शुक्रवार, 18 अक्टूबर 2019
👉 जानवर कौन?
एक बकरी थी, जाे की माँ बनने वाली थी। माँ बनने से पहले ही मधू ने भगवान् से दुआएं मांगने शुरू कर दी। कि “हे भगवान् मुझे बेटी देना बेटा नही”। पर किस्मत काे ये मंजूर ना था, मधू ने एक बकरे काे जन्म दिया, उसे देखते ही मधू राेने लगी। साथ की बकरियां मधू के राेने की वजह जानती थी, पर क्या कहती। माँ चुप हाे गई और अपने बच्चे काे चाटने लगी। दिन बीतते चले गए और माँ के दिल मे अपने बच्चे के लिए प्यार उमडता चला गया। धीरे- धीरे माँ अपने बेटे में सारी दुनियाँ काे भूल गई, और भूल गई भविष्य की उस सच्चाई काे जाे एक दिन सच हाेनी थी। मधू राेज अपने बच्चे काे चाट कर दिन की शुरूआत करती, और उसकी रात बच्चे से चिपक कर साे कर ही हाेती।
एक दिन बकरी के मालिक के घर भी बेटे जन्म लिया। घर में आते महमानाे आैर पड़ोसियों की भीड देख बकरी ने साथी बकरी से पूछा “बहन क्या हुआ आज बहुत भीड है इनके घर पर” ये सुन साथी बकरी ने कहा की “अरे हमारे मालिक के घर बेटा हुआ है, इसलिए काफी चहल पहल है” मधू बकरी मालिक के लिए बहुत खुश हुई और उसके बेटे को बहुत दुआए दी। फिर मधू अपने बच्चे से चुपक कर साे गई। मधू साे ही रही थी के तभी उसके पास एक आदमी आया, सारी बकरियां डर कर सिमट गई, मधू ने भी अपने बच्चे काे खुद से चिपका लिया। के तभी उस आदमी ने मधू के बेटे काे पकड लिया और ले जाने लगा। मधू बहुत चिल्लाई पर उसकी सुनी ना गई, बच्चे काे बकरियां जहाँ बंधी थी उसके सामने वाले कमरे में ले जाया गया।
बच्चा बहुत चिल्ला रहा था, बुला रहा था अपनी माँ काे, मधू भी रस्सी काे खाेलने के लिए पूरे पूरे पाँव रगड दिए पर रस्सी ना खुली। थाेडी देर तक बच्चा चिल्लाया पर उसके बाद बच्चा चुप हाे गया, अब उसकी आवाज नही आ रही थी। मधू जान चुकी थी केे बच्चे के साथ क्या हुआ है, पर वह फिर भी अपने बच्चे के लिए आँख बंद कर दुआए मांगती रही। पर अब देर हाे चुकी थी बेटे का सर धड से अलग कर दिया गया था। बेटे का सर मा के सामने पडा था, आज भी बेटे की नजर माँ की तरफ थी, पर आज वह नजरे पथरा चुकी थी, बेटे का मुह आज भी खुला था, पर उसके मुह से आज माँ के लिए पुकार नही निकल रही थी, बेटे का मूह सामने पडा था माँ उसे आखरी बार चूम भी नही पा रही थी इस वजह से एक आँख से दस दस आँसू बह रहे थे।
बेटे काे काट कर उसे पका खा लिया गया। और माँ देखती रह गई, साथ में बेठी हर बकरियाँ इस घटना से अवगत थी पर काेई कुछ कर भी क्या सकती थी। दाे माह बीत चुके थे मधू बेटे के जाने के गम में पहले से आधी हाे चुकी थी, के तभी एक दिन मालिक अपने बेटे काे खिलाते हुए बकरियाें के सामने आया, ये देख एक बकरी बाेली “ये है वाे बच्चा जिसके हाेने पर तेरे बच्चे काे काटा गया” मधू आँखाें में आँसू भरे अपने बच्चे की याद में खाेई उस मालिक के बच्चे काे देखने लगी।
वह बकरी फिर बाेली “देख कितना खुश है, अपने बालक काे खिला कर, पर कभी ये नही साेचता की हमें भी हमारे बालक प्राण प्रिय हाेते है, मैं ताे कहू जैसे हम अपने बच्चाे के वियोग में तडप जीते है वैसे ही ये भी जिए, इसका पुत्र भी मरे” ये सुनते ही मधू उस बकरी पर चिल्लाई कहा “उस बेगुनाह बालक ने क्या बिगाडा है, जाे उसे मारने की कहती हाें, वाे ताे अभी धरा पर आया है, ऐसा ना कहाे भगवान् उसे लम्बी उम्र दे, क्यू की एक बालक के मरने से जाे पीडा हाेती है मैं उससे अवगत हूँ, मैं नही चाहती जाे पीडा मुझे हाे रही है वाे किसी और काे हाे” ये सुन साथी बकरी बाेली कैसी है तू उसने तेरे बालक काे मारा और तू फिर भी उसी के बालक काे दुआ दे रही है।” मधू हँसी और कहा “हाँ, क्याेकी मेरा दिल एक जानवर का है इंसान का नही।
ये कहना मात्र ही उस बकरी के लिए जवाब हाे गया था कि मधू ने ऐसा क्यू कहा। मधू ने फिर कहा “ना जाने किस जन्म के पापाे की वजह से आज इस याेनी में जन्म मिला, ना जाने किस के बालक काे छीना था जाे पुत्र वियोग मिला, अब किसी को बालक काे बद्दुआ दे उसे मारे फिर पाप पुण्य जन्म मृत्यु के चक्कर में नही फंसना, इसके कर्माे का दण्ड भगवान् देगा मैं नही। बकरी की यह बात सुन साथी बकरी चुप हाे गई, क्याे की वह समझ चुकी थी के करनी की भरनी सबकी हाेती है मालिक की भी हाेगी।।
(कई बार सच समझ नही आता की जानवर असल में है काैन)
एक दिन बकरी के मालिक के घर भी बेटे जन्म लिया। घर में आते महमानाे आैर पड़ोसियों की भीड देख बकरी ने साथी बकरी से पूछा “बहन क्या हुआ आज बहुत भीड है इनके घर पर” ये सुन साथी बकरी ने कहा की “अरे हमारे मालिक के घर बेटा हुआ है, इसलिए काफी चहल पहल है” मधू बकरी मालिक के लिए बहुत खुश हुई और उसके बेटे को बहुत दुआए दी। फिर मधू अपने बच्चे से चुपक कर साे गई। मधू साे ही रही थी के तभी उसके पास एक आदमी आया, सारी बकरियां डर कर सिमट गई, मधू ने भी अपने बच्चे काे खुद से चिपका लिया। के तभी उस आदमी ने मधू के बेटे काे पकड लिया और ले जाने लगा। मधू बहुत चिल्लाई पर उसकी सुनी ना गई, बच्चे काे बकरियां जहाँ बंधी थी उसके सामने वाले कमरे में ले जाया गया।
बच्चा बहुत चिल्ला रहा था, बुला रहा था अपनी माँ काे, मधू भी रस्सी काे खाेलने के लिए पूरे पूरे पाँव रगड दिए पर रस्सी ना खुली। थाेडी देर तक बच्चा चिल्लाया पर उसके बाद बच्चा चुप हाे गया, अब उसकी आवाज नही आ रही थी। मधू जान चुकी थी केे बच्चे के साथ क्या हुआ है, पर वह फिर भी अपने बच्चे के लिए आँख बंद कर दुआए मांगती रही। पर अब देर हाे चुकी थी बेटे का सर धड से अलग कर दिया गया था। बेटे का सर मा के सामने पडा था, आज भी बेटे की नजर माँ की तरफ थी, पर आज वह नजरे पथरा चुकी थी, बेटे का मुह आज भी खुला था, पर उसके मुह से आज माँ के लिए पुकार नही निकल रही थी, बेटे का मूह सामने पडा था माँ उसे आखरी बार चूम भी नही पा रही थी इस वजह से एक आँख से दस दस आँसू बह रहे थे।
बेटे काे काट कर उसे पका खा लिया गया। और माँ देखती रह गई, साथ में बेठी हर बकरियाँ इस घटना से अवगत थी पर काेई कुछ कर भी क्या सकती थी। दाे माह बीत चुके थे मधू बेटे के जाने के गम में पहले से आधी हाे चुकी थी, के तभी एक दिन मालिक अपने बेटे काे खिलाते हुए बकरियाें के सामने आया, ये देख एक बकरी बाेली “ये है वाे बच्चा जिसके हाेने पर तेरे बच्चे काे काटा गया” मधू आँखाें में आँसू भरे अपने बच्चे की याद में खाेई उस मालिक के बच्चे काे देखने लगी।
वह बकरी फिर बाेली “देख कितना खुश है, अपने बालक काे खिला कर, पर कभी ये नही साेचता की हमें भी हमारे बालक प्राण प्रिय हाेते है, मैं ताे कहू जैसे हम अपने बच्चाे के वियोग में तडप जीते है वैसे ही ये भी जिए, इसका पुत्र भी मरे” ये सुनते ही मधू उस बकरी पर चिल्लाई कहा “उस बेगुनाह बालक ने क्या बिगाडा है, जाे उसे मारने की कहती हाें, वाे ताे अभी धरा पर आया है, ऐसा ना कहाे भगवान् उसे लम्बी उम्र दे, क्यू की एक बालक के मरने से जाे पीडा हाेती है मैं उससे अवगत हूँ, मैं नही चाहती जाे पीडा मुझे हाे रही है वाे किसी और काे हाे” ये सुन साथी बकरी बाेली कैसी है तू उसने तेरे बालक काे मारा और तू फिर भी उसी के बालक काे दुआ दे रही है।” मधू हँसी और कहा “हाँ, क्याेकी मेरा दिल एक जानवर का है इंसान का नही।
ये कहना मात्र ही उस बकरी के लिए जवाब हाे गया था कि मधू ने ऐसा क्यू कहा। मधू ने फिर कहा “ना जाने किस जन्म के पापाे की वजह से आज इस याेनी में जन्म मिला, ना जाने किस के बालक काे छीना था जाे पुत्र वियोग मिला, अब किसी को बालक काे बद्दुआ दे उसे मारे फिर पाप पुण्य जन्म मृत्यु के चक्कर में नही फंसना, इसके कर्माे का दण्ड भगवान् देगा मैं नही। बकरी की यह बात सुन साथी बकरी चुप हाे गई, क्याे की वह समझ चुकी थी के करनी की भरनी सबकी हाेती है मालिक की भी हाेगी।।
(कई बार सच समझ नही आता की जानवर असल में है काैन)
👉 कर्ज से छुटकारा पाना ही ठीक है। (भाग १)
निर्धनता मनुष्य को कई तरह से परेशान करती है इसमें कुछ भी सन्देह की बात नहीं है। धन से ही मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं। धन न हुआ तो जरूरी है कि कठिन समस्यायें सामने आयें। पर यदि मनुष्य निर्धन होकर भी कर्जदार है तो वह सबसे बड़े दुःख का कारण हैं। गरीबी स्वयं एक बड़ा बोझ है, कर्ज और बढ़ जाता है तो जीवन व्यवस्था की रीढ़ ही झुक जाती है। मनुष्य का सारा उल्लास समाप्त हो जाता है।
धन-हीन होने पर भी स्वच्छन्द मन के आध्यात्मिक पुरुषों के जीवन में एक प्रकार का आनन्द बना रहता है। पारिवारिक संगठन, प्रेम, साहस और शक्ति का स्वभाव हो तो मनुष्य थोड़े से धन के द्वारा भी सुखमय जीवन की आनन्द प्राप्त कर लेते हैं। किन्तु कर्ज लेकर सुखोपभोग का सामग्री उपलब्ध करना एक प्रकार से भावी जीवन के सुख शान्ति को ही दाव पर चढ़ा देना है। ऋणी होकर मनुष्य कभी सुखी नहीं रह सकता। डॉ. रसर का यह कथन कि “मनुष्य ऋण लेने नहीं जाता, दुख खरीदने जाता है” सत्य ही है। कर्ज लेकर सुख की कल्पना सचमुच भ्रामक है।
विश्व कवि शेक्सपियर ने लिखा है-”न हो ऋणी, न हो महाजन, क्योंकि ऋण लिया हुआ धन अपने को भी खो देता है और देने वाले मित्रों को भी। ऋण लेने की आदत मितव्ययिता की धार को मोटी कर देती है।” उचित रीति से धन खर्च करने की बुद्धि मनुष्य में तब आती है जब वह धन ईमानदारी और परिश्रम से कमाया गया हो। मेहनत से कमाया एक पैसा भी खर्च करते हुये दर्द पैदा करता है। उससे वही करम लेना उपयुक्त समझते हैं जिससे किसी तरह का पारिवारिक उत्तरदायित्व पूर्ण होता है। जो धन बिना परिश्रम के प्राप्त हो जाता है उससे किसी प्रकार का मोह नहीं होता, इसलिये उसका अधिकाँश उपयोग भी उड़ाने-खाने या झूठी शान-शौकत दिखाने में चला जाता है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति अप्रैल 1966 पृष्ठ 44
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1965/April/v1.44
धन-हीन होने पर भी स्वच्छन्द मन के आध्यात्मिक पुरुषों के जीवन में एक प्रकार का आनन्द बना रहता है। पारिवारिक संगठन, प्रेम, साहस और शक्ति का स्वभाव हो तो मनुष्य थोड़े से धन के द्वारा भी सुखमय जीवन की आनन्द प्राप्त कर लेते हैं। किन्तु कर्ज लेकर सुखोपभोग का सामग्री उपलब्ध करना एक प्रकार से भावी जीवन के सुख शान्ति को ही दाव पर चढ़ा देना है। ऋणी होकर मनुष्य कभी सुखी नहीं रह सकता। डॉ. रसर का यह कथन कि “मनुष्य ऋण लेने नहीं जाता, दुख खरीदने जाता है” सत्य ही है। कर्ज लेकर सुख की कल्पना सचमुच भ्रामक है।
विश्व कवि शेक्सपियर ने लिखा है-”न हो ऋणी, न हो महाजन, क्योंकि ऋण लिया हुआ धन अपने को भी खो देता है और देने वाले मित्रों को भी। ऋण लेने की आदत मितव्ययिता की धार को मोटी कर देती है।” उचित रीति से धन खर्च करने की बुद्धि मनुष्य में तब आती है जब वह धन ईमानदारी और परिश्रम से कमाया गया हो। मेहनत से कमाया एक पैसा भी खर्च करते हुये दर्द पैदा करता है। उससे वही करम लेना उपयुक्त समझते हैं जिससे किसी तरह का पारिवारिक उत्तरदायित्व पूर्ण होता है। जो धन बिना परिश्रम के प्राप्त हो जाता है उससे किसी प्रकार का मोह नहीं होता, इसलिये उसका अधिकाँश उपयोग भी उड़ाने-खाने या झूठी शान-शौकत दिखाने में चला जाता है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति अप्रैल 1966 पृष्ठ 44
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1965/April/v1.44
👉 आध्यात्मिक तेज का प्रज्वलित पुंज होता है चिकित्सक (भाग ८३)
👉 भविष्य का सम्पूर्ण व समग्र विज्ञान अध्यात्म
इनमें से कुछ ने तो इस बिन्दु पर अपने विचारोत्तेजक निष्कर्ष भी प्रकाशित किए हैं। इन्हीं निष्कर्षों में से एक है, मर्टिन रूथ चाइल्ड की पुस्तक ‘स्प्रिचुयैलिटी एण्ड इट्स साइन्टिफिक डामेन्शन्स’ यानि कि आध्यात्मिकता और इसके वैज्ञानिक आयाम। मर्टिन रूथ चाइल्ड प्रख्यात् न्यूरोलॉजिस्ट हैं। उनके द्वारा किए शोध कार्यों को विज्ञान जगत् में सम्मानपूर्वक स्वीकार किया जाता है। उन्होंने अपनी पुस्तक में आध्यात्मिक दृष्टि, सिद्धान्त व प्रयोगों से सम्बन्धित कई महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं पर चर्चा की है। उनका कहना है, जो आध्यात्मिक सिद्धान्तों की वैज्ञानिकता पर बिना किसी प्रायोगिक निष्कर्षों के प्रश्र खड़ा करते हैं, उन्हें सबसे पहले अपने वैज्ञानिक होने की जाँच करनी चाहिए।
रूथ चाइल्ड का कहना है कि विज्ञान किसी पुस्तक या विषय का नाम नहीं है। यह एक विशिष्ट शोध विधि है। जो एक खास तरह से अध्ययन करके किसी सत्य या सिद्धान्त को प्रमाणित करती है। यह कहते हुए मर्टिन रूथ चाइल्ड एक सवाल उठाते हैं कि आध्यात्मिक सिद्धान्तों को क्या किसी ने वैज्ञानिक शोध विधि के आधार पर परखने की कोशिश की है। यदि हाँ, तो फिर उनके शोध पत्रों पर सार्थक चर्चा होनी चाहिए। यदि नहीं तो फिर इन्हें किसी को अवैज्ञानिक कहने के क्या आधार हैं। इस तरह से तो अवैज्ञानिकता की बातें करना स्वयं ही अवैज्ञानिक है।
रूथ चाइल्ड अपनी इसी पुस्तक के एक अन्य हिस्से में कहते हैं कि इन दिनों आध्यात्मिक चिकित्सा की ध्यान आदि जो भी तकनीकें प्रयोग में लायी जा रही हैं, उनके परिणाम उत्साहवर्धक हैं। ये न केवल चिकित्सा जगत् के लिए बल्कि सम्पूर्ण मानवता के लिए कल्याणकारी हैं। योग और अध्यात्म की जो भी तकनीकें शारीरिक व मानसिक रोगों को ठीक करने के लिए प्रयोग में लायी जा रही हैं, उनके परिणाम किसी भी वैज्ञानिक को यह कहने पर विवश कर सकती हैं कि ‘स्प्रिचुयैलिटी इस द इन्टीग्रल साइन्स ऑफ द फ्यूचर’। यानि कि अध्यात्म भविष्य का सम्पूर्ण विज्ञान है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ ११६
इनमें से कुछ ने तो इस बिन्दु पर अपने विचारोत्तेजक निष्कर्ष भी प्रकाशित किए हैं। इन्हीं निष्कर्षों में से एक है, मर्टिन रूथ चाइल्ड की पुस्तक ‘स्प्रिचुयैलिटी एण्ड इट्स साइन्टिफिक डामेन्शन्स’ यानि कि आध्यात्मिकता और इसके वैज्ञानिक आयाम। मर्टिन रूथ चाइल्ड प्रख्यात् न्यूरोलॉजिस्ट हैं। उनके द्वारा किए शोध कार्यों को विज्ञान जगत् में सम्मानपूर्वक स्वीकार किया जाता है। उन्होंने अपनी पुस्तक में आध्यात्मिक दृष्टि, सिद्धान्त व प्रयोगों से सम्बन्धित कई महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं पर चर्चा की है। उनका कहना है, जो आध्यात्मिक सिद्धान्तों की वैज्ञानिकता पर बिना किसी प्रायोगिक निष्कर्षों के प्रश्र खड़ा करते हैं, उन्हें सबसे पहले अपने वैज्ञानिक होने की जाँच करनी चाहिए।
रूथ चाइल्ड का कहना है कि विज्ञान किसी पुस्तक या विषय का नाम नहीं है। यह एक विशिष्ट शोध विधि है। जो एक खास तरह से अध्ययन करके किसी सत्य या सिद्धान्त को प्रमाणित करती है। यह कहते हुए मर्टिन रूथ चाइल्ड एक सवाल उठाते हैं कि आध्यात्मिक सिद्धान्तों को क्या किसी ने वैज्ञानिक शोध विधि के आधार पर परखने की कोशिश की है। यदि हाँ, तो फिर उनके शोध पत्रों पर सार्थक चर्चा होनी चाहिए। यदि नहीं तो फिर इन्हें किसी को अवैज्ञानिक कहने के क्या आधार हैं। इस तरह से तो अवैज्ञानिकता की बातें करना स्वयं ही अवैज्ञानिक है।
रूथ चाइल्ड अपनी इसी पुस्तक के एक अन्य हिस्से में कहते हैं कि इन दिनों आध्यात्मिक चिकित्सा की ध्यान आदि जो भी तकनीकें प्रयोग में लायी जा रही हैं, उनके परिणाम उत्साहवर्धक हैं। ये न केवल चिकित्सा जगत् के लिए बल्कि सम्पूर्ण मानवता के लिए कल्याणकारी हैं। योग और अध्यात्म की जो भी तकनीकें शारीरिक व मानसिक रोगों को ठीक करने के लिए प्रयोग में लायी जा रही हैं, उनके परिणाम किसी भी वैज्ञानिक को यह कहने पर विवश कर सकती हैं कि ‘स्प्रिचुयैलिटी इस द इन्टीग्रल साइन्स ऑफ द फ्यूचर’। यानि कि अध्यात्म भविष्य का सम्पूर्ण विज्ञान है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ ११६
👉 गुरुवर की वाणी
★ छोटे-छोटे मकान, पुलों को मामूली ओवरसियर बना लेते हैं, पर जब बड़ा बांध बनाना होता है तो बड़े इंजीनियरों की आवश्यकता पड़ती है। मेजर आपरेशन छोटे अनुभवहीन डॉक्टरों के बस की बात नहीं। उसे सिद्धहस्त सर्जन ही करते हैं। समाज में मामूली गड़बड़ियां तो बार-बार होती, उठती रहती है। उनका सुधार कार्य सामान्य स्तर के सुधार ही कर लेते हैं, जब पाप अपनी सीमा का उल्लंघन कर देता है, मर्यादाएं टूटने लगती हैं, तो महासुधारक की आवश्यकता होती है, तब इस कार्य को महाकाल स्वयं करते हैं।
(प्रज्ञा अभियान-1983, जून)
◆ आज आदर्शवादिता कहने-सुनने भर की वस्तु रह गई है। उसका उपयोग कथा, प्रवचनों और स्वाध्याय-सत्संगों तक ही सीमित है। आदर्शों की दुहाई देने और प्रचलनों की लकीर पीटने से कुछ बनता नहीं। इन दिनों वैसा ही हो रहा है। अस्तु, दीपक तले अंधेरा होने जैसी उपहासास्पद स्थिति बन रही है। आवश्यकता इस बात की है कि सांस्कृतिक आदर्शों को व्यावहारिक जीवन में प्रवेश मिले। हम ऋषि परम्परा के अनुगामी हैं, उन नर वीरों की संतानें हैं, यह ध्यान में रखते हुए आदर्शों की प्रवंचना से बचा ही जाना चाहिए।
(वाङ्मय क्रमांक- 35, पेज-1.12)
■ इन दिनों सामाजिक प्रचलनों में अनैतिकता, मूढ़ मान्यता और अवांछनीयता की भरमार है। हमें उलटे को उलटा करके सीधा करने की नीति अपनानी चाहिए। इसके लिए नैतिक, बौद्धिक और समाजिक क्रान्ति आवश्यक अनुभव करें और उसे पूरा करने में कुछ उठा न रखें। आत्म-सुधार में तपस्वी, परिवार निर्माण में मनस्वी और समाज निर्माण में तेजस्वी की भूमिका निबाहें। अनीति के वातावरण में मूक-दर्शक बनकर न रहें। शौर्य, साहस के धनी बनें और अनीति उन्मूलन तथा उत्कृष्टता अभिवर्धन में प्रखर पराक्रम का परिचय दें।
(प्रज्ञा अभियान का दर्शन, स्वरूप-40)
★ 20 वीं सदी का अंत और 21 वीं सदी का आरम्भ युग सन्धि का ऐसा अवसर है, जिसे अभूतपूर्व कहा जा सकता है। शायद भविष्य में इसकी पुनरावृत्ति कभी न हो। अपने मतलब से मतलब रखने का आदिमकालीन सोच अब चल न सकेगा। इन दिनों महाविनाश एवं महासृजन आमने-सामने खड़े हैं। इनमें से एक का चयन सामूहिक मानवी चेतना को ही करना पड़ेगा। देखना इतना भर है कि इस परिवर्तन काल में युग शिल्पी की भूमिका संपादन के लिए श्रेय कौन पाता है?
(अखण्ड ज्योति-1988, सितम्बर)
(प्रज्ञा अभियान-1983, जून)
◆ आज आदर्शवादिता कहने-सुनने भर की वस्तु रह गई है। उसका उपयोग कथा, प्रवचनों और स्वाध्याय-सत्संगों तक ही सीमित है। आदर्शों की दुहाई देने और प्रचलनों की लकीर पीटने से कुछ बनता नहीं। इन दिनों वैसा ही हो रहा है। अस्तु, दीपक तले अंधेरा होने जैसी उपहासास्पद स्थिति बन रही है। आवश्यकता इस बात की है कि सांस्कृतिक आदर्शों को व्यावहारिक जीवन में प्रवेश मिले। हम ऋषि परम्परा के अनुगामी हैं, उन नर वीरों की संतानें हैं, यह ध्यान में रखते हुए आदर्शों की प्रवंचना से बचा ही जाना चाहिए।
(वाङ्मय क्रमांक- 35, पेज-1.12)
■ इन दिनों सामाजिक प्रचलनों में अनैतिकता, मूढ़ मान्यता और अवांछनीयता की भरमार है। हमें उलटे को उलटा करके सीधा करने की नीति अपनानी चाहिए। इसके लिए नैतिक, बौद्धिक और समाजिक क्रान्ति आवश्यक अनुभव करें और उसे पूरा करने में कुछ उठा न रखें। आत्म-सुधार में तपस्वी, परिवार निर्माण में मनस्वी और समाज निर्माण में तेजस्वी की भूमिका निबाहें। अनीति के वातावरण में मूक-दर्शक बनकर न रहें। शौर्य, साहस के धनी बनें और अनीति उन्मूलन तथा उत्कृष्टता अभिवर्धन में प्रखर पराक्रम का परिचय दें।
(प्रज्ञा अभियान का दर्शन, स्वरूप-40)
★ 20 वीं सदी का अंत और 21 वीं सदी का आरम्भ युग सन्धि का ऐसा अवसर है, जिसे अभूतपूर्व कहा जा सकता है। शायद भविष्य में इसकी पुनरावृत्ति कभी न हो। अपने मतलब से मतलब रखने का आदिमकालीन सोच अब चल न सकेगा। इन दिनों महाविनाश एवं महासृजन आमने-सामने खड़े हैं। इनमें से एक का चयन सामूहिक मानवी चेतना को ही करना पड़ेगा। देखना इतना भर है कि इस परिवर्तन काल में युग शिल्पी की भूमिका संपादन के लिए श्रेय कौन पाता है?
(अखण्ड ज्योति-1988, सितम्बर)
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