बुधवार, 28 अक्टूबर 2020

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग ५७)

ऐसा है, वह घट-घट वासी

महर्षि पतंजलि और गुरुदेव के स्वरों में आमंत्रण के मधुर गीत मुखरित हैं। यह आमंत्रण उनके लिए है, जो अन्तर्यात्रा पथ पर चलने के लिए उत्सुक हैं। अपने आपसे इसी समय पूछिए कि क्या आपमें यह उत्सुकता है? यदि जवाब हाँ है, तो महर्षि पतंजलि एवं ब्रह्मर्षि गुरुदेव आपकी अंगुली थामने के लिए तैयार हैं। ये महायोगिराज आपकी अन्तर्यात्रा को सुगम करने के लिए प्रत्येक सरंजाम जुटाएँगे। बस आपमें श्रद्धा और साहस की सम्पदा होनी चाहिए। ध्यान देने की बात यह है कि ऐसा कुछ आप में है, तो ही आप आमंत्रण के इन गीतों को सुन पाएँगे। तभी इन गीतों की स्वर लहरियाँ आपकी अन्तर्भावना में प्रभु प्रेम का रस घोलेंगी। ऐसा होने पर ही आपकी अन्तर्चेतना में जागरण का महोत्सव मनाया जा सकेगा।    

जीवन को महोत्सव बनाने वाले भगवान् की शरण में जाने के लिए उनकी स्पष्ट धारणा जरूरी है। साधक के मन में यह प्रश्न सदा से कौंधता रहा है—उन सर्वेश्वर का स्वरूप क्या है?  इस सवाल के जवाब में महर्षि अगला सूत्र कहते हैं-
क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः 
पुरुषविशेष ईश्वरः॥ १/२४॥
क्लेशकर्मविपाकाशयै= क्लेश, कर्म, विपाक और आशय- इन चारों से, अपरामृष्टः = जो सम्बन्धित नहीं है (तथा), पुरुषविशेषः = जो समस्त पुरुषों में उत्तम है, वह  ईश्वरः = ईश्वर है।

अर्थात् ईश्वर सर्वोत्कृष्ट है। वह दिव्य चेतना की वैयक्तिक इकाई है। वह जीवन के दुःखों से तथा कर्म उसके परिणाम से अछूता है।
    
अध्यात्म विज्ञान के महावैज्ञानिक महर्षि पतंजलि ईश्वर को बड़ी स्पष्ट रीति से परिभाषित करते हैं। यह परिभाषा साधकों के लिए आवश्यक ही नहीं, बल्कि अनिवार्य भी है। क्योंकि यह ऐसा शब्द है, ऐसा सत्य है जिसके बारे में ज्यादातर लोग भ्रमित हैं। शास्त्र, पुराण, धर्म, मजहब सबने मिलकर ईश्वर की अनेकों धारणाएँ गढ़ी है। कोई तो उसे सातवें आसमान में खोजता है, तो कोई मन्दिरों, पूजागृहों में ढूँढता है। कोई उसकी कल्पना मानवीय रूप में करता है, तो कोई आकार विहीन मानता है। बड़ी जहमत है-किसे कहें सही और किसे ठहराएँ गलत। सामान्य जनों की बात तो जाने दें, अध्यात्मवेत्ताओं तक का मन इस बारे में साफ नहीं है। वे भी कई तरह की भ्रान्तियों में उलझे हैं।
    
महर्षि पतंजलि अपने इस सूत्र में सभी की सभी तरह की भ्रान्तियों का एक साथ निराकरण करते हैं। वह कहते हैं कि पहले तो ईश्वर को किसी व्यक्तित्व में न बाँधो। वह सभी बन्धनों से मुक्त है। व्यक्तित्व के लिए जो पर्सनल्टी शब्द है, वह यूनानी शब्द पर्सोना से आया है। यूनान के गुजरे जमाने में वहाँ नाटक मण्डलियों में अभिनेता अपने चेहरों पर एक मुखौटा लगाया करते थे। इन मुखौटों को कहते थे ‘पर्सोना’ यानि वह चेहरा जो दिखावटी है, जिसे हम ओढ़े रहते हैं। विचार करने पर इस सम्बन्ध में कई मजेदार बातें सामने आएँगी। उदाहरण के लिए जब हम दूसरों के साथ कार्यालय में या कहीं और व्यवहार करते हैं, तो स्थिति कुछ और होती है। पर जब हम अपने बाथरूम में होते हैं, रात सोते समय बिस्तर पर होते हैं, तो स्थिति बदली हुई होती है।

.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ ९९
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

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