रविवार, 26 मार्च 2017

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 27 March 2017


👉 आज का सद्चिंतन 27 March 2017


👉 स्रष्टा का परम प्रसाद-प्रखर प्रज्ञा (भाग 26)

🌹 प्रखर प्रतिभा का उद्गम-स्रोत 

🔵 बच्चों को लोरी गाकर सुला दिया जाता है। झूले पर हिलते रहने वाले बच्चे भी जल्दी सो जाते हैं। रोने वाले बच्चे को अफीम चटाकर खुमारी में डाल दिया जाता है। इसी प्रकार व्यक्ति को भी कुसंग और दुर्व्यसन में आलस्य-प्रमाद का आदी बनाकर ऐसा कुछ बना दिया जाता है, मानों वह अर्ध-मृत या अर्ध-विक्षिप्त अनगढ़ स्थिति में रह रहा है। ऐसे व्यक्ति पग-पग पर भूलें करते और कुमार्ग पर चलते देखे जाते हैं। उपलब्धियों का आमतौर से ऐसे ही लोग दुरुपयोग करते और घाटा उठाते हैं, किन्तु जिनने इस अनौचित्य की हानियों को समझ लिया है, उनके लिये आत्मानुशासन कठिन नहीं रहता वरन् उसके मार्ग में आने वाली कठिनाइयों को उससे कहीं अधिक हल्की अनुभव करते हैं, जो कुमार्ग पर चलने वाले को पग-पग पर उठानी पड़ती हैं। परमार्थ-कार्यों में समय और साधनों का खर्च तो होता है, पर वह उतने दुष्परिणाम उत्पन्न नहीं करता जितना कि संकीर्ण स्वार्थपरता अपनाकर तत्काल दीखने वाले लाभों के व्यामोह में निरंतर पतन और पराभव ही हाथ लगता है।                  

🔴 हर महत्त्वपूर्ण कार्य के लिये प्रतिभाशाली व्यक्तित्व चाहिये अन्यथा असावधान एवं अनगढ़ जितना कुछ कर पाते हैं, उससे अधिक हानि करते रहते हैं। ऐसों की न कहीं आवश्यकता होती है, न इज्जत और न उपयोगिता। ऐसी दशा में उन्हें जहाँ-तहाँ ठोकरें खाते देखा जाता है। इसके विपरीत उन जागरूक लोगों का पुरुषार्थ है, जो पूरे मनोयोग के साथ काम को प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाते हैं। बड़प्पन ऐसों के हिस्से में ही आता है। बड़े काम संपन्न करते ऐसे ही लोग देखे जाते हैं। बड़ाई उन्हीं के हिस्से में आती है। साधन तो सहायक भर होते हैं। वस्तुत: मनुष्य की क्षमता और दक्षता गुण, कर्म, स्वभाव के निखार पर निर्भर रहती है।          
    
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 सद्विचारों की सृजनात्मक शक्ति (भाग 47)

🌹 सद्विचारों का निर्माण सत् अध्ययन—सत्संग से

🔴 कोई सद्विचार तभी तक सद्विचार हैं जब तक उसका आधार सदाशयता है। अन्यथा वह असद्विचारों के साथ ही गिना जायेगा। चूंकि वे मनुष्य के जीवन और हर प्रकार और हर कोटि के असद्विचारों विष की तरह की त्याज्य हैं। उन्हें त्याग देने में ही कुशल, क्षेम, कल्याण तथा मंगल है।

🔵 वे सारे विचार जिनके पीछे दूसरों और अपनी आत्मा का हित सान्निहित हो सद्विचार ही होते हैं। सेवा एक सद्विचार है। जीव मात्र की निःस्वार्थ सेवा करने से किसी को कोई प्रत्यक्ष लाभ तो होता दीखता नहीं। दीखता है उस व्रत की पूर्ति में किया जाने वाला त्याग और बलिदान। जब मनुष्य अपने स्वार्थ का त्याग कर सेवा करता है, तभी उसका कुछ हितसाधन कर सकता है। स्वार्थी और सांसारिक लोग सोच सकते हैं कि अमुक व्यक्ति में कितनी समझ है, जो अपनी हित-हानि करके अकारण ही दूसरों का हित साधन करता रहता है। निश्चय ही मोटी आंखों और छोटी बुद्धि से देखने पर किसी का सेवा-व्रत उसकी मूर्खता ही लगेगी। किन्तु यदि उस व्रती से पता लगाया जाय तो विदित होगा कि दूसरों की सेवा करने में वह जितना त्याग करता है, वह उस सुख—उस शान्ति की तुलना में एक तृण से भी अधिक नगण्य है, जो उसकी आत्मा अनुभव करती है।

🔴 एक छोटे से त्याग का सुख आत्मा के एक बन्धन को तोड़ देता है। देखने में हानिकर  लगने पर भी अपना वह हर विचार सद्विचार ही है जिसके पीछे परहित अथवा आत्महित का भाव अन्तर्हित हो। मनुष्य का अन्तिम लक्ष्य लोक नहीं परलोक ही है। इसकी प्राप्ति एकमात्र सद्विचारों की साधना द्वारा ही हो सकती है। अस्तु आत्म-कल्याण और आत्म-शान्ति के चरम लक्ष्य की सिद्धि के लिए सद्विचारों की साधना करते ही रहना चाहिए। 

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 युग बदल रहा है-हम भी बदलें

🔷 भले ही लोग सफल नहीं हो पा रहे हैं पर सोच और कर यही रहे हैं कि वे किसी प्रकार अपनी वर्तमान सम्पत्ति को जितना अधिक बढ़ा सकें, दिखा सकें उसकी उधेड़ बुन में जुटे रहें। यह मार्ग निरर्थक है। आज की सबसे बड़ी बुद्धिमानी यह है कि किसी प्रकार गुजारे की बात सोची जाए। परिवार के भरण-पोषण भर के साधन जुटाये जायें और जो जमा पूँजी पास है उसे लोकोपयोगी कार्य में लगा दिया जाए। जिनके पास नहीं है वे इस तरह की निरर्थक मूर्खता में अपनी शक्ति नष्ट न करें। जिनके पास गुजारे भर के लिए पैतृक साधन मौजूद हैं, जो उसी पूँजी के बल पर अपने वर्तमान परिवार को जीवित रख सकते हैं वे वैसी व्यवस्था बना कर निश्चित हो जायें और अपना मस्तिष्क तथा समय उस कार्य में लगायें, जिसमें संलग्न होना परमात्मा को सबसे अधिक प्रिय लग सकता है।

🔶 समय ही मनुष्य की व्यक्तिगत पूँजी है, श्रम ही उसका सच्चा धर्म है। इसी धन को परमार्थ में लगाने से मनुष्य के अन्तःकरण में उत्कृष्टता के संस्कार परिपक्व होते हैं। धन वस्तुतः समाज एवं राष्ट्र की सम्पत्ति है। उसे व्यक्तिगत समझना एक पाप एवं अपराध है। जमा पूँजी में से जितना अधिक दान किया जाए वह तो प्रायश्चित मात्र है। सौ रुपये की चोरी करके कोई पाँच रुपये दान कर दें तो वह तो एक हल्का सा प्रायश्चित ही हुआ। मनुष्य को अपरिग्रही होना चाहिए। इधर कमाता और उधर अच्छे कर्मों में खर्च करता रहे यही भलमनसाहत का तरीका है।

🔷 जिसने जमा कर लिया उसने बच्चों को दुर्गुणी बनाने का पथ प्रशस्त किया और अपने को लोभ-मोह के माया बंधनों में बाँधा। इस भूल का जो जितना प्रायश्चित कर ले, जमा पूँजी को सत्कार्य में लगा दे उतना उत्तम है। प्रायश्चित से पाप का कुछ तो भार हल्का होता ही है। पुण्य परमार्थ तो निजी पूँजी से होता है। वह निजी पूँजी है- समय और श्रम। जिसका व्यक्तिगत श्रम और समय परमार्थ कार्यों में लगा समझना चाहिए कि उसने उतना ही अपना अन्तरात्मा निर्मल एवं सशक्त बनाने का लाभ ले लिया।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति -जुलाई 1967 पृष्ठ 53

👉 धैर्य हो तो नैपोलियन जैसा

🔴 सन् १८०७ की बात है। नैपोलियन बोनापार्ट की सेनाएँ नदी के किनारे खडी़ थीं। दुश्मन ने उसे चारों तरफ ऐसे घेर रखा था जैसे पिंजडे़ में शेर। दाहिनी तरफ आस्ट्रियन फौजें थीं, पीछे जर्मन। रूस की दिशाल सेना आगे अडी़-खडी़ थी। नैपोलियन के लिये फ्रांस से संबध बनाए रखना भी कठिन हो गया।

🔵 यह स्थिति ऐसी ही थी जैसे कोई व्यक्ति स्वयं तो बीमार हो पत्नी, बच्चे भी बीमार हो जाए। मकान गिर जाए और नौकरी से भी एकाएक नोटिस मिल जाए। घात-प्रतिघात चारों ओर से आते है। मुसीबत को अकेले आना कमी पसंद नहीं लालची मेहमान की तरह बाल बच्चे लेकर आते हैं। संकटों की सेना देखते ही सामान्य लोग बुरी तरह घबडा़ उठते, नियंत्रण खो बैठते और कुछ का कुछ कर डालते हैं। आपात काल में धीरज और धर्म को परख कर चलने को चेतावनी इसलिए दी गई है कि मनुष्य इतना उस समय न धबडा जाए कि आई मुसीबत प्राणघातक बन जाए।

🔵 नैपोलियन बोनापार्ट-धैर्य का पुतला, उसने इस सीख को सार्थक कर यह दिखा दिया कि घोर आपत्ति में भी मनुष्य अपना मानसिक संतुलन बनाए रखे तो वह भीषण संकटों को भी देखते-देखते पार कर सकता है।

🔴 नैपोलियन ने घबडा़ती फौज को विश्राम की आज्ञा दे दी। उच्च सेनाधिकारी हैरान थे कहीं नैपोलियन का मस्तिष्क तो खराब नही हो गया। उनका यह विश्वास बढ़ता ही गया, जब नैपोलियन को आगे और भी विलक्षण कार्य करते देखा। जब उसकी सेनाएँ चारों ओर से घिरी थीं उसने नहर खुदवानी प्रारंभ करा दी। पोलैंड और प्रसिया को जोड़ने वाली सडक का निर्माण इसी समय हुआ। फ्रेंच कालेज की स्थापना और उसका प्रबंध नैपोलियन स्वयं करता था। फ्रांस के सारे समाचार इन दिनो नैपोलियन के साहसप्रद लेखों से भरे होते थे। फ्रांस, इटली और स्पेन तक से सैनिक इसी अवधि में भरे गये नैपोलियन ने इस अवधि में जितने गिरिजों का निर्माण कराया उतना वह शांति काल में कभी नही करा सका, लोग कहते थे नैपोलियन के साथ कुछ प्रेत रहते हैं, यही सब इतना कम करते हैं पर सही बात तो यह है कि नैपोलियन यह सब काम खुद से करता था। उसका शरीर एक स्थान पर रहता था पर मन दुश्मन पर चौकसी भी रखता था और पूर्ण निर्भीक भाव से इन प्रबंधो में भी जुटा रहता था।

🔵 नैपोलियन की इतनी क्रियाशीलता देखकर दुश्मन सेनाओं के सेनापतियों ने समझा कि नैपोलियन की सेना अब आक्रमण करेगी, अब आक्रमण करेगा। वे बेचारे चैन से नही सोये, दिन रात हरकत करते रहे, इधर से उधर मोर्चे जमाते रहे। डेढ-दो महीनों में सारी सेनाएं थककर चूर हो गईं। नैपोलियन ने इस बीच सेना के लिए भरपूर रसद, वस्त्र, जूते और हथियार भर कर रख लिए।

🔴 तब तक बरसात आ गई। दुश्मन सेनाएँ जो नैपोलियन की उस अपूर्व क्रियाशीलता से भयभीत होकर अब तक थक चुकी थीं विश्राम करने लगी। उन्होंने कल्पना भी न की थी कि वर्षा ऋतु में भी कोई आक्रमण कर सकता है।

🔵 आपत्तिकाल में धैर्य इसलिये आवश्यक है कि उस घडी में सही बात सूझती है कोई न कोई प्रकाश का ऐसा द्वार मिल जाता है, जो न केवल संकट से पार कर देता है वरन् कई सफलताओ के रहस्य भी खोल जाता है।

🔴 वर्षा के दिन जब सारी सेनाएँ विश्राम कर रही थी, नैपोलियन ने तीनों तरफ से आक्रमण कर दिया और दुश्मन की फौजों को मार भगाया। बहुत-सा शस्त्र और साज-सामान उसके हाथ लगा जिससे उसकी स्थिति और भी मजबूत हो गई।

🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 99

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...