मंगलवार, 3 मई 2022

👉 आंतरिक उल्लास का विकास भाग २४

प्रशंसा का मिठास चखिए और दूसरों को चखाइए

अपनी मनुष्यता को उत्तमोत्तम 'सद्गुणों से सुसज्जित करने के लिए यह आवश्यक है कि उन विशेषता' को अपने में क्रियात्मक रूप से धारण किया जाए। सद्ज्ञानमयी पुस्तकें पढने से, सदुपदेश सुनने से, सत्संग करने से विचारधारा परिमार्जित होती है, यह समझ मे आता है कि सन्मार्ग पर चलना चाहिए। परंतु यदि वे विचार, कार्य रूप में परिणत न हों, मनोभावों का आचरण के साथ समन्वय न हो तो उस जानकारी से लाभ नहीं। वैसे तो हर कोई जानता है कि अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य अपरिग्रह बहुत धर्म कार्य हैं,अनेक ग्रंथों में इनकी महिमा सविस्तार गाई गई है। आप उपरोक्त धर्म लक्षणों को जानते हैं या अमुक  पुस्तक को बार-बार पाठ करके इनकी उपयोगिता को दुहराते है परंतु इतने मात्र से कुछ लाभ नहीं हो सकता, जब तक कि उनको कार्य रूप में प्रयोग करना आरंभ न किया जाए। सत्संग, स्वाध्याय, कथा श्रवण का महात्म इसलिए है कि इनके द्वारा उत्तम आचरण की प्रेरणा मिलती है। यदि वह उद्देश्य सफल न हो, ज्ञान का कर्म के साथ मेल न हो पावे तो कागज के हाथी की तरह वह निरर्थक है। केवल जानकारी होने मात्र से कुछ विशेष लाभ नहीं होता।

अनेक 'सद्गुणों की रचना का प्रयोजन यह है कि लोग इनकी सहायता से आचरण को उत्तम बनावें। यदि आप अनेक शास्त्र पढ लेते हैं, असाधारण ज्ञान संपादन कर लेते हैं किंतु उसको काम में नहीं लाते तो सोने से लदे हुए गधे का उदाहरण उपस्थित करते हैं। गधे की पीठ पर सोना लदा है पर वह स्वयं उससे कोई अच्छा पदार्थ नहीं खरीद सकता,अपनी पद वृद्धि नहीं कर सकता, वह सोना उसके लिए भार रूप है, जब तक लदा है तब .तक बोझ से और अपने को दबाए हुए है:। आपका बढा-चढ़ा ज्ञान दूसरे लोगों को मनोरंजन का साधन हो सकता है पर यदि उस पर अमल नहीं करते तो आपके निजी लाभ का उससे कोई विशेष प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। गणेशजी को पीठ पर लादे फिरने वाला चूहा आखिर चूहा ही रहेगा। ज्ञान की पयोनिधि को अपने अत्यंत समीप रखने पर भी उस बेचारे को विद्या से उत्पन्न होने वाला कोई सुख थोड़े ही प्राप्त होता है।
 
आपने अनेक उत्तम पुस्तकों का स्वाध्याय करके एवं अनेक सुयोग्य व्यक्तियों के समीप रहकर बहुत सारा ज्ञान एकत्रित कर लिया है। हम समझते हैं कि जितना आप जानते हैं उसका एक चौथाई भाग भी क्रिया रूप में ले आवें तो इस जीवन को सब दृष्टियों से सफल बना सकते हैं। इसके विपरीत आप ज्ञान का भण्डार जमा करते जावें और आचरण वैसे ही निम्न कोटि के रखें तो आप में और एक साधारण अशिक्षित व्यक्ति में क्या अंतर रहेगा?

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 आंतरिक उल्लास का विकास पृष्ठ ३६

👉 भक्तिगाथा (भाग १२६)

भक्ति का आचारशास्त्र

श्रुतसेन की भक्तिकथा सभी के मन को भा गयी। सत्संग-सुसंग से भक्ति अंकुरित-पल्लवित-पुष्पित होती है। प्रह्लाद को देवर्षि का सुसंग मिला, जबकि श्रुतसेन ने भक्त प्रह्लाद का सत्संग पाया। इस सुसंग-सत्संग से दोनों के जीवन में भक्ति का प्रवाह प्रवाहित हो उठा। ऐसा पावन प्रवाह जिसमें जीवन के सभी कषाय-कल्मष, सांसारिक भावनाएँ व उनके संस्कार बह गए। बची रह गयीं तो केवल शुद्ध-भावनाएँ व भगवान का पावन नामस्मरण। भक्त प्रह्लाद की कथा तो प्रायः सभी पुराणाचार्यों ने अपने अनूठे अन्दाज में कही है। हाँ! श्रुतसेन की कथा अभी तक केवल देवर्षि नारद के स्मृतिकोष में सुरक्षित थी जिसे उन्होंने इन क्षणों में कहा और इसे सभी ने सुना।

सुनने के साथ सब ने सत्संग की महिमा गुनी और गायी। इसे सुनते-सुनते महर्षि पुलह तो पुलकित हो गए। वे भावविभोर हुए और बोल उठे- ‘‘भक्ति, भक्त और भगवान धन्य हैं और धन्य हैं उनकी कथा-गाथा।’’ इतना कह कर वे चुप हो गए। हालांकि उनके चेहरे के भावों से लग रहा था कि अभी वे और कुछ भी कहना चाहते हैं। इसे देखकर महर्षि क्रतु ने उनसे कहा- ‘‘आप कुछ और बोलें महर्षि! आपकी बातें आशीर्वचन की तरह हैं।’’ ऋषि क्रतु की ये बात सुनकर महर्षि पुलह पहले तो मुस्कराए, फिर कहने लगे- ‘‘सुसंग-सत्संग जितना भक्तिपथ के लिए सहायक हैं, वैसे ही कुसंग इसके लिए उतना ही घातक। भक्तिपथ के पथिक को कुसंग से, कुविचारों से दूर रहना चाहिए।’’

ऋषि क्रतु जब ये बातें कह रहे थे- तब देवर्षि उन्हें ध्यान से देख रहे थे। जब वह चुप हुए तो देवर्षि ने कहा- ‘‘हे ऋषिश्रेष्ठ! आपने तो अपनी बातों में भक्ति का आचारशास्त्र प्रकाशित कर दिया है। मैं अपने इस सूत्र में कुछ ऐसा ही कहना चाह रहा था।’’ ‘‘अवश्य कहें देवर्षि!’’ नारद के कथन के बीच में ही कई स्वर समवेत रूप से उभरे। इसे सुनकर देवर्षि ने कहा- ‘‘आप सब साधुजनों का मत शिरोधार्य है।’’ इतना कहते हुए उन्होंने वीणा के मधुर गुंजन के साथ कहा-

स्त्रीधननास्तिकवैरिचरित्रं न श्रवणीयम्॥ ६३॥
अर्थात् स्त्री, धन, नास्तिक और वैरी का चरित्र नहीं सुनना चाहिए।

देवर्षि का यह सूत्र सुनने के साथ कुछ देर तक नीरव मौन पसरा रहा। थोड़ी देर तक सब चुप बने रहे। फिर अन्ततः देवर्षि ने ही मौन तोड़ते हुए कहा- ‘‘मेरा निवेदन है कि ऋषिश्रेष्ठ क्रतु इस सूत्र पर कुछ कहें।’’ महर्षि क्रतु के मन में इस समय कहने लायक बहुत बातें थीं। देवर्षि के आग्रह ने उनके भावों को उद्वेलित कर दिया। उन्होंने साभिप्राय ब्रह्मर्षि वशिष्ठ की ओर देखा। ब्रह्मर्षि वशिष्ठ ने उनके अभ्रिपाय को समझते हुए कहा- ‘‘हे ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ महर्षि आप सब भाँति से समर्थ व अनुभवी हैं। देवर्षि के इस सूत्र की व्याख्या आप अपने अनुभव के प्रकाश में करें।’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ २४८

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...