है- '' येनाहं नामृता स्याम् किमहं तेन कुर्याम्?' इस प्रार्थना को हम एकाग्रता के साथ सुनें व उसकी इच्छा पूर्ति करें तो कोई कारण नहीं कि यह जीवन अमृतमय न बन जाय।

📖 प्रज्ञा पुराण भाग 1

👉 प्रज्ञा पुराण (भाग 1 द्वितीयोSध्याय) श्लोक 16 से 20

साश्चर्यस्यासमञ्जस्य कारणं किं भवेदहो।
न सामान्यं धियामेतज्ज्ञातव्यं तु प्रतीयते ॥१६॥
हेतुना सरहस्येन भवितव्यमिह ध्रुवम्।
हेतुमेनं तु विज्ञातुमिच्छास्माकं प्रजायते ॥१७॥
महाप्राज्ञो भवाँस्तत्ववेत्ता कालत्रयस्य च।
द्रष्टाऽमिवज्ञातगुह्यानां ज्ञाता ग्रन्थिं विमोचय ॥१८॥
इदं ज्ञातुं वयं सर्वे त्वातुराश्च समुत्सुका:।
अष्टावक्रस्य जिज्ञासां श्रुत्वा तु ब्रह्मज्ञानिन: ॥१९॥
महाप्राज्ञ: पिप्पलाद: गम्भीरं प्रश्नमन्वभूत्।
प्रशशंस च प्रश्नेऽस्मिन्नवदच्च ततःस्वयम्॥२०॥

टीका- इस आश्चर्य भरे असमंजस का क्या कारण हो सकता है, यह सामान्य बुद्धि की समझ से बाहर की बात है। इसके पीछे कोई रहस्यमय कारण होना चाहिए। इस कारण को जानने की हम सबको बड़ी इच्छा है। आप महाप्राज्ञ है, तत्ववेत्ता है त्रिकालदर्शी हैं अविज्ञात रहस्यों को समझने वाले हैं। कृपया इस गुत्थी को सुलझाइये। हम सब यह जानने के लिए आतुरतापूर्वक इच्छुक हैं। ब्रह्मज्ञानी अष्टावक्र जी की जिज्ञासा सुनकर महाप्राज्ञ पिप्पलाद ने प्रश्न की गम्भीरता अनुभव की। प्रश्न उभारने के लिए उन्हें सराहा और कहा॥१६-२०॥

व्याख्या- यदि यह प्रकरण सामान्य चर्चा से सुलझने जैसा होता तो प्रज्ञासत्र में इस जिज्ञासा को उठाये जाने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती। यह ऋषि-कालीन परम्परा है कि ऐसे असाधारण-मानवी गरिमा से जुड़े प्रश्नों पर तत्वज्ञान के मर्मज्ञ महाप्राज्ञों से समाधान पूछे जाते रहे हैं एवं तदनुसार अदृश्य, सूक्ष्म जगत में वातावरण बजाया जाता रहा है। जनक एवं याज्ञवस्थ्य तथा काकभुशुण्डि एवं गरुड़ सम्वाद भी इसी प्रयोजन से सम्पन्न हुए हैं। सूत-शौनक सम्वाद के माध्यम से आर्ष ग्रन्थकार ने कथोपकथन से अनेकानेक समस्याएँ उभारी व सुलझाई हैं।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 प्रज्ञा पुराण (भाग १) पृष्ठ 40

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...