गुरुवार, 5 जनवरी 2017
👉 सतयुग की वापसी (अन्तिम भाग) 6 Jan
🌹 दानव का नहीं देव का वरण करें
🔴 दोष-घटनाओं को ही देखकर निश्चिंत नहीं हो जाना चाहिए। सोचना यह भी चाहिए कि यह अवांछनीयताओं का प्रवाह प्रचलन, जिस भावना क्षेत्र की विकृति के कारण उत्पन्न होता है, उस पर रोक थाम के लिए भी कुछ कारगर प्रयत्न किया जाए।
🔵 संवेदनाओं में करुणा का समावेश होने पर दूसरे भी अपने जैसे दीखने लगते हैं। कोई समझदारी के रहते, अपनों पर आक्रमण नहीं करता, अपनी हानि सहन नहीं करता। इसी प्रकार यदि वह आत्मभाव समूचे समाज तक विस्तृत हो सके तो किसी को भी हानि पहुँचाने, सताने की बात सोचते ही हाथ-पैर काँपने लगेंगे। अपने आपे को दैत्य स्तर का निष्ठुर बनाने के लिए ऐसा कोई व्यक्ति तैयार न होगा, जिसकी छाती में हृदय नाम की कोई चीज है। जिसने अपनी क्रिया को, विचारणा को मात्र मशीन नहीं बनाया होता, वरन् उनके साथ उस आत्मसत्ता का भी समावेश किया होता; तो आत्मीयता करुणा, सहकारिता और सेवा-साधना के लिए निरन्तर आकुल-व्याकुल रहती।
🔴 समस्याओं का तात्कालिक समाधान तो नशा पीकर बेसुध हो जाने पर भी हो सकता है। जब होश-हवास ही दुरुस्त नहीं, तो समस्या क्या? और उसका समाधान खोजने का क्या मतलब? पर जब मानवी गरिमा की गहराई तक उतरने की स्थिति बन पड़े तो फिर माता जैसा वात्सल्य हर आत्मा में उभर सकता है और हितसाधना के अतिरिक्त और कुछ सोचते बन ही नहीं पड़ता। तब उन उलझनों में से एक भी बच नहीं सकेगीं, जो आज हर किसी को उद्विग्न-आतंकित किए हुए हैं।
🔵 प्रस्तुत पुस्तक को ज्यादा से ज्यादा प्रचार-प्रसार कर अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाने एवं पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करने का अनुरोध है।
🔴 १९८८-९० तक लिखी पुस्तकें (क्रान्तिधर्मी साहित्य पुस्तकमाला) पू० गुरुदेव के जीवन का सार हैं- सारे जीवन का लेखा-जोखा हैं। १९४० से अब तक के साहित्य का सार हैं। इन्हें लागत मूल्य पर छपवाकर प्रचारित प्रसारित करने की सभी को छूट है। कोई कापीराइट नहीं है। प्रयुक्त आँकड़े उस समय के अनुसार है। इन्हें वर्तमान के अनुरूप संशोधित कर लेना चाहिए।
🌹 समाप्त
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🔴 दोष-घटनाओं को ही देखकर निश्चिंत नहीं हो जाना चाहिए। सोचना यह भी चाहिए कि यह अवांछनीयताओं का प्रवाह प्रचलन, जिस भावना क्षेत्र की विकृति के कारण उत्पन्न होता है, उस पर रोक थाम के लिए भी कुछ कारगर प्रयत्न किया जाए।
🔵 संवेदनाओं में करुणा का समावेश होने पर दूसरे भी अपने जैसे दीखने लगते हैं। कोई समझदारी के रहते, अपनों पर आक्रमण नहीं करता, अपनी हानि सहन नहीं करता। इसी प्रकार यदि वह आत्मभाव समूचे समाज तक विस्तृत हो सके तो किसी को भी हानि पहुँचाने, सताने की बात सोचते ही हाथ-पैर काँपने लगेंगे। अपने आपे को दैत्य स्तर का निष्ठुर बनाने के लिए ऐसा कोई व्यक्ति तैयार न होगा, जिसकी छाती में हृदय नाम की कोई चीज है। जिसने अपनी क्रिया को, विचारणा को मात्र मशीन नहीं बनाया होता, वरन् उनके साथ उस आत्मसत्ता का भी समावेश किया होता; तो आत्मीयता करुणा, सहकारिता और सेवा-साधना के लिए निरन्तर आकुल-व्याकुल रहती।
🔴 समस्याओं का तात्कालिक समाधान तो नशा पीकर बेसुध हो जाने पर भी हो सकता है। जब होश-हवास ही दुरुस्त नहीं, तो समस्या क्या? और उसका समाधान खोजने का क्या मतलब? पर जब मानवी गरिमा की गहराई तक उतरने की स्थिति बन पड़े तो फिर माता जैसा वात्सल्य हर आत्मा में उभर सकता है और हितसाधना के अतिरिक्त और कुछ सोचते बन ही नहीं पड़ता। तब उन उलझनों में से एक भी बच नहीं सकेगीं, जो आज हर किसी को उद्विग्न-आतंकित किए हुए हैं।
🔵 प्रस्तुत पुस्तक को ज्यादा से ज्यादा प्रचार-प्रसार कर अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाने एवं पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करने का अनुरोध है।
🔴 १९८८-९० तक लिखी पुस्तकें (क्रान्तिधर्मी साहित्य पुस्तकमाला) पू० गुरुदेव के जीवन का सार हैं- सारे जीवन का लेखा-जोखा हैं। १९४० से अब तक के साहित्य का सार हैं। इन्हें लागत मूल्य पर छपवाकर प्रचारित प्रसारित करने की सभी को छूट है। कोई कापीराइट नहीं है। प्रयुक्त आँकड़े उस समय के अनुसार है। इन्हें वर्तमान के अनुरूप संशोधित कर लेना चाहिए।
🌹 समाप्त
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
👉 गायत्री विषयक शंका समाधान (भाग 15) 6 Jan
🌹 गायत्री और यज्ञोपवीत
🔴 गायत्री-साधना के लिए यज्ञोपवीत धारण करना चाहिए, अथवा जो यज्ञोपवीत धारण करें वे ही गायत्री जपें, ऐसी चर्चाएं प्रायः चलती रहती हैं।
🔵 इस संदर्भ में इतना ही जानना पर्याप्त है कि यज्ञोपवीत गायत्री महामंत्र का प्रतीक है। उसके नौ धागों में, गायत्री मंत्र के नौ शब्दों में सन्निहित तत्वज्ञान भरा है। तीन लड़ें त्रिपदा गायत्री की तीन धाराओं का प्रतिनिधित्व करती हैं। तीन ग्रन्थियां तीन व्याहृतियां हैं। बड़ी ब्रह्मग्रन्थि को ऊंकार कहा गया है। इस प्रकार पूरा यज्ञोपवीत एक सूत का बना धर्मग्रन्थ है जिसको धारणकर्ता को मानवोचित रीति-नीति अपनाने का—अनुशासन सिखाने वाला अंकुश कह सकते हैं।
🔴 इसे कन्धे पर धारण करने का तात्पर्य है गायत्री में सन्निहित सदाशयता को स्वीकार करना और उसे अपनाने की तत्परता का परिचय देना। शिवरात्रि पर गंगाजल की कांवर कन्धे पर रखकर चलने और शिव प्रतिमा पर चढ़ाने का उत्तर भारत में बहुत प्रचलन है। श्रवणकुमार ने अपने माता-पिता को कन्धे पर बिठाकर तीर्थयात्रा कराई थी। गायत्री-माता का अनुशासन कन्धे पर धारण करना—अपनाना ही यज्ञोपवीत धारण है। प्रकारान्तर से इसे शरीर पर गायत्री की सूत निर्मित प्रतिमा को धारण करना भी कह सकते हैं।
🔵 देव प्रतिमा के सान्निध्य में उपासना करने का अधिक महत्व है। किन्तु यदि कहीं देवालय न हो तो भी उपासना करने में कोई निषेध नहीं है। इसी प्रकार यज्ञोपवीत धारण करते हुए गायत्री जप किया जाय तो देव प्रतिमा के सान्निध्य में की जाने वाली उपासना की तरह अधिक उत्तम है। पर यदि किसी कारणवश यज्ञोपवीत धारण करना न बन पड़े, तो भी इस उपासना के करने में किसी प्रकार की रोक-टोक या अड़चन नहीं है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🔴 गायत्री-साधना के लिए यज्ञोपवीत धारण करना चाहिए, अथवा जो यज्ञोपवीत धारण करें वे ही गायत्री जपें, ऐसी चर्चाएं प्रायः चलती रहती हैं।
🔵 इस संदर्भ में इतना ही जानना पर्याप्त है कि यज्ञोपवीत गायत्री महामंत्र का प्रतीक है। उसके नौ धागों में, गायत्री मंत्र के नौ शब्दों में सन्निहित तत्वज्ञान भरा है। तीन लड़ें त्रिपदा गायत्री की तीन धाराओं का प्रतिनिधित्व करती हैं। तीन ग्रन्थियां तीन व्याहृतियां हैं। बड़ी ब्रह्मग्रन्थि को ऊंकार कहा गया है। इस प्रकार पूरा यज्ञोपवीत एक सूत का बना धर्मग्रन्थ है जिसको धारणकर्ता को मानवोचित रीति-नीति अपनाने का—अनुशासन सिखाने वाला अंकुश कह सकते हैं।
🔴 इसे कन्धे पर धारण करने का तात्पर्य है गायत्री में सन्निहित सदाशयता को स्वीकार करना और उसे अपनाने की तत्परता का परिचय देना। शिवरात्रि पर गंगाजल की कांवर कन्धे पर रखकर चलने और शिव प्रतिमा पर चढ़ाने का उत्तर भारत में बहुत प्रचलन है। श्रवणकुमार ने अपने माता-पिता को कन्धे पर बिठाकर तीर्थयात्रा कराई थी। गायत्री-माता का अनुशासन कन्धे पर धारण करना—अपनाना ही यज्ञोपवीत धारण है। प्रकारान्तर से इसे शरीर पर गायत्री की सूत निर्मित प्रतिमा को धारण करना भी कह सकते हैं।
🔵 देव प्रतिमा के सान्निध्य में उपासना करने का अधिक महत्व है। किन्तु यदि कहीं देवालय न हो तो भी उपासना करने में कोई निषेध नहीं है। इसी प्रकार यज्ञोपवीत धारण करते हुए गायत्री जप किया जाय तो देव प्रतिमा के सान्निध्य में की जाने वाली उपासना की तरह अधिक उत्तम है। पर यदि किसी कारणवश यज्ञोपवीत धारण करना न बन पड़े, तो भी इस उपासना के करने में किसी प्रकार की रोक-टोक या अड़चन नहीं है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
👉 पराक्रम और पुरुषार्थ (भाग 9) 6 Jan
🌹 प्रतिकूलताएं वस्तुतः विकास में सहायक
🔵 अपनी शारीरिक कुरूपता के कारण सैमुअल जॉनसन को किसी भी विद्यालय में नौकरी नहीं मिल सकी। बचपन से साथ चली आ रही घोर विपन्नता ने पल्ला नहीं छोड़ा। नौकरी की आशा छोड़कर वह अध्ययन में लगे रहे। मेहनत मजदूरी करके वे अपना गुजारा करते रहे। कुछ ही समय बाद उनकी साधना ने चमत्कार दिखाया और एक विद्वान साहित्यकार के रूप में इंग्लैण्ड में ख्याति मिली।
🔴 जॉनसन का अंग्रेजी विश्व कोष आज भी एक अनुपम कृति माना जाता है। ऑक्सफोर्ड विश्व विद्यालय ने उनकी सेवाओं के लिए उन्हें ‘डॉक्टर’ की उपाधि प्रदान की। ‘टाम काका की कुटिया’ की प्रसिद्ध लेखिका हैरियट स्टो को परिवार का खर्च चलाने के लिए कठिन श्रम करना पड़ता था गरीबी और कठिनाइयों के बीच घिरे रहकर भी उन्होंने थोड़ा-थोड़ा समय निकालकर पुस्तक पूरी की। अन्तःप्रेरणा से अभिप्रेरित होकर लिखी गयी उनकी यह पुस्तक अमेरिका में गुलामी प्रथा के अन्त के लिए एक वरदान साबित हुई।
🔵 ये उदाहरण इस तथ्य के प्रमाण हैं कि सफलता के लिए परिस्थितियों का उतना महत्व नहीं है जितना कि स्वयं की मनःस्थिति का। आशावादी दृष्टिकोण, संकल्पों के प्रति दृढ़ता और आत्मविश्वास बना रहे तदनुरूप प्रयास पुरुषार्थ चल पड़े तो अभीष्ट लक्ष्य की प्राप्ति कर सकना हर किसी के लिए संभव है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌿🌞 🌿🌞 🌿🌞
🔵 अपनी शारीरिक कुरूपता के कारण सैमुअल जॉनसन को किसी भी विद्यालय में नौकरी नहीं मिल सकी। बचपन से साथ चली आ रही घोर विपन्नता ने पल्ला नहीं छोड़ा। नौकरी की आशा छोड़कर वह अध्ययन में लगे रहे। मेहनत मजदूरी करके वे अपना गुजारा करते रहे। कुछ ही समय बाद उनकी साधना ने चमत्कार दिखाया और एक विद्वान साहित्यकार के रूप में इंग्लैण्ड में ख्याति मिली।
🔴 जॉनसन का अंग्रेजी विश्व कोष आज भी एक अनुपम कृति माना जाता है। ऑक्सफोर्ड विश्व विद्यालय ने उनकी सेवाओं के लिए उन्हें ‘डॉक्टर’ की उपाधि प्रदान की। ‘टाम काका की कुटिया’ की प्रसिद्ध लेखिका हैरियट स्टो को परिवार का खर्च चलाने के लिए कठिन श्रम करना पड़ता था गरीबी और कठिनाइयों के बीच घिरे रहकर भी उन्होंने थोड़ा-थोड़ा समय निकालकर पुस्तक पूरी की। अन्तःप्रेरणा से अभिप्रेरित होकर लिखी गयी उनकी यह पुस्तक अमेरिका में गुलामी प्रथा के अन्त के लिए एक वरदान साबित हुई।
🔵 ये उदाहरण इस तथ्य के प्रमाण हैं कि सफलता के लिए परिस्थितियों का उतना महत्व नहीं है जितना कि स्वयं की मनःस्थिति का। आशावादी दृष्टिकोण, संकल्पों के प्रति दृढ़ता और आत्मविश्वास बना रहे तदनुरूप प्रयास पुरुषार्थ चल पड़े तो अभीष्ट लक्ष्य की प्राप्ति कर सकना हर किसी के लिए संभव है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌿🌞 🌿🌞 🌿🌞
👉 हमारी युग निर्माण योजना (भाग 63)
🌹 युग-निर्माण की आध्यात्मिक पृष्ठभूमि
🔴 97. समय-दान यज्ञ— प्रत्येक विचारशील व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह दूसरों को विचारशील बनाने के लिए—युग-निर्माण की भावनाओं को अपने तक ही सीमित न रखकर दूसरों तक पहुंचाने के लिए नियमित रूप से कुछ समय दान करे। जन सम्पर्क के लिए समय निकाले। मित्रों, स्वजन सम्बन्धियों रिश्तेदारों एवं परिचितों से, अपरिचितों से सम्पर्क बनाने के लिये नियमित रूप से उनके घर जाय, अपने विषय की पुस्तकें उन्हें पढ़ने को दें तथा अपने मिशन की चर्चा करें। इस प्रकार अपने सम्पर्क क्षेत्र में प्रकाश फैलाने के लिये अपने समय का एक अंश परमार्थ कार्यों में उसी तरह लगाते रहना चाहिए जिस तरह अन्य दैनिक आवश्यक कार्यों के लिये लगाते रहते हैं।
🔵 98. आत्म चिन्तन और सत्संकल्प— युग-निर्माण का सत्संकल्प हमें नित्य प्रातः उठते समय और रात को सोते समय पढ़ना चाहिये। उसके अनुसार जीवन ढालना चाहिये। सोते समय दिन भर के कामों का लेखा-जोखा लेना चाहिये और जो भूलें उस दिन हुई हों वे दूसरे दिन न होने पावें ऐसा प्रयत्न करना चाहिये। जीवन को दिन-दिन शुद्ध करते रहा जाय।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🔴 97. समय-दान यज्ञ— प्रत्येक विचारशील व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह दूसरों को विचारशील बनाने के लिए—युग-निर्माण की भावनाओं को अपने तक ही सीमित न रखकर दूसरों तक पहुंचाने के लिए नियमित रूप से कुछ समय दान करे। जन सम्पर्क के लिए समय निकाले। मित्रों, स्वजन सम्बन्धियों रिश्तेदारों एवं परिचितों से, अपरिचितों से सम्पर्क बनाने के लिये नियमित रूप से उनके घर जाय, अपने विषय की पुस्तकें उन्हें पढ़ने को दें तथा अपने मिशन की चर्चा करें। इस प्रकार अपने सम्पर्क क्षेत्र में प्रकाश फैलाने के लिये अपने समय का एक अंश परमार्थ कार्यों में उसी तरह लगाते रहना चाहिए जिस तरह अन्य दैनिक आवश्यक कार्यों के लिये लगाते रहते हैं।
🔵 98. आत्म चिन्तन और सत्संकल्प— युग-निर्माण का सत्संकल्प हमें नित्य प्रातः उठते समय और रात को सोते समय पढ़ना चाहिये। उसके अनुसार जीवन ढालना चाहिये। सोते समय दिन भर के कामों का लेखा-जोखा लेना चाहिये और जो भूलें उस दिन हुई हों वे दूसरे दिन न होने पावें ऐसा प्रयत्न करना चाहिये। जीवन को दिन-दिन शुद्ध करते रहा जाय।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
👉 हमारी वसीयत और विरासत (भाग 15)
🌞 जीवन के सौभाग्य का सूर्योदय
🔴 आज याद आता है कि जिस सिद्ध पुरुष-अंशधर ने हमारी पंद्रह वर्ष की आयु में घर पधार कर पूजा की कोठरी में प्रकाश रूप में दर्शन दिया था, उनका दर्शन करते ही मन ही मन तत्काल अनेक प्रश्न सहसा उठ खड़े हुए थे। सद्गुरुओं की तलाश में आमतौर से जिज्ञासु गण मारे-मारे फिरते हैं। जिस-तिस से पूछते हैं। कोई कामना होती है, तो उसकी पूर्ति के वरदान माँगते हैं, पर अपने साथ जो घटित हो रहा था, वह उसके सर्वथा विपरीत था। महामना मालवीय जी से गायत्री मंत्र की दीक्षा पिताजी ने आठ वर्ष की आयु में ही दिलवा दी थी। उसी को प्राण दीक्षा बताया गया था। गुरु वरण होने की बात भी वहीं समाप्त हो गई थी और किसी गुरु प्राप्त होने की कभी कल्पना भी नहीं उठी। फिर अनायास ही वह लाभ कैसे मिला, जिसके सम्बन्ध में अनेक किंवदंतियाँ सुनकर हमें भी आश्चर्यचकित होना पड़ा है।
🔵 शिष्य गुरुओं की खोज में रहते हैं। मनुहार करते हैं। कभी उनकी अनुकम्पा भेंट-दर्शन हो जाए, तो अपने को धन्य मानते हैं। उनसे कुछ प्राप्त करने की आकाँक्षा रखते हैं। फिर क्या कारण है कि मुझे अनायास ही ऐसे सिद्ध पुरुष का अनुग्रह प्राप्त हुआ? यह कोई छद्म तो नहीं है? अदृश्य में प्रकटीकरण की बात भूत-प्रेत से सम्बंधित सुनी जातीं हैं और उनसे भेंट होना किसी अशुभ अनिष्ट का निमित्त कारण माना जाता है। दर्शन होने के उपरान्त मन में यही संकल्प उठने लगे। संदेह उठा, किसी विपत्ति में फँसने जैसा कोई अशुभ तो पीछे नहीं पड़ा।
🔴 मेरे इस असमंजस को उन्होंने जाना। रुष्ट नहीं हुए। वरन् वस्तु स्थिति को जानने के उपरान्त किसी निष्कर्ष पर पहुँचने और बाद में कदम उठाने की बात उन्हें पसंद आई। यह बात उनकी प्रसन्न मुख-मुद्रा को देखने से स्पष्ट झलकती थी। कारण पूछने में समय नष्ट करने के स्थान पर उन्हें यह अच्छा लगा कि अपना परिचय, आने का कारण और मुझे पूर्व जन्म की स्मृति दिलाकर विशेष प्रयोजन निमित्त चुनने का हेतु स्वतः ही समझा दें। कोई घर आता है, तो उसका परिचय और आगमन का निमित्त कारण पूछने का लोक व्यवहार भी है। फिर कोई वजनदार आगंतुक जिसके घर आते हैं, उसका भी वजन तोलते हैं। अकारण हल्के और ओछे आदमी के यहाँ जा पहुँचना उनका महत्त्व भी घटाता है और किसी तर्क बुद्धि वाले के मन में ऐसा कुछ घटित होने के पीछे कोई कारण न होने की बात पर संदेह होता है और आश्चर्य भी।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/hari/jivana.1
🔴 आज याद आता है कि जिस सिद्ध पुरुष-अंशधर ने हमारी पंद्रह वर्ष की आयु में घर पधार कर पूजा की कोठरी में प्रकाश रूप में दर्शन दिया था, उनका दर्शन करते ही मन ही मन तत्काल अनेक प्रश्न सहसा उठ खड़े हुए थे। सद्गुरुओं की तलाश में आमतौर से जिज्ञासु गण मारे-मारे फिरते हैं। जिस-तिस से पूछते हैं। कोई कामना होती है, तो उसकी पूर्ति के वरदान माँगते हैं, पर अपने साथ जो घटित हो रहा था, वह उसके सर्वथा विपरीत था। महामना मालवीय जी से गायत्री मंत्र की दीक्षा पिताजी ने आठ वर्ष की आयु में ही दिलवा दी थी। उसी को प्राण दीक्षा बताया गया था। गुरु वरण होने की बात भी वहीं समाप्त हो गई थी और किसी गुरु प्राप्त होने की कभी कल्पना भी नहीं उठी। फिर अनायास ही वह लाभ कैसे मिला, जिसके सम्बन्ध में अनेक किंवदंतियाँ सुनकर हमें भी आश्चर्यचकित होना पड़ा है।
🔵 शिष्य गुरुओं की खोज में रहते हैं। मनुहार करते हैं। कभी उनकी अनुकम्पा भेंट-दर्शन हो जाए, तो अपने को धन्य मानते हैं। उनसे कुछ प्राप्त करने की आकाँक्षा रखते हैं। फिर क्या कारण है कि मुझे अनायास ही ऐसे सिद्ध पुरुष का अनुग्रह प्राप्त हुआ? यह कोई छद्म तो नहीं है? अदृश्य में प्रकटीकरण की बात भूत-प्रेत से सम्बंधित सुनी जातीं हैं और उनसे भेंट होना किसी अशुभ अनिष्ट का निमित्त कारण माना जाता है। दर्शन होने के उपरान्त मन में यही संकल्प उठने लगे। संदेह उठा, किसी विपत्ति में फँसने जैसा कोई अशुभ तो पीछे नहीं पड़ा।
🔴 मेरे इस असमंजस को उन्होंने जाना। रुष्ट नहीं हुए। वरन् वस्तु स्थिति को जानने के उपरान्त किसी निष्कर्ष पर पहुँचने और बाद में कदम उठाने की बात उन्हें पसंद आई। यह बात उनकी प्रसन्न मुख-मुद्रा को देखने से स्पष्ट झलकती थी। कारण पूछने में समय नष्ट करने के स्थान पर उन्हें यह अच्छा लगा कि अपना परिचय, आने का कारण और मुझे पूर्व जन्म की स्मृति दिलाकर विशेष प्रयोजन निमित्त चुनने का हेतु स्वतः ही समझा दें। कोई घर आता है, तो उसका परिचय और आगमन का निमित्त कारण पूछने का लोक व्यवहार भी है। फिर कोई वजनदार आगंतुक जिसके घर आते हैं, उसका भी वजन तोलते हैं। अकारण हल्के और ओछे आदमी के यहाँ जा पहुँचना उनका महत्त्व भी घटाता है और किसी तर्क बुद्धि वाले के मन में ऐसा कुछ घटित होने के पीछे कोई कारण न होने की बात पर संदेह होता है और आश्चर्य भी।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/hari/jivana.1
👉 "सुनसान के सहचर" (भाग 15)
🌞 हिमालय में प्रवेश
पीली मक्खियाँ
🔵 आज हम लोग सघन वन में होकर चुपचाप चले जा रहे थे, तो सेव के पेड़ों पर भिनभिनाती फिरने वाली पीली मक्खियाँ हम लोगों पर टूट पड़ी बुरी तरह चिपट गईं, छुटाने से भी न छूटती थीं। हाथों से, कपड़ों से उन्हें हटाया भी, भागे भी, पर उन्होंने देर तक पीछा किया। किसी प्रकार गिरते-पड़ते लगभग आधा मील आगे निकल गये, तब उनसे पीछा छूटा। उनके जहरीले डंक जहाँ लगे थे, सूजन आ गई, दर्द भी होता रहा।
🔴 सोचता हूँ इन मक्खियों को इस प्रकार आक्रमण करने की क्यों सूझी, क्या इनको इसमें कुछ मिल गया है, हमें सताकर इनने क्या पाया? लगता है। यह मक्खियाँ सोचती होंगी कि यह वनप्रदेश हमारा है, हमें यहाँ रहना चाहिए। हमारे लिए यह सुरक्षित प्रदेश रहे, कोई दूसरा इधर पदार्पण न करे। उनकी अपनी भावना के विपरीत हमें उधर से गुजरते देखा कि यह हमारे प्रदेश में हस्तक्षेप करते हैं हमारे अधिकार क्षेत्र में अपना अधिकार चलाते हैं। हमारे उधर से गुजरने को सम्भव है, उनने ढीठता समझा हो और अपने बल एवं दर्प का प्रदर्शन करने एवं हस्तक्षेप का मजा चखाने के लिए आक्रमण किया हो।
🔵 यदि ऐसी ही बात है, तो इन मक्खियों की मूर्खता थी। वह वन तो ईश्वर का बनाया हुआ था, कुछ उनने स्वयं थोड़े ही बनाया था। उन्हें तो पेडो़ं पर रहकर अपनी गुजर- बसर करनी चाहिए थी। सारे प्रदेश पर कब्जा करने की उनकी लालसा व्यर्थ थी, क्योंकि वे इतने बड़े प्रदेश का आखिर करतीं क्या? फिर उन्हें सोचना चाहिए था कि यह साझे की दुनियाँ है, सभी लोग उसका मिल- जुलकर उपयोग करें, तो ही ठीक है। यदि हम लोग उधर से निकल रहे थे, उस वनश्री की छाया- शोभा और सुगन्ध का लाभ उठा रहे थे, तो थोड़ा भी उठा लेने- देने की सहिष्णुता रखतीं। उनने अनुदारता करके हमें काटा सताया अपने डंक खोये, कोई- कोई तो इस झंझट में कुचल भी गयी घायल भी हुईं और मर भी गईं। वे क्रोध और गर्व न दिखाती तो क्यों उन्हें व्यर्थ की हानि उठानी पड़ती और क्यों हम सबकी दृष्टि में मूर्ख और स्वार्थी सिद्ध होतीं। हर दृष्टि से इस आक्रमण और अधिकार लिप्सा में मुझे कोई बुद्धिमानी दिखाई न दी, यह '' पीली मक्खियाँ '' सचमुच ही ठीक शब्द था।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books/sunsaan_ke_shachar/himalaya%20_me_pravesh/pili_makhiya
पीली मक्खियाँ
🔵 आज हम लोग सघन वन में होकर चुपचाप चले जा रहे थे, तो सेव के पेड़ों पर भिनभिनाती फिरने वाली पीली मक्खियाँ हम लोगों पर टूट पड़ी बुरी तरह चिपट गईं, छुटाने से भी न छूटती थीं। हाथों से, कपड़ों से उन्हें हटाया भी, भागे भी, पर उन्होंने देर तक पीछा किया। किसी प्रकार गिरते-पड़ते लगभग आधा मील आगे निकल गये, तब उनसे पीछा छूटा। उनके जहरीले डंक जहाँ लगे थे, सूजन आ गई, दर्द भी होता रहा।
🔴 सोचता हूँ इन मक्खियों को इस प्रकार आक्रमण करने की क्यों सूझी, क्या इनको इसमें कुछ मिल गया है, हमें सताकर इनने क्या पाया? लगता है। यह मक्खियाँ सोचती होंगी कि यह वनप्रदेश हमारा है, हमें यहाँ रहना चाहिए। हमारे लिए यह सुरक्षित प्रदेश रहे, कोई दूसरा इधर पदार्पण न करे। उनकी अपनी भावना के विपरीत हमें उधर से गुजरते देखा कि यह हमारे प्रदेश में हस्तक्षेप करते हैं हमारे अधिकार क्षेत्र में अपना अधिकार चलाते हैं। हमारे उधर से गुजरने को सम्भव है, उनने ढीठता समझा हो और अपने बल एवं दर्प का प्रदर्शन करने एवं हस्तक्षेप का मजा चखाने के लिए आक्रमण किया हो।
🔵 यदि ऐसी ही बात है, तो इन मक्खियों की मूर्खता थी। वह वन तो ईश्वर का बनाया हुआ था, कुछ उनने स्वयं थोड़े ही बनाया था। उन्हें तो पेडो़ं पर रहकर अपनी गुजर- बसर करनी चाहिए थी। सारे प्रदेश पर कब्जा करने की उनकी लालसा व्यर्थ थी, क्योंकि वे इतने बड़े प्रदेश का आखिर करतीं क्या? फिर उन्हें सोचना चाहिए था कि यह साझे की दुनियाँ है, सभी लोग उसका मिल- जुलकर उपयोग करें, तो ही ठीक है। यदि हम लोग उधर से निकल रहे थे, उस वनश्री की छाया- शोभा और सुगन्ध का लाभ उठा रहे थे, तो थोड़ा भी उठा लेने- देने की सहिष्णुता रखतीं। उनने अनुदारता करके हमें काटा सताया अपने डंक खोये, कोई- कोई तो इस झंझट में कुचल भी गयी घायल भी हुईं और मर भी गईं। वे क्रोध और गर्व न दिखाती तो क्यों उन्हें व्यर्थ की हानि उठानी पड़ती और क्यों हम सबकी दृष्टि में मूर्ख और स्वार्थी सिद्ध होतीं। हर दृष्टि से इस आक्रमण और अधिकार लिप्सा में मुझे कोई बुद्धिमानी दिखाई न दी, यह '' पीली मक्खियाँ '' सचमुच ही ठीक शब्द था।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books/sunsaan_ke_shachar/himalaya%20_me_pravesh/pili_makhiya
👉 गुरु गोबिंद सिंह जी : जयंती विशेष
जन्म नाम – गोबिंद राय सोधी
जन्म – 22 दिसम्बर, 1666, पटना साहिब, भारत
माता पिता – माता गुजरी, गुरु तेग बहादुर
पूर्ववर्ती गुरु – गुरु तेग बहादुर
उत्तराधिकारी गुरु – गुरु ग्रन्थ साहिब
पत्नियों के नाम – माता जीतो, माता सुंदरी, माता साहिब देवन
बच्चों के नाम – अजित सिंह, जुझार सिंह, जोरावर सिंह, फ़तेह सिंह
मृत्यु – 7 अक्टूबर, 1708 हजुर साहिब नांदेड, भारत
गोबिंद सिंह अपने पिता गुरु तेग बहादुर और माता गुजरी के एक मात्र पुत्र थे। उनका जन्म 22 दिसम्बर, 1666, को पटना साहिब, बिहार, भारत में हुआ था। उनके जन्म के समय उनके पिता बंगाल और असम में धर्म उपदेश देने के लिए गए हुए थे। उनका जन्म नाम गोबिंद राय रखा गया था। उनके जन्म के बाद वे पटना में वे चार वर्ष तक रहे और उनके जन्म स्थान घर का नाम “तख़्त श्री पटना हरिमंदर साहिब” के नाम से आज जाना जाता है।
अपनी मृत्यु से पहले ही तेग बहादुर ने गुरु गोबिंद जी को अपना उत्तराधिकारी नाम घोषित कर दिया था। बाद में मार्च 29, 1676 में गोबिंद सिंह 10वें सिख गुरु बन गए। यमुना नदी के किनारे एक शिविर में रह कर गुरु गोबिंद जी ने मार्शल आर्ट्स, शिकार, साहित्य और भाषाएँ जैसे संस्कृत, फारसी, मुग़ल, पंजाबी, तथा ब्रज भाषा भी सीखीं।
गुरु गोबिंद सिंह की तीन पत्नियाँ थी –
21 जून, 1677 को 10 साल की उम्र में उनका विवाह माता जीतो के साथ आनंदपुर से 10 किलोमीटर दूर बसंतगढ़ में किया गया। उन दोनों के 3 लड़के हुए जिनके नाम थे – जुझार सिंह, जोरावर सिंह, फ़तेह सिंह।
4 अप्रैल, 1684 को 17 वर्ष की आयु में उनका दूसरा विवाह माता सुंदरी के साथ आनंदपुर में हुआ। उनका एक बेटा हुआ जिसका नाम था अजित सिंह।
15 अप्रैल, 1700 को 33 वर्ष की आयु में उन्होंने माता साहिब देवन से विवाह किया। वैसे तो उनका कोई संतान नहीं था पर सिख धर्म के पन्नों पर उनका दौर भी बहुत ही प्रभावशाली रहा।
खालसा (Khalsa) की स्थापना
गुरु गोबिंद सिंह जी का नेतृत्व सिख समुदाय के इतिहास में बहुत कुछ नया सा लेकर आया। धर्म एवं समाज की रक्षा हेतु ही गुरु गोबिंद सिंह जी ने 1699 ई. में खालसा पंथ की स्थापना की। पाँच प्यारे बनाकर उन्हें गुरु का दर्जा देकर स्वयं उनके शिष्य बन जाते हैं और कहते हैं-जहाँ पाँच सिख इकट्ठे होंगे, वहीं मैं निवास करूँगा। उन्होंने सभी जातियों के भेद-भाव को समाप्त करके समानता स्थापित की और उनमें आत्म-सम्मान की भावना भी पैदा की।
जन्म – 22 दिसम्बर, 1666, पटना साहिब, भारत
माता पिता – माता गुजरी, गुरु तेग बहादुर
पूर्ववर्ती गुरु – गुरु तेग बहादुर
उत्तराधिकारी गुरु – गुरु ग्रन्थ साहिब
पत्नियों के नाम – माता जीतो, माता सुंदरी, माता साहिब देवन
बच्चों के नाम – अजित सिंह, जुझार सिंह, जोरावर सिंह, फ़तेह सिंह
मृत्यु – 7 अक्टूबर, 1708 हजुर साहिब नांदेड, भारत
गोबिंद सिंह अपने पिता गुरु तेग बहादुर और माता गुजरी के एक मात्र पुत्र थे। उनका जन्म 22 दिसम्बर, 1666, को पटना साहिब, बिहार, भारत में हुआ था। उनके जन्म के समय उनके पिता बंगाल और असम में धर्म उपदेश देने के लिए गए हुए थे। उनका जन्म नाम गोबिंद राय रखा गया था। उनके जन्म के बाद वे पटना में वे चार वर्ष तक रहे और उनके जन्म स्थान घर का नाम “तख़्त श्री पटना हरिमंदर साहिब” के नाम से आज जाना जाता है।
अपनी मृत्यु से पहले ही तेग बहादुर ने गुरु गोबिंद जी को अपना उत्तराधिकारी नाम घोषित कर दिया था। बाद में मार्च 29, 1676 में गोबिंद सिंह 10वें सिख गुरु बन गए। यमुना नदी के किनारे एक शिविर में रह कर गुरु गोबिंद जी ने मार्शल आर्ट्स, शिकार, साहित्य और भाषाएँ जैसे संस्कृत, फारसी, मुग़ल, पंजाबी, तथा ब्रज भाषा भी सीखीं।
गुरु गोबिंद सिंह की तीन पत्नियाँ थी –
21 जून, 1677 को 10 साल की उम्र में उनका विवाह माता जीतो के साथ आनंदपुर से 10 किलोमीटर दूर बसंतगढ़ में किया गया। उन दोनों के 3 लड़के हुए जिनके नाम थे – जुझार सिंह, जोरावर सिंह, फ़तेह सिंह।
4 अप्रैल, 1684 को 17 वर्ष की आयु में उनका दूसरा विवाह माता सुंदरी के साथ आनंदपुर में हुआ। उनका एक बेटा हुआ जिसका नाम था अजित सिंह।
15 अप्रैल, 1700 को 33 वर्ष की आयु में उन्होंने माता साहिब देवन से विवाह किया। वैसे तो उनका कोई संतान नहीं था पर सिख धर्म के पन्नों पर उनका दौर भी बहुत ही प्रभावशाली रहा।
खालसा (Khalsa) की स्थापना
गुरु गोबिंद सिंह जी का नेतृत्व सिख समुदाय के इतिहास में बहुत कुछ नया सा लेकर आया। धर्म एवं समाज की रक्षा हेतु ही गुरु गोबिंद सिंह जी ने 1699 ई. में खालसा पंथ की स्थापना की। पाँच प्यारे बनाकर उन्हें गुरु का दर्जा देकर स्वयं उनके शिष्य बन जाते हैं और कहते हैं-जहाँ पाँच सिख इकट्ठे होंगे, वहीं मैं निवास करूँगा। उन्होंने सभी जातियों के भेद-भाव को समाप्त करके समानता स्थापित की और उनमें आत्म-सम्मान की भावना भी पैदा की।
सदस्यता लें
संदेश (Atom)
👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Sep 2024
All World Gayatri Pariwar Official Social Media Platform > 👉 शांतिकुंज हरिद्वार के प्रेरणादायक वीडियो देखने के लिए Youtube Channel `S...