शनिवार, 25 जनवरी 2020

👉 कर्तव्यपालन का अपूर्व उदाहरण


👉 सत्संग

एक शिष्य ने अपने गुरुदेव से पूछा- "गुरुदेव, आपने कहा था कि धर्म से जीवन का रूपान्तरण होता है। लेकिन इतने दीर्घ समय तक आपके चरणों में रहने के बावजूद भी मैं अपने रूपान्तरण को महसूस नहीं कर पा रहा हूँ, तो क्या धर्म से जीवन का रूपान्तरण नहीं होता है?"

गुरुदेव मुस्कुराये और उन्होंने बतलाया- "एक काम करो, थोड़ी सी मदिरा लेकर आओ।" शिष्य चौंक गया पर फिर भी शिष्य उठ कर गया और लोटे में मदिरा लेकर आया।

गुरुदेव ने शिष्य से कहा- "अब इससे कुल्ला करो।" मदिरा को लोटे में भरकर शिष्य कुल्ला करने लगा। कुल्ला करते-करते लोटा खाली हो गया।

गुरुदेव ने पुछा- "बताओ तुम्हें नशा चढ़ा या नहीं?"

शिष्य ने कहा- "गुरुदेव, नशा कैसे चढ़ेगा? मैंने तो सिर्फ कुल्ला ही किया है। मैंने उसको कंठ के नीचे उतारा ही नहीं, तो नशा चढ़ने का सवाल ही पैदा नहीं होता।

इस पर संत ने कहा- "इतने वर्षो से तुम धर्म का कुल्ला करते आ रहे हो। यदि तुम इसको गले से नीचे उतारते तो तुम पर धर्म का असर पड़ता।

जो लोग केवल सतही स्तर पर धर्म का पालन करते हैं। जिनके गले से नीचे धर्म नहीं उतरता, उनकी धार्मिक क्रियायें और जीवन-व्यवहार में बहुत अंतर दिखाई पड़ता है। वे मंदिर में कुछ होते हैं, व्यापार में कुछ और हो जाते है। वे प्रभु के चरणों में कुछ और होते हैं एवं अपने जीवन-व्यवहार में कुछ और, धर्म ऐसा नहीं हैं, जहाँ हम बहुरूपियों की तरह जब चाहे जैसा चाहे वैसा स्वांग रच ले। धर्म स्वांग नहीं है, धर्म अभिनय नहीं है, अपितु धर्म तो जीने की कला है, एक श्रेष्ठ पद्धति है।।"

👉 QUERIES ABOUT GAYATRI YAGYA (Part 1)

Q.1. What is the significance of Yagya in spirituality?              
Ans. Gayatri has been regarded as the mother and, Yagya as father of Indian spiritual tradition. Yagya finds place in all sacred and auspicious ceremonies in Indian culture. In Gayatri Upasana too, it is essential. The number of oblations in Havan may preferably be one-tenth of the number of  Japs in an Anusthan or Purascharan. However, if it is not found convenient, one-tenth of this number would also suffice.
  
The spiritual birth of a human being who is otherwise born as any other animal, takes place on his initiation by a Guru, whereafter he becomes a Dwij with Yagya and Gayatri as his parents. It, therefore, becomes obligatory for him to serve his spiritual parents.   

Scriptures prescribe daily ritual of Balivaishwa which means initially offering a small morsel of everyday food as an oblation to fire. (Saying a prayer at the dining table too is a variant of this ritual)  Poornahuti and Brahmabhoj are essential at the end of the Yagya. If one is not able to participate in a Yagya on account of some contingency, a coconut may be offered as oblation as Poornahuti somewhere else, where a large Yagya is being performed.

✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya
📖 Gayatri Sadhna truth and distortions Page 63

👉 वासन्ती हूक, उमंग और उल्लास यदि आ जाए जीवन में (भाग ३)

शक्तिपात कैसे कर दिया? शक्तिपात क्या होता है? शक्तिपात को मामूली तौर पर समझते हैं कि गुरु की आँखों में से, शरीर में से बिजली का करेन्ट आता है और चेले में बिजली छू जाती है और चेला काँप जाता है। वस्तुतः यह कोई शक्तिपात नहीं है और शारीरिक शक्तिपात से कोई बनता भी नहीं। शक्तिपात कहते हैं चेतना का शक्तिपात, चेतना में शक्ति उत्पन्न करने वाला। चेतना की शक्ति भावनाओं के रूप में, संवेदनाओं के रूप में दिखाई पड़ती है, शरीर में झटके नहीं मारती। इसका सम्बन्ध चेतना से है, हिम्मत से है। चेतना की उस शक्ति का ही नाम हिम्मत है, जो सिद्धान्तों को, आदर्शों को पकड़ने के लिए जीवन में काम आती है। इसके लिए ऐसी ताकत चाहिए जैसी कि मछली में होती है। मछली पानी की धारा को चीरती हुई, लहरों को फाड़ती हुई उलटी दिशा में छलछलाती हुई बढ़ती जाती है।

यही चेतना की शक्ति है, यही ताकत है। आदर्शों को जीवन में उतारने में इतनी कमजोरियाँ आड़े आती हैं, जिन्हें गिनाया नहीं जा सकता। लोभ की कमजोरी, मोह की कमजोरी, वातावरण की कमजोरी, पड़ोसी की कमजोरी, मित्रों की कमजोरी—इतनी लाखों कमजोरियों को मछली के तरीके से चीरता हुआ जो आदमी आगे बढ़ सकता है, उसे मैं अध्यात्म दृष्टि से शक्तिवान कह सकता हूँ। मेरे गुरु ने मुझे इसी तरीके से शक्तिवान बनाया। बीस वर्ष की उम्र में तमाम प्रतिबन्धों के बावजूद मैं घर से निकल गया और काँग्रेस में भर्ती हो गया। थोड़े दिनों तक उसी का काम करता रहा फिर जेल चला गया। इसे कहते हैं हिम्मत और जुर्रत, जो सिद्धान्तों के लिए, आदर्शों के लिए आदमी के अन्दर एक जुनून पैदा करती है, समर्थ पैदा करती है कि हम आदर्शवादी होकर जियेंगे। इसी का नाम शक्तिपात है।

शक्तिपात कैसे होता है, इसका एक उदाहरण मीरा का है। वह घर में बैठी रोती रहती थी। घर वाले कहा करते थे कि तुम्हें हमारे खानदान की बात माननी पड़ेगी और तुम घर से बाहर नहीं जा सकती। मीरा ने गोस्वामी तुलसीदास को एक चिट्ठी लिखी कि इन परिस्थितियों में हम क्या कर सकते हैं? गोस्वामी जी ने कहा—परिस्थितियाँ तो ऐसी ही रहती हैं। दुनिया में परिस्थितियाँ किसी की नहीं बदलतीं। आदमी की मनःस्थिति बदल दें तो परिस्थितियाँ बदल जाएँगी। चिट्ठी तो क्या उन्होंने एक कविता लिखी मीरा को—
‘जाके प्रिय न राम वैदेही।
तजिए ताहि कोटि बैरी सम यद्यपि परम सनेही।।’

यह कविता नहीं शक्तिपात था। शक्तिपात के सिद्धान्तों को पक्का करने के लिए यह मुझे बहुत पसन्द आती है और जब तब मेरा मन होता है, उसे याद करता रहता हूँ और हिम्मत से, ताकत से भर जाता हूँ। मुझमें असीम शक्ति भरी हुई है। सिद्धान्तों को पालने के लिए, हमने सामने वाले विरोधियों, शंकराचार्यों, महामण्डलेश्वरों और अपने नजदीक वाले मित्रों—सभी का मुकाबला किया है। सोने की जंजीरों से टक्कर मारी है। जीवनपर्यन्त अपने लिए, आपके लिए, समाज के लिए, सारे विश्व के लिए, महिलाओं के लिए, अधिकारों के लिए मैं अकेला ही टक्कर मारता चला गया। अनीति से संघर्ष करने के लिए युग-निर्माण का, विचार-क्रान्ति का सूत्रपात किया। इस मामले में हम राजपूत हैं। हमारे भीतर परशुराम के तरीके से रोम-रोम में शौर्य और साहस भर दिया गया है। हम महामानव हैं। कौन-कौन हैं? बता नहीं सकते हम कौन हैं? ये सारी की सारी चीजें वहाँ से हुईं, जो मुझे गुरु ने शक्तिपात के रूप में दी, हिम्मत के रूप में दीं।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 परमात्मा की प्रतीति

परमात्मा की प्रतीति प्रेम में होती है। यही उसकी सत्ता का सत्य है। इसी में उसकी शक्ति समाहित है। परमात्मा की अभिव्यक्ति का द्वार प्रेम के सिवा और कुछ भी नहीं है। जहाँ जितने अंशों में प्रेम है, समझो वहाँ उतने ही अंशों में परमात्मा है। आखिरकार यही तो परमात्मा की उपस्थिति का प्रकाश है।
  
याद रहे, जब कभी हमारा हृदय प्रेम से रोता रहता है, तब हम परमात्मा से विमुख होते हैं। यही कारण है कि जब भी हमारा मन क्रोध से भरता है, घृणा से भरता है, तभी हम स्वयं को अशक्त अनुभव करते हैं। क्योंकि उन क्षणों में परमात्मा से हमारे सम्बन्ध क्षीण हो जाते हैं। इसीलिए तो क्रोध में, घृणा में, द्वेष में दुःख और संताप पैदा होते हैं। संताप की मनोदशा केवल सर्व की सत्ता से पृथक् होने से होती है।
  
जबकि प्रेम हमारे सम्पूर्ण अस्तित्व को आनन्द से भर देता है। एक ऐसी भावदशा जन्मती है, जहाँ शान्ति का संगीत और करुणा की सुगन्धि हिलोरें लेती है। ऐसा केवल इसलिए है, क्योंकि प्रेम पूर्ण हृदय स्वाभाविक ही प्रभु के निकट होता है। क्योंकि प्रेम पूर्ण हृदय अपने आप ही परमात्मा के हृदय में स्थान पा लेता है और हम नहीं रह जाते, बल्कि प्रभु ही हमसे प्रकट होने लगते हैं।
  
इस सम्बन्ध में बड़ी मीठी कथा है। बंगाल के संत विजयकृष्ण गोस्वामी अपने शिष्य कुलदानन्द के साथ वृन्दावन में विचरण कर रहे थे। तभी राह में एक व्यक्ति ने आकर कुलदानन्द को रोक लिया और उनका अपमान करने लगा। पहले तो कुलदानन्द ने बड़ी शान्ति से उसके दुर्वचन सुने। उनकी आँखों में प्रेम और प्रार्थना बनी रही। लेकिन यह स्थिति देर तक न रह सकी। अंततः कुलदानन्द का धैर्य चुक गया और उनकी आँखों में घृणा और प्रतिशोध का ज्वार उमड़ने लगा। उनकी वाणी से भी दहकते अंगारे बरसने लगे।
  
संत विजयकृष्ण गोस्वामी अब तक यह सब शान्ति से बैठे देख रहे थे। अचानक वह उठे और एक ओर चल दिये। कुलदानन्द को उनके इस तरह चले जाने पर अचरज हुआ। बाद में उन्होंने अपने गुरु से इसका उलाहना दिया। अपने शिष्य के इस उलाहने पर संत विजयकृष्ण गोस्वामी ने गम्भीर होकर कहा-उस व्यक्ति के बुरे व्यवहार के प्रत्युत्तर में जब तक तुम शान्ति एवं प्रेम से भरे थे, तब तक प्रभु के पार्षद तुम्हारी रक्षा कर रहे थे। परन्तु ज्यों ही तुमने प्रेम व शान्ति का परित्याग कर क्रोध व घृणा का सहारा लिया, वे प्रभु पार्षद तुम्हें छोड़कर चले गये। और जब परमात्मा ने ही तुम्हारा साथ छोड़ दिया, तब भला मैं तुम्हारे साथ कैसे रह सकता था।

✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 जीवन पथ के प्रदीप से पृष्ठ १६८

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Sep 2024

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