🔷 ऋषिवर के आश्रम मे एक दिन दुर नगर से एक राजा आये ऋषिवर को प्रणाम करने के बाद वो अपने मुख से ऋषिवर के सामने अपने किये गये शुभ-कर्मों का बखान करने लगे!
🔶 राजा - हॆ देव मैंने अपनी जिन्दगी मे कई धर्मशालाओ का निर्माण करवाया कई कुंवारी कन्याओं का विवाह करवाया और कई निर्धन लोगो को खुब दानदक्षिणा दी! हॆ देव मेरे इन सभी सतकर्मों का कितना फल मिलेगा!
🔷 ऋषिवर - हॆ वत्स पर उन सब को ये कैसे पता की ये विवाह आपने करवाये और किसी को कैसे पता चलेगा की अमुक-अमुक निर्माण आपने करवाये है उन बच्चो को कैसे पता चलेगा की उनकी शिक्षा-दीक्षा आपने करवाई है?
🔶 राजा - हॆ देव ये तो बहुत ही आसान है क्योंकि मैंने जितने भी निर्माण करवाये उन सभी पर मैंने बड़े बड़े अक्षरों मे अपना नाम लिखवाया है की अमुक निर्माण मैंने करवाया है जैसै किसी मन्दिर मे पंखा लगवाया तो मैंने उस पर अपना नाम लिखवाया की ये पंखा मेरी तरफ से सप्रेम भेंट! और जिन कन्याओं का विवाह करवाया जिनको पढाया अथवा जिसकी भी किसी भी प्रकार की कोई मदद की मैं उन सबको बराबर याद दिलाता रहता हुं की मैंने तुम्हारे लिये किया है!
🔷 हॆ देव मैंने जो इतने महान कर्म किये है उसका कितना फल मिलेगा! और वो कितना हुआ अर्थात किसके बराबर है?
🔶 ऋषिवर - इसका उत्तर आपको तब मिलेगा जब आप पहले ये ताम्बे का लोटा बीहड़ मे बड़ी दुर एक नदी बह रही है वहाँ से इसे बिल्कुल साफ करके भरकर लाना और ध्यान रखना की थोड़ा भी खाली मत लाना नही तो सारी मेहनत व्यर्थ चली जायेगी! कुछ दिनो बाद राजा आया!
🔷 ऋषिवर - लाओ वत्स वो लोटा इधर लाओ
🔶 राजा - पर इसमे जल नही है देव!
🔷 ऋषिवर - पर क्यों ? और अपनी यात्रा का वर्णन बताओ!
🔶 राजा - मैं उस बहती हुई नदी तक तो सहजता से पहुँच गया और जल भी पात्र मे भर लिया पर जब वापिस रवाना हुआ तो राह मे बीहड़ मे अनेक रास्तों की वजह से मैं भटक गया जोरों से भुख लगने लगी चलते चलते किसी गाँव मे पहुँचा वहाँ कोई विवाह का समारोह हो रहा था आश्चर्य की बात की परिवार तो गरीब था पर पता नही न जाने किसने उसका विवाह करवाया मैंने वहाँ भोजन किया और फिर रवाना हुआ!
🔷 ऋषिवर - क्या आपने पता किया की वो विवाह कौन करवा रहा था?
🔶 राजा - हॆ देव बहुत कोशिश की पर मैं सफल न हो पाया की विवाह कौन करवा रहा था शायद कोई परदे के पिछे था!
🔷 फिर मैं रवाना हुआ तो पानी की प्यास सताने लगी जंगल मे एक जगह एक कुआँ था और एक डोर लोटा रखा हुआ था पानी की व्यवस्था मिल गई और वहाँ पानी पिया फिर मैंने सोचा इस बीहड़ मे ये व्यवस्था किसने की पर कुछ भी पता न चला फिर खुब चला और फिर पानी की प्यास सताने लगी चारों तरफ देखा पर पानी कही न मिला पानी के अभाव मे मैं दम तोड़ने लगा फिर मैं नीचे गिरा और कलश का लगभग आधा पानी व्यर्थ बह गया आधा पानी बचा फिर मैंने सोचा की जिन्दगी रही तो फिर आगे कुछ करेंगे पहले ये पानी पी लो! और वो बचा हुआ आधा पानी भी मैं पी गया!
🔶 ऋषिवर - हॆ राजन जिस तरह से इतनी मेहनत के बावजूद भी तुम खाली हाथ लोटे हो आपके प्रश्न का यही उत्तर है!
🔷 राजा - हॆ देव मैं कुछ समझा नही
🔶 ऋषिवर - ध्यान से सुनना राजन और उस पर गहरा चिन्तन भी करना दान है महान पर कब?
🔷 जब दान देकर भुला दिया जाता है और जो दान गुप्त हो वही दान सात्विक कर्म है पर जो दान गिनाया और दिखाया जाये वो राजसिक कर्म है और राजसीक दान का आधा पुण्य प्रदर्शन मे चला जाता है और जिसे बार-बार गिनाया जाये और मन मे ये भाव आये की ये मैंने तुम्हे दिया, ये भवन मैंने बनवाया है, मैंने तुम्हे पढाया है, अमुक निर्माण मैंने किया है, वो तामसिक कर्म है और ऐसे तामसिक दान का सारा पुण्य व्यर्थता मे चला जाता है!
🔶 सात्विक का एक आना राजसीक के लाख आनों से और तामसिक के करोड़ों आनों से ज्यादा श्रेष्ठ और महान है! दान और सेवा का प्रदर्शन मत करो दान और सेवा जितनी गुप्त होगी उतना ही ज्यादा अच्छा होगा!
🔷 सेवा करके भुल जाओ दान ऐसे दो की दायाँ हाथ दे तो बायें हाथ को भी पता न चले की दायें हाथ ने क्या दिया, और मत तो उसे गिनाना और मत उसे मन मे याद रखना नही तो किया न किया सब व्यर्थ हो जायेगा!
🔶 सबसे अच्छा तरीका जो भी करो उसे परमपिता परमेश्वर को समर्पित कर दो! अरे आप दिखावे के लिये कर रहे हो या उस परमतत्व के लिये? आपने किसी और के लिये क्या किया उसे भुल जाओ पर किसी और ने आपके लिये क्या किया उसे कभी मत भुलना!
🔷 राजा - हॆ नाथ अब तक मैं राजसीक और तामसिकता के मद मे अंधा होकर चल रहा था पर आज आपने मेरी आँखे खोल दी आज के बाद प्रभु मुझसे जो भी करवायेंगे वो सब गुप्त रखा जायेगा और सात्विकता से इस जीवन को चलाया जायेगा!
🔶 ऋषिवर - हाँ वत्स हमेशा याद रखना की जो नही है बस वही है और जो है वो कही नही है अर्थात प्रदर्शन से बचना और गोपनीय दान और गोपनीयता का अपना एक अलग ही स्थान है!
🔷 और सेवा करके भुल जाना पर सेवा लेके मत भुलना!
🔶 राजा - हॆ देव मैंने अपनी जिन्दगी मे कई धर्मशालाओ का निर्माण करवाया कई कुंवारी कन्याओं का विवाह करवाया और कई निर्धन लोगो को खुब दानदक्षिणा दी! हॆ देव मेरे इन सभी सतकर्मों का कितना फल मिलेगा!
🔷 ऋषिवर - हॆ वत्स पर उन सब को ये कैसे पता की ये विवाह आपने करवाये और किसी को कैसे पता चलेगा की अमुक-अमुक निर्माण आपने करवाये है उन बच्चो को कैसे पता चलेगा की उनकी शिक्षा-दीक्षा आपने करवाई है?
🔶 राजा - हॆ देव ये तो बहुत ही आसान है क्योंकि मैंने जितने भी निर्माण करवाये उन सभी पर मैंने बड़े बड़े अक्षरों मे अपना नाम लिखवाया है की अमुक निर्माण मैंने करवाया है जैसै किसी मन्दिर मे पंखा लगवाया तो मैंने उस पर अपना नाम लिखवाया की ये पंखा मेरी तरफ से सप्रेम भेंट! और जिन कन्याओं का विवाह करवाया जिनको पढाया अथवा जिसकी भी किसी भी प्रकार की कोई मदद की मैं उन सबको बराबर याद दिलाता रहता हुं की मैंने तुम्हारे लिये किया है!
🔷 हॆ देव मैंने जो इतने महान कर्म किये है उसका कितना फल मिलेगा! और वो कितना हुआ अर्थात किसके बराबर है?
🔶 ऋषिवर - इसका उत्तर आपको तब मिलेगा जब आप पहले ये ताम्बे का लोटा बीहड़ मे बड़ी दुर एक नदी बह रही है वहाँ से इसे बिल्कुल साफ करके भरकर लाना और ध्यान रखना की थोड़ा भी खाली मत लाना नही तो सारी मेहनत व्यर्थ चली जायेगी! कुछ दिनो बाद राजा आया!
🔷 ऋषिवर - लाओ वत्स वो लोटा इधर लाओ
🔶 राजा - पर इसमे जल नही है देव!
🔷 ऋषिवर - पर क्यों ? और अपनी यात्रा का वर्णन बताओ!
🔶 राजा - मैं उस बहती हुई नदी तक तो सहजता से पहुँच गया और जल भी पात्र मे भर लिया पर जब वापिस रवाना हुआ तो राह मे बीहड़ मे अनेक रास्तों की वजह से मैं भटक गया जोरों से भुख लगने लगी चलते चलते किसी गाँव मे पहुँचा वहाँ कोई विवाह का समारोह हो रहा था आश्चर्य की बात की परिवार तो गरीब था पर पता नही न जाने किसने उसका विवाह करवाया मैंने वहाँ भोजन किया और फिर रवाना हुआ!
🔷 ऋषिवर - क्या आपने पता किया की वो विवाह कौन करवा रहा था?
🔶 राजा - हॆ देव बहुत कोशिश की पर मैं सफल न हो पाया की विवाह कौन करवा रहा था शायद कोई परदे के पिछे था!
🔷 फिर मैं रवाना हुआ तो पानी की प्यास सताने लगी जंगल मे एक जगह एक कुआँ था और एक डोर लोटा रखा हुआ था पानी की व्यवस्था मिल गई और वहाँ पानी पिया फिर मैंने सोचा इस बीहड़ मे ये व्यवस्था किसने की पर कुछ भी पता न चला फिर खुब चला और फिर पानी की प्यास सताने लगी चारों तरफ देखा पर पानी कही न मिला पानी के अभाव मे मैं दम तोड़ने लगा फिर मैं नीचे गिरा और कलश का लगभग आधा पानी व्यर्थ बह गया आधा पानी बचा फिर मैंने सोचा की जिन्दगी रही तो फिर आगे कुछ करेंगे पहले ये पानी पी लो! और वो बचा हुआ आधा पानी भी मैं पी गया!
🔶 ऋषिवर - हॆ राजन जिस तरह से इतनी मेहनत के बावजूद भी तुम खाली हाथ लोटे हो आपके प्रश्न का यही उत्तर है!
🔷 राजा - हॆ देव मैं कुछ समझा नही
🔶 ऋषिवर - ध्यान से सुनना राजन और उस पर गहरा चिन्तन भी करना दान है महान पर कब?
🔷 जब दान देकर भुला दिया जाता है और जो दान गुप्त हो वही दान सात्विक कर्म है पर जो दान गिनाया और दिखाया जाये वो राजसिक कर्म है और राजसीक दान का आधा पुण्य प्रदर्शन मे चला जाता है और जिसे बार-बार गिनाया जाये और मन मे ये भाव आये की ये मैंने तुम्हे दिया, ये भवन मैंने बनवाया है, मैंने तुम्हे पढाया है, अमुक निर्माण मैंने किया है, वो तामसिक कर्म है और ऐसे तामसिक दान का सारा पुण्य व्यर्थता मे चला जाता है!
🔶 सात्विक का एक आना राजसीक के लाख आनों से और तामसिक के करोड़ों आनों से ज्यादा श्रेष्ठ और महान है! दान और सेवा का प्रदर्शन मत करो दान और सेवा जितनी गुप्त होगी उतना ही ज्यादा अच्छा होगा!
🔷 सेवा करके भुल जाओ दान ऐसे दो की दायाँ हाथ दे तो बायें हाथ को भी पता न चले की दायें हाथ ने क्या दिया, और मत तो उसे गिनाना और मत उसे मन मे याद रखना नही तो किया न किया सब व्यर्थ हो जायेगा!
🔶 सबसे अच्छा तरीका जो भी करो उसे परमपिता परमेश्वर को समर्पित कर दो! अरे आप दिखावे के लिये कर रहे हो या उस परमतत्व के लिये? आपने किसी और के लिये क्या किया उसे भुल जाओ पर किसी और ने आपके लिये क्या किया उसे कभी मत भुलना!
🔷 राजा - हॆ नाथ अब तक मैं राजसीक और तामसिकता के मद मे अंधा होकर चल रहा था पर आज आपने मेरी आँखे खोल दी आज के बाद प्रभु मुझसे जो भी करवायेंगे वो सब गुप्त रखा जायेगा और सात्विकता से इस जीवन को चलाया जायेगा!
🔶 ऋषिवर - हाँ वत्स हमेशा याद रखना की जो नही है बस वही है और जो है वो कही नही है अर्थात प्रदर्शन से बचना और गोपनीय दान और गोपनीयता का अपना एक अलग ही स्थान है!
🔷 और सेवा करके भुल जाना पर सेवा लेके मत भुलना!